हठरत्नावली

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हठरत्नावली हठयोग विषयक संस्कृत ग्रन्थ है जिसकी रचना १७वीं शताब्दी में श्रीनिवास भट्ट (श्रीनिवास योगी) ने की थी। इसे 'हठयोगरत्नसारणी' भी कहते हैं। 1982 में एम. वेंकट रेड्डी ने हठरत्नावली को पहली बार समालोचनात्मक रूप से संपादित और प्रकाशित किया था।[१] श्रीनिवास भट्ट को निस्संदेह हठयोग के ग्रंथों में अद्वितीय स्थान रखने वाले हठप्रदीपिका जैसे पूर्ववर्ती ग्रंथों से प्रेरणा प्राप्त हुई है। प्रथम दृष्ट्या ऐसा लगता है कि श्री स्वान्याराम कृत हठयोगप्रदीपिका के श्लोकों को ही अधिकांशतः पुनः प्रेषित कर दिया गया है किन्तु सूक्ष्म रूप से देखने पर ज्ञात होता है कि इसमें बहुत सी अभ्यासपरक विशिष्ट बातें हैं। इस ग्रन्थ में वज्रोली और खेचरी मुद्रा का विशेष वर्णन है।

हठरत्नावली ८४ आसनों का नाम और विवरण देने वाले कुछ ग्रन्थों में अग्रणी ग्रन्थ है। पहले के ग्रन्थों में ८४ आसनों का उल्लेख तो मिलता है, किन्तु उनके नाम नहीं मिलते। हठरत्नावली के अनुसार आसन, प्राणायाम और मुद्राओं के द्वारा हठयोग में सहायता मिलती है। इस ग्रन्थ में ८ षट्कर्म गिनाए गए हैं और हठयोगप्रदीपिका की इस बात के लिए आलोचना की गयी है कि उसमें केवल छः षट्कर्म गिनाए गए हैं। योगचिन्तामणि नामक एक और हठयोग ग्रन्थ में ८४ आसनों के नाम मिलते हैं। [२]

हठयोगरत्नावली चार उपदेशों (अध्यायों) में विभाजित है-

प्रथमोपदेश : मंत्रयोग, लययोग, राजयोग और हठयोग, महायोग के अन्तर्गत वर्णित हैं। सामान्यतः छह के स्थान पर इसमें शुद्धि की आठ प्रक्रियाएँ (अष्टकर्म ) वर्णित हैं। ये वसा और विषाक्त पदार्थों को ही नहीं, वरन् चक्र को भी शुद्ध करते हैं।

द्वितीयोपदेश : नौ कुंभकों का विस्तृत वर्णन दिया गया है, आठ के अतिरिक्त नौवां कुम्भक 'भुजंगीकरण कुम्भक' है।

तृतीयोपदेश : इस अध्याय में हमें चौरासी आसनों की पूरी सूची और विवरण मिलता है।

चतुर्थोपदेश : नादानुसन्धान के साथ-साथ इस अध्याय में समाधि के बारे में वर्णन है। आरम्भ, घट, परिकाय और निष्पति जैसी हठ की चार प्रगतिशील स्थितियाँ इस अध्याय की विषय-वस्तु है।

इसकी विशेषता है इसकी स्पष्ट भाषा-शैली, जो एक आम पाठक के लिए सहज ग्राह्य है।

सन्दर्भ

बाहरी कड़ियाँ