स्वस्थवृत्त

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आयुर्वेद में, स्वस्थवृत्त के अन्तर्गत देश, काल, ऋतु और प्रकृति के अनुरूप आहार-विहार का वर्णन किया गया है। स्वस्थ मनुष्य के स्वास्थ्य की रक्षा करना तथा देश, काल, ऋतु प्रकृति के अनुसार उसके सम्यक् आहार-विहार का उपदेश करना स्वस्थवृत्त का प्रयोजन है। आयुर्वेद में दिन और रात्रि तथा विभिन्न ऋतुओं के आचरण (आहार-विहार) का उल्लेख किया गया है, जिसे स्वस्थवृत्त के नाम से जाना जाता है। इस स्वस्थवृत्त को दिनचर्या (दिन और रात में सेवन करने योग्य व न सेवन करने योग्य (आहार-विहार) और ऋतुचर्या - (ऋतुओं में सेवनीय व निषिद्ध आहार-विहार), इन दो भागों में बाँटा गया है। इनके अनुसार आचरण करने से जहाँ स्वास्थ्य की रक्षा होती है, वहीं रोगों के अक्रमन से भी बचा जा सकता है।

दिन के अलग-अलग समय तथा वर्ष की अलग-अलग ऋतुओं में अलग-अलग दोषों (वात, पित्त, कफ) का संचय, प्रकोप और शमन स्वाभाविक रूप से होता रहता है। देश, काल, ऋतु और अपनी प्रकृति के अनुसार आहार-विहार करने से तीनों दोष प्राकृत अवस्था में (सम) बने रहते हैं। अग्नि भी सम बनी रहती है तथा मल (स्वेद-मूत्र-पूरीष) की क्रिया भी सम रहती है। अर्थात् मलादि का निष्कासन उचित समय तथा उचित मात्रा में होता है, तथा इन्द्रियाँ मन और आत्मा प्रसन्न रहते है। इस प्रकार शरीर में किसी भी प्रकार की विषम स्थिति नहीं होती है तथा मनुष्य के शरीर की सभी क्रियाएं प्राकृत रूप में होती रहती हैं तथा शरीर में विकार उत्पन्न नहीं होते। मनुष्य सदैव स्वस्थ ही रहता है।

सन्दर्भ

इन्हें भी देखें