सौन्दर्यशास्त्र

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प्रकृति में सर्वत्र सौन्दर्य विद्यमान है।

सौंदर्यशास्त्र संवेदनात्मक-भावनात्मक गुण-धर्म और मूल्यों का अध्ययन है। कला, संस्कृति और प्रकृति का प्रतिअंकन ही सौंदर्यशास्त्र है। सौंदर्यशास्त्र, दर्शनशास्त्र का एक अंग है। इसे सौन्दर्य मीमांसा तथा आनन्द मीमांसा भी कहते हैं।

सौन्दर्यशास्त्र वह शास्त्र है जिसमें कलात्मक कृतियों, रचनाओं आदि से अभिव्यक्त होने वाला अथवा उनमें निहित रहने वाले सौंदर्य का तात्विक, दार्शनिक और मार्मिक विवेचन होता है। किसी सुंदर वस्तु को देखकर हमारे मन में जो आनन्ददायिनी अनुभूति होती है उसके स्वभाव और स्वरूप का विवेचन तथा जीवन की अन्यान्य अनुभूतियों के साथ उसका समन्वय स्थापित करना इनका मुख्य उद्देश्य होता है।

परिचय

सौंदर्यशास्त्र दर्शन की एक शाखा है जिसके तहत कला, साहित्य और सुन्दरता से संबंधित प्रश्नों का विवेचन किया जाता है। ज्ञान के दायरे से भिन्न इंद्रिय-बोध द्वारा प्राप्त होने वाले तात्पर्यों के लिए यूनानी भाषा में 'एस्तेतिको' शब्द है जिससे 'एस्थेटिक्स' की व्युत्पत्ति हुई। प्रकृति, कला और साहित्य से संबंधित क्लासिकल सौंदर्यशास्त्रीय दृष्टिकोण विकसित हुआ। यह नज़रिया केवल कृति की सुन्दरता और कला-रूप से ही अपना सरोकार रखते हुए उसके राजनीतिक और संदर्भगत आयामों को विमर्श के दायरे से बाहर रखता है। लेकिन कला और साहित्य विवेचना की कुछ ऐसी विधियाँ भी हैं जो कृतियों के तात्पर्य और उनकी रचना-प्रक्रिया के सामाजिक और ऐतिहासिक पहलुओं से संवाद स्थापित करती हैं। मार्क्सवादी सौंदर्यशास्त्र एक ऐसा ही विमर्श है।

प्राचीन यूनानी दर्शन में प्लेटो की रचना हिप्पियाज़ मेजर में सौंदर्य की अवधारणा पर चर्चा मिलती है। नाटक की दुखांत शैली पर अरस्तू द्वारा अपनी रचना पोइटिक्स में किये गये विचार ने कला-आलोचना को लम्बे अरसे तक प्रभावित किया है। कला और सौंदर्य पर हुए ग़ैर-पश्चिमी प्राचीन चिंतन के संदर्भ में भारत के नाट्यशास्त्र, अभिनवगुप्त के रस-सिद्धांत और चीनी विद्वान चेंग यिन-युवान की रचना ली-ताई मिंग-हुआ ची (रिकॉर्ड ऑफ़ फ़ेमस पेंटिंग्ज़) द्वारा प्रस्तुत अनूठे और विस्तृत विमर्शों का लोहा पश्चिमी जगत में भी माना जाता है। कला-अनुशीलन की इस परम्परा की व्याख्या करने के ग़ैर-पश्चिमी मानक अभी तक नहीं बन पाये हैं और पश्चिमी मानकों के ज़रिये की गयी व्याख्याओं के नतीजे असंतोषजनक निकले हैं।

कोणार्क का सूर्य मंदिर

पश्चिमी विचार-जगत में एक दार्शनिक गतिविधि के तौर पर सौंदर्यशास्त्र की पृथक संकल्पना अट्ठारहवीं सदी में उभरी जब कला-कृतियों का अनुशीलन हस्त-शिल्प से अलग करके किया जाने लगा। इसका नतीजा सिद्धांतकारों द्वारा ललित कला की अवधारणा के सूत्रीकरण में निकला। अलेक्सांदेर गोत्तलीब बॉमगारतेन ने 1750 में एस्थेटिका लिख कर एक बहस का सूत्रपात किया। इसके सात साल बाद डेविड ह्यूम द्वारा ‘ऑफ़ द स्टैंडर्ड ऑफ़ टेस्ट’ लिख कर सौंदर्यशास्त्र के उभरते हुए विमर्श को प्रश्नांकित किया गया। लेकिन आधुनिक युरोपीय सौंदर्यशास्त्रीय विमर्श की वास्तविक शुरुआत इमैनुएल कांट की 1790 में प्रकाशित रचना 'क्रिटीक ऑफ़ जजमेंट' से हुई। अपनी इस कृति में कांट ने सौंदर्यशास्त्रीय आकलन की कसौटियों को सार्वभौम बनाने पर ज़ोर दिया। लेकिन दूसरी ओर वे किसी भी तरह के सार्वभौम सौंदर्यशास्त्र की सम्भावना पर संदेह करते हुए भी नज़र आये। इस विरोधाभास के बावजूद कांट की उपलब्धि यह रही कि उन्होंने कला और सौंदर्य की विवेचना के लिए कुछ अनिवार्य द्विभाजनों को स्थापित कर दिया। इन द्विभाजनों में सर्वाधिक उल्लेखनीय हैं : इंद्रियबोध  और तर्क-बुद्धि, सारवस्तु और रूप, अभिव्यक्ति और अभिव्यक्त, आनंद और उपसंहार, स्वतंत्रता और आवश्यकता आदि। कांट की दूसरी उपलब्धि यह थी कि उन्होंने सौंदर्यशास्त्रीय अनुभव और ऐंद्रिक अनुभव के बीच अंतर स्थापित किया। उनका कहना था कि सौंदर्यशास्त्रीय व्याख्या और उसकी निष्पत्ति विश्लेषण के लक्ष्य के प्रति बिना किसी व्यावहारिक आसक्ति के ही की जानी चाहिए।

उन्नीसवीं सदी के बारे में कहा जा सकता है कि वह सौंदर्यशास्त्र की शताब्दी थी। कांट की बनायी गयी ज़मीन पर ही बाद में जर्मन विद्वानों ने सौंदर्यशास्त्र का वृहत्तर दार्शनिक ढाँचा खड़ा किया। हीगेल  ने अपनी रचना लेक्चर्स ऑन एस्थेटिक्स में, शॉपेनहॉर ने द वर्ल्ड एज़ विल ऐंड रिप्रज़ेंटेशन में और नीत्शे ने बर्थ ऑफ़ ट्रैजेडी में पश्चिमी सौंदर्यशास्त्र के विभिन्न पहलुओं की बारीक व्याख्याएँ कीं और उसके नये आयामों को प्रकाशित किया। उन्नीसवीं सदी के आख़िरी दौर में अंग्रेज़ी भाषी सौंदर्यशास्त्र में रूपवाद का उभार हुआ। विक्टोरियायी ब्रिटेन ने ‘कला कला के लिए’ का नारा दिया जिसके प्रवक्ताओं में ऑस्कर वाइल्ड का नाम उल्लेखनीय है। विशुद्ध सौंदर्यशास्त्रीय अनुभव पर बल देने वाले रूपवादी दृष्टिकोण ने लगभग सभी क्षेत्रों में आधुनिक कला-रूपों को गहराई से प्रभावित किया। लेकिन इस आंदोलन के विरोध की ध्वनियाँ महान रूसी साहित्यकार लियो तॉल्स्तॉय की रचना व्हाट इज़ आर्ट? और अमेरिकी परिणामवाद के प्रमुख प्रवक्ता जॉन डिवी की कृति आर्ट एज़ एक्सपीरिएंस में सुनायी दीं। तॉल्स्तॉय का तर्क था कि जो कला मनुष्यों के बीच नैतिक अनुभूतियों का सम्प्रेषण नहीं कर सकती, वह रूपवादी कसौटियों के हिसाब से कितनी भी महान क्यों न हो, उसकी सराहना नहीं की जा सकती। डिवी ने भी सम्प्रेषण की भूमिका के सवाल पर रूपवाद से लोहा लेते हुए कला को सौंदर्यशास्त्र के नाम पर उसके दायरे के बाहर मौजूद अनुभव की संरचनाओं से काट कर रखने का विरोध किया।

सौंदर्यशास्त्रीय चिंतन की जर्मन परम्परा बीसवीं सदी में भी जारी रही। घटनाक्रियाशास्त्र, व्याख्याशास्त्र और मार्क्सवाद के औज़ारों का इस्तेमाल करके सौंदर्यशास्त्र संबंधी सिद्धांतों को और समृद्ध किया गया। 1936 में मार्टिन हाईडैगर ने ‘द ओरिजन ऑफ़ द वर्क ऑफ़ आर्ट’ जैसा निबंध लिखा जिसे कला के दर्शन की सर्वश्रेष्ठ रचनाओं में से एक माना जाता है। हाईडैगर ने इस निबंध में दावा किया कि कला-कृति को इस जगत में स्थित वस्तु के रूप में देखना आधुनिकता की मूलभूत लाक्षणिक त्रुटियों में से एक है। हाइडैगर के मुताबिक कला तो एक नये जगत के द्वार खोलती है, कला के रूप में सत्य अपने-आप में घटता ही नहीं हमारे अपने अनुभव के दायरे में वस्तुओं के अस्तित्व का उद्घाटन भी करता है। इस तरह सौंदर्यशास्त्र के माध्यम से हाईडैगर ने आधुनिकता की आलोचना करते हुए वस्तुओं की पारम्परिक अस्तित्व-मीमांसा और प्रौद्योगिकीय व्याख्या को आड़े हाथों लिया।

बीसवीं सदी के मध्य तक सौंदर्यशास्त्र की उपयोगिता पर सवाल उठने लगे। सदी की शुरुआत में दिये गये अपने कुछ व्याख्यानों में एडवर्ड बुलो यह प्रश्न पूछ चुके थे कि कहीं कला और सौंदर्य की परिभाषाएँ कलाकार की सृजन- क्षमता का क्षय तो नहीं कर रही हैं। ये व्याख्यान 1957 में छपे और साठ के दशक में अमेरिकी कलाकार बारनेट न्यूमैन ने एलान कर दिया कि सौंदर्यशास्त्र का उपयोग कला के लिए वही है जो पक्षीशास्त्र का पक्षियों के लिए हैं। अर्थात् सौंदर्यशास्त्र से अनभिज्ञ कलाकार ही अच्छा है। संस्कृति-अध्ययन के तहत सौंदर्यशास्त्र के अभिजनोन्मुख रुझानों की कड़ी परीक्षा की गयी है। पिएर बोर्दियो ने संस्कृति के समाजशास्त्र के तहत कला के विचारधारात्मक आधार की न केवल शिनाख्त की बल्कि यह भी कहा कि इसी कारण से सौंदयशास्त्र अपनी ही सांस्कृतिक और राजनीतिक जड़ों का संधान नहीं कर पाया है। बोर्दियो के इस विचार का प्रतिवाद एडोर्नो की रचना एस्थेटिक थियरी में मिलता है। एडोर्नो बीसवीं सदी की अवाँगार्द कला का उदाहरण देते हुए कहते हैं कि कला में अभी भी विचारधारा का प्रतिवाद करने की क्षमता है। एडोर्नो के मुताबिक कला अपने समाज की उपज ज़रूर होती है, पर उसका रचना- प्रक्रिया में सामाजिक नियतत्त्ववाद से स्वायत्त क्षण भी निहित होता है। इसलिए वह कलाकार और उसके दर्शक या पाठक को तत्कालीन प्रभुत्वशाली संस्कृति द्वारा थमाये गये तौर- तरीकों से इतर सोचने का मौका भी देती है। कुछ मार्क्सवादी विद्वानों ने सौंदर्यशास्त्र की एक मार्क्सवादी श्रेणी विकसित करने की कोशिश भी की है। हिंदी के प्रमुख मार्क्सवादी साहित्यालोचक नामवर सिंह ने इस तरह की कोशिशों को आलोचनात्मक दृष्टि से देखते हुए इसका पहला उदाहरण सोवियत संघ में ‘समाजवादी यथार्थवाद’ का शास्त्र-निर्माण माना है। उन्होंने कहा है, ‘शास्त्र बनते ही सामाजिक यथार्थ भी सूत्रबद्ध हो गया और उस यथार्थ को अभिव्यक्त करने की शैली भी। देखते-देखते एक नया रीतिवाद चल पड़ा, रचना में भी, आलोचना में भी। जिस देश ने समाजवादी क्रांति की, वह साहित्य और कला के क्षेत्र में कोई क्रांति करने से ठिठक गया। यथार्थ का ऐसा और इतना अपमान तो क्रांति के पहले के साहित्य में भी नहीं हुआ था और उन्नीसवीं सदी के युरोप के साहित्य में भी नहीं जब बूर्ज़्वा क्रांति ने यथार्थवाद को जन्म दिया था। हालत बहुत कुछ हिंदी की रीतिवादी कही जानेवाली साहित्य-प्रवृत्ति की- सी हो गयी, जब अलंकारशास्त्र के लक्षण ग्रंथों को सामने रख कर कविताएँ लिखी जा रही थीं।’

नामवर सिंह ने दूसरा उदाहरण जॉर्ज लूकाच द्वारा रचित सौंदर्यशास्त्र नामक विशाल ग्रंथ का दिया है। वे इसे लूकाच द्वारा अपने लगभग साठ वर्षों के दीर्घ साहित्य-चिंतन को अंततः एक व्यवस्थित शास्त्र में बाँधने का विराट प्रयास करार देते हैं, ‘हज़ारों पृष्ठों का यह विशाल ग्रंथ अभी तक जर्मन भाषा में ही उपलब्ध है और जो जर्मन अच्छी तरह जानते होंगे, वही इसके बारे में कुछ विश्वासपूर्वक कह सकने में सक्षम होंगे। अंग्रेज़ी में अभी तक उसके बारे में जो कुछ कहा गया है और उसके छिटपुट अंशों से जो आभास मिला है उसके आधार पर इतना तो कहा ही जा सकता है कि इसमें समस्त कलाओं को ‘अनुकरण’ में निःशेष करने की असफल चेष्टा की गयी है। इस प्रकार मार्क्सवादी लूकाच जब सभी कलाओं को एक शास्त्र में बाँधने चलते हैं तो अंततः अरस्तू की शरण जाने को बाध्य होते हैं। किसी अंग्रेज़ी साप्ताहिक ने इस ग्रंथ की समीक्षा के साथ एक ऐसा कार्टून छापा था, जिसमें लुकाच मार्क्स की दाढ़ी के साथ अरस्तू की शक्ल- सूरत और पोशाक में पेश आते हैं।’ नामवर सिंह की मान्यता है कि लूकाच के दृष्टांत से मार्क्सवादी सौंदर्यशास्त्र की इस लम्बी परम्परा का एक कमज़ोर पहलू सामने आता है। वे कहते हैं कि ‘अक्सर वह स्वयं ‘कला’ नामक संस्था को चुनौती देने में चूक गया और कला की क्लासिकी परिभाषा को स्वीकार कर लेने में उसे कोई हानि नहीं दिखाई पड़ी। बुनियादी रूप में एक बार इन परिभाषाओं को स्वीकार कर लेने के बाद तो फिर थोड़े- बहुत हेर-फेर के साथ इस-उस कवि या कृति के मूल्यांकन का कार्य ही शेष रहता है; और कहने की आवश्यकता नहीं कि मार्क्सवादी सौंदर्यशास्त्रियों ने इस क्षेत्र में अपनी प्रतिभा का जौहर बखूबी दिखाया है— ऊँची संस्कृति के बड़े-से- बड़े विचारकों से होड़ लेते हुए। व्याख्या और मूल्यांकन की भाषा निश्चय ही भौतिकवादी भी है और ऐतिहासिक भी, लेकिन कुल मिलाकर वह प्रभुत्वशाली परम्परा से बहुत अलग नहीं है।’

सन्दर्भ

1. डी.ई. कूपर (1992), अ कम्पैनियन टू एस्थेटिक्स, ब्लैकवेल, ऑक्सफ़र्ड, 1992

2. टैरी ईगलटन (1999), द आइडियॉलॅजी ऑफ़ द एस्थेटिक, ब्लैकवेल, ऑक्सफ़र्ड, 1999

3. इमैनुएल कांट (1790/1987), द क्रिटीक ऑफ़ जजमेंट, अनु, डब्ल्यू.एस. प्लुहर, हैकेट, इण्डियापोलिस, आईएन.

4. टी.डब्ल्यू. एडोर्नो (1984), एस्थेटिक थियरी, रॉटलेज ऐंड कीगन पॉल, न्यूयॉर्क.

5. नामवर सिंह (2013), ‘मार्क्सवादी सौंदर्यशास्त्र के विकास की दिशा’, डब्ल्यूडब्ल्यूडब्ल्यू.हिंदीसमय.कॉम पर उपलब्ध.

इन्हें भी देखें

बाहरी कड़ियाँ

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