सूक्ष्मजैविकी के स्वर्ण युग

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सूक्ष्मजैविकी जीव विज्ञान की एक शाखा है।

सेलियो शेख्टर

सूक्ष्मजीव विज्ञान की वर्तमान स्थिति के बारे में थोड़ा ऐतिहासिक संदर्भ में विचार करना उपयुक्त होगा। इस विज्ञान ने अपने इतिहास में कई उावल अध्यायों की रचना की है। आधुनिक सूक्ष्मजीव वैज्ञानिक पाश्चर, कोच और उनके विद्यार्थियों की बदौलत इस विज्ञान ने उन्नीसवीं सदी में शानदार ढंग से प्रवेश किया था। शुरू से ही सूक्ष्मजीव विज्ञान के अनुसंधान व उपयोग ने स्वास्थ्य, पोषण और पर्यावरण पर असर डाला है। इस तरह से इस विज्ञान का समाज पर व्यापक असर देखा जा सकता है। गौरतलब है कि प्रमुख संक्रामक रोगों की सूक्ष्मजैविक प्रक्रिया की खोज उन्नीसवीं सदी के प्रथम बीस वर्षों में हो चुकी थी और इसके फलस्वरूप इन बीमारियों की रोथाम व इलाज के प्रयास शुरू हो चुके थे। आज इस्तेमाल हो रहे कई रोग-प्रतिरोधी टीके शुरूआती सूक्ष्मजीव विज्ञानियों की ही देन हैं। दूसरी महत्वपूर्ण बात यह रही कि शुरूआती अनुसंधान से प्रकृति में पदार्थों के चक्रों को समझने मदद मिली और इस समझ ने खाद्य उत्पादन व परिरक्षण के लिए एक तार्किक आधार उपलब्ध कराया। यह सूक्ष्मजीव विज्ञान का प्रथम स्वर्ण युग था। बीसवीं सदी के प्रथम कुछ दशकों में सूक्ष्मजीव विज्ञान कई स्वतंत्र शाखाओं में बंट गया। पाश्चर ने चिकित्सकीय व पर्यावरणीय सूक्ष्मजीव विज्ञान में एक-से तरीकों का उपयोग करके इस विषय में एकीकरण लाने का जो प्रयास किया था उसका स्थान विशिष्ट विषयों ने ले लिया। इस अवधि में चिकित्सा से संबंधित सूक्ष्मजीव वैज्ञानिक और प्रतिरक्षा वैज्ञानिक मूलत: जीव के स्तर पर शोध कार्य कर रहे थे। कोशिश थी की परजीवी और उसके मेजबान की गतिविधियों का एकीकरण किया जाए। दूसरी ओर पर्यावरण सूक्ष्मजीव वैज्ञानिकों का ध्यान रासायनिक प्रक्रियाओं पर था। रूस के सर्जाई विनोग्राद्स्की और हॉलैण्ड के मार्टिनस बीयेरिंक और अल्बर्ट क्लूवर के शोध कार्य का परिणाम था कि पर्यावरणीय सूक्ष्मजीव विज्ञान धीरे-धीरे तुलनात्मक जैव रसायन की एक शाखा बन गया। इसमें जोर इस बात पर था कि समस्त सजीवों में जैव-रासायनिक प्रक्रियाएं एक सी होती हैं। मोटे तौर पर कहें, तो इस अवधि में सूक्ष्मजीव विज्ञान पूरी तरह कोशिका विज्ञान बनकर नहीं उभरा था। शेष जीव विज्ञान को तो काफी व्यापक कोशिकीय खोजबीन का लाभ मिला था, हालांकि कोशिकाओं को अलग-अलग करना और इलेक्ट्रॉन सूक्ष्मदर्शी अभी पूरे जोरदार ढंग से उभरे नहीं थे। उस समय प्रायोगिक जीव विज्ञान पर जैव-रसायन शास्त्रियों और उनकी उत्कृष्ट उपलब्धियों का बोलबाला था खास ताग्र से वे मूल शरीरी क्रियाओं का खुलासा करने में सफल रहे थे। मगर इस सबसे यह समझने की दिशा में कोई मदद नहीं मिली थी कि बैक्टीरिया भी कोशिका होते हैं और उनका एक जटिल संगठन होता है। जैव रासायन से प्रेरित शोधकर्ता बैक्टीरिया को कण मानते थे, जिन्हें आप रेत के साथ पीस सकते हैं या दबाव कम करके फोड़ सकते हैं। बैक्टीरिया कोशिका के प्रमुख घटक हैं। बैक्टीरिया कोशिका के प्रमुख घटक कोशिका भित्ती, कोशिका झिल्ली, जीवद्रव्य और न्यूक्लिआइउ का धुंधला सा चित्र बना था। बैक्टभ्रिया और उनकी संरचना तीखी व जज्बाती बहस के विषय थे। कुछेक ही ऐसे सूझबूझ वाले शोधकर्ता थे जिनका काम आने वाले वर्षों में टिक सका उस समय इस विषय को बैक्टीरिया कोशिका विज्ञान कहा जाता था। इस विषय को बैक्टीरिया कोशिका विज्ञान कहा जाता था। इस विषय में काम कर रहे लोगों के अलावा शेष लोग तो बैक्टीरिया और शायद वायरस को भी थोड़ा विचित्र ही मानते थे। इस बात पर भी सहमति नहीं बन पाई थी कि बैक्टीरिया कोशिका है या नहीं। उनमें जीन्स की उपस्थिति की बात तो अभी बहुत दूर थी। इस जमाने की प्रवृत्त् िका अंदाज इसी बात से लगाया जा सकता है कि जब 1928 में फे्रड ग्रिफिथ ने बैक्टीरिया में जिनेटिक फेरबदल की हैरतअंगेज खोज की तो इसे लेकर कोई उत्साह पैदा नहीं हुआ था।


दूसरा स्वर्ण युग

सूक्ष्मजीव विज्ञान का दूसरा स्वर्ण युग 1940 के दशक में आणविक जिनेटिक्स के साथ शुरू होता है। इस युग का आगाज 1943 में साल्वेडॉर लूरिया और मैक्स डेलब्रुक के सुंदर प्रयोग के साथ हुआ था। इन वैज्ञानिकों ने बैक्टीरिया तंत्र की मदद से विकासवादी जीव विज्ञान के एक बुनियादी सवाल को सुलझाने का प्रयास किया था। सवाल यह था क्या उत्परिवर्तन स्वत: होते हैं या पर्यावरण के दबाव में होते हैं? नाटकीय ढंग से, इस प्रयोग ने दर्शाया था कि जीव विज्ञान के कुछ महत्वपूर्ण सवालों को समझने के लिए बैक्टीरिया व बैक्टीरियाभक्षियों का उपयोग बखूबी किया जा सकता है। इसके कुछ ही समय बाद 1946 में जोशुआ लेडरबर्ग ने ब वैक्टीरिया में संलयगन (कॉन्जूगेशन) की खोज की। इस खोज ने जीव विज्ञान को एक नई दिशा दी। यदि बैक्टीरिया समागम कर सकते हैं, तो वे अवश्य कोशिकाएं होना चाहिए। इन जबर्दस्त उपलब्धियों के बाद 1960 के दशक में कई ऐसी खोजें हुई जिन्होंने नए रास्ते खोले। इन खोजों का संबंध मूल जैविक प्रक्रियाओं से था। इनमें डीएनए की संरचना, प्लास्मिड्स का अस्तित्व व महत्व, जीन अभिव्यक्ति का नियमन तथा जिनेटिक कोड का खुलासा शामिल हैं। अब स्थिति यह हो गई कि यदि आप जीव विज्ञान के अग्रिम मोर्चे पर रहना चाहते हैं, तो आपको सूसक्ष्मजीव मॉडल्स के साथ काम करना ही होगा। लगभग इसी समय एण्टीबायोटिक्स का व्यापक उपयोग होने लगा था। इसके बाद सूक्ष्मजीव विज्ञान की एक प्रमुख शाखा रोगाणुओं का अध्ययन नेपथ्य में चली गई। वास्तव में कुछ लोगों ने तो घोषणा कर डाली थी कि संक्रामक रोग समाप्त होने को हैं और इसके साथ ही चिकित्सकीय सूक्ष्मजीव विज्ञान अतीत का विषय हो जाएगा। अलबत्ता यह घोषणा थोड़ी बड़बोली साबित हुई है। बहरहाल 1950 से 1970 के बीच सूक्ष्मजीव विज्ञान लगभग आणविक जीव विज्ञान का समानार्थी हो गया था।

धीरे-धीरे सूक्ष्मजीवों से सीखी गई बातें अन्य जंतुओं व वनस्पतियों की कोशिकाओं के अध्ययन में भी उपयोगी पाई गई। खास तौर से खमीर जैसे जीवों में तो इन्हें सीधे-सीधे लागू किया जा सकता था। अन्य जीवों में इतनी आसानी से छेड़छाड़ नहीं की जा सकती और न ही वे बैक्टीरिया की रफ्तार से संख्या वृद्धि करते हैँ। इनके अध्ययन में तो डीएनए क्लोनिंग व डीएनए श्रृंखला के निर्धारण की तकनीकों से और भी ज्यादा लाभ हुआ। परिणाम यह हुआ कि कई शोधकर्ता बैक्टीरियाभक्षियों को छोड़ यूकेरियोटिक कोशिकाओं की ओर दौडे।


तीसरा स्वर्ण युग

सूक्ष्मजीव विज्ञान के दिन फिर पलटे हैं। लग रहा है कि यह विज्ञान तीसरे स्वर्ण युग में प्रवेश कर रहा है। इस बात को हम निम्नलिखित संदर्भों में देख सकते हैं। सूसक्ष्मजीव इकॉलॉजी: किसी समय यह सूक्ष्मजीव विज्ञान की एक विशिष्ट शाखा थी मगर अब केन्द्र में आती जा रही है पोलीमरेज चेन रिएक्शन तथ्ज्ञा क्लोनिंग तकनीक की बदौलत अब यह संभव हो गया है कि आप मॉडल जीवों के संकीर्ण दायरे से मुक्त होकर लगभग किसी भी सूक्ष्मजीव का अध्ययन कर सकते हैं। इनमें वे सूक्ष्मजीव भी शामिल हैं जिन्हें प्रयोगशाला में कल्चर करना संभव नहीं हो पाया है। एक अनुमान के मुताबिक ये कुल सूक्ष्मजीवों में से 99 प्र्रतिशत हैं। अब हम इस तरह के सवालों के जवाब दे सकते हैं। कौन-सा जीव कहां रहता हैं, क्या करता है औरजिनेटिक रूप से किससे संबंधित है। इसके परिणामस्वरूप ज्ञात सूक्ष्मजीवी दुनिया बहुत विशाल हो गई है। आर्किया जैसे पूरे नए समूह सामने आए हैं। सूक्ष्मजीव एकदम अनपेक्षित जगहों पर खोजे जा सके हैं। जैसे समुद्री गर्म सोते और चट्टानों की गहरी दरारों में। ये ऐसे सूक्ष्मजीव हैं जो सूर्य की ऊर्जा और ऑक्सीजन पर निर्भर नहीं हैं। इन्होंने सूक्ष्मजीव इकॉलॉजी के दायरे को बहुत विस्तृत बना दिया है और प्रकृति में पदार्थों के चक्रों में सूक्ष्मजीवों की भूमिका की हमारी समझ को बढ़ाया है। इस बात की समझ भी बढ़ रही है कि प्रकृति में सूक्ष्मजीव समूहों में रहते हैं: कुछ अपने सगों के साथ, तो कुछ अन्य प्रजातियों के साथ। इसके चलते सूक्ष्मजीवों का अध्ययन प्रयोगशाला से निकलकर उनके प्राकृतवास की ओर बढ़ रहा है। कुछ शोधकर्ताओं ने ऐसे जीन्स खोज निकाले हैं जो सिर्फ तभी अभिव्यक्त होते है जब सूक्ष्मजीव अपने मेजबान के शरीर में होते हैं। इस इकॉलॉजिकल नजरिए के चलते कई नवीन क्रियाविधियां पहचानी जा रही हैं। जैव विकास: मूलत: साइज का परिणाम है कि यूकेरियोट जीवों की बजाए ज्यादा संख्या में केंद्रक पूर्व (प्रोकेरियोट) जीवों की जीनोम श्रृंखला का खुलासा हो पाया है। यह कोई अचरज की बात नहीं है। कि जानकारी के इस समृद्ध भंडार से मुनाफा कमाने के लिए बड़ा उद्योग अस्तित्व में आ गया है। जीनोम संबंधी जानकारी का उपयोग जैव विकास का मार्ग तलाशने में भी हुआ है। इस संदर्भ में एक आश्चर्यजनक खोज यह हुई है कि जीन्स का एक जीव से दूसरे जीव में स्थानांतरण काफी व्यापक है और इसके प्रभाव भी काफी व्यापक हैं। असंबंधित प्रजातियों में जीनोम द्वप (यानी कई जीन्स के समूह) नजर आते हैं जो उन्हें नए-नए क्रियात्मक गुणों से लैस कर देते हैं। बैक्टीरिया में परस्पर असंबंधित प्रजातियों के बीच जीन्स का लेन-देन होता है। इस तरह के पार्श्वीय जीन स्थानांतरण की व्यापकता के चलते हमें यह सोचने पर विवश होना पड़ा है कि क्या जैव विकास की बात शुद्धत: अलग-अलग शाखाओं के रूप में की जा सकती हैं। वास्तव में यह हो रहा है कि पेड़ की विभिन्न शाखाओं के बीच लेन-देन हो रहा है। यानी किसी जीव के पूर्वज मात्र एक रैसखीय क्रम में नहीं ढूंढे जा सकते विभिन्न रेखाओं के बीच अंतर्कि्रया को भी ध्यान में रखना होगा। इस बात के भी संकेत मिले है कि यह लेन-देन यूकेरियोटिक-प्रोकेरियोटिक के बीच के भी होता है। प्रसंगवश, यह गौरतलब है कि इस सबके कारण सूक्ष्मजीवों की दुनिया में प्रजाति की अवधारणा गड्डा-मड्डा हो जाती है। सूक्ष्मजीव कोशिका विज्ञान एक पुराना मुहावरा है बैक्टीरिया तो महज एंजाइम की थैलियां हैं। मगर देखा जाए तो चंद घन माइक्रोमीटर के दायरे में ये एक अत्यंत परिष्कृत व अनपेक्षित संगठन समेटे होते हैं। कोशिका के विभिन्न घटक गतिशील ढंग से काम करते हैं। इस आणविक वृन्दगान का खुलासा फ्लोरेसेंस माइक्रोस्कोपी व अन्य तकनीकों से हुआ है। कुछ बड़े अणु विशिष्ट स्थानों पर बंधे रहते हैं जबकि अन्य अणु निर्धारित मार्गों पर कोशिका की सतह पर उपस्थित ग्राही, कोशिकाओं के परस्पर संकेत या कोशिकीय कंकाल जैसे बैक्टीरिया ई. काली आंतों की दीवार से चिपकने के लए मेजबान कोशिका के एक्टिन का उपयोग करता है। इसी का उपयोग शिगेला व अन्य बैक्टीरिया एक मेजबान कोशिका से दूसरी में जाने के लए करते हैं इन प्रक्रियाओं से हमें यूकेरयोटिक कोशिकाओं को समझने में मदद मिलती है। आजकल रोगाणु वैज्ञानिकों को प्राय: कोशिका जीव विज्ञान के सम्मेलनों में पर्चे प्रस्तुत करने को आमंत्रित किया जाता है उम्मीद करें कि इनसे पूरी मानवता लाभांवित होगी। इन सरोकारों के चलते सभी देशों के सूक्ष्मजीव वैज्ञानिकों पर भारी नैतिक दबाव है। इस समय यह तय करने का कोई स्पष्ट पैमाना नहीं है कि कौन-सा काम बदनीयत का द्योतक है। आशा है कि इस क्षेत्र में कार्यरत शोधकर्ता इस तरह के निर्णय कर पाएंगे और सबके भले के लिए काम करेंगे।

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