साहित्य दर्पण

मुक्त ज्ञानकोश विकिपीडिया से
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ
The printable version is no longer supported and may have rendering errors. Please update your browser bookmarks and please use the default browser print function instead.

साहित्यदर्पण संस्कृत भाषा में लिखा गया साहित्य विषयक ग्रन्थ है जिसके रचयिता पण्डित विश्वनाथ हैं। विश्वनाथ का समय १४वीं शताब्दी ठहराया जाता है। मम्मट के काव्यप्रकाश के समान ही साहित्यदर्पण भी साहित्यालोचना का एक प्रमुख ग्रन्थ है। काव्य के श्रव्य एवं दृश्य दोनों प्रभेदों के सम्बन्ध में इस ग्रन्थ में विचारों की विस्तृत अभिव्यक्ति हुई है। इसक विभाजन 10 परिच्छेदों में है।

परिचय

साहित्य दर्पण 10 परिच्छेदों में विभक्त है:

प्रथम परिच्छेद में काव्य प्रयोजन, लक्षण आदि प्रस्तुत करते हुए ग्रंथकार ने मम्मट के काव्य लक्षण "तददोषौ शब्दार्थों सगुणावनलंकृती पुन: क्वापि" का खंडन किया है और अपने द्वारा प्रस्तुत लक्षण वाक्यं रसात्मकं काव्यम् को ही शुद्धतम काव्य लक्षण प्रतिपादित किया है। पूर्वमतखंडन एवं स्वमतस्थापन की यह पुरानी परंपरा है।

द्वितीय परिच्छेद में वाच्य और पद का लक्षण कहने के बाद शब्द की शक्तियों - अभिधा, लक्षणा, तथा व्यंजना का विवेचन और वर्गीकरण किया गया है।

तृतीय परिच्छेद में रस-निष्पत्ति का विवेचन है और रसनिरूपण के साथ-साथ इसी परिच्छेद में नायक-नायिका-भेद पर भी विचार किया गया है।

चतुर्थ परिच्छेद में काव्य के भेद ध्वनिकाव्य और गुणीभूत-व्यंग्यकाव्य आदि का विवेचन है।

पंचम परिच्छेद में ध्वनि-सिद्धांत के विरोधी सभी मतों का तर्कपूर्ण खंडन और इसका समर्थन है।

छठें परिच्छेद में नाट्यशास्त्र से संबन्धित विषयों का प्रतिपादन है। यह परिच्छेद सबसे बड़ा है और इसमें लगभग 300 कारिकाएँ हैं, जबकि सम्पूर्ण ग्रंथ की कारिका संख्या 760 है।

सप्तम परिच्छेद में दोष निरूपण।

अष्टम परिच्छेद में तीन गुणों का विवेचन।

नवम परिच्छेद में वैदर्भी, गौड़ी, पांचाली आदि रीतियों पर विचार किया गया है।

दशम परिच्छेद में अलंकारों का सोदाहरण निरूपण है जिनमें 12 शब्दालंकार, 70 अर्थालंकार और रसवत् आदि कुल 89 अलंकार परिगणित हैं।

साहित्यदर्पण की विशेषताएँ

इसकी अपनी विशेषता है - छठा परिच्छेद, जिसमें नाट्यशास्त्र से संबद्ध सभी विषयों का क्रमबद्ध रूप से समावेश कर दिया गया है। साहित्य दर्पण का यह सबसे विस्तृत परिच्छेद है। काव्यप्रकाश तथा संस्कृत साहित्य के प्रमुख लक्षण ग्रंथों में नाट्य सम्बंधी अंश नहीं मिलते। साथ ही नायक-नायिका-भेद आदि के संबंध में भी उनमें विचार नहीं मिलते। साहित्य दर्पण के तीसरे परिच्छेद में रस निरुपण के साथ-साथ नायक-नायिका-भेद पर भी विचार किया गया है। यह भी इस ग्रंथ की अपनी विशेषता है। पूर्ववर्ती आचार्यों के मतों को युक्तिपूर्ण खंडनादि होते हुए भी काव्य प्रकाश की तरह जटिलता इसमें नहीं मिलती।

दृश्य काव्य का विवेचन इसमें नाट्यशास्त्र और धनिक के दशरूपक के आधार पर है। रस, ध्वनि और गुणीभूत व्यंग्य का विवेचन अधिकांशत: ध्वन्यालोक और काव्य प्रकाश के आधार पर किया गया है तथा अलंकार प्रकरण विशेषत: राजानक रुय्यक के "अलंकार सर्वस्व" पर आधारित है। संभवत: इसीलिए इन आचार्यों का मतखंडन करते हुए भी ग्रंथकार उन्हें अपना उपजीव्य मानता है तथा उनके प्रति आदर व्यक्त करता है - "इक्ष्यलमुपजीज्यमानानां मान्यानां व्याख्यातेषु कटाक्षनिक्षेपेण" "महतां संस्तव एवंगौरवाय" आदि।

साहित्य दर्पण में काव्य का लक्षण भी अपने पूर्ववर्ती आचार्यों से स्वतंत्र रूप में किया गया मिलता है। साहित्य दर्पण से पूर्ववर्ती ग्रंथों में कथित काव्य लक्षण क्रमश: विस्तृत होते गए हैं और चंद्रालोक तक आते-आते उनका विस्तार अत्यधिक हो गया है, जो इस क्रम से द्रष्टव्य है-

"संक्षेपात् वाक्यमिष्टार्थव्यवच्छिन्ना, पदावली काव्यम्" (अग्निपुराण);
"शरीरं तावदिष्टार्थव्यवच्छिन्ना पदावली" (दंडी)
"ननु शब्दार्थों कायम्" (रुद्रट);
"काव्य शब्दोयं गुणलंकार संस्कृतयो: शब्दार्थयोर्वर्तते" (वामन);
"शब्दार्थशरीरम् तावत् काव्यम्" (आनंदवर्धन);
"निर्दोषं गुणवत् काव्यं अलंकारैरलंकृतम् रसान्तितम्" (भोजराज);
"तददोषौ शब्दार्थों सगुणावनलंकृती पुन: क्वापि" (मम्मट)
"गुणालंकाररीतिरससहितौ दोषरहिती शब्दार्थों काव्यम्" (वाग्भट); और
"निर्दोषा लक्षणवी सरीतिर्गुणभूषिता, सालंकाररसानेकवृत्तिर्भाक् काव्यशब्दभाक्" (जयदेव)।

इस प्रकार क्रमश: विस्तृत होते काव्यलक्षण के रूप को साहित्यदर्पणकार ने "वाक्यम् रसात्मकम् काव्यम्" जैसे छोटे रूप में बाँध दिया है। केशव मिश्र के अलंकारशेखर से व्यक्त होता है कि साहित्यदर्पण का यह काव्य लक्षण आचार्य शौद्धोदनि के "काव्यं रसादिमद् वाक्यम् श्रुर्त सुखविशेषकृत्" का परिमार्जित एवं संक्षिप्त रूप है।

साहित्यदर्पण में महाकाव्य का विवेचन

विश्वनाथ ने साहित्यदर्पण में महाकाव्य का विशद और सांगोपांग विवेचन निम्नवत किया है-

सर्गबन्धो महाकाव्यं तत्रैको नायकः सुरः॥
सद्वंशः क्षत्रियो वापि धीरोदात्तगुणान्वितः॥
एकवंशभवा भूपाः कुलजा बहवोऽपि वा॥
शृंगारवीरशान्तनामेकोऽंगी रस इष्यते॥
अंगानि सर्वेऽपि रसाः सर्वे नाटकसंधयः॥
इतिहासोद्भवं वृत्तमन्यद् वा सज्जनाश्रयम्॥
चत्वारस्तस्य वर्गाः स्युस्तेष्वेकं च फलं भवेत्॥
आदौ नमस्क्रियाशीर्वा वस्तुनिर्देश एव वा॥
क्वचिन्निन्दा खलादीनां सतां च गुणकीर्तनम्॥
एकवृत्तमयैः पद्यैरवसानेऽन्यवृत्तकैः॥
नातिस्व ल्पा नातिदीर्घाः सर्गा अष्टाधिका इह॥
नानावृत्तमयः क्वापि सर्गः कश्चन् दृश्यते।
सर्गान्ते भाविसर्गस्य कथायाः सूचनं भवेत्॥
सन्ध्यासूर्येन्दुरजनीप्रदोषध्वान्तवासराः।
प्रातर्मध्याह्नमृगयारात्रिवनसागराः।
संभोगविप्रलम्भौ च मुनिस्वर्गपुराध्वराः॥
रणप्रयाणो यज्ञम न्त्रपुत्रोदयादयः॥
वर्णनीया यथायोगं सांगोपांगा अमी इह।
कर्वेवृत्तस्य वा नाम्ना नायकस्यान्यतरस्य वा।
नामास्य सर्गोपादेयकथया सर्गनाम तु॥[१]

उपर्युक्त विवरण से महाकाव्य सम्बन्धी प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-

  • 1 . महाकाव्य की कथा सर्गों में विभाजित होती है।
  • 2 . इसका नायक कोई देवता अथवा धीरोदात्त गुणों से युक्त कोई उच्च कुलोत्पन्न क्षत्रिय होना चाहिए। एक ही वंश में उत्पन्न अनेक राजा भी इसके नायक हो सकते हैं।
  • 3 . इसमें शृंगार, वीर, शान्त इन तीन रसों में से कोई एक रस प्र धान होना चाहिए और अन्य रस उसके सहायक होने चाहिए।
  • 4 . इसमें नाटक की सारी सन्धियाँ (मुख, प्रतिमुख, गर्भ, विमर्श, उपसंहृति) को स्थान दिया जाता है।
  • 5 . काव्य का कथानक ऐतिहासिक होता है और यदि ऐतिहासिक न हो तो किसी सज्जन व्यक्ति से सम्बन्ध रखने वाला हो ना चाहिए।
  • 6 . इसमें चार वर्गों (धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष) में से कोई एक फल रूप में होना चाहिए।
  • 7 . उसके आरम्भ में नमस्कार, आर्शीवचन तथा मुख्य कथा की ओर संकेत के रूप में मंगलाचरण वर्तमान रहता है।
  • 8 . इसमें कहीं-कहीं दुष्टों की निन्दा और सज्जनों की प्रशंसा होती है।
  • 9 . इसमें सर्गों की संख्या आठ से अधिक होनी चाहिए और उन सर्गों का आकार बहुत छोटा नहीं होना चाहिए। प्रायः प्रत्येक सर्ग में एक ही छन्द का प्रयोग होना चाहिए और सर्ग के अन्त में छन्द परिवर्तन उचित है। कहीं-कहीं सर्ग में विविध छन्दों का प्रयोग भी हो सकता है। प्रत्येक सर्ग के अन्त में आगे आने वाली कथा की सूचना होनी चाहिए।
  • 10 . इसमें संध्या, सूर्य, चन्द्र, रात्रि, प्रदोष, अंधकार, दिन, प्रातः काल, मध्याह्न, मृगया (शिकार), ऋतु, वन, समुद्र, मुनि, स्वर्ग, नगर, यज्ञ, युद्ध, यात्रा, विवाह, मन्त्र, पुत्र और अभ्युदय आदि का यथावसर सांगोपांग वर्णन होना चाहिए।
  • 11 . महाकाव्य का नामकरण कवि, कथावस्तु, नायक अथवा किसी अन्य चरित्र के नाम पर होना चाहिए और सर्गों का नाम सर्गगत कथा के आधार पर होना चाहिए।

इस प्रकार प्रायः प्रत्येक शास्त्रकार ने अपने समय में उपलब्ध महाकाव्यों के आधार पर महाकाव्य के लक्षणों का विधान किया है, लेकिन अधिकांश आधुनिक विचारक विश्वनाथ के विचारों को प्रामाणिक मानते हैं और परवर्ती महाकाव्यों में तो विश्वनाथ के मत को अधिकाधिक ग्राह्य समझा गया है।

सन्दर्भ

  1. साहित्य दर्पण, 6/315-325

बाहरी कड़ियाँ