सांस्कृतिक साम्राज्यवाद

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सांस्कृतिक साम्राज्यवाद (Cultural Emperialism) यह वह नीति है जिसमे जानबूझकर किसी संस्कृति में दूसरी संस्कृति को आरोपित किया जाता है, मिश्रित किया जाता है या प्रोत्सहन दिया जाता है। प्राय दूसरी संस्कृति किसी शक्तिशाली सैनिक देश की होती है जबकि जिसमे आरोपण हो रहा हो वह दुर्बल होता है। इसका प्रयोग विदेशी प्रभाव को नकारने में भी होता है यह किसी भी रूप में हो सकती है जैसे बार्बी गुडिया से खेलना।

परिचय

उपनिवेशवाद के ख़ात्मे के बाद राजनीतिक और आर्थिक रूप से प्रभुत्वशाली देशों ने अपने पूर्व उपनिवेशों के समाजों और उनकी जीवन-शैलियों को अप्रत्यक्ष तरीकों से अपने वर्चस्व के तहत लाने के लिए जिन सांस्कृतिक उपायों का सहारा लिया, उन्हें सांस्कृतिक साम्राज्यवाद की संज्ञा दी जाती है। इसका मतलब है उन सांस्कृतिक मूल्यों, विचारों और आचरण संहिताओं का प्रचार, प्रसार और निर्यात जिन्हें ‘श्रेष्ठ’ माना जाता है। इस सिक्के का एक दूसरा पहलू भी है जिसके परिणामस्वरूप सांस्कृतिक साम्राज्यवाद ग़रीब और पिछड़े हुए देशों की स्थानीय संस्कृतियों के मूल्यों और जीवन-शैलियों के विनाश और क्रमशः दरकिनार होते चले जाने का कारण बनता है। सांस्कृतिक साम्राज्यवाद की थीसिस के मुताबिक विश्व में सूचना-व्यवस्था के सूत्र उन देशों के हाथ में हैं जिनके पास उपग्रहीय प्रसारण की प्रौद्योगिकी है और जिसके ज़रिये छवियों, सूचनाओं, विचारों, विश्लेषणों और मनोरंजन के कार्यक्रमों का ग्लोबल प्रवाह नियंत्रित किया जाता है। भूमण्डलीकरण के विरोधी सांस्कृतिक साम्राज्यवाद को एक फ़िकरे की तरह प्रयोग करते हैं। लेकिन, संस्कृति-चिंतन के क्षेत्र में इस विषय में एक बहस भी मौजूद है कि क्या संस्कृति के क्षेत्र पर इस तरह एकतरफ़ा प्रभुत्व कायम किया जा सकता है; और क्या भूमण्डलीकरण को सांस्कृतिक समरूपता का वाहक समझना उसकी जटिलता की एक सरलीकृत समझ नहीं है?

विचार-जगत में साम्राज्यवाद और संस्कृति के संबंधों का विधिवत् उद्घाटन सबसे पहले सत्तर और अस्सी के दशक में साहित्य के सिद्धांतकार एडवर्ड सईद के चिंतन में प्राच्यवाद की बहुचर्चित थीसिस के ज़रिये हुआ था। ज़ाहिर है कि सईद ने सांस्कृतिक साम्राज्यवाद की शिनाख्त साहित्यिक रूपों और विमर्श के दायरों में की थी। अस्सी के दशक में ही वी.एस. नैपॉल ने इस अभिव्यक्ति का कुछ दूसरा ही इस्तेमाल किया। उन्होंने अपनी दो रचनाओं ‘एमंग द बिलीवर्स : ऐन इसलामिक जर्नी’ और ‘बियांड बिलीफ़ : इसलामिक एक्सकर्जंस एमंग द कनवर्टिड पीपुल्स’ में इसलाम की शिनाख्त सांस्कृतिक साम्राज्यवाद के तौर पर की। उनका कहना था कि इसलाम में सांस्कृतिक विविधता को ज़ोर-ज़बरदस्ती अपने रंग में रँगने की प्रवृत्ति है।

नब्बे के दशक में सांस्कृतिक साम्राज्यवाद की अवधारणा ग्लोबल मीडिया जगत पर अमेरिकी कॉपोरेशनों के बोलबाले की आलोचना के रूप में विकसित होनी शुरू हुई। अफ़्रीका, एशिया, लातीनी अमेरिका और दुनिया के अन्य भागों में टीवी दर्शकों के सामने सुबह से शाम तक सिर्फ़ अमेरिकी और युरोपीय सांस्कृतिक उत्पादों की खुराक ही परोसी जाती थी। मीडिया विशेषज्ञों को साफ़ दिखाई पड़ रहा था कि पश्चिमी देश ग़रीब देशों को अपने यहाँँ बने हुए टीवी सीरियल और अन्य कार्यक्रम लागत से कम दामों में निर्यात कर रहे हैं। भूमण्डलीकरण की प्रक्रिया के बाद सांस्कृतिक साम्राज्यवाद की इस परिभाषा में कुछ तब्दीली आयी। यह परिवर्तन अमेरिकीकरण की धारणा ने किया। इसका कारण यह था कि अमेरिकी खान-पान, रहन-सहन और जीवन-शैली के विभिन्न रूपों ने विकसित युरोपीय समाजों पर भी अपनी छाप छोड़नी शुरू कर दी। पहले इस परियोजना में युरोप और अमेरिका मिल कर सक्रिय नज़र आते थे।

अमेरिकीकरण के विचार को 1997 में ‘फ़ॉरेन पॉलिसी’ नामक पत्रिका में क्लिंटन प्रशासन के साथ जुड़े रह डेविड रॅथकॉफ़ के लेख ‘इन प्रेज़ ऑफ़ कल्चरल इम्पीरियलिज़म?’ के प्रकाशन के बाद और हवा मिली। कोलम्बिया विश्वविद्यालय में इंटरनैशनल एफ़ेयर्स के एसोसिएट प्रोफ़ेसर और किसिंजर एसोसिएट्स के प्रबंध निदेशक रॅथकॉफ़ ने इस लेख में इम्पीरियलिज़म के कल्चरल संस्करण को सकारात्मक रूप से पेश करते हुए दावा किया कि इसे स्वैच्छिक रूप से अपनाया जाए या जबरिया, इसके ज़रिये सांस्कृतिक विविधता और प्रकारांतर से पारिस्थितिकीय विविधता की संरक्षा की जा सकती है। रॅथकॉफ़ का तर्क दुनिया में संस्कृति के नाम पर होने वाले रक्तपात और नरसंहारों का हवाला दे कर कहता है कि सारी दुनिया में सहिष्णुता को बढ़ावा दिया जाना चाहिए। सांस्कृतिक विविधता के भीतर दोनों तरह के पहलू मौजूद होते हैं। सहिष्णुता को प्रोत्साहित करने वाले उसके पहलुओं का विकास किया जाना चाहिए और उसके ख़िलाफ़ खड़े होने वाले आयामों का बेहिचक उन्मूलन कर दिया जाना चाहिए। रॅथकॉफ़ को यह स्वीकार करने में भी कोई हिचक नहीं थी कि इंटरनेट, भूमण्डलीकरण और अंग्रेज़ी भाषा का इस्तेमाल अमेरिका के सांस्कृतिक प्रभाव को बढ़ा रहा है।

सांस्कृतिक साम्राज्यवाद की थीसिस को सत्तर के दशक में हुए कुछ समाजवैज्ञानिक अध्ययनों के हवाले से भी पुष्ट किया जाता है। 1975 में प्रकाशित डॉर्फमैन और मैटेलार्ट की रचना हाउ टू रीड डोनाल्ड डक में दिखाया गया था कि कॉमिक्स और एनीमेशन जैसे सांस्कृतिक उत्पादों के ज़रिये ‘अन्य’ राष्ट्रीयताओं की नस्ली रूढ़ छवियों का कैसे इस्तेमाल किया जाता है। इसी तर्ज़ पर टीवी विज्ञापनों और उपभोक्ता संस्कृति के अध्ययनों ने पश्चिमी संस्कृतियों की श्रेष्ठता स्थापित करने वाली पूँजीवादी सांस्कृतिक परियोजना ने प्रकाश डाला।

लेकिन, पूँजीवाद के सभी आलोचक और अध्येता इस तरह के निष्कर्षों को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं। ग्राम्शी के सिद्धांतों की रोशनी में संस्कृति का अध्ययन करने वाले विचारकों की मान्यता है कि संस्कृति का क्षेत्र राजनीति और अर्थनीति की तरह अधीनस्थ नहीं किया जा सकता। उसके भीतर प्रतिरोध की अलग तरह की क्षमताएँ होती हैं जिनके आधार पर एक तरह की सांस्कृतिक राजनीति का जन्म होता है। इस प्रतिरोध के प्रभाव में राष्ट्रीय सरकारें पश्चिमी मीडिया उत्पादों को अस्वीकार भी कर देती हैं।

भूमण्डलीकरण के कुछ अध्येताओं ने भी संस्कृति के एकतरफ़ा प्रवाह के आग्रह की आलोचना की है। उनका कहना है कि भूमण्डलीय व्यवस्था का विकास कहीं ज़्यादा पेचीदा नज़ारा पेश कर रहा है। सांस्कृतिक प्रवाह विभिन्न दिशाओं से हो रहे हैं। उनकी संरचनाएँ भी महज़ पश्चिमी या अमेरिकी या पूँजीवादी या उपभोक्तावादी न हो कर जटिल किस्म की हैं। अगर एक तरफ़ सीएनएन न्यूज़, ‘फ़्रेंड्स’, ‘सेक्स ऐंड सिटी’ और ‘डेस्परेट हाउसवाइव्ज़’ जैसे अमेरिकी कार्यक्रम हैं, तो दूसरी ओर जापान (पोकेमन), लातीनी अमेरिका (टेलीनॉवेल्स) और भारत (बॉलीवुड संगीत और वीडियो) जैसे सांस्कृतिक प्रवाह  भी हैं। इन अध्येताओं का यह भी कहना है कि जहाँ ‘साम्राज्यवादी’ कार्यक्रम देखे भी जा रहे हैं, वहाँ यह मानना अनुचित होगा कि दर्शक उन्हें निष्क्रिय रूप से आत्मसात् कर लेते हैं। दर्शकों पर स्थानीय संस्कृतियों और परिस्थितियों के असर को कम करके नहीं आँका जाना चाहिए। अमेरिकी सीरियल ‘डलास’ पर की गयी विस्तृत शोध से पता लगा है कि विभिन्न राष्ट्रीयताएँ और अस्मिताएँ उसके अलग-अलग तात्पर्य ग्रहण करती हैं। इसके अलावा न्यू मीडिया प्रौद्योगिकियों और मीडिया स्वामित्व के बदलते हुए पैटर्न ने भी एकतरफ़ा सांस्कृतिक साम्राज्यवाद की सम्भावनाओं को कमज़ोर किया है। 

सन्दर्भ

1. जॉन टॉमलिंसन (1991), कल्चरल इम्पीरियलिज़म : अ क्रिटिकल इंट्रोडक्शन, कंटीनुअम इंटरनैशनल पब्लिशिंग ग्रुप, न्यूयॉर्क.

2. डेविड रॅथकॉफ़ (1997), ‘इन प्रेज़ ऑफ़ कल्चरल इम्पीरियलिज़म’, फ़ॉरेन एफ़ेयर्स, अंक 107.

3. व्हाइट ए. लिविंगस्टोन (2001), ‘रिकंसीडरिंग कल्चरल इम्पीरियलिज़म थियरी’, ट्रांसनेशनल ब्रॉडकास्टिंग स्टडीज़, अंक 6, वसंत/ग्रीष्म.

4. हरबर्ट आई. शिलर (1976), कम्युनिकेशन ऐंड कल्चरल डॉमिनेशन, इंटरनैशनल आर्ट्स ऐंड साइंस प्रेस, न्यूयॉर्क.

इन्हें भी देखें

बाहरी कड़ियाँ