सर्वसत्तावाद

मुक्त ज्ञानकोश विकिपीडिया से
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ
The printable version is no longer supported and may have rendering errors. Please update your browser bookmarks and please use the default browser print function instead.

सर्वसत्तावाद, सर्वाधिकारवाद (Totalitarianism) या समग्रवादी व्यवस्था उस राजनीतिक व्यवस्था का नाम है जिसमें शासन अपनी सत्ता की कोई सीमारेखा नहीं मानता और लोगों के जीवन के सभी पहलुओं को यथासम्भव नियंत्रित करने को उद्यत रहता है। ऐसा शासन प्रायः किसी एक व्यक्ति, एक वर्ग या एक समूह के नियंत्रण में रहता है। समग्रवादी व्यवस्था लक्ष्यों, साधनों एवं नीतियों के दृष्टिकोण से प्रजातांत्रिक व्यवस्था के बिल्कुल विपरीत होता है। यह एक तानाशाह या शक्तिशाली समूह की इच्छाओं एवं संकल्पनाओं पर आधारित होता है। इसमें राजनैतिक शक्ति का केन्द्रीकरण होता है अर्थात् राजनैतिक शक्ति एक व्यक्ति, समूह या दल के हाथ में होती है। ये आर्थिक क्रियाओं का सम्पूर्ण नियंत्रण करता है। इसमें एक सर्वशक्तिशाली केन्द्र से सम्पूर्ण व्यवस्था को नियंत्रित किया जाता है। इसमें सांस्कृतिक विभिन्नता को समाप्त कर दिया जाता है और सम्पूर्ण समाज को सामान्य संस्कृति के अधीन करने का प्रयत्न किया जाता है। ऐसा प्रयत्न वास्तव में दृष्टिकोणों की विभिन्नता की समाप्ति के लिये किया जाता है और ऐसा करके केन्द्र द्वारा दिये जाने वाले आदेशों और आज्ञाओं के पालन में पड़ने वाली रूकावटों को दूर करने का प्रयत्न किया जाता है। समग्रवादी व्यवस्था का सम्बन्ध एक सर्वशक्तिशाली राज्य से है। इसमें पूर्ण या समग्र को वास्तविक मानकर इसके हितों की पूर्ति के लिये आयोजन किया जाता है। किन वस्तुओं का उत्पादन किया जाएगा, कब, कहाँ, कैसे और किनके द्वारा किया जायेगा और कौन लोग इसमें लाभान्वित होगें, इसका निश्चय मात्र एक राजनैतिक दल, समूह या व्यक्ति द्वारा किया जाता है। इसमें व्यक्तिगत साहस व क्रिया के लिये स्थान नहीं होता है। सम्पूर्ण सम्पत्ति व उत्पादन के समस्त साधनों पर राज्य का अधिकार होता है।

इस व्यवस्था में दबाव का तत्व विशेष स्थान रखता है। इसके दो प्रमुख रूप रहे हैं - अधिनायकतंत्र तथा साम्यवादी तंत्र

परिचय

यद्यपि स्टैलिन (कम्युनिस्ट) तथा हिटलर (नाजी) दोनों की राजनैतिक विचारधाराएँ एक दूसरे के विपरीत थीं, फिर भी दोनों सर्वसत्तावादी थे।

राजनीतिक व्यवस्था के एक प्रकार के रूप में 'सर्वसत्तावाद' एक ऐसा पद है जो निरंकुशता, अधिनायकवाद और तानाशाही जैसे पदों का समानार्थक लगता है। यद्यपि इस समानार्थकता को ख़ारिज नहीं किया जा सकता, लेकिन द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद प्रचलित ज्ञान के समाजशास्त्र की निगाह से देखने पर सर्वसत्तावाद भिन्न तात्पर्यों से सम्पन्न अभिव्यक्ति की तरह सामने आता है। शुरुआत में इतालवी फ़ासिस्ट सर्वसत्तावाद को अपनी व्यवस्था के सकारात्मक मूल्य की तरह पेश करते थे। पर बाद में इसका अधिकतर इस्तेमाल शीतयुद्धीन राजनीति के दौरान पश्चिमी ख़ेमे के विद्वानों द्वारा किया गया ताकि उदारतावादी लोकतंत्र के ख़ाँचे में फ़िट न होने वाली व्यवस्थाओं को कठघरे में खड़ा किया जा सके। इन विद्वानों ने सर्वसत्तावाद के जरिये राजनीतिक व्यवस्थाओं के इतिहास का फिर से वर्गीकरण करने का प्रयास किया। इसके परिणामस्वरूप नाज़ी जर्मनी, फ़ासीवादी इटली, स्तालिनकालीन सोवियत संघ और सेंडिनिस्टा की हुकूमत वाले निकारागुआ को ही सर्वसत्तावादी श्रेणी में नहीं रखा गया, बल्कि प्लेटो द्वारा वर्णित रिपब्लिक, चिन राजवंश, भारत के मौर्य साम्राज्य, डायक्लेटियन के रोमन साम्राज्य, कैल्विनकालीन जिनेवा, जापान के मीज़ी साम्राज्य और प्राचीन स्पार्टा को भी उसी पलड़े में तौल दिया गया।

बीसवीं सदी के दूसरे दशक से पहले समाज-विज्ञान में इस पद का इस्तेमाल किया ही नहीं जाता था। 1923 में इतालवी फ़ासीवाद का एक प्रणाली के रूप वर्णन करने के लिए गियोवानी अमेंडोला ने इसका प्रयोग किया। इसके बाद फ़ासीवाद के प्रमुख सिद्धांतकार गियोवानी जेंटील ने बेनिटो मुसोलिनी के नेतृत्व में स्थापित व्यवस्था को ‘टोटलिरिटो’ की संज्ञा दी। यह नये किस्म का राज्य जीवन के हर क्षेत्र को अपने दायरे में लेने के लिए तत्पर था। वह राष्ट्र और उसके लक्ष्यों का सम्पूर्ण प्रतिनिधित्व करने का दावा करता था। मुसोलिनी ने टोटलिटेरियनिज़म को एक सकारात्मक मूल्य की तरह व्याख्यायित किया कि यह व्यवस्था हर चीज़ का राजनीतीकरण करने वाली है, चाहे वह आध्यात्मिक हो या पार्थिव। मुसोलिनी का कथन था : ‘हर चीज़ राज्य के दायरे में, राज्य के बाहर कुछ नहीं, राज्य के विरुद्ध कुछ नहीं।’ फ़ासीवादियों द्वारा अपनाये जाने के बावजूद 1933 में प्रकाशित इनसाइक्लोपीडिया ऑफ़ सोशल साइंसेज़ के पहले संस्करण से यह पद नदारद है। हान्ना एरेंत द्वारा किये गये विख्यात विश्लेषण में सर्वसत्तावाद को राजनीतिक उत्पीड़न के पारम्परिक रूपों से भिन्न बताया गया है। एरेंत के अनुसार बीसवीं सदी में विकसित हुई इस राज्य-व्यवस्था का इतिहास नाज़ीवाद से स्तालिनवाद के बीच फैला हुआ है। यह परिघटना विचारधारा और आतंक के माध्यम से न केवल एक राज्य के भीतर बल्कि सारी दुनिया पर सम्पूर्ण प्रभुत्व कायम करने के सपने से जुड़ी है। विचारधारा से एरेंत का मतलब इतिहास के नियमों का पता लगा लेने की दावेदारियों से था। आतंक के सर्वाधिक भीषण उदाहरण के रूप में उन्होंने नाज़ी यातना शिविरों का हवाला दिया। उन्होंने समकालीन युरोपीय अनुभव की व्याख्या करते हुए उन आयामों की शिनाख्त की जिनके कारण सर्वसत्तावाद मुमकिन हो सका। उन्होंने दिखाया कि यहूदियों की विशिष्ट राजनीतिक और सामाजिक हैसियत के कारण सामीवाद विरोधी मुहिम को नयी ताकत मिली; साम्राज्यवाद के कारण नस्लवादी आंदोलन पैदा हुए; और युरोपीय समाज के उखड़े हुए समुदायों में बँट जाने के कारण अकेलेपन और दिशाहीनता के शिकार लोगों को विचारधाराओं के ज़रिये गोलबंद करने में आसानी हो गयी। एरेंत के बाद दार्शनिक कार्ल पॉपर ने प्लेटो, हीगेल और मार्क्स की रैडिकल आलोचना करते हुए ‘यूटोपियन सोशल इंजीनियरिंग’ के प्रयासों को (चाहे वह जर्मनी में की गयी हो या रूस में) सर्वसत्तावाद का स्रोत बताया। पॉपर के चिंतन ने जिस समझ की नींव डाली उसके आधार पर आंद्रे ग्लुक्समैन, बर्नार्ड हेनरी लेवी और अन्य युरोपियन दार्शनिकों ने बीसवीं सदी में सोवियत संघ में हुए मार्क्सवाद के प्रयोग से मिली निराशाओं के तहत इस पद का प्रयोग जारी रखा। धीरे-धीरे सर्वसत्तावाद पश्चिम के वैचारिक हथियार के रूप में रूढ़ हो गया।

शासन पद्धतियों का तुलनात्मक अध्ययन करने वाले विद्वानों कार्ल फ़्रेड्रिख़ और ज़िगनियू ब्रेज़िंस्की ने सर्वसत्तावाद की परिभाषा जीवन के हर क्षेत्र को अपने दायरे में समेट लेने वाली विचारधारा, एक पार्टी की हूकूमत वाले राज्य, ख़ुफ़िया पुलिस के दबदबे और आर्थिक-सांस्कृतिक-प्रचारात्मक ढाँचे पर सरकारी जकड़ के संयोग के रूप में की। यह परिभाषा अपने आगोश में फ़ासीवादी और मार्क्सवादी व्यवस्थाओं को समेट लेती थी। पर सत्तर के दशक में सर्वसत्तावाद के ज़रिये पश्चिमी विद्वानों ने नयी कारीगरी करने की कोशिश की और मार्क्सवादी हुकूमतों को फ़ासीवादी हुकूमतों से अलग करके दिखाया जाने लगा। इस दिलचस्प कवायद का परिणाम ‘सर्वसत्तावाद’ और ‘अधिनायकवाद’ की तुलनात्मक श्रेणियों में निकला। इसके तहत दक्षिणपंथी ग़ैर-लोकतांत्रिक राज्यों (जिनसे पश्चिम गठजोड़ बनाये हुए था) को ‘टोटलिटेरियन’ वामपंथी राज्यों के मुकाबले बेहतर ठहराने के लिए ‘एथॉरिटेरियन’ नामक नयी संज्ञा को जन्म दिया गया। इस बौद्धिक उपक्रम के कारण सर्वसत्तावाद का प्रयोग पूरी तरह से बदल गया। जो पद शुरुआत में फ़ासीवाद को परिभाषित करने के लिए इस्तेमाल किया गया था और जिसे अपनी बौद्धिक वैधता आधुनिक तानाशाहियों के वामपंथी और दक्षिणपंथी रूपों को एक ही श्रेणी में रखने से मिली थी, उसे रोनाल्ड रेगन के राष्ट्रपतित्व के दौरान केवल कम्युनिस्ट व्यवस्थाओं के वर्णन में सीमित कर दिया गया।

ज्ञान के समाजशास्त्र के इस शीतयुद्धीन संस्करण में राजनीतिशास्त्रियों ने जम कर योगदान किया। उनके प्रयासों से ही सर्वसत्तावाद की नयी व्याख्याएँ पचास और साठ के दशक में उभरे आधुनिकीकरण और विकास के सिद्धांतों के नतीजे के रूप में सामने आयीं। इसके पहले चरण में सभी समाजों को परम्परागत से आधुनिकता की तरफ़ सिलसिलेवार रैखिक गति से बढ़ते हुए दिखाया गया। इसके बाद कहा गया कि आधुनिक हो जाने के बाद कुछ समाज सकारात्मक (लोकतांत्रिक) व्यवस्थाओं की तरफ़ चले गये क्योंकि वे आगे बढ़े हुए थे और कुछ नकारात्मक (सर्वसत्तावादी) प्रणालियों को अपना बैठे क्योंकि वे पिछड़े हुए समाज थे। इस बौद्धिकता ने लोकतांत्रिक और सर्वसत्तावादी शासन व्यवस्थाओं को आदर्शीकृत रूप में पेश किया।

1968 में अमेरिकी बुद्धिजीवी सेमुअल पी. हंटिंग्टन की रचना पॉलिटिकल ऑर्डर इन चेंजिंग सोसाइटी का प्रकाशन हुआ। हॉब्स की युगप्रवर्तक रचना लेवायथन से प्रभावित इस कृति में हंटिंग्टन ने तर्क दिया कि अविकसित समाजों में कई बार फ़ौज के अलावा ऐसी कोई आधुनिक, पेशेवर और संगठित राष्ट्रीय संस्था नहीं होती जो लोकतंत्र की तरफ़ संक्रमण करने की मुश्किल अवधि में उनका नेतृत्व कर सके। ऐसे समाजों में केवल फ़ौजी शासन ही शांति-व्यवस्था कायम रखते हुए आधुनिकीकरण की प्रक्रिया से निकले अशांतकारी प्रभावों को काबू में रख सकता है। हंटिंग्टन के इस विश्लेषण ने आधुनिकीकरण के साथ जुड़े हुए कार्य-कारण संबंधों को नयी दृष्टि से देखने का रास्ता खोला। पहली बार यह सूत्रीकरण सामने आया कि आधुनिकीकरण के दबावों से राज्य प्रणाली के संस्थागत ढाँचे का क्षय हो जाता है। फ़ौजी तानाशाही इस ढाँचे की पुनर्रचना कर सकती है जिसका बाद में लोकतंत्रीकरण किया जा सकता है। सैनिक तानाशाही को लोकतंत्र के वाहक की संज्ञा देने वाले इस विकट सूत्रीकरण के पीछे ग़रीब देशों पर काबिज़ अलोकतांत्रिक हुकूमतों का अनुभव था।

लोकतंत्र और सर्वसत्तावाद के बीच इस द्विभाजन को पहली चुनौती 1970 में मिली। समाज-वैज्ञानिकों ने 1964 से 1974 के बीच के दौर में देखा कि लातीनी अमेरिका के अपेक्षाकृत विकसित देशों में ही नहीं, बल्कि स्पेन और पुर्तगाल जैसे धनी देशों में अधिनायकवादी शासन चल रहा है। मैक्सिको में भी लोकतंत्र के आवरण के नीचे दरअसल तानाशाही है। ये व्यवस्थाएँ अफ़्रीकी देशों की व्यक्तिगत किस्म की तानाशाहियों से भिन्न बेहद संगठित और जटिल किस्म की प्रणालियाँ थीं। इनका दावा था कि वे अपने-अपने समाजों में विकास और आधुनिकीकरण की प्रक्रिया का नेतृत्व कर रही हैं। उधर एशिया में भी दक्षिण कोरिया और ताइवान में निरंकुश सरकारें आर्थिक विकास करने में कामयाब दिखने लगी थीं। इस घटनाक्रम का अध्ययन करते हुए युआन लिंज़ ने अपनी क्लासिक रचना ‘एन एथॉरिटेरियन रिज़ीम : अ केस ऑफ़ स्पेन’ में एक ऐसी व्यवस्था की शिनाख्त की जिसमें लोकतंत्र और सर्वसत्तावाद के मिले-जुले लक्षण थे।  इसके बाद गुलेरमो ओडोनेल ने 1973 में दक्षिण अमेरिकी राजनीति का अध्ययन करके दावा किया कि पूँजीवादी विकास और आधुनिकीकरण के गर्भ से लातीनी अमेरिका के अपेक्षाकृत निर्भर लेकिन विकसित देशों में एक नौकरशाह-तानाशाही ने जन्म लिया है।

अमेरिकी राजनीतिशास्त्री जीन किर्कपैट्रिक ने 1979 में हंटिंग्टन, लिंज़ और ओडोनेल की व्याख्याओं के आधार पर स्पष्ट सूत्रीकरण किया कि सर्वसत्तावादी केवल मार्क्सवादी- लेनिनवादी हूकूमतें हैं। अधिनायकवादी शासन दमनकारी तो होता है पर उसमें पूँजीवादी लोकतंत्र के रूप में सुधरने की गुंजाइश होती है। किर्कपैट्रिक के इस बहुचर्चित लेख ‘डिक्टेटरशिप ऐंड डबल स्टैंडर्ड’ से हंगामा मच गया। इसकी आलोचना में कहा गया कि सर्वसत्तावादी राज्य अगर गिरक्रतारी, यातना और हत्या पर निर्भर रहता है तो अधिनायकवादी राज्य इसी तरह के काम निजी क्षेत्र के ज़रिये करवाता है। बहरहाल, किर्कपैट्रिक रेगन प्रशासन की कारकुन बनीं और उन्होंने शीतयुद्धीन राजनीति के लिए अपने राजनीतिशास्त्रीय ज्ञान का जम कर दोहन किया।

शीत युद्ध खत्म हो जाने के बाद राजनीतिशास्त्र के दायरों में इस समय स्थिति यह है कि विद्वानों ने सर्वसत्तावाद की श्रेणी को पूरी तरह से ख़ारिज करके अधिनायकवादी व्यवस्थाओं की एक नयी व्यापक श्रेणी बनायी है। इसमें दमनकारी, असहिष्णु, निजी अधिकारों और नागरिक स्वतंत्रताओं का अतिक्रमण और ग़ैर-राजकीय हित समूहों को सीमित स्वायत्तता देने वाली प्रणालियों को रखा गया है। इस वर्णन से ज़ाहिर है कि इन प्रवृत्तियों की शिनाख्त ख़ुद को पूरी तरह से लोकतांत्रिक कहने वाले राज्यों में भी की जा सकती है। इस लिहाज़ से स्थापित उदारतावादी लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं के मुकाबले अधिनायकवाद अधिकांशतः अब एक रुझान का नाम रह गया है।

सन्दर्भ

1. हान्ना एरेंत (1958), द ओरिजिंस ऑफ़ टोटलिटेरियनिज़म, मेरिडियन, न्यूयॉर्क, दूसरा संस्करण.

2. कार्ल पॉपर (1945), ओपन सोसाइटी ऐंड इट्स एनिमीज़, रॉटलेज, लंदन.

3. सेमुअल पी. हंटिंग्टन (1967), पॉलिटिकल ऑर्डर इन चेंजिंग सोसाइटी, येल युनिवर्सिटी प्रेस, न्यू हैविन.

3. सी.जे. फ़्रेड्रिख़ और ज़ैड. ब्रेज़िंस्की (1967), टोटलिटेरियन डिक्टेटरशिप ऐंड ऑटोक्रेसी, प्रेजर, न्यूयॉर्क.

4. जीन किर्कपैट्रिक (1979), ‘डिक्टेटरशिप ऐंड डबल स्टेंडर्ड’, कमेंटरी, खण्ड 68, अंक 5.

5. जे.जे. लिंज़ (1970), ‘एन एथॉरिटेरियन रिज़ीम : अ केस ऑफ़ स्पेन’, ई. अलार्ड और एस रोकन (सम्पा.), मास पॉलिटिक्स : स्टडीज़ इन पॉलिटिकल सोसियोलॅजी, फ़्री प्रेस, न्यूयॉर्क.

इन्हें भी देखें

बाहरी कड़ियाँ