सरीसृप

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ऊपर बाएं से दक्षिणावर्त: हरा कछुआ ( केलोनिया माईडस), टुएट्रा ( स्फेनोडोन पंकटाटस), नाइल क्रोकोड़ाईल्स ( क्रोकोड़ाईल्स नायिलोटिकस) और सिनाई अगमा ( प्सूडोट्रापल्स साईनेट्स).

सरीसृप (Reptiles) प्राणी-जगत का एक समूह है जो कि पृथ्वी पर सरक कर चलते हैं। इसके अन्तर्गत साँप, छिपकली,मेंढक, मगरमच्छ आदि आते हैं।

वर्गीकरण

एक प्रारंभिक सरीसृप "हाईलोनोमस"

सरीसृप का कोई भी सदस्य, हवा में सांस लेने वाले रीढ़धारी जंतुओं का समूह है, जिनमें आंतरिक निषेचन होता है तथा शरीर पर बाल या पंख के बजाय शल्क होते हैं। क्रमिक विकास में इनका स्थान उभयचर प्राणियों और उष्ण रक्त कशेरुकी (रीढ़धारी) प्राणियों, पक्षियों तथा स्तनपायी जंतुओं के बीच है। सरीसृप वर्ग के जीवित सदस्यों में साँप,छिपकली, घड़ियाल,मगरमच्छ,कछुआ तथा टुएट्रा हैं और कई विलुप्त प्राणियों में जैसे डायनासोर और इक्थियोसौर आते हैं।

सामान्य लक्षण और महत्व

लाल कान स्लाइडर, हवा का एक घूंट लेते हुये।

मनुष्यों के लिए सरीसृप वर्ग का आर्थिक और परिस्थितिकीय महत्व अन्य प्रमुख कशेरुकी रीढ़धारी समूहों जैसे पक्षियों, मछलियों या स्तनपायी जंतुओं जितना नहीं है। कुछ सरीसृप प्रजातियों का यदा-कडा भोजन के रूप में इस्तेमाल किया जाता है। सरीसृप की सबसे अधिक खाई जानेवाली प्रजाति हरा कछुआ (कीलोनिया माइडास) है। विशालकाय गैलेपगौस कछुआ उन्नीसवीं शताब्दी में समूदरी यात्रियों के बीच खाद्य पदार्थ के रूप में लोकप्रिय था। यही कारण है कि वह लगभग विलुप्त हो गया। छिपकीलियों में शायद ईगुआना स्थानीय खाद्य पदार्थ के रूप में सबसे लोकप्रिय है।साँप,छिपकली और मगरमच्छ की खाल से अटैची, ब्रीफकेस, दस्ताने, बेल्ट, हैंड बैग और जूते जैसी चमड़े की बस्तुएं तैयार की जाती हैं। इसके कारण मगरमछों, बड़ी छिपकलियों, साँपों और कछुओं की कई प्रजातियाँ बस्तुत: विलुप्त हो गयी हैं। जीव वैज्ञानिक शोध के लिए जीवित प्राणी के रूप में वैज्ञानिकों के लिए छिपकलियाँ काफी उपयोगी रही हैं। इस वर्ग की विषैली प्रजातियाँ कुछ ग्रामीण क्षेत्रों को छोडकर अन्य स्थानों पर मनुष्यों के लिए कम खतरनाक हैं।[१][२][३]

सरीसृपों की आदतें और अनुकूलन

सरीसृप, नोव्यु लैरोसे सचित्र से, 1897-1904.

समुद्री कछुए प्रजनन के लिए हजारों किलोमीटर का सफर तय करके उसी तट पर लौटते हैं, जहां वे पैदा हुये थे। उड़ीसा राज्य के गाहिरमाथा तट पर बड़ी संख्या में ऑलिव रीडली कछुए आते हैं, जिन्हें "अरिबदास" कहा जाता है। एक मौसम में लाखों मादाएँ चार करोड़ तक अंडे देती है, किसी अन्य दक्षिण एशियाई सरीसृप के प्रवजन की जानकारी नहीं है, लेकिन हिन्द महासागर की दो प्रजातियों के बड़े सिर वाले समुद्री साँप (एस्टोटिया स्टोकेसी) और हुक जैसी नाक वाले समुद्री साँप (इंहाइड्रिना शिस्टोसा) बड़ी संख्या में एकत्र होते हैं, जिसका कारण अभी तक पता नहीं चला है, लेकिन यह प्रवजन व्यवहार को दर्शाता है।[४][५]

हिमालय क्षेत्र का पिट वाईपर (एन्सिस्त्रोडोन हिमालयनस) पहाड़ों में 5,000 मीटर की ऊंचाई पर भी जीवित रह सकता है। इतनी ऊंचाई पर यह सिर्फ दो या तीन गरम महीनों में ही सक्रिय रहता है। ठंड सहने में सक्षम इस वाइपर का दूर का संबंधी रेगिस्तानी वाइपर (एरिस्टिकोफिस मेकमोहनी) है, जो ठार रेगिस्तान की गर्म रेत में आराम से रहता है। अधिक ऊंचाई पर पाये जाने वाले अन्य सरीसृपों में पूर्वोत्तर क्षेत्र की तोड़ जैसे सिर वाली छिपकली (फ्राइनोसिफेलस) है, जो हिमालय में 5,000 मीटर से ऊपर वृक्षयुक्त क्षेत्रों से परे भी जीवित रह सकती है।[६]

वृक्षों पर रहने वाले सरीसृप

ज़्यादातर सरीसृप मादा को आकर्षित करने और अपने क्षेत्र के निर्धारण के लिए यौन रूप से प्रजनन पुनर्निर्मित करते है। जईसे गले से लटकने वाली चमकीली पीली त्वचा वाली छिपकलियाँ।
सरीसृप को संभोग के समय एमनियोटिक की आवश्यकता होती है, जिससे उनके मजबूत या चमड़े के गोले के साथ अंडे होते हैं।

कुछ सरीसृप पेड़ों पर जीवन व्यतीत करने के अभ्यस्त हो चुके हैं और किसी छिपकली या वृक्ष मेंढक का पीछा कराते हुये ताम्र-पृष्ठ सर्प (डेंड्रेलेफिस त्रिस्टिस) या उड़ाने वाले साँप (क्राइसोपेलिया ओर्नाटा) को शाखाओं पर आसानी से चढ़ते और कूदते हुये देखना आश्चर्यजनक दृश्य हो सकता है, लेकिन वृक्ष सर्पों में सबसे अद्भुत लंबी नाक वाला लता सर्प (अहेट्युला नासूटा) है, जिसका थूथन काफी लंबा व नरम सिरे वाला होता है और रंग हरा होता है। इस साँप की दृष्टि द्वियक्षीय होती है और इसी कारण इसे अपने शिकार पर हमला करने में काफी आसानी होती है। लेकिन छद्मावरण में सबसे अधिक माहिर गिरगिट (कैमेलियों जिलेनिकस) होते हैं। यह अफ्रीकी छिपकली के महापरिवार का अकेला सदस्य है, जो पूर्व की ओर इतनी दूर तक पहुँच गया है। बाहर की ओर निकली हुई स्वतंत्र रूप में घूमने वाली आँखें, मजबूत पकड़ वाली उँगलियाँ, परीग्राही पूंछ, लिसलिसी और निशाना लगाने योग्य जीभ और कुछ ही सेकेंड में पूरी तरह रंग बदलने की क्षमता वाले गिरगिट का सरीसृप वर्ग में कोई जोड़ नहीं है।

गिरगिट की दो उड़ने वाली प्रजातियाँ (ड्रेको) भी वृक्षवासी सरीसृप है, जो भारत के वर्षा वनों में पायी जाती है। ये छिपकलियाँ तब तक लगभग अदृश्य रहती हैं, जब तक वे मादा को आकर्षित करने और अपने क्षेत्र के निर्धारन के लिए गले से लटकाने वाली चमकीली पीली त्वचा का प्रदर्शन नहीं करती। लेकिन सबसे आश्चर्यजनक दृश्य इनके द्वारा चमकदार पीले या नारंगी पंख फैलाकर वर्षा वनों के ऊंचे पेड़ों के बीच उड़ाने का है। छिपकीलियों, गेको और स्कंक का एक बहुत बड़ा समूह वृक्ष वासी है। हवा में तैरने वाली गेको (टाइकोजुन कुहली) के शरीर में बड़े पंख होते हैं, जिससे यह पेड़ों से जमीन तक तैरकर उतार सकती है।[७]

बिलों में रहने वाले सरीसृप

बिलों में रहने वाले साँप अहानिकर होते हैं और इनकी खोपड़ी की हड्डियाँ सुगठित, गार्डन की मांसपेशियाँ ज्यादा मजबूत और कभी-कभी नाक नुकीली या फावड़ानुमा होती है। बिलों में रहनेवाला सबसे छोटा कृमिसर्प (टाइफ़्लोप्स) होता है, जो बस्तुत: अंधा होता है तथा इसकी 25 प्रजातियों की लंबाई 10 से 30 सेमी तक होती है। इसके बाद पश्चिमी घाट में पाये जानेवाले ढालनुमा पूंछ वाले साँपों (यूरोपेल्टिडी) का स्थान है। यह खोदने वाले साँपों का एक समूह है, जिसमें विभिन्न प्रकार की आकृतियाँ और सिर तथा पूंछ के आकार पाये जाते हैं तथा त्वचा पर खुबसूरत सतरंगी चमक इनका विशेष लक्षण है। विकास विज्ञानियों के दृष्टिकोण से ये डार्विन के फींचेंस (गाने वाली पक्षी) के समान ही महत्वपूर्ण है, क्योंकि ये अन्य मिलती-जुलती प्रजातियों से बिल्कुल अलग अक्सर अपने स्वयं के कूबड़ पर बिकसित होते हैं। ढालनुमा पूंछ वाले साँपों की औसत लंबाई 30 सेमी तक होती है। बिलों में रहने वाले प्राणियों में रेतीले अजगर का भी नाम आता है,100 सेमी तक लंबा होता है। छिपकलियों में स्कंक, बिलों में रहने वाले प्रमुख प्राणी है। इनमें से सबसे सक्षम 'रेट की मछली'(आफिओमोरस) है, जो पश्चिमोत्तर क्षेत्र के ठार रेगिस्तान में पायी जाती है। पूर्वोत्तर में एक पैरविहीन छिपकली (ओफिसोरस ग्राइसीलर्स) पायी जाती है, जो मूगे की चट्टानों के समान रंगीन होती है। इसकी पलकें और कर्ण छिद्र इसके छिपकली वर्ग का होने का प्रमाण देते हैं।[८]

तैरने वाले सरीसृप

हिल-डुल सकने वाले नथुने, कान और गले में स्थित वाल्व, जो गोता लगाते समय बंद हो जाता है जैसे उल्लेखनीय अनुकूलन मगर जाति को जलिए सरीसृपों में सरश्रेष्ठ स्थान प्रदान करते हैं। ये आधा घंटा या इससे अधिक समय तक पनि में डूबे रह सकते हैं और आँखों की रक्षा के लिए उनपर निमेषक झिल्ली भी होती है। कुछ कछुए पानी के अंदर इससे भी ज्यादा आराम से रहते हैं और उनके गले तथा गुदा मार्ग में पानी से ऑक्सीज़न प्राप्त करने की व्यवस्था होती है। भूमि पर असहज लाइडर बैक जैसे भारी समुद्री कछुए पानी के अंदर अपनी विशाल चप्पुनुमा भुजाओं की मदद से उड़ते हुये प्रतीत होते हैं। माइंग्रोब के दलदलों (दलदलीय क्षेत्रों) में जलिए सर्प पाये जाते हैं और कुछ प्रजातियाँ पर्वतीय क्षेत्रों में भी मिलती है। फिसलने वाले शिकार (मेंढक और मछली) पकड़ने के लिए आमतौर पर इनके लंबे दाँत होते हैं और ये लंबे समय तक पानी के अंदर रह सकते हैं।

दक्षिण एशियाई समुद्रों में समुद्री साँपों की 25 प्रजातियाँ पायी जाति हैं और इनमें सभी बेहद विषैली होती है, लेकिन सौभाग्य से मनुष्य को ये बहुत कम ही डंसते हैं। जमीन पर लगभग लाचार हो जाने वाले अधिकांश समुद्री साँप अपना पूरा जीवन पानी में ही व्यतीत कराते हैं, जहां वे शक्तिशाली और प्रभावशाली तैराक होते हैं। समुद्री जीवन के साथ तालमेल बिठाने के लिए समुद्री साँपों में चप्पूनुमा पूंछ, नमक स्रावी ग्रंथियां और शरीर की लगभग पूरी लंबाई तक फैले हुये फेफड़े होते हैं।

संसाधन के रूप में सरीसृप

आवास क्षेत्र और प्रजातियों पर मनुष्य के जबर्दस्त दबाब के कारण वन्य जीवन को अपना असीत्व बनाए रखने का मूल्य चुकाना पद रहा है। आज मगरमच्छ की खाल का उत्पादन करने वाले प्रमुख देश हैं-पपुआ न्यू गुयाना, ज़िम्बाब्वे,इन्डोनेशिया, ऑस्ट्रेलिया, अमेरिका, कोलंबिया,वेनेज़ुएला और दक्षिण अफ्रीका के कई देश। इन सभी देशों में वैज्ञानिक ढंग से प्रबंधित मगरमच्छ कार्यक्रम हैं, जो अवलंबनीय शिकार, आवास क्षेत्र की रक्षा और नियंत्रित निर्यात पर बल देते हैं। भारत और श्रीलंका में सुरक्शित तथा अवलंबनीय मागमच्छ उद्योग शुरू किए जाने की विशाल क्षमता उपलब्ध है, जिससे मगरमच्छ, प्राकृतिक पर्यावास और स्थानीय लोगों को लाभ होगा और विदेशी मुद्रा भी अर्जित होगी। इसके लिए वर्ल्ड कंजर्वेशन यूनियन और कन्वेन्शन ऑन इन्टरनेशनल ट्रेड इन एंडेंजर्स एस्पीशीज़ के मगरमच्छ विशेषज्ञ समूह ने दिशा-निर्देश और नियम निर्धारित किए हैं तथा अवलंबनीय कार्यक्रमों को वर्ल्ड्वाइड फंड फॉर नेचर और फ्रेंड्स फॉर द अर्थ जैसी एजेंसियों का समर्थन प्राप्त है।[४] [५] [६] [९] [१०] [११] [१२]

सरीसृप संरक्षण

भारत में वन्यजीवन संरक्षण कानून है, जो 1970 के दशक के मध्य में बनाया गया था, जब संरक्षण का मुद्दा पहली बार दृष्टिगोचर हुआ था। संरक्षित प्रजातियों की सूची काफी लंबी है। उदाहरण के लिए, भारतीय वन्यजीवन संरक्षण कानून की विभिन्न धाराओं में लगभग 280 सरीसृपों को शामिल किया गया है। सरोसृपों की खाल के व्यापार को रोकने के लिए काफी प्रयास किए गए हैं। साँपों की खाल का उद्योग अब इस क्षेत्र में काफी कम हो गया है और मगरमच्छों की खाल का व्यापार वस्तुत: समाप्त हो चुका है। अब भी बांगलादेश में नियंत्रण से बाहर बड़ी संख्या में गोहो की खाल का व्यापार होता है और संभवत: इनमें से काफी बड़ी मात्रा भारत से तस्करी करके वहाँ पहुंचाई जाती है।

संयुक्त राष्ट्र संघ के खाद्य और कृषि संगठन (एफ ए ओ) के बित्तीय और तकनीकी सहयोग से 1975 में भारत और नेपाल में मगरमच्छ परियोजना शुरू की गयी। शुरू में जंगलों में मगरमच्छों की आवादी बढ़ाने के लिए उनके अंडे सेने, पालने और जंगलों में छोड़ देने का कार्यक्रम अपनाया गया। इसके बाद खाल और मांस की प्राप्ति के लिए इस संसाधन का वैज्ञानिक प्रबंधन किया गया। कई हजार घड़ियालों को पालकर उन्हें प्रकृतिक आवासों में छोड़ने से यह परियोजना आंशिक रूप से सफल रही है, लेकिन वाणिज्यिक संस्थान के रूप में घड़ियालों के दीर्घावधि प्रबंधन का कार्यक्रम अभी शुरू नहीं हुआ है और यह योजना रुकी पड़ी है।

खतरे में पड़ी प्रजातियों का अंतर्राष्ट्रीय व्यापार सम्मेलन (साइट्स), जैस्पर दक्षिण एशियाई देशों ने हस्ताक्षर किए हैं, एक अंतर्राष्ट्रीय नियामक संस्था है। यह अंतर्राष्ट्रीय व्यापार पर प्रभावशाली नियंत्रण में सफल रही है। विशेषकर उन देशों में, जो वाणिज्यिक रूप से दोहित प्रजातियों की रक्षा करने में सक्षम नहीं हैं। प्रकृति और प्राकृतिक संसाधन के संरक्षण के अंतर्राष्ट्रीय संगठन (आई यू सी एन) और वर्ल्ड वाइड लाइफ फंड फॉर नेचर (डब्ल्यू डब्ल्यू एफ) सक्रिय अंतर्र्श्तृय एजेंसियां है, जिनकी शाखाएँ दक्षिण एशिया में है और जिनके शोधों, कोशों की स्थापना व संरक्षण गतिविधियों से इस क्षेत्र की सरीसृप प्रजातियों को लाभ पहुंचा है।[१३]

परंपरा और मिथक

सरीसृपों की भांति बहुत कम जन्तु ही मनुष्यों में रुचि पैदा करते हैं। भारतीय परम्पराओं और मिथकों में साँप का विशेष स्थान है। सम्पूर्ण भारत में उर्वरता के अनुष्ठान के रूप में नक्काशीदार "सर्पशिलाएँ " देखी जा सकती है। मंदिरों में आमतौर पर साँपों के चित्र उकेरे गए होते हैं तथा मित्रतापूर्ण, सहायक, खतरनाक दानवी साँपों के बारे में अनगिनत दांत कथाएँ प्रचलित है। हिंदुओं के देवता भगवान शिव के गले में नाग विराजमान रहता है। हाथी के सिर वाले देवता गणेश कामबंद के रूप में नाग का उपयोग कराते हैं। कई बार गौतम बुद्ध धूप और वर्षा से वचव के लिए विशालकाय नाग की छत्रछाया में ध्यानमग्न दिखाया गया है।

देवी माँ गंगा मगरमच्छ की सवारी करती हैं और यमुना नरम कवच वाले कछुए की। तमिलनाडू के कांचीपुरम के मंदिर में पत्थर पर उकेरी गयी छिपकली की आकृति को पवित्र माना जाता है। हालांकि इस क्षेत्र में सरीसृपों से जुड़ी दंतकथाओं में सरश्रेष्ठ स्थान कछुओं को प्राप्त है, जिसके बारे में माना जाता है कि उसने पूरे विश्व को अपनी पीठ पर उठाया हुआ है, जिसे कूर्मावतार कहा जाता है।

सरीसृपों के बारे में कई अंधविश्वास है और इस महाद्वीप के प्रत्येक हिस्से में अलग-अलग अंधविश्वास प्रचलित है। पाकिस्तान और अफगानिस्तान के बीच खैबर दर्रे के क्षेत्र में एक छोटे साँप की कहानी प्रचलित है, जो इतना विषैला था कि उसके रेंगने से वर्फ पिघल जाति थी। भारत के कई हिस्सों में माना जाता है कि धामन साँप गाय के पैरों में लिपटकर उसका दूध पी जाता है। पश्चिमोत्तर क्षेत्र में कहा जाता है कि करैत साँप सोये हुये मनुष्य की छाती पर लिपटकर उसकी सांस खींच लेता है। शायद यह श्वास प्रणाली के बंद हो जाने का ग्रामीण विवरण है। अन्य पुरानी मान्यता यह है कि साँप को मारने पर मारने वाले व्यक्ति का चित्रा मारे हुये साँप की आँखों में अंकित हो जाता है, फिर उसका जोड़ा इस तस्वीर को देखकर मारने वाले से बदला लेता है। अन्य कई कहानियों में कुछ सच्चाई है। उदाहरण के लिए, अगर किसी साँप को डंडे से मारा गया है, तो संभावना है कि डंडे पर उसकी लैंगिक गंध, कस्तुरी रह जाएगी, जिससे दूसरा साँप आकर्षित हो सकता है।

भारत में सरीसृप

बीसवीं शताब्दी के अंत तक सरीसृपों की समृद्ध विविधता से युक्त भारतीय उप महाद्वीप में लगभग 600 प्रजातियाँ थी, जिनमें साँप,छिपकली,मगरमच्छ और कछुआ की कई किस्में शामिल थीं। पूर्वोत्तर भारत,पश्चिमी घाट, और अंडमान व निकोबार द्वीप समूह के अल्पज्ञात क्षेत्रों की सरीसृप विषयक तरीके से खोज करने पर अब भी नई प्रजातियों का पता लग रहा है, लेकिन दक्षिण एशियाई सरीसृप वैज्ञानिक जिस गति से खोजबीन कर रहे हैं, उससे कहीं अधिक तेजी से आवास क्षेत्र और प्रजातियों का लोप हो रहा है। मनुष्य के लालच और वहुमूल्य वन जलबिभाजक क्षेत्रों का ध्यान रखने में उनकी अक्षमता के कारण सरीसृप विलुप्त हो रहे हैं। सरीसृप वर्ग की विभिन्न प्रजातियों का भारत के वर्षा क्षेत्रों से निकट का संबंध है। पश्चिमी घाट, पूर्वोत्तर भारत,अंडमान व निकोबार द्वीप समूह में सबसे अधिक वर्षा होती है और यहाँ सबसे जटिल वन प्रणाली तथा सर्वाधिक सरीसृप प्रजातियाँ मौजूद हैं।[१४]

चित्र वीथि

सन्दर्भ

  1. साँचा:cite book
  2. Laurin, M. (1995). "A reevaluation of early amniote phylogeny" (PDF). Zoological Journal of the Linnean Society. 113 (2): 165–223. doi:10.1111/j.1096-3642.1995.tb00932.x. Archived (PDF) from the original on 13 अप्रैल 2020. Retrieved 23 अप्रैल 2013. {{cite journal}}: Check date values in: |access-date= and |archive-date= (help); Unknown parameter |coauthors= ignored (|author= suggested) (help)
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  10. Laurin, Michel and Gauthier, Jacques A.: Diapsida. Lizards, Sphenodon, crocodylians, birds, and their extinct relatives स्क्रिप्ट त्रुटि: "webarchive" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है।, Version 22 जून 2000; part of The Tree of Life Web Project स्क्रिप्ट त्रुटि: "webarchive" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है।
  11. साँचा:cite book
  12. साँचा:cite book
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  14. [भारत ज्ञानकोश, खंड-5, पृष्ठ संख्या: 355, प्रकाशक: पापुलर प्रकाशन मुंबई ]

बाहरी कड़ियाँ

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