समान रैंक, समान पेंशन

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साँचा:asbox “अधिकारिओ और जवानों के बिच समानता एक कल्पना हो सकती है, लेकिन फिर भी इसे एक गवर्निंग सिद्धांत रूप में स्वीकार करना होगा”।

बाबासाहेब आंबेडकर

समान रैंक, समान पेंशन (One Rank, one Pension (OROP)), यह सन १९७३ तक भारतीय सशस्त्र सेवाओं के कर्मचारियों के पेंशन एवं अन्य लाभ की गणना का आधार था। इसे पुनः स्थापित करने के लिये आन्दोलन चला और अब उसे भारत सरकार ने स्वीकार कर लिया है। (अगस्त २०१५)

सैनिक की जातिगत विभावना

सैनिक - शब्द एक है लेकिन इसमें दो जातियाँ है| जी हां दो जातियाँ | एक को अफसर  तथा दूसरे को अन्य रेंक कहते हैं| सैनिक शब्द सुनते ही आपको ख्याल आता होगा कि ये लोग रात में जगकर सीमाओं पे पहरा देते हैं, दुश्मन की गोलियाँ सिने पे लेते हैँ, मातृभूमि का हर हाल में हिफाजत करते हैं| बिल्कुल ऐसा ही है| लेकिन क्या आप जानते हैं कि जब इनके हक की बात की जाती है तो मलाई सिर्फ एक ही जाती लूट ले जाती है| और ये वो जाति हैं जो एयर कंडीशन में  में बैठकर लडाई लडते हैं, जवानों को गुलाम समझते है, अपने लिए अलग संडास  "अफसर  संडास" एवं अलग रसोईघर "अफसर मेस" बनवाएँ हैं, इनके बच्चे अगर एक शब्द हिन्दी बोल दे तो उन्हे थप्पड मारते हैं, इनके बच्चे कितने भी नालायक हो उनका अफसर  बनना तय होता है, एक किसान का लडका कितना भी तेज हो, अगर अँग्रेजी कमजोर हो तो ये कहते हैं कि OLQ ( अफसर  लाइक क्वालिटी ) नहीं है, सेवा निवृति के पश्चात, चुनाव के दिन गोल्फ एन्जॉय करते हैं, अक्सर टेलिविज़न पे सैनिकों की आवाज बनते है लेकिन काम हमेशा अपनी जाती के फायदे की करते हैं, और ये लोग ही अफसर  कहलाते हैं| और ये लोग ही OROP या फिर वित्तीय आयोग का ड्राफ्ट बनाए हैं| क्या आपको अब भी लगता है कि ये जाति, दूसरी असहाय जाति " अधर रेंक" के साथ न्याय करेंगे? क्या आपको नहीं लगता कि दूसरी जाति का भी हर फोरम में प्रयाप्त प्रतिनिधीत्व होना चाहिए| 

भारत रक्षक बृजेश कुमार ( सूबेदार मेजर - रिटायर्ड)।।।बरेली (उत्तर प्रदेश)।

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जय जवान जय किसान

हमारे देश की ये विडम्बना है की जहां किसान को धरती का तात (पिता) कहा गया उसी धरती माँ की रक्षा के काबिल उसे नहीं समजा जाता। भारत की सेनाओं के सैनिक जो की गरीब किसान परिवारों में से आते है। जिनके ऊपर हिन्दुस्तान की धरती माँ का क़र्ज़ है उन्हें सेवादार, ग़ुलाम बनाकर उनकी बेइज़्ज़ती करी जाती है। आज के हिन्दुस्तान में आज़ादी के 68 साल बाद भी देश के गांवठि किसान के बच्चों को अलग संडास! अलग खाना! अलग रहना! मेमसाहब के कपडे धोना! साहब के जूते पालिश करना! ये सब ग़ुलामी के काम जबरजस्ती करवाये जाते है। सेना में 97 प्रतिशत ये गांवठि जवान है इन्हें अफसर बनने व् प्रोमोशन के काबिल नहीं गिना जाता। क्यों की ये सैनिक अंग्रेजी भाषा व् तौर तरीके नहीं जानते।

राम लल्ला के समय में चाहे अकबर बादशाह के वक़्त में मेरे भारत देश में देशी होना शर्म की बात नहीं थी। आज क्यूंकि मेरा सिपाही देशी है। किसी ग़रीब किसान का बेटा है उसे फौज से 15-17 साल की देश सेवा के बाद जब उसका देशप्रेम उसकी काबिलियत और हिम्मत के चर्चे पुरे विश्व में है तब लात लात मार के सेवा निवृत्त किया जाता है।

हर पे कमीशन के वक्त काले अँगरेज़ अफसरों की कमी का गाना गाते है। कोई ये जवाब देगा की अपनी प्रारंभिक सेवा का कॉन्ट्रेक्ट समय पूर्ण होने पर 99% सैनिक जो की 15-17-20 साल के अनुभव सिद्ध योद्धा है। उन्हें सेना से बाहर क्यों जाने दिया जाता है? ह्यूमन रिसोर्स मैनेजमेंट की ये कौनसी पॉलिसी है? जहाँ देशी लहजे वाले किसान के बेटे को सैनिक तो बनाया जाता है मगर अफसर बनने के लायक नहीं समजा जाता? ऐसा कौनसा गुण चाहिए जिसे कुछ एक ढोंगी काले अँगरेज़ सर्विस सिलेक्शन बॉर्ड में ढूंढते है? और जो उन्हें 99 प्रतिशत  जवानों में नहीं मिलता। हर साल 15 लाख जवानों में से केवल 10-12 जवान ही अफसर प्रोमोट किये जाते है। देश के लिए ओलंपिक्स, एशियाई खेल, एवम् एन्य अंतर राष्ट्रिय एवम् राश्ट्रीय खेलों में पदक लाने वाले और देश का सर गर्व से ऊँचा करने वाले जवानों को भी देशी पाते हुवे। ये काले अँगरेज़, अफसर प्रोमोशन नहीं देते। वहीँ सचिन तेंडुलकर महेन्द्रसिंह धोनी इन सब को कर्नल और ग्रुप केप्टन बनाकर बड़े ही गद्गादित महसूस करते है।

अगर कपिलदेव, सचिन तेदुलकर और महेन्द्र सिंह धोनी को आनेररी हवलदार मेजर का पद से सुशोभित करते तो क्या यह खिलाड़ी सेना के इस सम्मान को तैयार होते।।।।शायद नही! मगर इस देश को इसी सेना ने कई अन्तर्राष्ट्रीय स्तर के खिलाड़ी दिये जिन्होने ओलम्पिक खेलों मे भारत को जीत दिलाई मगर बदले मे सेना ने सम्मान दिया हवलदार मेजर का। हाकी का जादूगर हवलदार मेजर ध्यानचन्द उनमे से एक है इनको नायब सूबेदार के लायक भी नही समझा। जब सेना से इस बारे मे पत्रकारों ने पूछा तो सेना ने अपने स्पष्टीकरण मे कहा कि किसी भी सैनिक खिलाड़ी का प्रमोशन उत्कृष्ट प्रदर्शन के आधार पर हवलदार या नायब सूबेदार के पद तक हो सकता है। अफसर का आनेररी पद जवान को लागू नही है ऐसी पॉलिसी ही नही है। सेना मे सिपाही होने की बजह से न इस खिलाड़ी को सेना मे अफसर पद मिला और न ही भारत रत्न के लायक समझा गया। वह तो भला हो सैनिक साथी लोगों को जिन्होने ध्यानचंद को हवलदार मेजर की जगह मेजर ध्यानचंद कह कर बुलाना शुरू कर दिया और जो बाद मे पत्रकार भी मेजर ध्यानचंद कहकर सम्बोधित करने लगे।

परिचय

जब दो सैनिक एक पद पर, एक समय तक सर्विस कर के रिटायर होते हैं पर उनके रिटायरमेंट में कुछ सालों का अंतर होता है और इस बीच नया वेतन आयोग भी आ जाता है, तो बाद में रिटायर होने वाले की पेंशन नए वेतन आयोग के अनुसार बढ़ जाती है। लेकिन पहले रिटायर हो चुके फौजी की पेंशन उसी अनुपात में नहीं बढ़ पाती।

“स्वतंत्र भारत में कोई भी भूख से नहीं मरेगा।अनाज निर्यात नहीं किया जायेगा। कपड़ों का आयात नहीं किया जाएगा। इसके नेता ना विदेशी भाषा का प्रयोग करेंगे ना किसी दूरस्थ स्थान, समुद्र स्तर से 7000 फुट ऊपर से शासन करेंगे। इसके सैन्य खर्च भारी नहीं होंगे। इसकी सेना अपने ही लोगों या किसी और की भूमि को अधीन नहीं करेगी। इसके सबसे अच्छे वेतन पाने वाले अधिकारी इसके सबसे कम वेतन पाने वाले सैनिको से बहुत ज्यादा नहीं कमाएंगे। और यहाँ न्याय पाना ना खर्चीला होगा ना कठिन होगा”।

सरदार वल्लभभाई पटेल

कहां फंसा है पेंच-

फौजियों की पेंशन की तुलना सामान्य सरकारी कर्मचारियों से नहीं की जा सकती क्योंकि एक ओर जहाँ सैन्य अधिकारी वर्ग और सामान्य सरकारी कर्मचारी को 60 साल तक तनख्वाह लेने की सुविधा मिलती है, वहीं सैनिक कक्षा के जवानो को साल में ही रिटायर होना पड़ता है और उनकी सर्विस के हालात भी अधिक कठिन होते हैं।

अंग्रेजों के ज़माने से अबतक ऐसा रहा है चलन-

अंग्रेजों के समय में सैनिक वर्ग के फौजियों की पेंशन तनख्वाह की करीब 80 प्रतिशत होती थी जबकि सैन्य अधिकारी वर्ग एवं सामान्य सरकारी कर्मचारी की 33 प्रतिशत हुआ करती थी. भारत सरकार ने इसे सही नहीं माना और 1957 के बाद से फौजियों की पेंशन को कम की और अन्य क्षेत्रों की पेंशन बढ़ानी शुरू की.

सेना में भरती हुवे प्रत्येक जवान ने आज़ाद भारत के नागरिक होने के बावजूद अपने मानवाधिकार और संवैधानिक मूल अधिकार स्वेच्छा से त्यागे। और स्वैच्छिक दासत्व का स्वीकार किया। अफसर के हर आदेश को पत्थर की लकीर समज कर माना।

इस दुनिया में जन्मा प्रत्येक जिव स्वातंत्र्य की कामना रखता है। हम फौजीऑ ने अपना आत्म सम्मान, अपनी आज़ादी देश को अर्पण की। सेना में सेवारत रहते समय हम देशी भारतिय फौजी भाई अपने साथ हुए हर अन्याय को सहते रहे है। “समय बड़े बड़े घावों को भर देता है” सैनिको की व्यथाएँ इसी लिए काफी सामान्य सी लगती है। क्यूंकि हमें आदत सी हो गयी है।

आज हमारी ये स्थिति है की हम में से बहूत से लोगो ने, कमजोर मानसिकता वाले भाई ऑ ने इस स्थायी दासता को स्वीकार कर लिया है। और इस तरफ पूर्व अफसर ये स्वीकार करने को तैयार नहीं की पूर्व सैनिक अब उनके दास गुलाम नहीं और पूर्व सैनिको को और उनके परिवारजनो को भी उतना ही सेवा और सम्मान पाने का अधिकार है। जितना की उन्हें और उनके परिवार को है। पहली लडाई अपने स्वाभिमान की होनी चाहिए, भेदभाव खत्म करने की होनी चाहिए।

क्या है फौजियों की मांग-

फौजियों की मांग है कि 1 अप्रैल 2014 से ये योजना छठे वेतन आयोग की शिफरिशों के साथ लागू हो. फौजियों का कहना है कि असली संतुलन लाना है तो हमें भी 60 साल पर रिटायर किया जाय. हमें तो 33 साल पे ही रिटायर कर दिया जाता है और उसके बाद सारा जीवन हम पेंशन से ही गुजारते हैं. जबकि अन्य कर्मचारी 60 साल तक पूरी तनख्वाह पाते हैं. ऐसे में हमारी पेंशन के प्रतिशत को कम नहीं करना चाहिए.

बहरहाल इस वक्त ये फौजी सिर्फ इतना ही चाहते हैं कि छठे वेतन आयोग को लागू करते हुए समान पद और समान समय तक सर्विस कर चुके फौजियों को एक समान पेंशन दी जाय, चाहे दोनों किसी भी साल में रिटायर हुए हों. अगर ये योजना लागू होती है तो करीब 25 लाख फौजियों या उनके परिवारों को लाभ होगा. इसके लिए हर साल सरकार को करीब 9 हज़ार करोण रुपये का अतिरिक्त भार सहना होगा.

मैडल वापसी गेंग और राष्ट्रद्रोह

किसी ने अभी तक परमवीर चक्र नही लौटाया, महावीर चक्र नही लौटाया, शौर्य चक्र नही लौटाया, पता है क्यो।।।।??? क्योंकि ये चापलूसी से नही मिला करते, जान की बाजी लगानी पड़ती है।। जय मातृभूमि।। 26 जनवरी 2014 को दिए गए 273 मेडलों में से 231 अधिकारी, 11 जेसीओ और 31 मेडल एन सी ओ और अन्य रैंक के सैनिको को 105 गैलेंट्री अवार्ड में से 64 अधिकारी, 11 जेसीओ और 30 मेडल एन सी ओ और अन्य रैंक के सैनिको को अब ये सोचना है के शौर्य क्या सिर्फ सेना के 3% अफसर बंधू की जागीर है? फ़ौज के 97 प्रतिशत लोग-जवान क्या शूरवीर नहीं है? क्या ये वतन सिर्फ अफसरों की शहादत या वीरता को ही पहचानता है?

क्या जब भी सेना का एक वीर देश के लिए अप्रतिम वीरता और कौशल्य दिखाता है तो उसे मेडल के लिए रिकमेंड ही नहीं किया जाता? मेडल क्या सिर्फ केचप कर्नल को ही दिए जाते है? दोस्तों मैडल वापसी गैंग और भारतीय सशस्त्र सेनाओ में मेडलों के आबंटन में पारदर्शिता का अभाव के बिच का मेल मिलाप आइये मिलकर समजे। अगर किसी भी बन्दे ने असली में देश की सुरक्षा में मेडल पाया हो। वो कभी राष्ट्र का दिया हुवा सम्मान वन रेंक वन पेंशन या फिर 20000 ₹ के लिए वापिस नहीं करेगा। क्या ये सारे केचप कर्नल है? जिन्होंने जवान की शहीदी पे अपनी मेडलों और तमगों की रोटिया सेकी है। ये पैसे और नाम के भूके दरिंदो की राष्ट्र के खिलाफ साज़िश है। मेरी मोदी सरकार से अपील है। मेडल वापसी गैंग को मेडल कब और कैसे मिले इसकी मौलिक जाँच करवाई जाये। दूध का दूध और पानी का पानी हो जायेगा। जय हिंन्द। जय सैनिकस्वराज।

एकमात्र वस्तु जो हमें पशु से भिन्न करती है - वह है सही और गलत के मध्य भेद करने की क्षमता जो हम सभी में समान रूप से विद्यमान है, : गांधीजी

वन रेंक वन पेंशन का एलान प्रधान मंत्री जी ने कर दिया है। मगर कुछ लोग अपनी राजनितिक रोटिया सेकने के लिए अभीभी रेलिया निकाल रहे है। फैसला हमें करना है की हम किसके साथ है? अपने देश के चुने हुवे प्रधान मंत्री के साथ या फिर? विश्वास को हमेशा तर्क से तौलना चाहिए। जब विश्वास अँधा हो जाता है तो मर जाता है, गांधीजी। क्या इन जंतर मंतरी मैडल जलाओ वाले साहबो ने कभी बताया की उनके वाले  वन रेंक वन पेंशन से जिसके लिए ये रेलिया निकाल रहे है सैनिको और सिपाही यों की विधवाओ के पेंशन में कितने रूपये की बढ़ोतरी होगी? और उनके खुद के पेंशनों की बढ़ोतरी बताने की भी कृपा करें। सात घनघोर पाप: काम के बिना धन;अंतरात्मा के बिना सुख;मानवता के बिना विज्ञान;चरित्र के बिना ज्ञान;सिद्धांत के बिना राजनीति;नैतिकता के बिना व्यापार; त्याग के बिना पूजा, : गांधीजी

ये मैडल जलाओ मैडल वापिस करो गेंग के का देशद्रोह करने वाले सत्तू जेनसेट और उसके समर्थक पूर्व अफसर। वन रेंक वन पेंशन के नामपर सैनिको को गुमराह कर रहे है। हमने कभी सोचा न था की कोई जनरल भी इतना निचे गिर सकते है। ये जनाब देश की चुनी हुई सरकार गिराने के लिए सेवारत सैनिको और अफसरो को उकसा रहे थे। ये देशद्रोही पैसे के लालच देश को दुश्मनों के हाथो बेच न दे ये। अब ये हमें सोचना है हम किसके साथ है? क्या हमारे जीवन का एक मात्र लक्ष्य वन रेंक वन पेंशन है? 

यह जानकर बहुत दुख: हुआ की हमारे कुछ मुट्ठीभर भूतपूर्व सेनाधिकारियों ने अपने  मेडल जलाकर विरोध प्रदर्शन किया और ऐसा करके उन्होंने देश और फौज  का बहुत बड़ा अपमान किया है उनके खिलाफ सख्त कार्रवाई होनी चाहिए ताकि आगे किसी की इतनी हिम्मत न हो की देश और फौज को बदनाम करें। शर्म आनी चाहिए इन लोगों को।

मेरा प्रश्न है धरना पर बैठे उन सैनिक अधिकारियो से कि देश को और कितना कमजोर करना है? आपने देश की रक्षा की है। देश हित में बलिदान दिया है। तो आज आपलोग राजनीति क्यों कर रहे हैं। जिस ओआरओपी को किसी ने लागू नहीं किया उसे मोदी ने कर दिखाया है।

हमें उनका शुक्रगुजार होना चाहिए न की अपनी भूख और बढ़ा देना। राजनीति से प्रेरित होकर पंजाब इलेक्शन तक जंतर मंतर पर डटे रहना।

ये सबको आभास हो चूका है कि आप लोग अपना भविष्य चमकाने में लगे है। न की जवानों का। सेवा के दौरान जवानो का शोषण करके भी पेट न भरा तो वहाँ भी उनका अनहित कर दिया। अपनी झोली भर ली और सैनिको को फटेहाल छोड़ा। न तो आपके जवानों की चिंता है और न ही देश में लाखो लोगों कि जो गरीबी रेखा के नीचे जी रहे है। जरा अपने से नीचे स्तर के लोगों का हाल भी देखिये।

प्रधानमंत्रीजी और रक्षामंत्रीजी से मैं अपील करता हूँ कि सारे अवकाश प्राप्त सैनिको व अधिकारियो के पेंशन की राशि उनके सेवा अवधि के अनुसार बराबर तय की जाये।

संतोषम परम सुखम्। अब बस कीजिये और अपने घरों में दिवाली मनाईये।

हमारा विरोध मोदी सरकार से नहीं है। हम खिलाफ है उपनिवेशीय कानूनों और ग़ुलामी के। हम सैनिको को अगर सैनिकस्वराज कोई शख्स देने की मंशा रखता है तो वो नौटंकी के बिच, सहिष्णु बने रहे भाइओ।

68 साल पुराना नासूर है अफसरियत अंग्रेज़ियत शोषण इसे झड़ से दूर करने में वक़्त तो लगता है। अभी वन मेन कमीशन भी बैठेगा। सरकार हमारे चन्द ज्ञापनों के ऊपर ओआरओपी जवानों वाला नहीं दे सकती। हां अगर हम मिलकर सैनिकस्वराज के श्रमदान या असहयोग आंदोलन को पुरे देश में फेलाए और आम जनता का विश्वास प्राप्त करे की NFU TIMESCALE ACP ओआरओपी ये सब से कैसे ये पूर्व अफसर देश को लूट रहे है। सातवे वेतन आयोग एनोमाली कमिटी और वन मेन कमीशन को भी विसंगतियों के बारेमे लिखे। पेंशन की व्याख्या क्या इतना वैभव है? इस बात पे जब पूरा सैनिक परिवार और देश हमारे साथ होगा तभी सम्पूर्ण बदलाव आएगा। अगर कोई जवान बंधू वन रेंक वन पेंशन के लिए हम से जुड़े है तो जाग जाइए। हमारा एक मात्र लक्ष्य सम्पूर्ण सैनिकस्वराज है। स्वराज कोई एक दिन या एक महीने में मिलने वाली चीज़ नहीं है। कभी कभी तो एक जीवन भी कम पड़ता है स्वराज के लिए। याद कीजिए शहीद भगत सिंह, आज़ाद अशफ़ाक़ उल्ला खान बाल गंगाधर तिलक। सुभाषचंद्र बोस को। 

ये सैनिकस्वराज की लड़ाई है। कोई बच्चों का खेल नहीं। वक़्त आने पे जान की बाज़ी लगानी पड़ती है। भारत के सैनिको एकजुट हो जाओ ; तुम्हारे पास खोने को कुछ भी नहीं है ,सिवाय अपनी जंजीरों के। सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है। देखना है ज़ोर कितना बाज़ुए क़ातिल में है।

“मैं इस बात पर जोर देता हूं कि मैं महत्त्वाकांक्षा, आशा और जीवन के प्रति आकर्षण से भरा हुआ हूं पर जरूरत पड़ने पर मैं ये सब त्याग सकता हूं, और वही सच्चा बलिदान है”। -भगत सिंह

वन रेंक वन पेंशन के चोगे के पीछे, राष्ट्रद्रोह की गहरी साझिश।

13 अगस्त 2015 के दिन जब सरकार ने स्वतंत्रता दिवस की पूर्व संध्या पर राष्ट्रिय सुरक्षा के कारणों से दो दिन के लिए इन्हें जंतर मंतर से हटने को बिनती की। तो पहले तो इन्होने तम्बू हटाने को साफ़ मना कर दिया। पुलिस ने इन्हें शाम तक का समय दिया। ये नहीं हटे। फिर जंतरमंतरी गुर्गो को अगले दिन सुबह तक का अल्टीमेटम दे दिया गया। इन सेवा निवृत साहबानों में से कुछ के बच्चे टेलिविज़न पत्रकार है। इन्होने अगले दिन के लिए ओबी वेन लाइव टीवी कवरेज के लिए तैयार रखवाई। 14 अगस्त की सुबह एक बार फिर पुलिस ने उन्हें पहले तो रास्ट्रीय सुरक्षा की दुहाई दे इन वेटरंस को बिनती की। बाद में उन्हें हाथ पकड़ कर पुलिस वेन में बैठाने का प्रयास किया। अब इन्होने पुलिस से हाथा पाई की। उस हल्की झड़प को इनके फौजी ब्रेट प्रेस्टीटयूट बच्चोंने ऐसे लाइव टीवी पर कवर किया और दिखाया जैसे की इस देश का चुना हुवा प्रधानमंत्री सारे पूर्व सैनिको का एक मात्र दुश्मन है!!!!

एक कर्नल चौधरीने उस घटना के तुरंत बाद (अगस्त 14 1135 बजे) अपनी फेसबुक पोस्ट में सभी सेवारत एवं सेवानिवृत सैनिको को चेलेंज किया, उनको उनके पड़ोसियों और परिवारों का आवाहन किया और कहा। “जंतर मंतर से हटे नहीं, वापिस हमला करें और पुलिस को मार भगाएं। ऑआरऑपी के सपोर्ट में मोदी को लाल किले पर राष्ट्र ध्वज फहराने से रोकें। तुरंत ही कार्यवाही करें, देर न होने पाए। इन्कलाब जिंदाबाद! जय हिन्द!!”

अरे भाई ! यह कौन सा इन्किलाब है तुम्हारा??? अगर शहीद ए आज़म भगत सिंह इन दोगले लोगों को इंक़िलाब जिंदाबाद के उस अमर नारे को कुछ रुपयों के फायदे के लिए राष्ट्र से गद्दारी करते वक्त इस्तेमाल करता देखते तो उनका सर ज़रूर शर्म से झुक जाता।

वन रेंक वन पेंशन का सच

क्या यही है? वन रेंक वन पेंशन के जंतर मंतर वाले धरने का सच!! फिर तो यह वन रेंक वन पेंशन आप अफसरों को मुबारक। में फुद्दू फौजी अपनी मिट्टी से गद्दारी कुछ रुपयों की खातिर नहीं कर सकता। जय जवान! वाला सम्मान जो मैडल जलाओ गैंग की वजह से हमने खोया है। उसे वापिस कैसे पाऊं?? पूर्व जवानों की आज की स्थिति में सुधार कैसे आए?

समान मिलिटरी सर्विस पे और समान डिसेबिलिटी पेंशन

सर्जिकल स्ट्राइक के दुसरे ही दिन अक्तूबर २०१६ में जेनसेट श्री सतबीर बाबू के एक ख़ास चेले ने रेडिफ डॉट कोम में एक आर्टिकल लिखा जनाब कहते है ‘सर्जिकल स्ट्राइक के बाद जवानो को सरकार का तोहफ़ा डिसेबिलिटी पेंशन में कटौती!!’

मेरी समज में ये नहीं आ रहा है की जब फायदे की बात आती है तो कुछ ख़ास अफसर बंधू अपने आप को “सैनिक” “जवान” इन सब नामो से उल्लेखते है। और जब बराबरी की बात आती है तो खुद को सिविल सर्विस के आई।ए।एस। अधिकारियों संग तोलते है। खुद को जवान कहलाने वाले पे कमिशनों के वक्त असली वाले जवानो की कमर तोड़ देते है। जवानों की विधवाएं सिलाई मशीन चलाके जैसे तैसे अपना गुज़र बसर कर रही है। विकलांग जवान बेसहारा हो दर ब दर की ठोकरे खा रहे है। और यहाँ अफसरों के लोभ और लालच ने मानवता की सारी सीमाएं लांघ दी है।

नए पे कमीशन में अफसर बंधुओ की पेंशन अब हद से ज्यादा हो चुकी है। कुछ लोगों ने डिसेबिलिटी पेंशन को बेसिक से जोड़कर लाखों रूपये कमाने का नया तरीका इर्जाद किया था।

हमारे कुछ पूर्व अफसरों में ये चलन बड़ा खतरनाक है की मौका मिलते ही अफ्वाओं का बाज़ार गर्म करो और कैसे भी करके चीजों को केवल अफसरों के वित्तीय फायदे के लिए तोड़ मरोड़ के पेश करो।

पूर्व सैनिक भाईओं यह लड़ाई केवल “एक समान मिलिटरी सर्विस पे” और “एक समान डिसेबिलिटी पेंशन” की ही नहीं है। यह लड़ाई है मेरे और आप जैसे लाखों सैनिको और पूर्व सैनिको की, जिसे हमें रोज़ रोज़ लगातार लड़ना है, इस आशा के साथ की एक दिन आएगा सच्चा सैनिकस्वराज।

सम्पूर्ण सैनिकस्वराज गांधीजी के शब्दों में

मेरे प्यारे अफसर भाई,

‘आप उसी का फल पा रहे है जो आपने आज तक बोया है।’

क्या है पूर्ण स्वराज? स्वराज मतलब क्या आज़ादी सिर्फ अंग्रेजी हकुमत से??? बापू ने कहा है, अपनी पुस्तक हिन्द स्वराज में। सैनिको के पूर्ण स्वराज के उपलक्ष्य में गांधीजी का स्वराज।

1. आज़ादी ग़ुलामी की अंग्रेजी मानसिकता से।

2. स्वराज उंच नीच अफसर जवान हिन्दू मुस्लिम इन भेदभावों से।

3. स्वराज मांग रहे हम। क्या अन्य हमसे निचले तबके को स्वराज देने की इच्छाशक्ति रखते है।

4. कुछ केस लड़ने और जितने से क्या सम्पूर्ण सैनिक स्वराज की प्राप्ति होगी?? शैतान को पंख होते है। मगर अच्छाई धीमे धीमे अपने अस्तित्व को उभरती है। क्या हम सैनिक स्वराज के लिए लंबी लड़ाई को तैयार है???

5. अंग्रेज़ो के सम्पूर्णतः जानेसे क्या सम्पूर्ण स्वराज मिला। नहीं अंग्रेज़ियत आज भी ज़िंदा है। अपने से निचे के तबके के हिंदुस्तानी से द्वेष पूर्ण व्यव्हार।

6. मिट्टी का घड़ा टकराव से टूटता है। एक नहीं तो दूसरा पत्थर उसे तोड़ ही देगा। मिट्टी के घड़े को टूटने से बचाने के लिए उसे अग्नि में तापना उतना ही ज़रूरी है, जितना ज़रूरी है उसे पथर् से दूर रखना।

7. सैनिकस्वराज है हर कम पढ़ालिखा सीनियर जूनियर सैनिक उतना ही सम्मान पाये जितना हर एक हिंदुस्तानी को मिलना चाहिए।"तेरा भी वतन मेरा भी वतन" 

8. सैनिकस्वराज है सब भारतीयो को चाहे वो सैनिक हो चाहे अफसर प्रोमोशन की एक समान तक मिले। वेतनमानों (जैसे की MSP)में भेदभाव न हो। 

9. अति उच्च वेतनमान एवम् पेंशन पाने वाले अफसर गण NFU, ओआरओपी,TIMESCALE जैसे नए नए तरीको से देश को लूटना बन्ध करें। जब एक पूर्व सैनिक की विधवा 3500 ₹  में अपना गुज़र बसर कर रही है तब ये लूटेरे अँगरेज़ 65000 से ले कर 150000 रूपये में भी संतोष नहीं पा रहे।

10. अफसरों आप अपने आपको सैनिक कहते हो!!!!! फिर अगर तुम सैनिक हो तो सैनिको से भेदभाव क्यों???? एक तरफ सैनिक बनके सारे मान सम्मान पेंशन ओआरओपी मेडल ये सब चाहिए। 

11. फिर जब पेंशन,ओआरओपी,पे कमीशन सेवदारी MSP NFU TIMESCALE इन सबके समय तुम्हारा अंदर का सैनिक मर जाता है। गिरी हुई शैतानी सोच आ जाती है की टेक्स पेयर का पैसा है मेरे पिताश्री का क्या गया। जितना खसोट सकते हो खसोटलो। 

12. मरे हुवे इंसान ए मेरे अफसरभाई अब भी वक्त है जाग जाओ।  ज़्यादा पैसा चाहिए तब अपने आप को  आई।ए।एस। और नेताओ से तोलते हो। फिर अचानक आपके अंदर का गिरगिट रंग बदलता है और देश प्रेम के झुमले याद आते है। 

13. सैनिक को मुलभुत संवेधानिक अधिकार, साम्यवादी वेतन, समान नागरिक सुविधाए जैसे की क्लब एवम् गोल्फ कोर्स का इस्तेमाल केंटीन में और हॉस्पिटल में एक सी लाइन एक से सरकारी क्वार्टर और सुविधा देने की बात आये तो रैंक का तफावत बता के जवान और उनके परिवार को उनकी औकात याद दिलाते हो। 

14. सैनिकस्वराज में अफसर भाइयो की भी उतनी ही भागीदारी है जितनी हमारी। अगर अफसर अंग्रेज़ियत छोड़के हिन्दुस्तानियत को समजे और साथ ही में सिंगापोर यूनाइटेड किंगडम अमेरिका जैसे मुल्को की सेना ओ और वहा के अफसरान के अपने समुल्की जवानों के साथ के साहचर्य को अपनाएं। 

15. सभी सैनिको को सेवा के दौरान दी जारहे शिक्षा और प्रमाण पत्रो में भेदभाव करके उन्हें फ़र्ज़ी प्रमाण पत्र न दिए जाये। अफसरों की ये सब शैतानी मंशा सैनिको को उनके सबसे बड़े अधिकार पढाई से दूर रखने की है। सैनिकस्वराज का अर्थ है भारत में मान्यता प्राप्त शिक्षा संस्थानों से सारे सेनाओ के अभ्यासो को ही तालीम में गिना जाये। 

16. स्वराज है हर हिंदुस्तानी का एम्पावरमेंट। स्वराज है स्किल इंडिया। स्वराज है 60 प्रतिशत सैनिकों का सम्मान पूर्वक प्रमोशन से अफसर बनना। 

17. सैनिकस्वराज है सैनिक और अफसर दोनों के युद्ध या अन्य समय में घायल या आहत होने पर समान सम्मान मिले। गैलेंट्री अवार्ड, मेडल आबंटन हो चाहे डिसेबिलिटी पेंशन या शहीद की विधवा को पेंशन आबंटन इन जगहों पर हो रहे भेदभाव अक्षम्य है। यहाँ स्वराज तुरंत ही लाया जाये। 

18. बापू ने कहा था जब तक हम हिन्दुस्तानियो के अंदर से हम अंग्रेज़ियत को निकाल नहीं देते तब तक अँगरेज़ अगर चले भी जाये क्या फायदा?? 

19. ये भेदभाव झूठ आडम्बर असत्य चोरी भ्रष्टाचार एक एक भारतीय के मन से दूर होगा तभी आएगा सच्चा सैनिकस्वराज।

20. गांधीजी ने कहा था अगर अंग्रेज़ भारतीय संस्कृतीक मूल्य जैसे की सम्मान समन्वय अपना लेते है तो उन्हें हम भारतीय स्वीकार करेंगे। (अफसर भाई ध्यान दे)

21. डर से मिली चीज़ तभी तक कायम रहेगी जब तक डर रहेगा।

हम को मन की शक्ति देना  मन विजय करें। दूसरों की जय से पहले  खुद को जय करें। 

हम को मन की शक्ति देना।  भेदभाव, भेदभाव अपने दिल से साफ़ कर सकें। दोस्तों से भूल हो तो माफ़ कर सकें।  झूठ से बचे रहें, सच का दम भरे। दूसरों की जय से पहले  खुद को जय करें।

हम को मन की शक्ति देना  मन विजय करें। दूसरों की जय से पहले  खुद को जय करें।

हम को मन की शक्ति देना।  मुश्किलें पड़ें तो हम पे इतना कर्म कर, साथ दे तो धर्म का, चलें तो धर्म पर,  खुद पे हौसला रहे, बदी से ना डरें।

हम को मन की शक्ति देना, मन विजय करें। दूसरों की जय से पहले  खुद को जय करें।

दूसरों की जय से पहले खुद को जय करें। हम को मन की शक्ति देना मन विजय करें।

(कविता सौजन्य : गुलज़ार - गुड्डी फिल्म का अविस्मरणीय गीत)

क्षुधा....कैसी..कैसी..!!!

भूख-हडताल एक प्रदर्शन मात्र नही एक सामाजिक घोषणा है कि व्यक्ति विशेष या समूह विशेष के साथ ऐसा भीषण अन्याय सरकारी या गैर सरकारी संगठन द्वारा हो रहा है कि उसके लिए रोजी-रोटी के समस्त अवसर समाप्त हो गए है तथा भूखों मरने का संकट आसन्न है..भरण-पोषण का कोई माध्यम उपस्थित या संभव नही होने के कारण वह व्यक्ति या संगठन इसे भूख-हडताल के माध्यम से समाज केसमक्ष प्रकट करता है कि..उसके प्राणो की रक्षा हो सके..

अगर वह व्यक्ति इतना सक्षम है कि भोजन व अन्य सामान्य खर्च उठा सके. तो उसे न्याय पाने के लिए न्यायपालिका की शरण लेनी चाहिए..जहा उसकी समस्या का अंततःनिस्तारण होगा....

अब इस प्रकाश मे हम देखे तो एक रेंक एक पेंशन में किसे भूख हडताल पर बैठना चाहिए और किसे नही..आप स्वयं न्याय कर लिजिए...

मेरे अधिकांश साथी एक रेंक एक पेंशन  की विसंगतियो से आहत है..वे पुनः भूत-स्मृति (Flash back) मे है..सबकी अपनी..अपनी अलग विस्मृत..स्मृतियाँ..किसी की कम किसी की ज्यादा. विगत की बेबसी. कसमसाहट..असहाय..भाव फिर प्रकट हो आया है..इसका श्रैय एक रेंक एक पेंशन  के संघर्ष को ही जाता है..

सैनिक एक आदर्श अनुयायी है..सैन्य जीवन मे उसने सदा अनुसरण ही किया है..बिना संशय-संदेह के अनुसरण..आदेशो का अनुसरण..नियमों का अनुसरण..उसे कभी चयन नही मिला..जो जहा जैसा है वैसा मिला.. उसने कभी कुछ कहा नही..जैसा कहा गया वैसा कहा ...किया..

अब एक रेंक एक पेंशन  में भी कुछ (90%)मित्र एक विचित्र स्थिती में है..जिस नेतृत्व

अब तक जीते आए वह अविश्वसनीय प्रतीतहोरहाहै. वह दिशाहीन.. किंकर्तव्यविमूढ ..प्रतिक्षारत है कि स्वतः कुछ घटित हो जैसा अब तक होता आया है.,कोई करे..जो कर रहे है ..वे इस प्रश्न से उलझे है कैसे करें?? समय रेत सा फिसला जा रहा है..आशंकाए बलवती हो रही है. धन की कमी है.,संसाधनो की भयानक कमी है. यहा तक कि कुछ भ्रातृधाती स्वार्थवशीभूत हो, भ्रम फैला कर अपने ही भाईयो से विश्वासघात करते दिख रहे है..

समर्थ इस परिस्थिती के अभ्यस्थ है..धन की कोई कमी नही..संसाधन भरपूर है..व्यवस्था से भी छद्म मदद मिल रही है..मिडिया भी साथ दे रहा है..यहा तक कि जवानो को भी असंभव आश्वासन दे..

यह मिथ्या संदेश दिया जा रहा है कि..इस मे उनका कल्याण है.,जबकि वे स्वयं यह जानते हुए भी कि जवानो को तुलनात्मक रूप से नगण्य लाभ ही प्राप्त होता स्पष्ट दिख रहा है..और इस विसंगति को दूर करने के स्थान पर इसे येन केन प्रकारेण, यथावत लाने को आतुर है.

दिग्भ्रमित जवान भाइयों यदि इतिहास दोहराना नही चाहते तो उठ खडे हो..ये आपके व्यक्तिगत परिलाभ है जो आपके सामर्थ्य से ही प्राप्त हो सकेंगे घर का सुख त्यागिए, तैयार हो जाइए एक निर्णयक संघर्ष के लिए..अपने नेता स्वयं बनिए. राम सर.. बीर बहादुर..सर..नलिन सर..वरद सर..और भी कुछ भाई मार्गदर्शक है..कई दिनो से लगे हुए है बिना थके..

उनके साथ कंधे से कंधा मिलकर एक वृहद दल के रूप मे अपना पक्ष मजबूती से रखे,स्मरण रखे..आप सिर्फ अपने लिए ये संघर्ष कर रहै है..

अतः आज इसी समय से किसी भी समय ""आवश्यकता होने पर प्रस्थान को तत्पर "स्थिती मे रहै..हमारे धन-संसाधन भले कम है किन्तु हमारी शक्ति हमारी संख्या है..जब भी आवश्यकता हो..प्रत्येक व्यक्ति अवश्य दिल्ली पहूँचे..सिर्फ इतना साधारण कार्य अगर कर्तव्य औ स्वहिताय मान कर कर सके तो..विश्वास रखिए..आपके हित सुरक्षित रहेंगे..कोई अन्याय न होगा...मुझे पूर्ण विश्वास है कि.,इतिहास को चुनौती देने का यह अंतिम अवसर आप व्यर्थ न जाने देंगे.. आशा है..आप स्वयं को प्रस्तुत अवश्य करेगे..आपके सामर्थ्य की ही परीक्षा है यह.

समस्या यह है कि एक रेंक एक पेंशन .. के सागर मंथन मे यह "सत्य"प्रकट हो उठा है कि ये जो "सूत्र" "समान सेवा..समान रेंक" .. आप किसी ब्रह्म-वाक्य की तरह दोहराते है..वह पिच्यानवे प्रतिशत लोगो को दो कौडी का लगता है..उनके हितो का प्रतिनिधित्व एसे अदूरदर्शी औ भ्रातृघाती लोगो ने किया जिनके पास न तो योग्यता थी न ही ज्ञान एवं विवेक..परिणाम यह हुआ कि अधिकारी-हितकारी एक रेंक एक पेंशन  तैयार हो गई..अब अधिकारी वर्ग बहुत चितिंत है कि.अन्याय का भांडा फूट न जाए..अतः बहुत आतुरता का प्रदर्शन कर रहा है. जबकि इतनी पर्याप्त पेशंन तो मिल ही रही है कि कुछ प्रतीक्षा कर विसंगतियो का निर्धारण कर जवानो का हित सुनिश्चित किया जा सके..यह आतुरता ही प्रमाण है कि अधिकारी जवानो के हितो प्रति उदासीन है..यही तो समस्या का मूल है..आप शरणागत पर आधिपत्य चाहते है किन्तु उसका कल्याण नही..सत्य बस इतना ही है..आगे आपका विवेक जाने और आप.

जब प्रतीक्षा अंतहीन हो जाती है.,और धैर्य साथ छोडने लगता है .मनुष्य का आत्मबल निर्बल हो ..जाता है उसी अवस्था का लाभ "समर्थ"" उठा कर उसे "जो कुछ मिल जाए वो ठीक"की मानसिकता मे धकेल.. अपना स्वार्थ साध लेता है...विधवाओ..जवानो के साथ यही हो रहा है. आप नही जानते है इस सत्य को??? अगर जानते है तो मानते क्यूं नही....

सर जी...एक रेंक ऐक पेंशन..मे राजनीति का प्रवेश एक अत्यन्त अशुभ घटना है...यह एक एसी क्रिया है जिसे तुरंत रोकना ही श्रैष्ठ होगा..अनुशासित फौज को आंदोलन की राह दिखाना किसी भी रूप मे राष्ट्र-हित नही...

एक फौज ही है..जो जाँत-पाँत..धर्म...क्षैत्र..रंग..जैसे तुच्छ विवादो से मुक्त रह सच्ची राष्ट्र सेवा कर अपने प्राणो का उत्सर्ग करती है..समस्त नागरिक चिन्ता रहित निद्रा-सुख..आमोद-प्रमोद..तभी भोग पाते है..जब राष्ट्र-प्रहरी दुर्गम् क्षैत्रो मे कष्ट उठाते है..उन सच्चे राष्ट्र भक्तों से तुच्छ राजनीति ना करो..कृतघ्नता न करो..न्याय के मार्ग पर आओ..यही आपका कर्तव्य और सेवा होगी...

आपका ऐकमेव गोरवाल

वेतन आयोग और विसंगतियां

सेना मे तीसरे वेतन आयोग के काल यानि सन् 1974 से लेकर 2016 के सातवें वेतन आयोग तक सैनिक जवानों और जेसीओस के वेतनमान साथ हमेशा भेदभाव किया क्योकि हम हमेशा खामोशरहे एक अनुशासित सैनिक की तरह और शीर्ष हां हमारे शीर्ष अधिकारीगण हमारी समस्याओं और वेतन विसंगतियों के प्रति सदैव उदासीन बने रहे...आखिर क्यों? क्योंकि उनकी रिटायरमेंट के बाद की महात्वाकांक्षा तब ही परवान चढ़ सकती थी जब वह खुद भी खामोश रहें और अपने मातहत जवानों को भी अनुशासन के नाम पर डरा कर उनकी आवाज को दबा कर रखे . जवानों का मसला था और जवान मुंह खोल नही सकता इसलिये जो भी सरकार द्वारा सेना के जवानों को दिया गया इन शीर्ष स्तर के अधिकारियों ने उनकी हैसियत से ज्यादा ही माना और स्वीकार कर लिया यानि एक सैनिक की हैसियत को सिविलियन कर्मचारी से कमतर ही समझा और यही बजह है कि एक सैनिक का वेतन दिल्ली और चंडीगढ़ की पुलिस के कांस्टेबुल के वेतन से भी काफी कम है. क्या सेना के सैनिक का स्तर कांस्टेबुल के स्तर से कम होना चाहिये ....आखिर वेतन आयोग ने किस स्तर पर सेना को पुलिस के स्तर से कमतर आंका....अगर यही हालत रही तो सेना का अगला स्तर होमगार्डस के बराबर हो जायेगा . सच तो यह है कि पिछली लगभग पांच वेतन आयोग की सिफारिशों मे सेना के स्तर और उनके वेतन विसंगतियों की तरफ से पूरी तरह किनारा कर लिया जिसकी बजह से सेना का इन वेतन आयोगों से मोह भंग हो गया. आज सैनिक कम उम्र मे रिटायर होकर मुफलिसों की जिन्दगी जीने को मजबूर है और अपनी जायज मांगों को लेकर जन्तर मन्तर पर वैठने को मजबूर है. कुछ धुंधली यादों के सहारे पिछले पांच वेतन आयोग का सेना के जवानो के प्रति तुच्छ सोंच और अनिर्णय के कारण पैदा हुयी वेतन विसंगतियों का संक्षिप्त ब्योरा नीचे लिख रहा हूं.

जहां तक मुझे तीसरे वेतन आयोग से लेकर सातवे वेतन आयोग का सेना के वेतन और भत्ते एवं सिविलियन कर्मचारियों के वेतन के अंतर के बारे मे थोड़ा सा ज्ञान है उस पर थोड़ी रोशनी डालना चाहता हूं और क्यों सेना को सिविलियन से डाउनग्रेड किया गया. सबसे पहले तो मै कारण वताता हूं क्योंकि सेना और अन्य पुलिस फोर्स संगठन एक अनुशासित संगठन है और हमेशा ऊपर के निर्देशों का अक्षरश: पालन करने के लिये कृत संकल्पित होते है और इसके लिये उन्होने अपनी जान का भी बलिदान करने के लिये बचन दे रखा है ऐसा देशवासी मानते है.....क्योंकि हम किसी भी हालत मे अपना मुंह नही खोल सकते. इसका फायदा सरकार और धूर्त किस्म के ब्योरोक्रेटस और सरकार के मंत्रियों ने हमारी तीनों सेनाओं के जवानों और जेसीओ रैंक के सैनिको के वेतन और पेन्शन को तीसरे वेतन आयोग के समय ही लगातार कम करते हुये ही अजमाकर देख लिया जब एक जवान का मूलवेतन वेतनमान मात्र 175 रूपये रखा और एक लोअर डिबीजन कलर्क का 235 रूपये प्रति माह और वार्षिक बृद्धि 5/- रूपये हमारे सेना के शीर्ष अधिकारियों ने जवानो के वेतनमान की इतनी बड़ी विसंगति पर कोई ध्यान नही दिया. यहां तक की जवानों की कम सर्विस और जल्दी रिटायरमेंट होने की बजह से उनको अंतिम वेतनमान का 75% पर पेन्शन फिक्स किया जाता था वह भी घटाकर सिविलियन कर्मचारियों के अंतिम मूलवेतन के बराबर ही 50% पर कर दिया वह भी 33 बर्ष सर्विस करने पर.....फौज फिर भी खामोश रही मगर वेतन आयोग ने यह जानने की कोशिश नही समझी कि एक जवान जिसकी कुल सर्विस ही 15 बर्ष होती है वह अंतिम पेन्शन का 50% कैसे पायेगा नतीजा जो जवान को 75% मिल रहा था वह 35% पर पहुंच गया और सिविलियन कर्मचारी 35% लेता था वह 50% पहुंच गया. अगर हमारी सेना के शीर्ष अधिकारियों ने उस समय इस अन्याय के खिलाफ बिरोध जताया होता तो आज यह स्थति नही होती. अब छटे वेतन आयोग ने सरकारी कर्मचारियों की अन्तिम मूल वेतन का 50% को 33 बर्ष की सेवा के नियम से मुक्त कर दिया और सभी सिविलियन सरकारी कर्मचारियों को तो पेन्शन मे फायदा हुआ और एरियर भी प्राप्त हो गया लेकिन सेना मे अलग से कोई नोटीफिकेशन नही निकाला जिसकी बजह से सेना को पुराना 33 बर्ष की सेवा पर 50% पेन्शन का फार्मूला ही अब तक लागू है यानि जो 15 से 20 बर्ष की सेवा करने पर रिटायर कर दिये जाते है उनको अपने मूल वेतन का 30 से 35% ही पेन्शन दिया जा रहा है....और यहां तक कि इस विसंगति को दूर करवाने के लिये गरीब जवानों को सुप्रीम कोर्ट की शरण मे जाना पड़ा तब मजबूर होकर सरकार ने अपनी गलती को माना और अभी यह आदेश सीडीए (पेन्शन) इलाहाबाद को लागू करने के लिये सरकार से बांक्षित है.

चौथे वेतन आयोग जो 1986 मे लागू हुआ उसमे सेना के जवान और सिविलियन कर्मचारियों को लगभग एक समान करने की कोशिश की गयी जैसे जवान का वेतनमान भी 935/- से शुरू हुआ और लोअर डिबीजन कलर्क का बेतन भी 950/- रूपये से था मगर फिर एक और गेम खेल दिया गया कि जवान का वार्षिक वृद्धि 15/- थी जबकि लोअर डिबीजन कलर्क की 25/- रूपये रख दी यानि सेना और सिविलियन कर्मचारियों को एक समान वेतनमान की शरूआत तो कर दी गयी लेकिन सेना के मुंह न खोलने की आदत की बजह से फिर उनके भत्ते और वार्षिक बृद्धि मे काफी अंतर कर दिया गया जिसकी बजह से वह रिटायरमेंट के समय सिविलियन कर्मचारियों के मुकाबले पेन्शन मे काफी नीचे चले गये या फिर पुनर्रिबीजन मे भी काफी पिछड़ गये. क्योंकि उस समय यह भेदभाव सिर्फ सेना के जेसीओ और जवानों के वेतन तक सीमित था तो अधिकारियों ने भी ज्यादा इस पर ध्यान नही दिया. आज की तारीख मे जब यही गेम सरकार और ब्योरोक्रेट्स ने मिलकर अधिकारियों के साथ खेला और सेना के अधिकारियों का स्तर पुलिस और पैरामिलेटरी के अधिकारियों से नीचे कर दिया तो अब सेना के शीर्ष अधिकारियों के पेट मे भयंकर दर्द शुरू हो गया. और ऱक्षा मंत्री से लेकर प्रधानमंत्री तक गुहार लगाते घूम रहे है.

मगर पांचवे वेतन आयोग की सिफारिशों ने तो फिर से सेना के जवानों और जेसीओ की पूरी तरह से कमर तोड़ दी ...जिसका मेरे पास रिर्कार्ड है और जिसका बिरोध भी यद्पि डर और अनुशासन की बजह से थल सेना के जवान तो नही कर पाये मगर वायु सेना के पढ़े लिखे एवं उच्च वायुयान तकनीकी ज्ञान प्राप्त जवानों ने किया और बदले मे वायुसेना ने ऐसे सभी वायु सैनिकों को मुंह खोलने की सजा के तौर पर कोर्ट मार्शल करके नौकरी से निकाल बाहर कर दिया और इसी तरह सेना मे अपना भविष्य अंधकारमय सोंचकर अन्य सार्जेंट स्तर के कई वायुसैनिको ने इस घटना के वाग प्रीमैच्योर रिटायरमेंट ले लिया उनमे से 90% खुशकिस्मत निकले जो अधिकतर राष्ट्रीयकृत बैंको मे कलर्क -कम- कैशियर से लेकर ब्रांच मैनेजर तक बन कर पूरे 60 वर्षों तक नौकरी करते रहे. खैर बाद मे जब थल सेना और जल सेना मे भी इसका बिरोध होने लगा तो फिर सरकार चेंती और सेना के जवान से जेसीओ स्तर तक सैनिको के लिये एक बिशेष वेतन पुनर्संशोधन कमेटी बनाकर पुन: संशोधित बेतनमान को दुबारा 10 Oct 1996 से लागू किया जबकि पहले यह 01 Jan 1996 से वेतन आयोग ने लागू किया. लेकिन इसमे जेसीओ के नायव सूबेदार को पुलिस के सब इंसपेक्टर के समान रैंक का माना गया और सूबेदार को इंसपेक्टर के स्तर का और सूबेदार मेजर को मात्र एक अतिरिक्त बेतन बृद्धि देकर सूबेदार के समान ही रखा लेकिन जब पुलिस के समान वेतनमान की बात आयी तो फिर सरकार यह तो मान गयी कि सेना का वेतनमान पुलिस से कम नही होना चाहिये बल्कि उस के समान या अधिक होना चाहिये और उस समय के माननीय रक्षामंत्री मुलायम सिंह ने तो सेना को हमेशा उच्च प्राथमिता देने के लिये कहा और उनके व्यक्तिगत प्रयास के कारण सेना के जवानों को सिविल कर्मचारियों या पुलिस के मुकाबले वेतनमान ज्यादा रखा गया जिसकी बजह से पांचवे वेतन आयोग के पुन: संशोधित वेतनमान मे जेसीओ और जवानो को सिविल के समान स्तर के कर्मचारियों से ज्यादा वेतनमान मिलना शुरू हो गया और एक सैनिक का निम्नतम वेतनमान 3250/- हो गया जबकि लोअर डिबीजन कलर्क का 3050/- था मगर फिर भी यह ब्योरोक्रेट्स अपनी चाल खेलने मे पीछे नही हटे और उनकी चाल की बजह से नायब सूबेदार Y ग्रुप का वेतनमान यद्दपि 5620/- से और सूबेदार Y ग्रुप का 6600/- से शुरू था जबकि पुलिस के सब इंसपेक्टर का 5500/- और इंस्पेक्टर रैंक का 6500/- से शुरू किया गया लेकिन फौज के नायब सूबेदार को वार्षिक बृद्धि 140/- रूपये रखी और सब इंसपेक्टर की 175/- रख दी इसी तरह सूबेदार की वार्षिक बृद्धि 170/- रूपये रख दी जबकि पुलिस इंसपेक्टर की 200/- की गयी ....!!!!!

यह सब परिणामों का नतीजा यह हुआ कि प्रत्येक दस वर्ष बाद होने वाले वेतन आयोग के फैसले मे हम सैनिक हमेशा अपने वेतनमान और मिलने वाली पेन्शन मे नीचे और बहुत नीचे पहुंचते गये और हमारे अधिकारियों को उस समय यह समझ ही नही आया कि आने वाले समय मे यह हमारी सेना के लिये कितना घातक सिद्ध होगा और हुआ भी वही जहां जवानों मे अपने वेतन और भत्तो के प्रति निराशा बड़ती गयी और इसका कारण उन्होने सेना के अपने शीर्ष अधिकारियों की जवानों और जेसीओ के प्रति उदासीनता और खुद की अति महात्वाकांक्षा यानि रिटायरमेंट के बाद पुरस्कार स्वरूप मिलने वाले संबैधानिक पद पाने की लालसा को माना.

अब भी समय है कि जाग जाओं और स्वार्थ से ऊपर उठकर पूरे सैनिक संगठन की आवाज को मजबूती दो. तीनो सेनाध्यक्षों ने वेतन आयोग की रिपोर्ट को मौजूदा स्थति मे अस्वीकार कर दिया है तथा सरकार से एक बार फिर बिसंगतियों को दूर करने का अनुरोध किया है. हमे अपनी लड़ायी खुद मिलकर लड़नी होगी क्योंकि यह भी एक कर्म युद्ध है और महाभारत के श्रीकृष्ण का धर्मयुद्ध है जहां पर धूर्त और बेईमान लोगों का सर्वनाश निश्चित है. हमे दुख इस बात का नही है कि हमारे वेतन विसंगतियो को सरकार ने क्यों नही दूर किया हमे दुख तब होता है जो सरकार देश पर जान कुर्बान करने को तैयार सैनिकों की जायज मांगो पर अड़ियल रबैया अपनातीहै वोही सरकार सिविलियन कर्मचारियों की अनुशासनहीनता और हड़ताल करने की धमकी के आगे घुटने टेक देती है और उनकी जायज और नाजायज मांगे सब मान लेती है. आखिर सैनिक का भी अपना घर और परिवार होता है जिसकी भी उसी तरह की जरूरतें होती है जैसी अन्य सिविल कर्मचारियों की होती है.

राशन में भी भेदभाव !!

आखिर क्यों नही हम भारतीय सेना मे अंग्रेजों की बनायी हुयी द्वि स्तरीय भोजन व्यवस्था बदल सके ( जैसे अधिकारियों का राशन गुणवत्ता और मात्रा दोनो ही तरह से सैनिको के राशन से हर प्रकार से श्रेष्ट है और सैनिकों का राशन निम्न स्तर का है और मात्रा मे भी कम होता है) जबकि देश आजाद हुये भी 70 बर्ष हो चुके है और हम अभी भी अंग्रेजों की बनायी हुयी व्यवस्था को ही आगे ढोते चले जा रहे है। शायद भारतीय़ सैन्य अधिकारियों को भी यह नही पता कि क्यों अंग्रेज अधिकारियों की रसोई और निवास स्थान भारतीय सैनिकों से अलग होता था।

मै इसी मुद्दे को इस फोरम मे उठाना चाहता था कि आखिर घर मे चारों ओर से खिड़किया बन्द करके पर्दे डाल कर ढकने से बाहर के लोगों की नजर से अंदर की कारगुजारियों पर तो पर्दा डाला जा सकता है लेकिन अंदर के लोगों की हालत नजरबंद गुलामों से बदतर होती जाती है। जब तक व्यवस्था पारदर्शी नही होगी तब तक इस तरह की समस्याये बार बार आयेंगी। आखिर हमारी सेना के अंदर कैग द्वारा आडिट क्यों नही कराया जाता। आखिर हमारी व्यवस्था तीन स्तरीय आडिट के बाबजूद भी कैग की चेताबनी का कारण क्यों बनी। हमारी त्रिस्तरीय आडिट व्यवस्था कैसी है और कौन सी है। युनिट आडिट, लोकल आडिट और टेस्ट आडिट यह तीनो पूरी तरह फेल है क्योंकि बड़े बड़े घोटाले हुये है और लगातार हो रहे है। दुनियां के पांच देशों के अलावा किसी भी देश मे सेना मे तीन तरह के अलग अलग भोजनालय नही होते और न ही सैनिक या सैनिक अधिकारियों के राशन की मात्रा और गुणवत्ता मे भेदभाव नही है पर यहां है। जहां पर भेदभाव था भी वहां पर उन देशों मे यह व्यवस्था समाप्त कर दी गयी मगर भारत मे यह अंग्रेजों की सुबिधानुसार बनायी व्यवस्था को देश की आजादी के सत्तर (70) साल बाद भी बदस्तूर जारी है।

इससे भेदभाव और असंतोष फैलता है। जरा यह भी गौर करे कि क्यों अफसरों के भोजनालय सैनिको के भोजनालयों से अलग होते थे। उसके दो महत्वपूर्ण कारण थे जिनको आज के समय मे औचित्यपूर्ण नही ठहराया जा सकता है। पहला कारण यह था कि अंग्रेज अधिकारी होते थे और भारतीय निम्नस्तर के अधिकारी एवं सैनिक होते थे और अंग्रेजो का खान- पान और आदत अलग थी।

जैसे वह ब्रेड वटर यानि उनका भोजन 70% रेडीमेड और पैक्ड फूड होता था जो बिदेश से या ब्रिटेन से ही आता था और जिनका पेमेंट खुद अंग्रेज अफसर अपने वेतन से करते थे रॉयल इंडियन आर्मी के बजट से पेमेंट नही होता था। लेकिन भारतीय सैनिको का भोजन और खाने की आदते पूर्ण रूप से भारतीय थी और उनको ताजा भोजन की जरूरत होती थी जो मुख्य रूप से भारतीय किचिन मे ही बन सकता था। दूसरी बात यह है कि अंग्रेज अधिकारी गाय और सुअर दोनों का मांस खाते थे जो भारतीय सैनिको की रसोई मे नही बन सकता था। तीसरी बात उनका अलग भोजनालय की बजह यह थी कि क्योंकि उनके खाना फ्री नही था जबकि सैनिकों को राशन बिल्कुल फ्री था और इस व्यवस्था की बजह से कि कहीं फ्री राशन मे से कोई अधिकारी अपने लिये भोजन का प्रबंध न कर ले इसलिये एक ओन ड्यूटी अधिकारी को छोड़कर किसी अधिकारी को भारतीय रसोई मे जाना प्रतिबंधित था।

आज क परिस्थितियों मे जबकि सारे अधिकारी और सैनिक भारतीय है, खाने की आदते भी भारतीय है और राशन भी भारतीय है तथा दोनो को बिल्कुल मुफ्त है तो भोजन की मात्रा और गुणवत्ता दोनों को एक जैसी होनी चाहिये और एक जगह ही सबका भोजन बनना चाहिये और बेशक खाने का डाईनिंग टेबल अलग अलग हो।।।। जैसे किसी भारतीय रेस्टोरेंट मे मिलता है। क्या ऐसी व्यवस्था भारतीय सेना मै संभव है और नही संभव हो सकती तो कभी भी इस देश मे एकता की दुहाई सिर्फ भाषणबाजी तक ही सिमट के या फिर घोषणापत्रों मे ही दबकर रह जायेगी। यह मेरे निजी बिचार है तथा हो सकता है कि कुछ लोगों को यह व्यवस्था परिवर्तन पसन्द न आये। लेकिन व्यवस्था परिवर्तन समय की जरूरत भी है और इस तरह के परिवर्तन समय समय पर होते भी रहे है। इस तरह से देश के अंदर भी काफी कुछ बदलाव की जरूरत है जैसे कि सांसदों को पांच बर्ष का कार्यकाल के बाबजूद पेऩ्शन व्यवस्था क्यो ??

आखिर जब खुद सरकार ने अप्रेल 2004 से सभी केन्द्री़य व राज्य कर्मचारियों की पुरानी पेन्शन व्यवस्था बंद कर दी तो फिर यह सांसद और बिधायक को यह पेन्शन किस आधार पर न्यायोचित ठहराया जा सकता है। मै चाहता हूं इस तरह के मुद्दे हम सब लोग निजीहित त्याग कर देशहित और जनहित के बारे मे सोंचकर इस फोरम के जरिये जनता की सशक्त आबाज बनकर हर मंच पर उठाने को तैयार रहे तब ही हमारे असली उद्देश्य की पूर्ती होगी। सौजन्य : भारत रक्षक बृजेश कुमार ( सूबेदार मेजर - रिटायर्ड)।।।बरेली (उत्तर प्रदेश)।

नून तेल और लकड़ी का है सारा चक्कर

हम सब बड़े सौभाग्यशाली रहे हैं कि नून तेल लकड़ी के चक्कर में हमें देश की सुरक्षा करने का अवसर मिला। आज हम जो कुछ भी हैं उसी के कारण हैं। हमारे अफसर भी बेचारे अपना और अपने बच्चो का पेट पालने के लिये ही नौकरी करने आये थे। पढ़े लिखे थे समाज की क्रीम में से एक भाग थे लेकिन उन्हें यहाँ अंग्रेजों का बनाया सिस्टम और वर्क कल्चर मिला जिसके कारण वो ज्यादा अच्छी तरह से काम नहीं कर सके और अपना ज्यादातर समय और क्षमता पैसा बनाने में लगा दिया जिससे टेक्ष पेयर के पैसे का सही तरीके से और महत्तम उपयोग नहीं हो पाया और मिथ्याभिमान की बीमारी भी हो गयी।

इस कुचक्र में सबसे ज्यादा नुक्सान देश का हुआ। जहां पश्चिमी देशों में नए-नए तोप, हवाई जहाज, सबमरीन, रक्षा संचार की अत्याधुनिक तकनीक, और भी बहुत से इर्जाद रक्षा के फिल्ड में ही हुए जिसका फायदा देश रक्षा के साथ साथ वहां के उद्योगों और समाज को भी हुआ और वो आत्मनिर्भरता के साथ साथ पुरानी तकनीको को दुसरे देशों में बेच उस धन से पूरे देश का विकास भी करने लगे। और हम हथियार और सैनिक साजो सामान के सबसे बड़े आयातक बन गये। 

हमारे अधिकारीगण ने अभी तक के वर्क कल्चर में अपने शुरूआती सेवा भाग में ही ये सीख लिया था कि जिस काम के लिये वो जिम्मेवार हैं वो सीखने की जरुरत ही नहीँ है। a,b,c,d को बताओ काम हो जायेगा। नहीं तो 4 दिन सबको एक्स्ट्रा बुलावो या 4 की छुट्टी केंसल करो काम हो जायेगा जिसका सबसे बड़ा नुक्सान ये हुआ कि नई खोज या आविष्कार तो दूर की बात वो DRDO या उद्योग या रक्षा मंत्रालय को सिस्टम्स, मशीनरी, मिसाईले, हवाई जहाज, युद्धपोत और सबमरीन के बारे में सही प्रतिपुष्टि और आधार सामग्री का विवरण भी नहीं दे पाये तो अनुसन्धान और आविष्कार कहां से होता?

हमारे अधिकारियो को अपना काम, उपकरण और उन उपकरणों की सही समस्याएँ पता ही नहीं थी और ना ही उन्होंने जानने की जरुरत समझी लेकिन अधिकार और अभिमान पूरे थे।वास्तविक कार्यकर्त्ता ‘तकनिकी सैनिक’ जिसको काम और समस्याओं की जड़ पता थी उसके पास ना तो किसी तरह के अधिकार थे और माहौल ऐसा कि किसी भी तरह जुगाड़ से काम चला दो और आगे कुछ भी उपकरण और सिस्टम की समस्या मत बताओ नहीं तो बोस के नंबर कटेंगे।

एक ओर इस उपनिवेशीय चलन से देश का नुक्सान हुआ वहीँ इस पद्धति में काम करने वाले तकनिकी योग्यताधारी सैनिक अत्यधिक प्रेरणाहिन रहे। काम करते रहे ये देख कर कि चीन और पाकिस्तान सर पे खड़ा है। किसी भी प्रणाली या एन्ट्रापी की परान्न्भोजी या मुफ्तखोरों को वहन करने की एक सीमा व् शक्ति होती है उससे ज्यादा होने पे पूरी प्रणाली गिरकर ध्वस्त हो जाती है। और अभी ये होने वाला था लेकिन ये दैवीय योग कहिये की देश को बीर बहादुर सिंह जैसी टीम मिली और सूक्ष्म छिद्रान्वेषी व कर्मठ प्रधानमंत्री और आई।आई।,टी।अन रक्षामंत्री मिल गया।हमें इस व्यवस्था को सही करने में उत्प्रेरक की भूमिका निभानी है और हम ऐसा करने के सहभागी बनेगे।

साथियो हमें देश के लिये बीर बहादुर सिंह और राजीव बहल की टीम  को मजबूत करना है। कैसे भी। और यही सही समय है अगर अभी नहीं तो कभी नहीं। अगर आप समय के साथ सही वक्त पर अपना भला और बुरा नहीं जान पायेंगे तो समय तय कर देगा की इनका क्या करना है।

जय हिन्द

सैनिक होने की वेदना

कुछ तो शर्म करते श्रीमान, चपरासी के वेतन पर तो पहले पैराग्राफ का काम ही बहुत था !!

एयर फ्रेम की ट्रेनिंग पूरी होने में साढे चार साल जिसमें डेढ़ साल वायुयान संबंधी स्पेशलिस्ट एक्विपमेंट्स में काम। फिर मिसाइल स्पेशलिस्ट का कोर्स + ओजेटी एक साल और जब होश आया तो छ; वर्ष पुरे हो चुके थे। जो अपना काम था उसे करने का कभी कोई अवसर ही नहीं मिला। कोई सिविलियन कर्मचारी होता तो क्या बड़े-बड़े आशीर्वाद देता हुआ आपसे रोज दिवाली नहीं मनवाता?

“विश्व इतिहास में आजादी के लिए लोकतान्त्रिक संघर्ष हमसे ज्यादा वास्तविक किसी का नहीं रहा है। मैने जिस लोकतंत्र की कल्पना की है, उसकी स्थापना अहिंसा से होगी। उसमे सभी को समान स्वतंत्रता मिलेगी। हर व्यक्ति खुद का मालिक होगा।“

मोहनदास करमचंद गांधी

मेरी आज़ादी मेरा हक़।

क्रांतियाँ इतिहास के इंजिन हैं।कार्ल मार्क्स

वर्तमान भारतीय सैन्य समाज

कल बैठा बैठा सोच रहा था कि हमारी करोड़ो वर्ष पुरानी संस्कृति होने के बाद भी समय के साथ क्या कमी आ गयी थी कि पिछले हज़ार साल खास कर  पिछले 300 साल पहले कुछ यूरोपियन और अरब देश से कुछ लोग जिनके अपने इलाके में पूरा खाने को भी नहीं था और मौसम ऐसा कि जीने की भी जद्दोजहद हमारे यहाँ आते गये लूटते गये और हमारी व्यवस्थाएं प्रणालिया, हमारी आन, शान और आस्था के प्रतीकों को ध्वस्त कर अपने अनुसार करते गये और हमारी बहू बेटियों और जमीन को लूटते गये और हमें हमारे घर में गुलाम बनाकर रख दिया।

कुछ आत्मनिरीक्षण के बाद दो चार खास बात सामने आती हैं जो इस सबके लिये जिम्मेदार रही।

1) समाज, धर्म और राजकाज करने लोगों का अपना उत्तरदायित्व और फ़र्ज़ निभाना और काम को ना करना और सारा ध्यान इस बात में लगा देना कि कैसे पूरी प्रणाली को ऐसा बना दे कि बिना कुछ किये सारी मलाई उनके पास आती रहे और उनकी औलाद चाहे कितनी भी नालायक हो वही उत्तराधिकारी हो इसके लिये चाहे उन्हें कुछ भी करना पड़े और लोभ की सारी सीमाये पार कर पूरी प्रणाली पर इस हद तक काबिज़ बन जाना कि पूरी व्यवस्था हीचकनाचूर हो गयी।

2) जातिगत व्यवस्था का स्थायी हो जाना जिसमे काम बदलने की थोड़ी बहुत भी स्वतंत्रता ना हो। (वर्ण व्यवस्था तो ठीक और जरूरी होती है) जैसे अगर कभी युद्ध होता तो भी केवल दो प्रतिशत आदमी ही युद्ध करते बाकि को कोई मतलब ना था।

किसी समाज में जाति प्रथा अपने शोषण के क्रूरतम रूप में है या नहीं ये कैसे जानेंगे। इसके कुछ आयाम होते हैं, जैसे

१)   पहली निशानी ये होती है कि ऊँची और नीची जाति के रहने, खाने ,खेलने और समारोह की अलग अलग जगह होती है।

२)   नीची जाति वाले ऊँची जाति के समारोह आदि में उनके यहाँ खाना बनायेंगे, tent लगायेंगे, बाजा बजायेंगे , उनकी वित्तीय व्यवस्था देखेंगे मगर समारोह में शामिल नहीं हो सकते। लेकिन अगर क भी नशे में धुत मनोदशा में कि सी ऊँची जाति वाले ने कभी किसी समारोह में काम करने वाले को दारू या खाने के लिये पूछ लिया तो पूरे समाज में तारीफ़ करता रहेगा।

३)   नीची जाति वाले के पास जिम्मेवारियों का टोकरा सर पे रख उसके पैर चौड़े रहेंगे लेकिन उसके पास अधिकार नहीं होंगे।अगर वो यथा संभव तरीके से भी अपनी जिम्मेदारी निभा रहा तो भी क्या है पैसे पूरे नहीं ले रहा है क्या? लेकिन अगर गलती से भी गलती हो जाये तोसार्वजानिक तौर पे गाली गलोच के साथ धमकाया जा सकता है।

४)   अगर कभी सपरिवार जनसमूह इकठ्ठा भी हुआ तो भी इस बात को सुनिश्चित किया जायेगा कि दोनों समूहों के पहुँचने , बैठने, बर्तन आदि की अलग व्यवस्था राखी जाएगी। किसी भी सामाजिक प्रसंग में ऊँची जाति वाला किसी बात या बिना बात धमका सकता है जिसके दो परिणाम होंगे एक तो उस समय वो सहमा हुआ अपमानित महसूस करेगा दुसरे उसका आत्मविश्वास सदा के लिये कम रहेगा और सामाजिक प्रसंगो में वह बेचारा कोना ढूंढता और बगले झांकता नज़र आएगा कि कोई कहीं कुछ सुना न दे। नीची जाति वाले से ये उम्मीद की जायेगी कि वो आता जाता सलाम तो ठोकेगा ही साथ में हाथ ही नहीं पूरा शरीर जोड़कर खड़ा होगा।

५)   ऊँची जाति वाले को अगर अपना काम भी ना पता हो तो भी झूठे भरोसे में रहा जो देश और समाज के लिये भार ही रहा जबकि संभावित क्षमता के साथ उसमें पूर्णता का था। नीची जाति वाला काबिल होते हुए भी हतोत्साहित होतंत्र और प्रणाली के लियेकम उत्पादक क्षमता धारक ही रहा। और अपने वजूद को लेकर कभी सुविधा में नहीं बल्कि दुविधा में ही रहा।

६)   इस सबका परिणाम ये हुआ कि हमारे समाज का एक बड़ा हिस्सा कम उपजाऊ और जुगाड़ ही करता रहा और पूरे देश समाज और तंत्र ने उसका दंश झेला।

तो साथियो अब इसको अपने देश और वर्तमान रक्षा सेवाओं के परिपेक्ष्य में भी देखो।

क्या हमारे अधिकारीगण लालच की हदों को पार नहीं कर गये हैं?

क्या वो अत्यधिक अकुशल, अप्रभावी,भ्रष्ट और चरित्रहीन नहीं हैं जिससे आविष्कार  या नवपरिवर्तन की कोई जगह नहीं हैंजब ये DRDO, HAL, NAL। DOCKYARD BEL BHEL आदि को सही फीडबेक तक नहीं दे सकते थे और इतना बड़ा प्रतिभासंपन्न देश सैनिक साजो सामान का सबसे बड़ा आयातक है। नए ढंग के जातिवाद के कारण सेना इकाइयों में अफसर अपने सिपाहियों को गोली चलाने पे मजबूर नहीं कर रहे। इतने ज्यादायुद्धपोत और हवाईजहाजों और पनडुब्बियों के अकस्मात नहीं हो रहे?

इससे पहले कि समग्र प्रणाली ध्वस्त हो जाए हमें देश को बचाने में, कुशल कार्य संस्कृति स्थापित करने में उत्प्रेरक सहायक की भूमिका निभानी होगी जिससे भारत फिर से दुनिया का सिरमौर हो।

रक्त का रंग..सफेद..

ऐसा पहले हमारे प्रजातंत्रीय इतिहास में पहले कभी नही हुआ..इतना दुस्साहस..इतना पतन.. इतना गहरा षड्यन्त्र..पराजित राजनैतिक दलो.. गैर सरकारी संस्थाओं..शिक्षण संस्थाओं..राज्यो की विपक्षी दलों की सरकारों..बुद्धिजीवियों..चलचित्र जगत के कलाकारो..और सबसे रहस्यमय मीडिया..का केन्द्र की पूर्ण बहुमत प्राप्त सरकार के खिलाफ अघोषित महायुद्ध.. वे उतावले .. प्रतीत हो रहे है..और इतने दृडप्रतिज्ञ है..कि कलाकार अपनी प्रतिष्ठा..धन..विध्यार्थी अपनी शिक्षा..भविष्य..रोजगार की संभावनाएँ..राजनेता.. जन समर्थन..सार्वजनिक छवि..और मीडिया राष्ट्रद्रोह के आरोपो और भयानक परिणामों से भी भयभीत नही है.. एक उन्मत्त योद्धा तुल्य जो कर्म-अकर्म के विचारों से परे किसी गुप्त उद्दैश्य के प्रति कृतसंकल्प है..राष्ट्र अचंभित. क्रुद्ध.. दिग्भ्रमित.. और किसी फेंटेसी सा तीव्रगति.. तिलिस्मी चलचित्र के सम्मोहित दर्शक सा घटनाक्रम को बस देख भर रहा है..वैसे ही जैसे सिंह शिकार का कण्ठ पकड कर ले जाए और धूल के विक्षोभ में वे शेष जीव इस प्रदर्शन के स्तंभित दर्शक बने रहते है..

ऐसा क्या महान उद्दैश्य हो सकता है..जिसके लिए राष्ट्रद्रोही गतिविधी भी इन प्राणियों को स्वीकार्य है.. वह एकमात्र कारण है सत्य को प्रकट होने से रोकना.. इन सभी एकीकृत प्राणियों का एकमात्र उद्दैश्य नरेन्द्र मोदी को असफल सिद्ध करना..और इस सत्य को जनता की आँखो से परे ले जाना है. की राष्ट्र के संसाधनो..राजस्व..के निष्ठा और ईमानदारी पूर्वक प्रयोग से कितना परिवर्तन..विकास..जनहित संभव है..उनके समय की सुव्यवस्थित भ्रष्टाचारी व्यवस्था की पोल एक बार खुल गयी तो सत्ता मे वापसी असंभव है..यही सामुहिक अस्तित्व-संकट इन राष्ट्रद्रोहियों को अपने कुक्रत्य को प्रकट होने से रोकने की ..और अपनी राजनैतिक..दुकानें बचानें की असफल कवायद भर है..और ये इन पतितों के लिए राष्ट्र से अधिक महत्वपूर्ण है..

इस हेतु इनकी एक साधारण क्रियाविधी है..सरकार को वित्तीय हानि देना..

उसकी वित्तीय संभावनाओं को समाप्त कर देना..फौज के सिपाही इन्है तब याद आए जब ये सत्ताच्युत होने के प्रति पूर्ण आशावान थे. पचास साल की देनदारियाँ अब चुकेंगी. वर्तमान खर्चा बढा..विदेशी निवेश एक मुख्य आय स्रोत होता है..मोदी की विदेश यात्राओं से निवेश का अच्छा माहौल बना.. इन्होने असहिष्णुता..राग अलापा..धार्मिक उन्माद का माहौल उत्पन्न किया..गैर सरकारी संस्थाओं को नकेल डालने का परिणाम यह हुआ कि इन पर आश्रित मलाई चाटनेवाले और उनके आका..भुखमरी के स्वप्न देखने लगे..वे हजारों की संख्या में आंदोलन को तत्पर सेना है विषय कोई भी हो..वे प्रशासन को पंगु कर देते है..शीर्ष नेतृत्व राज्य सरकारो की मदद से संसद न चलने देने के नित नए प्रपंच रच कर..संसद में कार्य रोकने का अपना मोर्चा संभाल रखा है..और अब विध्यार्थियो से राष्ट्रद्रोह का राग इसलिए अलापवाया जा रहा है जिससे राष्ट्रवादियो को उकसाया जाए और इनका परम उद्दैश्य प्राप्त किया जा सके.हिंसा.अव्यवस्था..

अराजकता..जिससे कोइ निवेशक यहा न आए..और वित्तीय संकट इनके कुकर्मो को छद्मावरण प्रदान कर सके...और ये सत्ता मे वापसी के योग्य रह सके..

कथा यही है कि भ्रष्टाचार को प्रकट होने से रोकने हेतु..सत्य का दमन.. षड्यंत्र.. कुचक्र.. रचने वाले राष्ट्रद्रोही यह अवश्य जान लें..सत्य के प्राकट्य को रोकने के सभी मानवीय प्रयास अभी तक सृष्टि में कभी भी सफल न हुए है न होंगें..अलबत्ता वे दुष्ट अवश्य अपनी दुर्गति को प्राप्त होगें..

मिडिया में जवानों का प्रतिनिधित्व योगदान सहयोग और सैनिकस्वराजसैनिकस्वराज

सैनिकस्वराज की हमारी लड़ाई में हम सोश्यल मिडिया पर तो लिख रहे है, सडको पर आन्दोलन भी कर रहे है। मगर पूर्व जवानों के प्रतिनिधि कहीं समाचार पत्रों में न्यूज़ चेनलों में नज़र नहीं आते। इसी वजह से हम फुद्दू से जवान जो की सेना का सत्तानवे प्रतिशत हिस्सा है फिरभी हमारा पक्ष रखने के लिए वहां कोई नहीं रहता। कोई सैनिको के वेलफेयर की बात समाचार पत्रों में क्यों नहीं आती?

यह डिस्क्रिमिनेशन अन्याय और असमानता इन सब बातों में न्यूज़ वालों को कम मज़ा आता है। इन्हें तो रोज़ हिन्दुस्तान और पाकिस्तान वाला मसाला चाहिए।

मेरी हमारे स्कोलर, पढ़े लिखे पूर्व जवान जेसीओ मित्रों से बिनती एवं ह्रदय पूर्वक का अनुरोध है की वे भी इन मसाला इच्छुक चेनलों और वर्तमानपत्रों के पास जाएं और उन्हें रेगुलर देशभक्ति वाला मसाला दें जो की ये मुछ्छड जनरल लोग दे रहें है। साथ साथ में कभी कभी हमारे जवानों के एक समान मिलिटरी सर्विस पे एक समान डिसेबिलिटी पेंशन पे कमीशन में अन्याय विधवा पेंशन में अन्याय इन मसलों को मौका मिलते ही उजागर करतें रहें।

बड़ी ही सफाई से जनरल साहिबान हम सैनिको के मूल प्रश्नों को कभी भी मिडिया के सामने नहीं लाते। फिर ये कौन करेगा? बिल्ली के गले में घंट कौन बांधेगा। बिना खुद मरे स्वर्ग मिल सकता है क्या?

पुरे राष्ट्र का जवानों की व्यथाओं को जानना और समजना ज़रूरी है। इसके लिए वकील, डॉक्टर, लेखक, पत्रकार बड़ी बड़ी कंपनिओं के अधिकारी और उनकी संताने जो जवान जेसीओ समुदाय से है उनका सहयोग और योगदान अत्यंत महत्त्व रखता है।

सम्पूर्ण सैनिकस्वराज की प्राप्ति तभी संभव होगी जब जागरूकता फैलेगी। झांसे में नहीं आयेंगे जवान को बचायेंगे।।

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‘सैनिकस्वराज’ ‘मेरे जवान भाइओ चाणक्य के ये सूत्र कुछ इशारा कर रहे है।

हाथी से हजार गज की दुरी रखें। घोड़े से सौ की। सींग वाले जानवर से दस की। लेकिन दुष्ट जहाँ हो उस जगह से ही निकल जाए’।

‘यदि आप शेर की गुफा में जाते हो तो आप को हाथी के माथे का मणि मिल सकता है। लेकिन यदि आप लोमड़ी जहाँ रहती है वहाँ जाते हो तो बछड़े की पूछ या गधे की हड्डी के अलावा कुछ नहीं मिलेगा’।

हम देख रहे है की चंद सेवा निवृत जनरल और कर्नल साहिबान मिडिया में बड़े ही दुखी हो कहते है की भारतीय लोकतंत्र में सैनिको और सैन्य का प्रतिनिधित्व बिलकुल नहीं है। हमारी आवाज़ कोई नहीं सुनता। समग्र राष्ट्र के ऊपर यह आरोप लगाते समय यह लोग अपने गिरेबान में झांकना भूल जाते है। इन्हें याद करना चाहिए की सैन्य में हर एक सैनिक को इस हद तक प्रताड़ित किया जाता है के वो ग़मज़दा हो अंत में सेवानिवृत होने का निश्चय करता है।

इन साहिबान की अंग्रेजियत वाली छोटी सोच और बर्ताव के कारण सेवानिवृति के पश्चात सारे सैनिक समुदाय के लोग जो की संख्याबल में अठाईस लाख है और अगर उनके परिवारों को भी जोड़ लिया जाए तो करोड़ के ऊपर है। वह इन्हें वोट देना तो दूर इनके पास तक नहीं फरकते।

इसी वजह से भारतीय समाज, सर्वधर्म समभाव में मानने वाले ऐसे लोग जो हमेशा से ही देशभक्ति को सर्वोच्च और राष्ट्र को ही अपना सबकुछ मानते रहे है और जिन्होंने अपना जीवन राष्ट्र के नाम समर्पित किया है, उनकी समाज जीवन में सेवा पाने से वंचित रहा है। आज इसीलिए अमरीका और अन्य पश्चिमी देशों की तर्ज़ पर हिन्दुस्तानी सिपाही और अफसर भारतीयों के लिए आदर्श नहीं बन पाए। 

समाज में अपना स्थान निश्चित करने के लिए इन्हें पहले हम वंचित सैनिको को उनका सम्पूर्ण सैनिकस्वराज देना होगा।

भारत एक प्रजातंत्र है। प्रजातंत्र का मूलतः अर्थ ही लोगों के लिए, लोगों के द्वारा चलाई जा रही सरकार। लोकतंत्र में जिस समाज के पास बहुमत है, जिनके वोट निर्णायक है, उनका कल्याण अवश्य होगा। राष्ट्र आज़ाद हुआ उसके पश्चात साठ साल तक सैनिको को प्रत्यक्ष वोट देने का अधिकार नहीं था। पोस्टल बेलोट नामक एक बेकार निष्फल पध्धति की वजह से देश के सारे सैनिक और उनके परिवार, स्वराज्य के प्रथम फ़र्ज़ अपने मताधिकार से वंचित रहे। सैनिक मुख्यतः देश की सीमाओं पर लश्करी थानों में चोबीसो घंटे कार्यरत रहते है। सोचिए! जिस इंसान को घर पे चिठ्ठी लिखने भर का वक्त नहीं मिलता, वो पोस्टल बेलोट सिस्टम में कब अपने उम्मीदवार को जानेगा और कब उसे वोट देगा? मेरे अपने अनुभव की बात कहूँ तो, मेरे युद्धपोत में हमेशा ही पोस्टल बेलोट इलेक्शन ख़त्म होने के महीने भर बाद पहुँचता था। विश्वभर के समन्दरो को जितने निकले नौसैनिक जब चार छह महीने बाद अपने मूल स्थानक पर वापिस पहुँचते तब जहाज़ में बेडा टपाल कार्यालय से आये पत्रों का तांता लग जाता। ऐसे ही कभी समय और कभी संजोग  की वजह से हम नौसैनिक अपने इस मूल फर्ज से आज़ादी के साठ सालों तक वंचित। जिसका बुरा परिणाम हम आज भोग रहे है। सैनिक स्वराज्य के उस फोरबिडन फ्रूट को चख नहीं पाए उस वजह से लोकतंत्र में उनकी आज तक उपेक्षा होती आयी है।

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बाहरी कड़ियाँ

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