समतावाद

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सामाजिक और राजनीतिक चिंतन में समतावाद (Egalitarianism) एक स्थापित लेकिन विवादित अवधारणा है। समतावाद का सिद्धांत सभी मनुष्यों के समान मूल्य और नैतिक स्थिति की संकल्पना पर बल देता है। समतावाद का दर्शन ऐसी व्यवस्था का समर्थन करता है जिसमें सम्पन्न और समर्थ व्यक्तियों के साथ-साथ निर्बल, निर्धन और वंचित व्यक्तियों को भी आत्मविकास के लिए उपयुक्त अवसर और अनुकूल परिस्थितियाँ प्राप्त हो सकें। समतावाद समाज के सब सदस्यों को एक ही शृंखला की कड़ियाँ मानता है जिसमें मज़बूत कड़ियाँ कमज़ोर कड़ियों की हालातसे अप्रभावित नहीं रह सकतीं। उसका दावा है कि जिस समाज में भाग्यहीन और वंचित मनुष्य दुःखमय, अस्वस्थ और अमानवीय जीवन जीने को विवश हों, उसमें भाग्यशाली और सम्पन्न लोगों को व्यक्तिगत उन्नति और सुख समृद्धि प्राप्त करने की असीम स्वतंत्रता नहीं दी जा सकती। वस्तुतः समतावाद स्वतंत्रता और समानता में सामंजस्य स्थापित करना चाहता है। इसे एक विवादितसंकल्पना इसलिए कहा गया है कि समानता के कई स्वरूप हो सकते हैं और लोगों के साथ समान व्यवहार करने के भी अनेक तरीके हो सकते हैं।

परिचय

समतावाद के दर्शन पर विचार करते समय कुछ महत्त्वपूर्ण सवाल उत्पन्न होते हैं, जैसे ‘किस बात की समानता होनी चाहिए’ तथा ‘किनके बीच समानता होनी चाहिए।’ यहाँ समानता के वितरणात्मक पहलू से जुड़ा एक महत्त्वपूर्ण सवाल यह भी है कि ‘किन चीज़ों की समानता होनी चाहिए?’ हालाँकि इन सवालों से जुड़े वाद-विवाद के संबंध में कोई आख़िरी फ़ैसला नहीं हुआ है पर आम तौर पर विद्वानों ने समानता को मापने के तीन आधारों के बारे में बताया है : कल्याण की समानता, संसाधनों की समानता और कैपेबिलिटी या सामर्थ्य की समानता।

कल्याण के समतावाद का सिद्धांत मुख्य रूप से उपयोगितावादियों के विचार से जुड़ा है। यहाँ ‘कल्याण’ को मुख्य रूप से दो तरीकों से समझा जाता है। पहले तरीके को जेरेमी बेंथम जैसे क्लासिकल उपयोगितावादी चिंतकों ने आगे बढ़ाया। इनके अनुसार, किसी व्यक्ति द्वारा अनुभव किये गये दर्द या कष्ट की तुलना में आनंद की कुल मात्रा ही उसकी ख़ुशी है। इस दृष्टिकोण के अनुसार किसी व्यक्ति के बारे में यह जानने के लिए कि वह अपनी ज़िंदगी में कितना सुखी है, हमें यह देखना चाहिए कि वह कितना ज़्यादा ख़ुश है। कल्याण से संबंधित दूसरा तरीका उपयोगितावाद से संबंधित हाल के लेखन में दिखाई देता है। इसमें कल्याण को इच्छा या वरीयता-संतुष्टि से जोड़ा जाता है। लोगों की कितनी इच्छाएँ या वरीयताएँ संतुष्ट होती हैं— इसके आधार पर लोगों का कम या अधिक कल्याण होता है। इसी बुनियादी अर्थ में उसकी ज़िंदगी बेहतर या बदतर होती है। हर व्यक्ति को इस बात में समर्थ होना चाहिए कि वह स्वतंत्र रूप से अपनी वरीयताएँ तय कर सके। वस्तुतः जो समाज कल्याण के समान रूप से वितरण में विश्वास करता है, वह इस बात की ज़्यादा चिंता नहीं करता है कि एक व्यक्ति को कितना संसाधन मिलता है। लेकिन इस बात की चिंता ज़रूर करता है कि ये संसाधन प्रत्येक व्यक्ति के लिए दूसरे व्यक्तियों जितनी संतुष्टि या ख़ुशी देते हैं या नहीं। इस योजना की महत्त्वपूर्ण बात यह है कि इसमें इस बात पर ज़ोर दिया जाता है कि भले ही संसाधनों के वितरण में असमानता हो, लेकिन हर व्यक्ति का समान रूप से कल्याण होना चाहिए।

कल्याण समतावादियों से भिन्न ‘संसाधन समतावाद’ संसाधनों की समानता पर बल देता है। जान रॉल्स, रोनॉल्ड ड्वॉर्किन, एरिक रोकोवोस्की आदि को संसाधन समतावादी विचारक माना जाता है। ड्वॉर्किन मानते हैं कि संसाधनों की समानता का अर्थ यह है कि ‘जब एक वितरण योजना लोगों को समान मानते हुए संसाधनों का वितरण या हस्तांतरण करती है, तो आगे संसाधनों का कोई भी हस्तांतरण लोगों के हिस्से को ज़्यादा समान बनाये।’ लेकिन इसी जगह यह जिज्ञासा उत्पन्न होती है कि किन परिस्थितियों में संसाधनों की समानता हासिल की जा सकती है। ड्वॉर्किन इस संदर्भ में एक द्वि-स्तरीय प्रक्रिया के बारे में बताते हैं : महत्त्वाकांक्षा-संवेदी नीलामी और बीमा योजना।

ड्वॉर्किन ने संसाधन-समतावादी संकल्पना में पहले विकल्प की उपलब्धता को आवश्यक बताया है। इसके लिए वे एक सुनसान टापू पर एक समान प्रतिभाशाली व्यक्तियों के बीच वहाँ के संसाधनों के बँटवारे का उदाहरण देते हैं। अगर सभी व्यक्तियों को सौ क्लेमशेल्स (एक तरह की मुद्रा) देकर एक प्रतियोगी बाज़ार की तरह नीलामी प्रक्रिया अपनायी जाए तो सभी व्यक्ति वहाँ उपलब्ध संसाधनों पर अपनी वरीयताओं के मुताबिक बोली लगाएँगे। नीलामी प्रक्रिया ख़त्म होने के बाद प्रत्येक व्यक्ति के पास इच्छित संसाधन होंगे। परंतु यहाँ यह महत्त्वपूर्ण है कि ऐसी स्थिति की कल्पना करते वक्त सभी व्यक्तियों के पास एक जैसी प्राकृतिक सक्षमताएँ मान ली गयी थीं। लेकिन समाज की वास्तविक स्थिति ऐसी होती नहीं है। मसलन समाज में वृद्ध, शारीरिक रूप से विकलांग आदि भी रहते हैं। ऐसी परिस्थिति के लिए ड्वॉर्किन एक बीमा योजना प्रस्तुत करते हैं जिसमें इस प्रकार की बदकिस्मती से निपटने के लिए कुछ मुआवज़ा दे दिया जाता है। मसलन उन्हें 100 के स्थान पर 125 क्लेमशेल्स दिये जा सकते हैं। हालाँकि ड्वॉर्किन के इन विचारों की यह कह कर आलोचना भी की गयी है कि हर तरह के प्राकृतिक नुकसान के लिए मुआवज़ा नहीं दिया जा सकता है। परंतु फिर भी ड्वॉर्किन ने अपनी वितरण योजना को सक्षमता-असंवेदी के साथ महत्त्वाकांक्षा-संवेदी भी बनाने की कोशिश की है।

जॉन रॉल्स को भी एक महत्त्वपूर्ण समतावादी विचारक माना जाता है। जॉन रॉल्स ने अपनी पुस्तक अ थियरी ऑफ़ जस्टिस में न्याय के दो सिद्धांत प्रतिपादित किये हैं। उनके पहले सिद्धांत को समान स्वतंत्रता का सिद्धांत कहते हैं जिसमें उन्होंने तर्क दिया है कि प्रत्येक को सबसे विस्तृत स्वतंत्रता का ऐसा समान अधिकार प्राप्त होना चाहिए जो दूसरों की वैसी ही स्वतंत्रता के साथ निभा सके। उनके दूसरे सिद्धांत के अनुसार सामाजिक और आर्थिक विषमताएँ इस ढंग से व्यवस्थित की जाएँ कि (क) इनसे हीनतम स्थिति वाले लोगों को अधिकतम लाभ हो (भेदमूलक सिद्धांत) और (ख) ये विषमताएँ उन पदों और स्थितियों के साथ जुड़ी हों जो अवसर की उचित समानता की शर्तों पर सबके लिए सुलभ हो (अवसर की उचित समानता का सिद्धांत)। रॉल्स ने अपने सिद्धांत को एक विशेष पूर्वताक्रम में रखा है। अर्थात् पहले सिद्धांत को दूसरे सिद्धांत की अपेक्षा प्राथमिकता दी गयी है। दूसरे सिद्धांत में (ख) को (क) पर प्राथमिकता दी गयी है। वस्तुतः यहाँ रॉल्स ने दूसरे लोगों की स्वतंत्रता के लिए किसी व्यक्ति की स्वतंत्रता में कटौती नहीं की है। परंतु इसके साथ ही उन्होंने इस बात को सुनिश्चित किया है कि समानता के सिद्धांत में किसी भी तरह का हस्तक्षेप तभी किया जा सकता है जब इससे हीनतम स्थिति के लोगों के लिए सबसे ज़्यादा फ़ायदा हो। वस्तुतः यहाँ रॉल्स का समतावाद स्वतंत्रता और समानता में सामंजस्य स्थापित करने का प्रयास करता है।

समतावाद की एक अन्य अवधारणा सामर्थ्य या कैपेबिलिटी समतावाद की है। इसे अमर्त्य सेन ने प्रस्तुत किया है। इसके अनुसार लोगों की कैपेबिलिटी को बराबर करने पर ध्यान दिया जाना चाहिए। कैपेबिलिटी एक निश्चित तरह के कार्य को करने की क्षमता है। मसलन साक्षरता एक कैपेबिलिटी है और पढ़ना एक कार्य है। एक संसाधन- समतावादी इस बात पर ज़ोर दे सकता है कि जिस क्षेत्र में साक्षरता की कमी है, वहाँ लोगों को किताबें और शैक्षिक सेवा जैसे संसाधन दिये जाने चाहिए। दूसरी ओर सामर्थ्य- समतावादी इस बात पर ज़ोर देंगे कि लोगों को बाहरी संसाधन उपलब्ध कराने से ज़्यादा महत्त्वपूर्ण यह है कि लोगों की पढ़ने-लिखने की कैपेबिलिटी या सामर्थ्य अर्थात् आंतरिक क्षमता को बढ़ावा दिया जाये।

इन सबसे अलग माइकल वॉल्ज़र ने जटिल समानता का विचार पेश किया है। वॉल्ज़र का मानना है कि समानता को कल्याण, संसाधन या कैपेबिलिटी जैसी किसी एक विशेषता पर ध्यान नहीं देना चाहिए। उनके अनुसार किसी भी वितरण का न्यायपूर्ण या अन्यायपूर्ण होना उन वस्तुओं के सामाजिक अर्थ से जुड़ा होता है जिनका वितरण किया जा रहा है। इसके साथ ही सामाजिक जीवन के सभी दायरों में वितरण का एक जैसा मानक नहीं होना चाहिए। उदाहरण के लिए बाज़ार और राजनीतिक सत्ता के दायरे अलग-अलग हं। इसलिए वे यह दलील देते हैं कि एक दायरे के भीतर वस्तुओं का वितरण उसका आंतरिक मसला है और आदर्श रूप में इसे किसी दूसरे दायरे को प्रभावित नहीं करना चाहिए।

समतावाद सामाजिक वैज्ञानिकों के लिए आज भी एक महत्त्वपूर्ण विचार बना हुआ है। परंतु वैश्वीकरण की राजनीति ने पुनर्वितरण के कायक्रमों और राज्य की कल्याणकारी नीतियों को कमज़ोर करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी है। इसके अतिरिक्त हाल में एक अन्य विशिष्ट राजनीतिक परिघटना भी उभरकर सामने आयी है। यह राजनीतिक परिघटना है : पहचान (या अस्मिता) के आधार पर बने समूहों का राजनीतिक संघर्ष। इसके कारण मानकीय राजनीतिक सिद्धांत में नये सरोकार भी उभरकर सामने आये हैं। ‘किस बात की समानता?’ से संबंधित वाद-विवाद का स्थान ‘किनके बीच समानता’ ने ले लिया है। लेकिन समातावादी तेज़ी से अपने व्यक्तिगत पूर्वाग्रहों को छोड़ रहे हैं। वे अब समूहों की असमानताओं पर भी गहराई से विचार कर रहे हैं।

== सन्दर्भ ==साथ एक संघर्ष करो तो इतनी सी बात का विश्वास नहीं होता और जिससे मिला कुछ भी नहीं है तो उसे अपना जीवन जीने नहीं देता ः

1. अशोक आचार्य (2011), ‘समानता’, राजीव भार्गव और अशोक आचार्य (सम्पा.), राजनीति सिद्धांत : एक परिचय संपा. अनु. कमल नयन चौबे, पियरसन, नयी दिल्ली.

2. जी.ए. कोहेन (1989), ‘ऑन द करेंसी ऑफ़ इगेलिटेरियन जस्टिस’, इथिक्स, खण्ड 99, अंक 4,

3. रोनॉल्ड ड्वॉर्किन (1981), ‘व्हाट इज़ इक्वालिटी?’ पार्ट 1 और पार्ट 2 : इक्वालिटी ऑफ़ वेलफ़ेयर, फ़िलॉसफ़ी ऐंड पब्लिक अफ़ेयर्स, खण्ड 10, अंक 3 और 4,

4. माइकल वॉल्ज़र (1983), स्फीयर्स ऑफ़ जस्टिस : एडिफेंस ऑफ़ प्लूरलिज़म एड इक्वलिटी, बेसिक बुक्स, न्यूयॉर्क.

5. विल किमलिका (2010), कंटेम्परेरी पॉलिटिकल फ़िलॉसफ़ी : ऐन इंट्रोडक्शन, भारतीय संस्करण, अनु, कमल नयन चौबे, ऑक्सफ़र्ड युनिवर्सिटी प्रेस, नयी दिल्ली.

= इन्हें भी देखें=परिवार हर कोई देख कृपया परेशान ना हो सह लेना चाहिए और इतनी जल्दी में शामिल नहीं होंगे नए मुख्यपरबनधनक के लिए धन्यवाद करना होगा लोकपाल विधेयक प्रमाणीकरण नगरी केवल एक परंपरा के लिए एक बदलाव मीडिया विपणन उपकरण भागीदारों के साथ चले तो वो भारतीय संस्कृति को ही क्यों नहीं होता तो हम भ्रष्टाचार से पहले ही कदम उठाने में शामिल हों वे तुम्हें सलाम करता है भूल जाओ तो वो फिर नहीं आते हे भगवान का शुक्र है कि सुश्री सही है पहले अपनी जगह पर यथावत में भी आग लगा के बैठे हैं तो नैतिकता के आधार मजबूत हाथों में हैं जमीर जो वापस का अनुसरण कर सकते हो