संस्कृत के आधुनिक कोश

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भारत में आधुनिक पद्धति पर बने संस्कृत कोशों की दो वर्गों में रखा जा सकता है-

(1) इनमें एक धारा वह थी जिसमें अंग्रेजी अथवा जर्मन आदि भाषाओं के माध्यम से संस्कृत के कोश बने। इस पद्धति के प्रवर्तक अथवा आदि निर्माता पाश्चात्य विद्बान् थे। कोशविद्या की नूतन दृष्टि से सम्पन्न नवकोश की रचनाशैली के अनुसार से कोश बने।
(2) दूसरी और नवीन पद्धति के अनुसार नूतन प्रेरणाओं को लेकर संस्कृत में ऐसे कोश बने जिसका माध्यम भी संस्कृत ही था। इस प्रकार के कोशों में विशेष रूप से दो उल्लेखनीय हैः
(क) 'शब्दकल्पद्रुम' और (ख) 'वाचस्पत्यम्'।

सुखानन्दनाथ ने भी चार जिल्दों में एक बृहदाकार संस्कृतकोश आगरा और उदयपुर से (ई० 1873-83 में) प्रकाशित किया जिसपर 'शब्दकल्पद्रुम' का पर्याप्त प्रभाव है।

संस्कृत के माध्यम से छोटे-बडे़ अनेक संस्कृतकोश बने। परन्तु कोश-विकास के इतिहास में उनका महत्त्व नहीं माना जा सकता। संस्कृत के अनेक कोश ऐसे भी बने जो भारतीय भाषाओं के माध्यम से संस्कृत शब्दों का अर्थपरिचय देते हैं। परन्तु उनमें कोई अपनी स्वतन्त्र विशेषता नहीं दिखाई देती। 'बिल्सन' अथवा 'विलयम्स', 'मेकडोनाल्ड', 'आप्टे' के कोशों से या तो इन्होंने उधार लिया अथवा थोडी़ बहुत सहायता 'शब्दकल्पद्रूम' 'वाचस्पत्यम्' से ली। मराठी-संस्कृत-कोश, संस्कृत-तामिल-कोश, संस्कृत-तेलगू-कोश, संस्कृत-बंगला-कोश, संस्कृत-गुजराती-कोश, संस्कृत-हिन्दी-कोश आदि भारतीय आधुनिक भाषाओं के तत्तत् नामवाले—सैकड़ो की संख्या में कोश बने हैं और आज ये कोश उपलब्ध भी हैं। यहाँ पर ध्यान रखने की एक और बात यह है की संस्कृत के उक्त दोनों महाकोश बंगाल की भूमि में ही बने।

बंगला विश्वकोश भी सम्भवतः उसी परम्परा से प्रभावित 'शब्दकल्पद्रुम्' और 'वाचस्पत्यम्' का ही एक रूप है। इसमें यद्यपि आधुनिक विश्वकोश की रचनापद्धति को अपनाने की चेष्टा हुई है तथापि वह भी मिश्रित शैली का ही विश्वकोश है। उसका एक हिन्दी संस्करण भी हिन्दी विश्वकोश के नाम से प्रकाशित किया गया है। बंगला विश्वकोश का पूरा-पूरा आधार लेकर चलने पर भी हिन्दी का यह प्रथम विश्वकोश नए सिरे से तैयार किया गया।

शब्दकोश और विश्वकोश के मिश्रित रूप की यह पद्धति केवल संस्कृत और बंगला के कोशों में ही नहीं अपितु भारतीय भाषा के अन्य कोशों में भी लक्षित होती है। अंग्रेजी आदि भाषा के अनेक बड़े कोशों में यह सरणि है—विशेषत: प्राचीन संस्करणों में। पूर्णचंद्र का उड़िया कोश भी इसी पद्धति का एक ग्रंथ है। 'हिन्दी शब्दसागर' भी अपने प्रथम संस्करण में आंशिक रूप से इसी पद्धती पर चला। द्वितीय संशोधित और परिवर्धित संस्करण में भी उसके पूर्वरुप को सुरक्षित रखने की चेष्टा हुई है। परन्तु लम्बे लम्बे पौराणिक, शास्त्रिय अथवा दार्शनिक उद्धरणों का भार इसमें न आने देने की चेष्टा हुई है। संबद्ध वस्तु अथवा पदार्थज्ञान के लिये उपयोगी विवरण को यथासम्भव देने की चेष्टा की गई है।

आधुनिक कोशकला (lexicography) के आधार पर वामन शिवराम आप्टे ने सन् 1889 में अ प्रैक्टिकल संस्कृत-इंग्लिश डिक्शनरी नाम से एक शब्दकोश संकलित किया। इसे बहुत ही सराहा गया।

सन् 1886-94 के बीच बंगाल के राधाकान्त देब ने "शब्द-कल्पद्रुम:" नाम सेेकभाषीय शब्दकोश बनाया जो पाँच खण्डों में थी। सन् 1890 में विश्वबन्धु ने 16 भागों में "वैदिकपद अनुक्रमकोश" की रचना की जो एक वैदिक 'कनकॉर्डेंस' (concordance) है।

पूना में केन्द्रीय सरकार द्वारा प्रदत्त आर्थिक अनुदान से डॉ॰ एस एम कत्रे के निदेशन में संस्कृत का एक विशाल कोश 'An encyclopedic Dictionary of Sanskrit on Historical Principles' बनना आरम्भ हुआ जो बाद में अमृत माधव घाटगे के निर्देशन में आगे बढ़ा। उसकी आधारभूत सामग्री का भी स्वतंत्र रीति से वैज्ञानिक और आलोचनात्मक पद्धति पर आलोचन और पाठनिर्धारण किया गया है। उक्त कोश के लिये शब्दों का जो प्रामाणिक संकलन किया है वह प्रायः सर्वाशतः यथासम्भव आलोचनात्मक ढंग से सम्पादित या संकलित है। डॉ॰ 'कत्रे' संस्कृत के साथ साथ आधुनिक भाषाविज्ञान के बड़े विद्वान् थे। इस कोश के शब्दसंकलन और अर्थनिर्धारण में तत्तत विषयों के संस्कृतज्ञ, प्रौढ पण्डितों की पूरी सहायता लेने का प्रयतन हो रहा है। सम्पादनविज्ञान की पद्धति पर सम्पादिन प्रामाणिक और आलोचित आधारग्रन्थों से ही यथासम्भव शब्दसंकलन की चेष्टा हो रही है। भारतीविद्या (इण्डोलॉजी) में अबतक जो भी महत्वपूर्ण अनुशीलन विश्व की किसी भाषा में हुआ है उसके सर्वांशतः उपयोग और विनियोग का प्रयास हो रहा है। विगत कई वर्षों से यह प्रयास चल रहा है जिसमें काफी समय, श्रम और धनराशि व्यय हो रही है तथा विषयज्ञ विद्वज्जनों का अधिक से अधिक सहयोग पाने की चेष्टा की जा रही है। भाषाविज्ञान की न्यूनतम उपलब्धियों का सहारा लेकर व्युत्पत्तिनिर्धारिणादि की व्यवस्था हो रही है। अतः आशा है, यह कोश निश्चय ही उच्चतर स्तर का होगा। अंग्रेजी, जर्मन, फ़्रांसीसी, रूसी आदि भाषाओं के समस्त सम्पन्न संस्कृत कोशों की विशाल सामग्री का परीक्षापूर्वक ग्रहण हो रहा है। अतः निश्चय ही उक्त कोश, अबतक के समस्त संस्कृत-अंग्रेजी कोशों में श्रेष्ठतम होगा।

श्री वेणीधर जोशी एवं हरिनारायण जोशी ने सन् 1968 में दो कण्डों में आयुर्वेदीय महाकोश संकलित किया। यह संस्कृत का मेडिकल शब्दकोश है।

विदेशी विद्वानों द्वारा निर्मित संस्कृत शब्दकोश

भारत में विदेशी विद्वानों, धर्मप्रचारकों और सरकारी शासकों द्वारा आधुनिक ढंग से कोशनिर्माण का कार्य प्रारम्भ हुआ।

1819 में डॉ॰ 'विलसन' का 'संस्कृत इंग्लिश कोश' प्रकाशित हुआ। अंग्रेजी के माध्यम से प्रकाशित होनेवाले इस संस्कृत कोश को प्रस्तुत दिशा में महत्वपूर्ण पर आरंभिक कार्य कहा जा सकता है। इस कृति की भूमिका से पता चलता है कि उस समय पुरानी पद्धति के कुछ संस्कृत कोश वर्तमान थे। कोलब्रुक द्वारा अनुदित अमरकोश भी वर्तमान था। वस्तुतः 'विलसन' का यह ग्रन्थ पर्यायवाची द्विभाषी कोश कहा जा सकता है। मोनियर विलियम्स की दो कृतियाँ— संस्कृत अंग्रेजी कोश और इंग्लिश संस्कृत कोश महत्वपूर्ण कोश हैं। उनका प्रकाशन 1851 ई० में हुआ। इस कोश की प्रेरणा विलसन के ग्रंथ से मिली। विलसन ने अपने कोश के नवीन संस्करण की भूमिका में अपना मंतव्य प्रकट किया है। वे यह चाहते थे के संस्कृत के सभी शब्दों का वैज्ञानिक ढंग से ऐसा आकलन हो जिससे संस्कृत की लगभग दो हजार धातुओं के अन्तर्गत समस्त संस्कृत शब्दों का समावेश हो जाय। इस दिशा में उन्होंने थोड़ा प्रयत्न भी किया। इन दोनों के बाद महत्वपूर्ण ग्रंथ आप्टे का कोश आता है जो संस्कृत अंग्रेजी और अंग्रेजी संस्कृत दोनों रूपों में सम्पादित किया गया। विलियम्स के कोश में धातुमूलक व्युत्पत्ति के साथ साथ शब्दप्रयोग का सन्दर्भ-संकेत भी दिया गया। परंतु आपटे के कोश में संकेतमात्र ही नहीं, उद्धरण भई दिए गए हैं। पूर्व कोश की अपेक्षा वह अधिक उपयोगी दिखाई पडा़। कुछ वर्षों पूर्व तीन खंडों में उनके कोश का संशोधित संबर्धित और विस्तृत संस्करण प्रकाशित हुआ है जो कदाचित तबतक के समस्त 'संस्कृत अंग्रेजी' कोशों में सर्वाधिक प्रामाणिक एवं उपयोगा कहा जा सकता है।

इनके अतिरिक्त भी अल्प महत्त्व के अनेक संस्कृत-अंग्रेजी-कोश बनते रहे जिनमें कुछ प्रसिद्ध कोशों के नाम आगे दिए जा रहे हैं -

  • (1) संस्कृत अंग्रेजी कोश (संपादक— डब्ल्यू० यीट्सः 1846)
  • (3) संस्कृत डिक्शनरी (थियोडोर बेन्फे, 1866),
  • (4) ग्रासमैन लेक्सिकन टु दि ऋग्वेद, और
  • (5) प्रैक्टिकल संस्कृत डिक्शनरी विद ट्रानस्लिटरेशन, एक्सेंचुएशन एण्ड एटिमालाजिकल एनालसिस थ्रूआउट (मैक्डानल्ड, 1924 ई०)।

मोनियर विलियम्स के बाद अनेक संस्कृत अंग्रेजी कोश बने। परन्तु विलसन के नवीन संस्करण और विलियम्स के कोश के सामने उनका विशेष प्रचार नहीं हो पाया। विलसन के कोश का एक संक्षिप्त संस्करण भी 1870 ई० में रामजसन ने सम्पादित किया जिसका काफी प्रचार हुआ। मेक्डानक की 'प्रैक्टिकल संस्कृत-इंग्लिश डिक्शनरी' अवश्य ही अत्यन्त महत्वपूर्ण कोश है। उसमें संस्कृत शव्दों के अर्थ का कालावधिक परिचय भी दिया गया है, शब्द के अधिक प्रचलित और स्वल्प प्रचलित अर्थों को सूचित करने का भी प्रयास हुआ है। 'बैन्फे' की भी 'संस्कृत-इंगलिश डिक्शनरी' प्रकाशित हुई। और भी अनेक छोटे बड़े संस्कृत कोश निर्मित हुए। परन्तु विलसन, विलियम्स और आप्टे - इनकी संस्कृत इंग्लिश कोशत्रयी को सर्वाधिक सफलता एवं प्रसिद्धि मिली।

यहाँ राथ और बोथलिंक्ग् द्वारा प्रकाशित संस्कृत-जर्मन कोश के उल्लेख के बिना समस्त विवरण अपूर्ण ही रह जायगा। ओटो बोथलिंक्ग् तथा 'रुडोल्फ राथ' के संयुक्त सम्पादकत्व में संस्कृत का जर्मानभाषी यह कोश संस्कृत बोर्तेरबुख 1858 ई० से प्रारम्भ होकर 1875 ई० में पूर्ण हुआ। यह कोश भारतीविद्या का महाज्ञानकोश है। अत्यन्त विशाल और सात जिल्दों के इस कोश में प्रभूत सामग्री भरी पड़ी है। इसका एक संक्षिप्त संस्करण भी 1879 से लेकर 1889 ई० तक प्रकाशित होता रहा। वह भी सात जिल्दों में है पर उसकी पृष्ठसंख्या आधी से भी कम ही। सेंट पीटरस्बर्ग से प्रकाशित यह संस्कृत-जर्मन कोश व्यावहारिक उपयोगिता से पूर्ण होकर भी अत्यन्त प्रामाणिक है। इसके पहले अनेक छोटे-बड़े संस्कृत कोश जर्मन, फ्रांसीसी, इतालवी आदि भाषाओं में बन चुके थे। 1849 ई० में० 'थियोडोर बेन्फे ' का कोश बना था जिसका अंग्रेजी रूपान्तर 1856 में मैक्सम्यूलर के सम्पादकत्व में प्रकाशित हुआ।

इनमें से अनेक कोश ऐसे थे जो भारत में और अनेक विदेशों में प्रकाशित हुए।

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