श्येनपालन
श्येनपालन (Falconry) एक कला है, जिसके द्वारा श्येनों और बाजों को शिकार के लिए साधा, या प्रशिक्षित, किया जाता है। मनुष्य को इस कला का ज्ञान ४,००० वर्षों से भी अधिक समय से है। भारत में इस कला का व्यवहार ईसा से ६०० वर्ष से होता आ रहा है। मुस्लिम शासनकाल में, विशेषत मुगलों के शासनकाल में, इस कला को पर्याप्त प्रोत्साहन मिला था। क्रीड़ा के रूप में, लड़ाकू जातियों में, श्येनपालन बराबर प्रचलित रहा है। राइफल और छोटी बंदूकों के व्यवहार में आने के बाद श्येनपालन में ह्रास शुरू हुआ। आज इसका प्रचार अधिक नहीं है। शौक के रूप में इसे चालू रखा जा सकता है, क्योंकि वस्तुत: यह सबसे कम खर्चीला शौक है।
पक्षी वर्ग की कुछ चिड़ियाँ शिकारी होती हैं। कुछ तो शिकार को खा जाती हैं और कुछ उचित प्रशिक्षण से शिकार को पकड़कर पालक के पास ले आती है। ऐसे शिकार छोटी बड़ी चिड़ियाँ, खरहे और खरगोश सदृश छोटे छोटे जानवर भी होते हैं। शिकारी चिड़ियाँ पेड़ों पर रहनेवाले पक्षी हैं, जो हवा में पर्याप्त ऊँचाई तक उड़ लेते हैं। इनके नाखून बड़े नुकीले और टेढ़े होते हैं। इनकी चोंच टेढ़ी और मजबूत होती है। इनकी निगाह बड़ी तेज होती है। सभी मांसभक्षी चिड़ियों में से अधिकांश जिंदा शिकार करती हैं और कुछ मुर्दाखोर भी होती है। शिकारी पक्षियों की एक विशेषता यह है कि इनकी मादाएँ नरों से कद में बड़ी और अधिक साहसी होती हैं।
शिकारी पक्षियों के तीन प्रमुख कुल हैं, पर साधारणतया इन्हें बड़े पंखवाली और छोटे पंखवाली चिड़ियों में विभक्त करते हैं। पहली किस्म को "स्याहचश्म' या काली आँखवाली और दूसरी किस्म को "गुलाबचश्म' या पीली आँखवाली कहते हैं। जो शिकारी चिड़ियाँ पाली जाती हैं, उनमें बाज, बहरी, शाहीन, तुरमती, चरग (या चरख), लगर, वासीन, वासा, शिकरा और शिकरचा, बीसरा, धूती तथा जुर्रा प्रमुख हैं (देखें श्येन)।
शिकारी चिड़ियों को फँसाना
भिन्न भिन्न देशों, जैसे यूरोप, अमरीका, अफ्रीका, चीन और भारत में, शिकारी चिड़ियों के फँसाने के भिन्न भिन्न तरीके हैं। भारत में जो तरीके काम में आते हैं, उन्हीं का संक्षिप्त विवरण यहाँ दिया जा रहा है :
उत्तरी पहाड़ी लोग जो तरीका अपनाते हैं, वह सरल और पर्याप्त कारगर होता है। इन पहाड़ी लोगों के मकानों की छतें नीची और सपाट (flat) होती है तथा धुआँ निकलने के लिए छत में छोटा सूराख बना होता है। उसी सुराख के ऊपर चकोर को एक रस्सी में बाँधकर रख देते हैं और रस्सी को पकड़े रहते हैं। चकोर वहाँ फड़फड़ाता है और इस प्रकार ऊपर उड़ते हुए शिकारी पक्षियों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करता है। फड़फड़ाते चकोर को पकड़ने के लिए शिकारी चिड़िया चकोर के पास आती है। शिकारी चिड़िया और चकोर दोनों को खींचकर फँसानेवाला सूराख के मुँह पर लाता है और हाथ से शिकारी चिड़िया को पकड़ लेता है।
एक दूसरी रीति "दो गजा रीति" है। इसमें दो गज का एक जाल, २ गज ´ ४ गज माप का होता है, जो लगभग दो गज लंबे बाँस के दो बल्लों में बँधा होता है। जाल महीन, काले धागे का बना होता है। जाल के मध्य से दो तीन फुट की दूरी पर, एक खूँटे में जिंदा चिड़िया चारे (bait) के रूप में बँधी रहती है। उस बँधी चिड़िया के फड़फड़ाने पर, शिकारी चिड़िया उस ओर आकर्षित होकर, उसपर झपटती है और जल में फँस जाती है। यदि शिकारी चिड़िया चारे को पकड़ लेती है और जाल में नहीं फँसती, तब शिकारी चिड़िया को घबराकर उसे जाल में फँसा लेते हैं।
लगर के फँसाने का एक दिलचस्प तरीका लेखक ने स्वयं देखा है। इसमें चील की सहायता ली जाती है। चील की आँख डोरे से ऐसे बाँध दी जाती हैं कि वह केवल आसमान की ओर देख सके। उसके पैर में ऊन का एक गोला बाँध दिया जाता है, जिसमें एक सरकफंदा लगा रहता है। मैदान में, जहाँ लगर देख पड़ते हैं, चील को छोड़ दिया जाता है। लगर ऊन के के गाले को पकड़ने की कोशिश में चील के साथ जूझ जाता है और दोनों लड़ते लड़ते धरती पर आ गिरते हैं और फँसानेवाला लगर को पकड़ लेता है। चील के शिकार को छीन लेने की लगर सदा ही चेष्टा करता है।
एक अन्य रीति "पिंजड़ा रीति" है। खुले पिंजड़े में एक जिंदा चिड़िया बाँध दी जाती है और पिंजड़े को प्राय: घोड़े के बालों के बने फँदा के ढेरे से ढँक दिया जाता हैं। ये फंदे सरक फंदे होते है। शिकारी चिड़िया पिंजड़े के पास आकर इन फंदों में फँस जाती है। फंदे को मजबूती से बँधा रहना चाहिए और शिकारी चिड़िया को पकड़कर फंदे से जल्द निकाल लेने के लिए, निकट में कोई आदमी सदा तैयार रहना चाहिए, वरना शिकारी चिड़िया का पैर या पंख टूट जा सकता है।
एक तरीका "पट्टी तरीका" है जिसको चिड़ियाँ फँसानेवाले व्यवसायी काम में लाते हैं। इसमें फँसानेवाला देखता है कि प्रवास के समय शिकारी चिड़िया किस रास्ते से आती जाती है। जिस रास्ते से चिड़िया आती जाती है, उस रास्ते में पहाड़ की चोटियों या कूटों (ridges) पर अनेक जाल, ६ फुट ´ ३०० फुट माप के, फैला दिए जाते हैं। उड़ती हुई शिकारी चिड़िया उन जालां में फँस जाती है, क्योंकि यह चिड़िया पहाड़ी चोटियों या कूटों से ऊपर उठकर उड़ने का कष्ट नहीं करती।
शिकारी चिड़ियों को खिलाना और साधना
शिकारी चिड़ियों को पकड़ने के बाद, उन्हें कुछ दिन के लिए अंधा बना दिया जाता है, अन्यथा वे कलाई पर बैठेंगी ही नहीं। इसके लिए या तो उनकी आँखों पर पट्टी बाँध दी जाती है, या उनकी आंखे सी दी जाती हैं, या टोपी (hood) पहना दी जाती है। दो प्रकार की टोपियाँ चित्र १. और २. में दिखाई गई हैं। सीने में निचले पलकों (eyelids) में तागा लगाकर उसे सिर के शीर्ष से बांध देते हैं। दूसरी विधि पहली विधि की अपेक्षा व्यवहार में अधिक आती है। देखने में दूसरी विधि अवश्य कुछ क्रूर मालूम देती है, पर इससे चिड़ियों के पलकों को कोई नुकसान नहीं होता। यहाँ केवल यह देखना आवश्यक है कि सीने के लिए जो सूत प्रयुक्त हो, वह मुलायम रूई का बना हो। बहुत पतला, या कठोर ऐंठा हुआ सूत पलक को हानि पहुँचा सकता है।
अप्रशिक्षित शिकारी चिड़िया को अंधा बनाकर हाथ पर बैठना सिखाया जाता है और तब कच्चे मांस को उसकी चोंच और चंगुल (पंजे) पर रगड़ा जाता है। शीघ्र ही चिड़िया मांस पर चोंच मारने लगती है और उसे खाना शुरू कर देती है। यदि ऐसा न करें, तो चिड़िया को चारपाई के बीच में बैठाकर, उसके पैर के जोड़ के ऊपर गाँठ बाँध देते हैं। इससे वह कष्ट अनुभव करती है और गाँठ पर चोंच मारने लगती है। अब गाँठ के निकट कच्चे मांस के कुछ टुकड़ों को रख देने से, चिड़िया मांस पर चोंच मारने और खाने लग जाती है। जब चिड़िया माँस खाने लगे, तब बंधन को धीरे धीरे काट देते हैं। कुछ दिनों के बाद चिड़िया खाने के समय का इंतजार करने लगती है। ऐसे समय आँख को धीरे धीरे खोल देते हैं। अब वह बिना किसी रुकावट के खाने लगती है। उपर्युक्त प्रशिक्षण में आठ दिन, या इससे अधिक, समय लग सकता है। यह स्मरण रखना चाहिए कि कलाई पर बैठाने के समय, विशेषकर शुरू में, हाथ में दस्ताना अवश्य रहना चाहिए।
शिकारी चिड़ियों से डर का भगाना
नई शिकारी चिड़िया मनुष्य के निकट आने पर स्वभावत: डर जाती है। पहले इसके डर को हटाना आवश्यक होता है। इसके लिए यह देखना चाहिए कि फड़फड़ाने से चिड़िया के पंख टूटें नहीं और चिड़िया के पंख को पूँछ पर दुमरा (dumra) या "गद्दी' से बाँधकर, उसे मनुष्यों या हल्ले गुल्ले के पास रखते हैं, अथवा चिड़िया को रात में कई घंटे बिना चमड़े की टोपी पहनाए रखते हैं और फिर क्रमश: रात में टोपी को कभी कभी पहनाते और निकाल लेते हैं। दुमरा इस्तेमाल करने की उचित रीति यह है कि पक्षी के पूँछपिच्छ के दो मध्य के पिच्छाक्ष (quill) की जड़ पर सूई द्वारा तागा पहनाकर, तागे को पूँछ से लपेट पर बाँध देना तथा कपड़े का एक टुकड़ा लेकर पूँछ के चारों ओर सी देना चाहिए। इस गद्दी या जैकेट को कई दिन तक पहनाकर रखा जाता है। पहले दो दिन तक तो गद्दी को निकाला ही नहीं जाता है। पीछे केवल रात में निकाल दिया जाता है। गद्दी में बँधे ऐसे बाज को चारपाई के बीच में बांध दिया जाता है और उसकी पलक खुली रखी जाती है। ऐसी चारपाई भीड़वाले जनमार्ग पर रख दी जाती है। इस प्रकार के, अनेक दिनों के व्यवहार से बाज मनुष्य, कुत्ते, गाड़ियों आदि का आदि हो जाता है। रात में उसे हाथ पर बैठाकर घुमाया जाता है। ऐसा व्यवहार, विशेष रूप से, गुलाबचश्म चिड़ियों के साथ किया जाता है।
जब पक्षी पर्याप्त पालतू बना लिया जाता है और बिना डर के खाने पीने लगता है, तब कुछ दूरी से कच्चे मांस का टुकड़ा दिखलाकर, पक्षी को हाथ पर बुलाया जाता है। यह क्रिया अनेक बार दुहराई जाती है और दूरी को धीरे धीरे बढ़ाया जाता है। शिकार को पकड़कर पालक के पास लाने की भी शिक्षा दी जाती है। चिड़िया का मूल्य चिड़िया की किस्म, प्रशिक्षण और उपादेयता पर निर्भर करता है।
बाहरी कड़ियाँ
- North American Falconers' Exchange-Falconry Forum
- IAF - International Association for Falconry and Conservation of Birds of Prey
- Falconry in Qatar
- British Falconers' Club
- North American Falconers' Association
- South African Falconry Association
- Czech Falconry Club
- Welsh Hawking Club
- Falconry Today News service
- Medieval Hawking Whistle East Anglia
- Henfold Lakes Falconry, Surrey, England
- International Falconry Forum