श्मशान चंडी
श्मशान चंडी 52 शक्तिपीठों में से एक शक्तिपीठ है। माना जाता है कि विष्णु द्वारा सती की मृत देह को खंडित करने के बाद यहां देवी सती की बाईं आंख गिरी थी। यह स्थल बिहार के मुंगेर जिला मुख्यालय से करीब चार किलोमीटर दूर है। गंगा किनारे स्थित इस मंदिर के पूर्व और पश्चिम में श्मशान है।
मान्यताएं
यह मंदिर नेत्र व्याधियाँ दूर करने के लिए विख्यात है। मान्यता है कि यहाँ से प्राप्त विशेष काजल को आंखों में लगाने से हर समस्या का अंत होता है।
पूजा
नवरात्री में बहुत सारे साधक तंत्र सिद्धियों को अंजाम देने यहां आते हैं। नवरात्र में सुबह तीन बजे से पूजन आरंभ होता है और संध्या में श्रृंगार पूजन किया जाता है। अष्टमी के दिन तो खास पूजा में भाग लेने के लिए बड़ी संख्या में श्रद्धालुओं का जमावड़ा लगता है। मान्यता है इस दिन मां के दरबार में हाजिरी लगाने से सभी इच्छाएं पूरी होती हैं। मंदिर परिसर में काल भैरव, शिव परिवार और बहुत सारे हिंदू देवी- देवताओं के मंदिर हैं।
मंदिर से जुड़े खास लोगों ने बातचीत के दौरान बताया गया कि, मंदिर का कोई प्रामाणिक इतिहास नहीं है, फिर भी बहुत सारी कथाएं विख्यात हैं। कहा जाता है जब अपनी अर्धांगिनी देवी सती के जले हुए शरीर को लेकर भगवान शिव भटक रहे थे, तब उनकी बाईं आंख यहां गिरी थी।
महाभारत काल से भी इस मंदिर को जोड़ा जाता है। कहते हैं कुंती पुत्र कर्ण मां चंडिका के भक्त थे। वह हर रोज़ मां के सामने खौलते हुए तेल की कड़ाही में कूदकर अपनी जान देते, मां प्रसन्न होकर उन्हें जीवन दान देती साथ में सवा मन सोना। कर्ण सारा सोना मुंगेर के कर्ण चौराहे पर ले जाकर बांट देते।
जब उज्जैन के राजा विक्रमादित्य के कानों तक यह बात पहुंची, तो उन्होंने अंग पहुंचकर सारा दृश्य अपनी आंखों से देखा। एक दिन वह कर्ण से पहले मंदिर गए ब्रह्म मुहूर्त में गंगा स्नान कर स्वयं खौलते हुए तेल की कड़ाही में कूद गए। मां ने उन्हें जीवित कर दिया। वह तीन बार कड़ाही में कूदे और तीन बार मां ने उन्हें जीवनदान दिया। जब वह चौथी बार कूदने लगे तो मां ने उन्हें रोक दिया और मनचाहा वरदान मांगने को कहा। राजा विक्रमादित्य ने मां से सोना देने वाला थैला और अमृत कलश मांग लिया।
मां ने भक्त की इच्छा पूरी करने के बाद कड़ाही को उलटा दिया और स्वयं उसके अंदर अंतर्ध्यान हो गई। आज भी मंदिर में कड़ाही उलटी हुई है। उसके अंदर मां की उपासना होती है। मंदिर में पूजन से पहले विक्रमादित्य का नाम लिया जाता है, फिर मां चंडिका का।