शाहबानो प्रकरण

मुक्त ज्ञानकोश विकिपीडिया से
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ
The printable version is no longer supported and may have rendering errors. Please update your browser bookmarks and please use the default browser print function instead.

साँचा:Infobox SCI case

शाह बानो प्रकरण भारत में राजनीतिक विवाद को जन्म देने के लिये कुख्यात है।[१] इसको अक्सर राजनैतिक लाभ के लिये अल्पसंख्यक वोट बैंक के तुष्टीकरण के उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया जाता है।[२] Indore, Madhya Pradesh, she was divorced by her husband in 1978.[२]

कानूनी विवरण

शाह बानो एक ६२ वर्षीय मुसलमान महिला और पाँच बच्चों की माँ थीं जिन्हें १९७८ में उनके पति ने तालाक दे दिया था। मुस्लिम पारिवारिक कानून के अनुसार पति पत्नी की मर्ज़ी के खिलाफ़ ऐसा कर सकता है।

अपनी और अपने बच्चों की जीविका का कोई साधन न होने के कारण शाह बानो पति से गुज़ारा लेने के लिये अदालत पहुचीं। उच्चतम न्यायालय तक पहुँचते मामले को सात साल बीत चुके थे। न्यायालय ने अपराध दंड संहिता की धारा १२५ के अंतर्गत निर्णय लिया जो हर किसी पर लागू होता है चाहे वो किसी भी धर्म, जाति या संप्रदाय का हो। न्यायालय ने निर्देश दिया कि शाह बानो को निर्वाह-व्यय के समान जीविका दी जाय।

भारत के रूढ़िवादी मुसलमानों के अनुसार यह निर्णय उनकी संस्कृति और विधानों पर अनाधिकार हस्तक्षेप था। इससे उन्हें असुरक्षित अनुभव हुआ और उन्होंने इसका जमकर विरोध किया। उनके नेता और प्रवक्ता एम जे अकबर और सैयद शाहबुद्दीन थे। इन लोगों ने ऑल इंडिया पर्सनल लॉ बोर्ड नाम की एक संस्था बनाई और सभी प्रमुख शहरों में आंदोलन की धमकी दी। उस समय के प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने उनकी मांगें मान लीं और इसे "धर्म-निरपेक्षता" के उदाहरण के स्वरूप में प्रस्तुत किया।

भारत सरकार की प्रतिक्रिया

१९८६ में, कांग्रेस (आई) पार्टी ने, जिसे संसद में पूर्ण बहुमत प्राप्त था, एक कानून पास किया जिसने शाह बानो मामले में उच्चतम न्यायालय के निर्णय को उलट दिया। इस कानून के अनुसार (उद्धरण):

"हर वह आवेदन जो किसी तालाकशुदा महिला के द्वारा अपराध दंड संहिता १९७३ की धारा १२५ के अंतर्गत किसी न्यायालय में इस कानून के लागू होते समय विचाराधीन है, अब इस कानून के अंतर्गत निपटाया जायेगा चाहे उपर्युक्त कानून में जो भी लिखा हो"

क्योंकि सरकार को पूर्ण बहुमत प्राप्त था, उच्चतम न्यायालय के धर्म-निरपेक्ष निर्णय को उलटने वाले, मुस्लिम महिला (तालाक अधिकार सरंक्षण) कानून १९८६ आसानी से पास हो गया।

इस कानून के कारणों और प्रयोजनों की चर्चा करना आवश्यक है। कानून के वर्णित प्रयोजन के अनुसार जब एक मुसलमान तालाकशुदा महिला इद्दत के समय के बाद अपना गुज़ारा नहीं कर सकती है तो न्यायालय उन संबंधियों को उसे गुज़ारा देने का आदेश दे सकता है जो मुसलमान कानून के अनुसार उसकी संपत्ति के उत्तराधिकारी हैं। परंतु - अगर ऐसे संबंधी नहीं हैं अथवा वे गुज़ारा देने की हालत में नहीं हैं - तो न्यायालय प्रदेश वक्फ़ बोर्ड को गुज़ारा देने का आदेश देगा। इस प्रकार से पति के गुज़ारा देने का उत्तरदायित्व इद्दत के समय के लिये सीमित कर दिया गया।

इन्हें भी देखें

सन्दर्भ

बाहरी कड़ियाँ