शाकम्भरी देवी की आरती

मुक्त ज्ञानकोश विकिपीडिया से
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ
The printable version is no longer supported and may have rendering errors. Please update your browser bookmarks and please use the default browser print function instead.

शाकम्भरी देवी आरती

शाकुंभरी अंबाजी की आरती कीजो

ऐसो अद्भुत रूप है ह्रदय धर लीजो

शताक्षी दयालु की आरती कीजो

त्वं परिपूर्ण आदि भवानी मां

सब घट घट तुम आप बखानी माँ

शाकंभरी अंबा जी की आरती कीजो

तुम हो शाकंभरी तुम हो शताक्षी माँ

शिवमूर्ति माया प्रकाशी माँ

शाकंभर अंबाजी की आरती कीजो

भीमा और भ्रामरी अंबे संग विराजे मां

रवि शशि कोटि-कोटि छवि साजे माँ

शाकंभर अंबाजी की आरती कीजो

सकल नर नारी अंबे आरती गावें माँ

इच्छा पूर्ण कीजो शाकंभर दर्शन पावे मां

शाकंभर अंबाजी की आरती कीजो

जो नर आरती पढ़हि पढ़ावे माँ

बसहु बैकुंठ शाकंभरी दर्शन पावें माँ

शाकंभर अंबाजी की आरती कीजो

जो नर आरती सुनहि सुनावें माँ

बसहु बैकुण्ठ परमपद पावें माँ

शाकुंभर अंबाजी की आरती कीजो

ऐसो अदभुत रूप हृदय धर लीजो

शाकम्भरी देवी : दुर्गम नाम का एक दैत्य था। दैत्य तपस्या करने के विचार से हिमालय पर्वत पर गया। मन में ब्रह्मा जी का ध्यान करके उसने आसन जमा लिया। वह केवल वायु पीकर रहता था। उसने एक हजार वर्षों तक बड़ी कठिन तपस्या की। चतुर्मुख भगवान ब्रह्मा प्रसन्नतापूर्वक हंस कर दुर्गम के सम्मुख प्रकट हो गये और बोले - 'तुम्हारा कल्याण हो ! तुम्हारे मन में जो वर पाने की इच्छा हो, मांग लो। ' ब्रह्माजी के मुख से यह वाणी सुनकर दुर्गम ने कहा – मुझे बल दीजिये, जिससे मैं देवताओं को परास्त कर सकूँ। दुर्गम की यह बात सुनकर चारों वेदों के परम अधिष्ठाता ब्रह्माजी 'ऐसा ही हो' कहते हुए सत्यलोक की ओर चले गये। शक्ति पाकर दुर्गम ने लोगों पर अत्याचार करना आरम्भ कर दिया और धर्म के क्षय ने गंभीर सूखे को जन्म दिया और सौ वर्षों तक कोई वर्षा नहीं हुई । ऋषि, मुनि और ब्राह्मण लोग भीषण अनिष्टप्रद समय उपस्थित होने पर जगदम्बा की उपासना करने हिमालय पर्वत पर गये, और अपने को सुरक्षित एवं बचाने के लिए हिमालय की कन्दराओं में छिप गए तथा माता देवी को प्रकट करने के लिए कठोर तपस्या की । समाधि, ध्यान और पूजा के द्वारा उन्होंने देवी की स्तुति की। भगवती जगदम्बा तुरन्त संतुष्ट हो गयीं। ऋषि, मुनि और ब्राह्मण लोग की समाधि, ध्यान और पूजा के द्वारा उनके संताप के करुण क्रन्दन से विचलित होकर, देवी-फल, सब्जी, जड़ी-बूटी, अनाज, दाल और पशुओं के खाने योग्य कोमल एवं अनेक रस से सम्पन्न नवीन घास फूस लिए हुए प्रकट हुईं और अपने हाथ से उन्हें खाने के लिये दिये।,शाक का तात्पर्य सब्जी होता है, इस प्रकार माता देवी का नाम उसी दिन से शाकम्भरी पड गया। शाकम्भरी नवरात्रि पौष शुक्ल अष्टमी से आरम्भ होकर पौष की पूर्णिमा को समाप्त होता है । यह राजस्थान, मध्य प्रदेश, हिमांचल प्रदेश, कर्नाटक और तमिलनाडु में मनाया जाता है । भारत के इन राज्यों के मन्दिरों में विशाल आयोजन माता की आराधना हेतु होता है ।

आरती :

जय शाकम्भरी माता ,मैया जय शाकम्भरी माता ,

तुमको जो भी ध्याता ,सब संपत्ति पा जाता .

जय शाकम्भरी माता ,मैया जय शाकम्भरी माता .

धरती सूखी ,अम्बर सूखा तब आई तुम माता ,

क्षुधा मिटाई,प्यास बुझाई,बनकर जीवन दाता.

तुम ही जग की माता तुम ही हो भरता ,

भक्तों की दुःख हर्ता,सुख सम्पति की दाता.

माता जी की आरती जो नर नारी गावें ,

सारे इच्छित फल वो पल भर में पा जावें .

जय शाकम्भरी माता ,मैया जय शाकम्भरी माता ,

तुमको जो भी ध्याता ,सब संपत्ति पा जाता .

शताक्षी देवी