इस्रा और मेराज

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बुर्राक़ से मुहम्मद की स्वर्ग (1539-1543 ईस्वी) तक चढ़ाई।

इसरा और मेराज (अरबी: الإسراء والمعراج‎‎, al-’Isrā’ wal-Mi‘rāj) रात के सफ़र के दो हिस्सों को कहा जाता है। इस रात मुहम्मद के दो सफ़र रहे, (१) मक्का से बैत अल-मुखद्दस, फिर वहां से सात आसमानों की सैर करते अल्लाह के सामने हाज़िर होकर मिले। इस्लामी मान्यताओं के अनुसार प्रेषित मुहम्मद ६२१ ई में रजब की २७वीं रात को आसमानी सफ़र किये। कई रिवायतों के अनुसार इनका सफ़र भौतिक था, कई रिवायतों के अनुसार आत्म सम्बन्ध था। रिवायतों के मुताबिक यह भी मानना है कि इनका सफ़र एक सवारी पर हुआ। लेकिन लोग इस बुर्राक़ को एक जानवर का रूप समझने लगे।

इस अवसर को ले कर मुस्लिम समुदाय इस इसरा और मेराज [१]को "शब् ए मेराज[२]" के नाम से त्यौहार मनाता है। जब कि इस त्यौहार मनाने का कोई जवाज़ नहीं है। लेकिन मुहम्मद के इस आसमानी सफ़र को लेकर महत्वता देते हुवे इस रात को हर साल त्यौहार के रूप में मनाते हैं।

शब-ए-मेराज अथवा शबे मेराज एक इस्लामी त्योहार है जो इस्लामी कैलेंडर के अनुसार रजब के माह (सातवाँ महीना) में 27वीं तिथि को मनाया जाता है। इसे आरोहण की रात्रि के रूप में मनाया जाता है और मान्यताओं के अनुसार इसी रात, मुहम्मद एक दैवीय जानवर बुर्राक़ पर बैठ कर सातों स्वर्गों का भ्रमण किये थे।[३] अल्लाह से मुहम्मद के मुलाक़ात की इस रात को विशेष प्रार्थनाओं और उपवास द्वारा मनाया जाता है और मस्जिदों में सजावट की जाती है तथा दीप जलाये जाते हैं।[४]

अल इसरा और मेराज

इसरा का मतलब होता है रात का सफर और अल-इसरा का मतलब एक विशेष रात के सफर से है। वही मेराज का मतलब होता है, ऊपर उठना या आरोहण। मुहम्मद का यह सफर तब शुरू हुआ जब उनके जीवन के दो महत्वपूर्ण लोग और उस समय उनके सबसे बड़े समर्थक इस दुनिया से छोड़कर जा चुके थे। इनमें से एक थीं उनकी पत्नी ख़दीजा, और दूसरे थे उनके चाचा अबू तालिब। यह मुहम्मद साहब के जीवन का वह दौर था जब उन्हें कई समस्याओं का सामना करना पड़ा था, जब उनके अपने कुरैश समाज के लोगों ने उनका पूर्ण बहिष्कार कर उन्हे समुदाय से निष्कासित कर दिया था। मक्का, सऊदी अरब के बड़े एक बड़े रेगिस्थान के बीच बसा एक शहर है, उस ज़माने में अगर समुदाय किसी व्यक्ति को निष्कासित कर देता था तो उस व्यक्ति को अपना जीवन मरुस्थलीय भूमि पर बिताना पड़ता था जिस कारण वह व्यक्ति रेगिस्तान के कठिन वातावरण में स्वंय ही अपने प्राण त्याग देता था लेकिन जीवन के इतने कठिन समय में भी मुहम्मद का ईश्वर से विश्वास कभी नहीं हटा।

यरूशलम की यात्रा

कुरान में "सबसे दूर की मस्जिद" के रूप में वर्णन के लिए मक्का और मदीना के बाद अल- अक्सा मस्जिद को तीसरा सबसे पवित्र इस्लामी स्थल माना जाता है

माना जाता है कि अल इसरा वल मेराज वह रात है जब अल्लाह की तरफ से एक खास सवारी बुर्राक़ भेजकर मुहम्मद को मक्का से यरूशलम लाया गया था। लेकिन आज के समय में यह सफर कुछ घंटो में किया जा सकता है, और उस जमाने में उंट से यह सफर तय करने में कम से कम दो महीने लग जाते थे। यरूशलम पहुंचकर मुहम्मद ने वहां स्थित अल-अक्सा मस्जिद में नमाज पढ़ी और फिर वहां से शुरू हुआ उनका एक आध्यात्मिक सफर जिसे मेराज कहा जाता है। मेराज में अल्लाह ने मुहम्मद को एक दूसरी दुनिया से परिचित कराया। हजरत मुहम्मद सहाब के इसी सफर के दौरान इस्लाम में एक दिन पाँच में वक्त कि नमाज पढ़ना भी अनिवार्य किया गया था।

सन्दर्भ

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  3. साँचा:cite book
  4. साँचा:cite book

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