शबनम मौसी

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शबनम "मौसी" बानो (शबनम मौसी) पहली परलैंगिक भारतीय या हिजड़ा हैं जिनका चुनाव सार्वजनिक कार्यालय (विधायक) के लिए हुआ था।[१] वह 1998 से 2003 तक मध्य प्रदेश राज्य विधान सभा के लिए निर्वाचित सदस्य थी। हिजड़ों को भारत में 1994 में मतदान अधिकार दिया गया था।

शुरुवाती ज़िन्दगी

उनके पिता पुलिस के एक अधीक्षक थे। चूँकि वह डरते थे कि वह अपनी इस संतान के कारण समाज में सम्मान खो देंगे, इसलिए उन्होंने उसे त्याग दिया।

राजनीतिक कैरियर

शबनम मौसी मध्य प्रदेश राज्य के शहडोल-अनुपपुर जिले के सोहागपुर निर्वाचन क्षेत्र से चुने गयी। शबनम ने दो साल प्राथमिक विद्यालय में पढ़ा, लेकिन उन्होंने अपनी यात्रा के दौरान 12 भाषाओं को सीखा। विधान सभा के सदस्य के रूप में उन्होंने अपने एजेंडे में निर्वाचन क्षेत्र में भ्रष्टाचार, बेरोजगारी, गरीबी और भूख से लड़ना शामिल किया। शबनम मौसी ने "असेंब्ली का दौरा करो" के अंतरगत अपने पद का इस्तेमाल करके हिजड़ों के प़ति भेदभाव के खिलाफ बोलने के साथ-साथ एचआईवी / एड्स के बारे में जागरूकता बढ़ाने के लिए प्रयास करना शुरू किया।[२]

सक्रियतावाद

शबनम मौसी ने भारत में बहुत सारे हिजड़ों को राजनीति में शामिल किया और भारत की 'मुख्यधारा की गतिविधियों' में भाग लेने के लिए प्रेरित किया, जिन्हें भारतीय समाज के रहने वाले नृर्तक, वेश्याओं और भिखारियों के रूप में अपनी पारंपरिक भूमिकाएं छोड़ दीं। उदाहरण के लिए जैसे वे शादियों या नवजात शिशु के जन्म के समय लोगों के घर में जाते हैं।

जीती जिताई पालिटिक्स (जेजेपी)

2003 में मध्य प्रदेश में हिजड़ों ने "जीती जिताई राजनीति" (जे जे पी) नामक अपनी स्वयं की राजनीतिक पार्टी की स्थापना की, जिसका शाब्दिक अर्थ है 'राजनीति जो पहले से ही जीती है'। पार्टी ने एक आठ पृष्ठ का चुनाव घोषणापत्र भी जारी किया, जिसमें यह दावा किया कि यह मुख्यधारा के राजनीतिक दलों से अलग क्यों है।

लोकप्रिय संस्कृति

2005 में 'शबनम मौसी' नामक एक फिक्शन फीचर फिल्म को उनके जीवन के बारे में बनाया गया था। इसे योगेश भारद्वाज ने निर्देशित किया गया था, और शबनम मौसी की भूमिका आशुतोष राणा ने की थी।

यद्यपि वह अब सार्वजनिक कार्यालय में नहीं है, शबनम मौसी भारत में एनजीओ और लिंग कार्यकर्ताओं के साथ सक्रिय रूप से एड्स को लेकर जागरूकता पैदा करना जारी रखती है। उन्होंने कहा है-

"हमारे भाई-बहनों को अक्सर हमारे यौन अभिविन्यास के कारण कलंक और भेदभाव का सामना करना पड़ता है। एड्स के बारे में खुले तौर पर बात करने से हमें एक-दूसरे को समझने में मदद मिलती है!"

ये भी देखें

संदर्भ

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बाहरी कड़ियाँ

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