लघु वित्त
साँचा:sidebar व्यष्टि-वित्त का मतलब है, उपभोक्ताओं तथा स्व-नियोजित व्यक्तियों सहित निम्न आय वर्ग के ग्राहकों को वित्तीय सेवाएं मुहैया कराना.
स्थूल रूप से, यह एक ऐसे आंदोलन की ओर इंगित करता है जिसमें परिकल्पना की गई है “एक ऐसे दुनिया की, जहां यथासंभव, ग़रीबों और ग़रीबी की कगार पर खड़े लोगों को, न सिर्फ़ ऋण बल्कि बचत, बीमा और निधि-अंतरण सहित उच्च गुणवत्ता वाले उपयुक्त श्रेणी की वित्तीय सेवाएं स्थाई तौर पर सुगम हों.”[१] आम तौर पर व्यष्टि-वित्त के प्रवर्तकों का यह मानना है कि ऐसी पहुंच से ग़रीबों को ग़रीबी से बाहर निकलने में मदद मिलती है।
चुनौती
पारंपरिक तौर पर, बैंकों ने कम आय या नकदी आय न रहने वाले ग्राहकों को वित्तीय सेवाएं प्रदान नहीं की हैं। बैंकों को, ग्राहक का खाता संभालने के लिए, चाहे रकम कितनी भी छोटी क्यों न हो, काफ़ी खर्च उठाना पड़ता है। उदाहरण के लिए, प्रत्येक $ 1,000 के एक सौ ऋण देने से मिलने वाले कुल राजस्व में और $100,000 का एक ही ऋण देने से मिलने वाले राजस्व में कोई ख़ास फ़र्क नहीं होगा। लेकिन किसी भी मात्रा के ऋणों का संसाधन करने के लिए निश्चित खर्च काफ़ी अधिक होगा: जैसे, संभावित ग्राहकों का निर्धारण, उनकी चुकौती संभावनाएं और जमानत; बकाया ऋणों का प्रशासन, दोषी ग्राहकों से वसूली करना इत्यादि. ऋण देते या जमाराशि लेते समय लाभ-अलाभ स्थिति क़ायम करनी पड़ती है, जिसके नीचे जाने से बैंकों को प्रत्येक लेन-देन पर नुक्सान उठाना पड़ता है। ग़रीब लोग, सामान्यत: इस रेखा से नीचे जीवन बसर करते हैं।
इसके अलावा, अधिकांश ग़रीब लोगों के पास इतनी आस्तियां नहीं रहती हैं, जिसे संपार्श्विक के रूप में बैंक जमानत पर ले सके। जैसे कि हर्नैंडो डी सोटो और दूसरे अर्थशास्त्रियों के दस्तावेजों में व्यापक रूप से दर्ज किया गया है, विकासशील दुनिया में उनके पास भले ही अपनी ज़मीन हो, लेकिन उस पर उनका स्वत्वाधिकार हक नहीं होता है।[२] इसका मतलब यह है कि बैकों के पास चूककर्ता उधारकर्ताओं के खिलाफ़ क़दम उठाने के लिए कोई भी रास्ता नहीं रह जाता है।
अगर मोटे तौर पर देखा जाए तो यह बात लंबे अरसे से स्वीकार की जा चुकी है कि राष्ट्रीय आर्थिक विकास का स्थूल लक्ष्य हासिल करने की दिशा में स्वस्थ राष्ट्रीय वित्तीय प्रणाली का विकास, एक महत्वपूर्ण लक्ष्य और उत्प्रेरक है (उदाहरण के लिए देखें अलेक्ज़ैंडर गरशेंक्रॉन, पॉल रोसेंटाइन-रॉडन, जोसेफ़ शुंपीटर, एनी क्रूगर आदि। ). लेकिन, दूसरे विश्व युद्ध के बाद, अपने देशों की अधिकांश आबादी के लिए वित्तीय सेवाएं विकसित करने की दिशा में राष्ट्रीय आयोजकों और विशेषज्ञों के प्रयास विफल रहे हैं, जिनके कारणों का संक्षेप में बख़ूबी वर्णन, ऐडम्स, ग्राहम और वॉन पिशके ने अपने उत्कृष्टतम विश्लेषण 'अंडरमाइनिंग रूरल डेवलपमेंट विथ चीप क्रेडिट' में किया है।[३]
इन कठिनाइयों की वजह से, जब ग़रीब लोग उधार लेते हैं, तो वे अक्सर अपने रिश्तेदारों अथवा स्थानीय साहूकार पर निर्भर होते हैं, भले ही उनका ब्याज दर बहुत अधिक ही क्यों ना हो। अनौपचारिक उधार दरों से संबंधित 28 अध्ययनों के विश्लेषण से साबित हुआ है कि 76% साहूकारों की उधार दरें, प्रति माह 10% से अधिक रहीं, जिनमें प्रति माह 100% पार करनेवाली 22% भी शामिल हैं। सामान्यत: साहूकार, कम ग़रीब लोगों के मुकाबले ज़्यादा ग़रीब उधारकर्ताओं से अधिक दर वसूलते हैं।[४] यद्यपि साहूकारों को राक्षसों की भांति देखा जाता है और इन पर सूदख़ोर होने का दोषारोपण किया जाता है, तथापि इनकी सेवाएं सुविधाजनक और तेज़ होती हैं और जब उधारकर्ता परेशानी में हों, तो वे बहुत ही लचीले तरीक़े से पेश आ सकते हैं। लेकिन इनको, उन जगहों से भी जहां व्यष्टि-वित्त संस्थाएं बहुत सक्रिय हैं, तेजी से कारोबार के दायरे से बाहर करने की आशाएं असलियत के परे साबित हुई हैं।साँचा:fix
पंद्रहवीं शताब्दी में समुदाय-उन्मुख गिरवी की दुकानों की स्थापना करनेवाले फ़्रैंसिस्कन सन्यासियों जैसे व्यावहारिक दूरदर्शियों से लेकर उन्नीसवीं शताब्दी में यूरोपीय क्रेडिट यूनियन आंदोलन की अगुआई करनेवालों (जैसे फ़्रेडरिच विलहेम राइफ़ेसेन) और 1970 के दशक में लघु-ऋण आंदोलन के संस्थापकों (जैसे मोहम्मद यूनुस) तक, पिछली शताब्दियों में सभी ने, ग़रीब लोगों की दहलीज पर वित्तीय सेवाओं के रूप में विभिन्न प्रकार के जीविकोपार्जक अवसर और जोखिम प्रबंधन साधन मुहैया कराने के लिए बनाई गईं पद्धतियों और संस्थांओं को परखा है।[५] यद्यपि ग्रामीण बैंक की कामयाबी से (जो इस समय सात मिलीयन से ज़्यादा बांग्लादेशी महिलाओं की मदद कर रहा है) दुनिया को प्रेरणा मिली है, तथापि इस कामयाबी को बारंबार दोहराना मुश्किल साबित हुआ है। कम आबादीवाले देशों में, निकटतम ग्राहकों की सेवा करते हुए, खुदरा शाखा के परिचालन खर्च की भरपाई करना वाक़ई चुनौतीपूर्ण साबित हुआ है।
यद्यपि काफ़ी प्रगति की गई है, लेकिन समस्या का समाधान अभी नहीं हो पाया है और बड़े पैमाने पर अधिकांश लोग, जिनकी रोज़ की कमाई, ख़ास कर ग्रामीण इलाकों में, $1 से कम है, वास्तव में औपचारिक क्षेत्र से वित्तीय सहायता पाने से अभी वंचित रह गए हैं। व्यष्टि-वित्त की मात्रा तेजी से बढ़ रही है, जबकि इस समय व्यष्टि-वित्त ऋणों के रूप में 25 अरब डालर की राशि दी जा चुकी है।[६] अनुमान लगाया गया है कि ज़रूरतमंद तमाम ग़रीब लोगों को पूंजी दिलाने के लिए उद्योग को 250 अरब अमेरिकी डालर की ज़रूरत पड़ेगी.[६] उद्योग की तेजी से तरक्की हो रही है और साथ ही यह चिंता सता रही है कि जिस रफ़्तार से व्यष्टि-वित्त की ओर पूंजी का बहाव बढ़ रहा है, अगर इसे ठीक तरह संभाला न जाए, तो ख़तरे की संभावना है।
सीमाएं और सिद्धांत
सैद्धांतिक रूप से, व्यष्टि-वित्त के दायरे में ऐसे प्रयास शामिल हो सकते हैं, जिनसे ग़रीब लोगों को इस समय जो वित्तीय सेवाएं मिल रही हैं या जिसके मिलने से फ़ायदा हो सकता है, उनको अधिक मात्रा में मुहैया करा सकें या उनकी गुणवत्ता सुधार सकें. उदाहरण के लिए, ग़रीब लोग, अनौपचारिक साहूकारों से उधार लेते हैं और अनौपचारिक वसूलकर्ताओं के पास बचत करते हैं। उनको दानियों से ऋण और अनुदान मिलता है। वे राज्य सरकार की स्वामित्व वाली कंपनियों के पास बीमा कराते हैं। वे प्रेषण जाल (जैसे हवाला) से निधि अंतरण पाते हैं।
ऐसी उज्जवल रेखाएं बहुत ही कम नजर आएंगी, जिनकी बदौलत व्यष्टि-वित्त का इस तरह की गतिविधियों से भेद किया जा सके। ऐसे दावे भी किए जा सकते हैं कि सरकार, जो राज्य के बैंकों को ग़रीब उपभोक्ताओं के जमा खाते खोलने का आदेश देती है, अथवा साहूकार, जो सूदख़ोरी में जुटा है, या दातव्य संस्था, जो बछिया घर चलाती है, को व्यष्टि-वित्त में शामिल किया गया है। इसके अलावा, उनको उपलब्ध वित्तीय संस्थाओं की संख्या और उनकी क्षमता बढ़ाने से, वित्तीय पहुंच की समस्या का सही समाधान हो सकता है। हाल के कुछ वर्षों से, इन संस्थाओं की विविधता को व्यापक बनाने पर अधिक बल दिया जा रहा है, क्योंकि अलग-अलग संस्थाएं, अलग-अलग क़िस्म की ज़रूरतें पूरी करती हैं।
ग़रीबों की मदद करने के लिए गठित एक सलाहकार दल (CGAP) ने 2004 में कुछ ऐसे सिद्धांत पिरोए, जिनमें डेढ़ शताब्दी से अपनाई गई विकास प्रकिया का सार संग्रहित किया गया और 10 जून 2004 को हुए G8 शिखर सम्मेलन के आठ नेताओं के दल ने इनका समर्थन किया:[५]
- ग़रीब लोगों को न सिर्फ़ ऋणों की बल्कि बचत, बीमा और धन अंतरण सेवाओं की ज़रूरत पड़ती है।
- व्यष्टि-वित्त, ग़रीबों की गृहस्थी के लिए उपयोगी होना चाहिए: आय उत्पन्न करने, संपत्ति बनाने और/अथवा बाह्य आघात सहने में मददगार साबित होना चाहिए।
- “व्यष्टि-वित्त को अपनी भरपाई खुद करनी होगी.”[७] दानियों और सरकार से सहायता राशि यदा-कदा मिलती है और उसका कोई भरोसा नहीं होता और इसलिए अगर बड़ी तादाद में ग़रीब लोगों की वित्तीय ज़रूरतें पूरी करनी हो, तो व्यष्टि-वित्त को अपनी भरपाई खुद करनी होगी।
- व्यष्टि-वित्त का मतलब है स्थाई स्थानीय संस्थाएं बनाना.
- साथ ही व्यष्टि-वित्त से अभिप्राय है, ग़रीब लोगों की वित्तीय ज़रूरतों को देश की वित्तीय प्रणाली की मुख्य धारा के साथ जोड़ना.
- "सरकार का काम है, वित्तीय सेवाएं सुसाध्य बनाना न कि देना.”[८]
- ”दानियों की निधि, निजी पूंजी की पूरक होनी चाहिए, न कि प्रतिस्पर्धात्मक.”[८]
- "मुख्य अड़चन मजबूत संस्थाओं और प्रबंधकों की कमी है।”[८] दानियों को क्षमता बढ़ाने पर अधिक ग़ौर करना चाहिए।
- अधिकतम ब्याज दर से गरीब लोग त्रस्त हो जाते हैं, जिससे व्यष्टि-वित्त संस्थाओं की लागत की भरपाई नहीं हो पाती और इसकी बदौलत, ऋण की आपूर्ति बंद हो जाती है।
- व्यष्टि-वित्त संस्थाओं को वित्तीय और सामाजिक, दोनों दृष्टि से अपने निष्पादन को आंकना और प्रकट करना चाहिए।
व्यष्टि-वित्त का दान से भी भेद किया जा सकता है। निर्धन परिवारों को अथवा ऐसे ग़रीबों को, जो ऋण चुकाने के लिए ज़रूरी नकद भी नहीं जुटा पाते हैं, अनुदान देना बेहतर होगा। युद्ध की दशा में अथवा प्राकृतिक विपदा के बाद, ऐसे हालात पैदा हो सकते हैं।
वाद-विवादों का घेरा
व्यष्टि-वित्त के इर्द-गिर्द अनेक महत्वपूर्ण वाद-विवाद खड़े हुए हैं।
व्यष्टि-वित्त के व्यवसायी और दानी, अक्सर यह दलील पेश करते हैं कि लघु-ऋण, उत्पादक प्रयोजनों के लिए, जैसे लघु-उद्यम शुरू करने अथवा उसके विस्तार तक सीमित किया जाना चाहिए। इसकी प्रतिक्रिया में निजी क्षेत्र के पैरवीकारों की दलील है कि पैसा चिरभोग्य होने के कारण प्रतिबंध लगाना असंभव है और किसी भी हालत में अमीर लोगों को यह तय नहीं करना चाहिए कि ग़रीब लोग अपना पैसा कैसे खर्च करें।
संभवत: सूदख़ोरी के बारे में परंपरागत पश्चिमी विचारधारा से प्रभावित होकर, पारंपरिक साहूकार की भूमिका की, ख़ास कर आधुनिक व्यष्टि-वित्त के प्रारंभिक दौर में, कड़ी आलोचना की गई। जैसे-जैसे ज़्यादा ग़रीब लोगों को लघु-ऋण संस्थाओं से ऋण मिलने लगे, यह बात साफ़ जाहिर हुई कि साहूकारों की सेवाएं मूल्यवान साबित होती रही हैं। उधारकर्ता, त्वरित ऋण संवितरण, गोपनीयता और लचीले चुकौती कार्यक्रम जैसी सेवाओं के लिए बेहद ज़्यादा ब्याज दर देने के लिए तैयार थे। उनको कभी ऐसा नहीं लगा कि पर्याप्त मुआवज़े के तौर पर कमतर ब्याज दर पाना, बैठकों में भाग लेने, संवितरण के लिए अर्ह बनने की दृष्टि से प्रशिक्षण पाठ्यक्रमों में भाग लेने अथवा मासिक संपार्श्विक अंशदान करने की क़ीमत से बढ़ कर है। जब वे दूसरे कारणों के लिए (जैसे स्कूल शुल्क अदा करने के लिए, स्वास्थ्य के प्रति खर्च के लिए अथवा परिवार की खाद्यान्न संबंधी जरूरतें पूरी करने के लिए) अक्सर उधार लिया करते थे, तब उनको ऐसा बहाना करने पर मजबूर करना भी अरुचिकर लगा कि वे कारोबार शुरू करने के लिए उधार ले रहे हैं।[९] हाल में समग्र वित्तीय प्रणाली पर दिए जाने वाले अधिक बल की वजह से (नीचे का खंड देखें) साहूकारों को, विनियमन के पक्ष में बहस करने और ग़रीब लोगों को उपलब्ध विकल्पों में वृद्धि के लिए, उनके बीच प्रतिस्पर्धा बढ़ाने के प्रति प्रयास करने की दिशा में अधिक वैधता मिलेगी.
आधुनिक व्यष्टि-वित्त, 1970 के दशक में उभरा, जिसमें निजी क्षेत्र के समाधान के प्रति अधिक उन्मुखता नज़र आई. यह इस प्रमाण से ज़ाहिर हुआ कि विकासशील दुनिया में राज्य सरकार के स्वामित्व वाले विकास बैंक, वास्तव में उनको दिए गए विकासोन्मुख लक्ष्य को नज़रंदाज करते हुए, सरासर विफल रहे (ऐडम, ग्रैहम और वॉन पिशके द्वारा संपादित संकलन देखें).[३] तथापि, कई देशों के सरकारी अधिकारियों की विचारधारा अलग है और वे व्यष्टि-वित्त बाज़ारों में हस्तक्षेप करने से बाज़ नहीं आते हैं।
'बाह्य-पहुंच' (ग़रीबों और अधिक दूरस्थ इलाकों में बसने वाले ग़रीबों तक पहुंचने की व्यष्टि-वित्त संस्थाओं की क्षमता) और 'स्थिरता' (अपना परिचालन खर्च और साथ ही, संभवत: अपने परिचालन राजस्व से, अपने नए ग्राहकों की सेवा करने में लगे खर्च को भरने की क्षमता) के बीच समझौताकारी तालमेल की तीक्ष्णता के बारे में लंबे समय से बहस होती रही है।[१०] यद्यपि आम तौर पर यह सहमति हुई है कि व्यष्टि-वित्त के व्यवसायियों को कुछ हद तक इन लक्ष्यों को संतुलित करने की कोशिश करनी चाहिए, फिर भी बोलिविया में बैंकोसोल की न्यूनतम लाभोन्मुखता से लेकर बांग्लादेश में BRAC की अधिक एकीकृत 'लाभ के लिए नहीं' उन्मुखता तक बहुत सारी रणनीतियां नज़र आती हैं। यह बात न केवल अलग-अलग संस्थाओं के लिए, बल्कि राष्ट्रीय व्यष्टि-वित्त प्रणाली को विकसित करने में जुटी सरकारों के लिए भी लागू होती है।
सामान्यत: व्यष्टि-वित्त के विशेषज्ञ सहमत हैं कि महिलाएं, सेवा पाने का प्राथमिक केंद्र बिंदु होनी चाहिए। सबूत इशारा करते हैं कि ऋण चुकाने में चूक होने की संभावना पुरुषों के मुकाबले महिलाओं में कम होती है। 52 मिलीयन उधारकर्ताओं को ऋण देनेवाली 704 व्यष्टि-वित्त संस्थाओं (MFI) से 2006 से हासिल किए गए औद्योगिक आंकड़ों में, ऐसी व्यष्टि-वित्त संस्थाएं (MFI) शामिल हैं, जो परस्पर-निर्भर उधार पद्धति (99.3% महिला ग्राहक) अपनाती हैं और ऐसी व्यष्टि-वित्त संस्थाएं (MFI), जो एकल उधार पद्धति (51% महिला ग्राहक) अपनाती हैं। परस्पर-निर्भर उधार के मामले में बकाया ऋण की मात्रा, 30 दिनों के बाद 0.9% (एकल उधार - 3.1%) रही, जबकि 0.3% ऋण बट्टे खाते डाले गए (एकल उधार - 0.9%).[११] चूंकि ऋण की मात्रा जितनी कम होती है, परिचालन मार्जिन उतना ही कम होता है, इसलिए कई व्यष्टि-वित्त संस्थाएं (MFI) यह मानती हैं कि पुरुषों को उधार देना, अधिक जोखिम भरा होता है। लेकिन कभी-कभार महिलाओं की तरफ भी यही सवाल उठा. विश्व बैंक द्वारा प्रकाशित श्रीलंका के लघु उद्यमियों के हाल में किए गए अध्ययन में पाया गया कि पुरुषों की मिल्कियत के कारोबार (आधे नमूने) के मामले में पूंजी पर प्रतिफल औसतन 11% रहा, जबकि महिलाओं की मिल्कियत के कारोबार के मामले में पूंजी पर प्रतिफल 0% अथवा थोडा नकारात्मक रहा। [१२]
व्यष्टि-वित्तीय सेवाओं की, विकसित देशों सहित, हर कहीं ज़रूरत है। लेकिन विकसित अर्थव्यवस्थाओं में, अलग-अलग लक्ष्य रखनेवाली विभिन्न प्रकार की वित्तीय संस्थाओं को मिला कर वित्तीय क्षेत्र के अंदर मौजूद तीव्र प्रतिस्पर्धा से यह सुनिश्चित होता है कि अधिकतर लोगों को कुछ न कुछ वित्तीय सेवाएं ज़रूर मिलती हैं। व्यष्टि-वित्त की नई अवधारणाओं को, जैसे विकासशील दुनिया के परस्पर-निर्भर उधार, विकसित देशों में हस्तांतरित करने के प्रयास ज़्यादा सफल नहीं हुए हैं।[१३]
ग़रीब लोगों की वित्तीय जरूरतें
विकासशील अर्थव्यवस्थाओं और ख़ास कर ग्रामीण इलाकों में, विकसित देशों में वर्गीकृत करने योग्य ऐसी बहुत गतिविधियां हैं, जिनका मुद्रीकरण नहीं किया जाता है। अर्थात्; ऐसी गतिविधियां चलाने के लिए धन का उपयोग नहीं किया जाता है। अगर परिभाषित करें, तो ग़रीब लोगों के पास लगभग बहुत कम पैसा होता है। लेकिन उनकी ज़िंदगी में ऐसे हालात उत्पन्न होते हैं, जिनसे निपटने के लिए उनको धन की अथवा चीजें ख़रीदने के लिए पैसों की ज़रूरत पड़ती है।
स्टुअर्ट रुदरफोर्ड ने हाल में प्रकाशित अपनी क़िताब द पुअर एंड देअर मनी में कई प्रकार की ज़रूरतों का जिक्र किया है:[१४]
- जीवन-चक्र की ज़रूरतें : जैसे शादी-ब्याह, अंत्येष्टि, बच्चे का जन्म, शिक्षा, घर बनाना, विधवापन, बुढ़ापा.
- वैयक्तिक आपात स्थिति : जैसे बीमारी, घायल होना, बेरोज़गारी, चोरी, परेशानी अथवा मृत्यु.
- विपदाएं : जैसे आग, बाढ़, चक्रवात और मानव निर्मित घटनाएं जैसे; युद्ध अथवा घरों पर बुलडोज़र चलाना.
- निवेश के अवसर : कारोबार बढ़ाना, ज़मीन अथवा उपकरण खरीदना, मकान में सुधार करना, नौकरी पाना (जिसके लिए मोटी रिश्वत देनी पड़ती है), आदि।
ग़रीब लोग, अपनी ज़रूरतें पूरी करने की दिशा में, खास तौर से विभिन्न प्रकार के नकद रहित मूल्य तैयार करने और विनिमय द्वारा, अक्सर सृजनात्मक और सहयोगी तरीक़े ढूंढ पाते हैं। नकद के सामान्य विकल्प देश-दर-देश अलग-अलग हैं, लेकिन इसमें विशेष रूप से शामिल हैं पशु-धन, अनाज, ज़ेवरात और बहुमूल्य धातुएं.
जैसे मार्गरेट रॉबिन्सन ने व्यष्टि-वित्त क्रांति में वर्णन किया है, 1980 के दशक में यह सिद्ध किया गया कि “व्यष्टि-वित्त के ज़रिए फ़ायदेमंद तरीक़े से बडे पैमाने पर बाह्य-पहुंच हो सकती है।” और 1990 के दशक में “व्यष्टि-वित्त, एक उद्योग के रूप में विकसित होने लगा”(2001, पृ. 54). 2000 के दशक में, व्यष्टि-वित्त उद्योग का लक्ष्य है, पूरी न की गई मांग को काफ़ी बडे़ पैमाने पर पूरा करना और ग़रीबी घटाने में भूमिका निभाना. हालांकि पिछले कुछ दशकों में, एक व्यवहार्य, वाणिज्यिक व्यष्टि-वित्त क्षेत्र विकसित करने में काफ़ी तरक्की की गई है, लेकिन इससे पहले कि इस उद्योग को दुनिया भर की भरपूर मांग को पूरा करना संभव हो पाए, उसके समक्ष बहुत सारी समस्याएं हैं, जिनका समाधान अभी नहीं हुआ है। सुदृढ़ वाणिज्यिक व्यष्टि-वित्त उद्योग का निर्माण करने में बाधाएं या चुनौतियां इस प्रकार हैं:
• दानियों की अनुपयुक्त सहायता राशि
• विनियमन और जमाराशि स्वीकार करनेवाली व्यष्टि-वित्त संस्थाओं (MFI) का ख़राब पर्यवेक्षण
• गिनी-चुनी व्यष्टि-वित्त संस्थाएं (MFI), जो बचत, प्रेषण अथवा बीमा संबंधी ज़रूरतें पूरी करें
• व्यष्टि-वित्त संस्थाओं (MFI) की सीमित प्रबंध क्षमता
• संस्थागत अदक्षताएं
• ग्रामीण, कृषि उन्मुख व्यष्टि-वित्त पद्धतियों का अधिक प्रसार और अंगीकरण करने की ज़रूरत.
ग़रीब लोगों द्वारा पैसा संभालने के तरीक़े
रुदरुफोर्ड यह दलील पेश करते हैं कि धन प्रबंधकों के रूप में गरीब लोगों की मूल समस्या है, 'सामान्य रूप से मोटी' रकम जुटा पाना. नया घर बनाने का मतलब है, विविध भवन-सामग्रियों की बरसों से बचत और सुरक्षा, जब तक कि निर्माण-कार्य शुरू करने के लिए पर्याप्त साधन न जुट जाएं. बच्चों के स्कूल का खर्च जैसे वर्दी, रिश्वत आदि भरने के लिए, मुर्गियां खरीदना और बिक्री द्वारा पैसे जुटाने के लिए उनका पालन करना। क्योंकि ज़रूरत से पहले ही तमाम मूल्य संचित किया जाता है, इसलिए इस धन प्रबंधन रणनीति को कहते हैं ‘ऊपर की बचत ’.
अक्सर लोगों के पास ज़रूरत के मौक़ों पर पैसे नहीं होते हैं, इसलिए वे उधार लेते हैं। एक ग़रीब परिवार, ज़मीन खरीदने के लिए अपने रिश्तेदारों से, चावल खरीदने के लिए साहूकार से अथवा सिलाई मशीन खरीदने के लिए व्यष्टि-वित्त संस्था से उधार ले सकता है। चूंकि खर्च उठाने के बाद ये ऋण बचत में से चुकाने पड़ते हैं इसलिए रुदरफोर्ड इसे ‘नीचे की बचत’ कहते हैं। रुदरफोर्ड का मानना है कि लघु-ऋण से सिर्फ़ आधी समस्या टल गई है और यक़ीनन यही हिस्सा कम अहमियत वाला है। लघु-ऋण संस्थाओं को अपने ऋण, बचत खातों के जरिए देने चाहिए, ताकि ग़रीब लोग अपने असंख्य जोखिम संभाल सकें.
अधिकतर ज़रूरतें, बचत और ऋण के मिश्रण से पूरी की जाती हैं। बांग्लादेश में ग्रामीण बैंक और दूसरे दो बड़ी व्यष्टि-वित्त संस्थाओं के न्यूनतम प्रभाव का आकलन करने पर पाया गया कि आगे ग्रामीण कृषीतर लघु उद्यमों को वित्तीय सहायता देने के इरादे से ग्राहकों को दिए गए हर $1 के उधार के लिए दूसरे साधनों, ख़ास कर बचत से क़रीब $ 2.50 मिले। [१५] इसका समानांतर उदाहरण पश्चिम में देखा जा सकता है जिसमें पारिवारिक कारोबार के लिए धनराशि, ज्यादातर बचत से और ख़ास कर प्रारंभ में मिलती है।
हाल में किए गए अध्ययनों से भी यह जाहिर हुआ है कि बचत के अनौपचारिक तरीक़े बेहद असुरक्षित होते हैं। उदाहरण के लिए युगांडा के राइट और मुटेसारिया के अध्ययन से निष्कर्ष निकला कि ‘जिनके पास अनौपचारिक क्षेत्र में बचत करने के अलावा कोई रास्ता नहीं है उनको लगभग कुछ न कुछ पैसा खोना ही पड़ेगा – संभवत: अपनी बचत का क़रीब एक चौथाई हिस्सा.”[१६]
रुदरफोर्ड, राइट और दूसरों के कार्य की बदौलत व्यवसायियों को लघु-ऋण की मिसाल के एक अहम पहलू पर पुनर्विचार करन पड़ा है: यह कि ग़रीब लोग, उधार लेकर, लघु उद्यम स्थापित कर और अपनी आय बढ़ा कर ग़रीबी से बाहर निकलते हैं। नई मिसाल में, अपनी आमदनी का बड़ा हिस्सा बचा कर अपनी संपत्ति बनाते हुए, अपनी बहुत सारी कमज़ोरियों को कम करने के प्रति ग़रीब लोगों के प्रयासों पर अधिक ध्यान दिया गया है। उनको ऋणों की ज़रूरत तो होती है, लेकिन उनको लघु उद्यमों की तरह उपभोग के लिए उधार लेना भी उतना ही उपयोगी लग सकता है। गृहस्थी और पारिवारिक जोखिम संभालने के लिए बचत करने और ज़रूरत पड़ने पर पैसे निकालने का सुरक्षित, लचीला स्थापन भी उतना अनिवार्य है।
व्यष्टि-वित्त परिचालनों का वर्तमान पैमाना
व्यष्टि-वित्त के वितरण का नक्शा बनाने की अब तक कोई कोशिश नहीं की गई है। 2004 में विकासशील दुनिया में 'वैकल्पिक वित्तीय संस्थाओं' का विश्लेषण करते हुए हाल में एक उपयुक्त न्यूनतम मानदंड स्थापित किया गया।[१७] लेखकों ने, वाणिज्यिक बैंकों से सेवा पाने वाले लोगों से अधिक ग़रीब लोगों की सेवा में लगी 3,000 से अधिक संस्थाओं के लगभग 665 मिलीयन ग्राहकों के खातों की गिनती की; इन खातों में से, 120 मिलीयन खाते उन संस्थाओं में रखे गए थे, जिनको सामान्यत: व्यष्टि-वित्त देनेवाली संस्था माना जाता है। लेकिन इनमें आंदोलन की विविध ऐतिहासिक जड़ों को प्रतिबिंबित करनेवाले ये भी शामिल हैं; डाक बचत बैंक (318 मिलीयन खाते), राज्य कृषि और विकास बैंक (172 मिलीयन खाते), वित्तीय सहकारी समितियां और ऋण संघ (35 मिलीयन खाते) और विशिष्ट ग्रामीण बैंक(19 मिलीयन खाते).
क्षेत्रीय तौर पर इन खातों का सबसे अधिक संकेंद्रण भारत में रहा (188 मिलीयन खाते, जो कुल राष्ट्रीय आबादी का 18% हिस्सा है). सबसे कम संकेंद्रण लैटिन अमेरिका और कैरिबियन में (14 मिलीयन खाते, जो कुल आबादी का 3% बनते हैं) और अफ्रीका (27 मिलीयन खाते, जो कुल आबादी का 4% बनते हैं) में है। यह मान कर चलते हुए कि विकसित दुनिया के अधिक बैंक ग्राहकों को अपना कामकाज ठीक तरह से संभालने के लिए कई सक्रिय खातों की ज़रूरत पड़ती है, ये आंकड़े दर्शाते हैं कि व्यष्टि-वित्त आंदोलन का लक्ष्य पूरा होने में अभी मंज़िल दूर है।
वैकल्पिक वित्तीय संस्थाओं में ऋणों की तुलना में बचत खातों की संख्या, एक के मुक़ाबले क़रीब चार गुना अधिक है। यह एक विश्वव्यापी नमूना है, जो क्षेत्रों के हिसाब से ज़्यादा बदलता नहीं है।”[१८]
चुनिंदा व्यष्टि-वित्त संस्थाओं के बारे में विस्तृत आंकड़ों का एक महत्वूपूर्ण स्रोत है माइक्रो बैंकिंग बुलेटिन . 2006 के अंत तक उसने 52 मिलीयन उधारकर्ताओं ($ 23.3 अरब बकाया ऋण) और 56 मिलीयन बचतकर्ताओं ($ 15.4 अरब जमाराशियां) की सेवा करने वाली 704 व्यष्टि-वित्त संस्थाओं (MFI) पर नज़र रखी थी। इन ग्राहकों में से 70% एशिया के, 20% लैटिन अमेरिका के और बाक़ी, दुनिया के शेष भाग के रहे.[१९]
अब तक ऐसा कोई अध्ययन नहीं किया गया है जिससे ROSCA जैसे ‘अनौपचारिक’ व्यष्टि-वित्त संगठनों और शादी-ब्याह, अंत्येष्टि और बीमारी जैसी परिस्थितियों में खर्च संभालने में लोगों की मदद करनेवाले अनौपचारिक संघों के पैमाने अथवा वितरण के बारे में जानकारी मिले। लेकिन बहुत सारे मामलों के अध्ययन प्रकाशित हुए हैं, जिनमें यह जाहिर किया गया है कि बाहर से थोडी-सी मदद लेकर स्वयं ग़रीब लोगों द्वारा सामान्यत: परिकल्पित और संभाले गए ये संगठन, विकासशील दुनिया के अधिकतर देशों में काम कर रहे हैं।[२०]
"समग्र वित्तीय प्रणाली"
1970 के दशक में शुरू हुआ लघु-ऋण का युग समाप्त होकर अब उसकी जगह ‘समग्र प्रणाली’ दृष्टिकोण ने ले ली है। हालांकि लघु-ऋण ने, ख़ास कर शहरी और लगभग शहरी इलाकों में तथा उद्यमशील परिवारों के साथ बहुत कुछ हासिल किया, लेकिन घनी आबादी वाले ग्रामीण इलाकों में वित्तीय सेवाएं प्रदान करने में इनकी प्रगति धीमी रही।
नई वित्तीय प्रणाली के दृष्टिकोण में शताब्दियों से चलते आ रहे व्यष्टि-वित्त के समृद्ध इतिहास को और विकासशील दुनिया में ग़रीब लोगों की सेवा करने वाली संस्थाओं की असीम विविधता को व्यावहारिक दृष्टि से क़बूल किया जाता है। इसकी जड़ें, दुनिया के ग़रीब लोगों की वित्तीय सेवाओं की ज़रूरतों की विविधता, बढ़ती जागरूकता और ऐसे विविध परिवेश में भी, जिसमें वे जीते और काम करते हैं, जमी हैं।
ब्रिगिट हेम्सस ने अपनी क़िताब 'एक्सेस फ़ॉर ऑल’ में, समग्र वित्तीय प्रणाली से व्यष्टि वित्तपोषकों की चार सामान्य श्रेणियों के बीच भेद किया और व्यष्टि-वित्त आंदोलन का लक्ष्य हासिल करने में उनकी मदद करने के लिए सक्रिय रणनीति बनाने की दलील देती हैं।[२१]
- अनौपचारिक वित्तीय सेवा प्रदाता
- इनमें शामिल हैं, साहूकार, गिरवी रखने वाले महाजन, बचत वसूलीकर्ता, धन-रक्षक, ROSCA, ASCA और वस्तुओं की आपूर्ति करनेवाली दुकानें. चूंकि वे आपस में एक दूसरे को अच्छी तरह से जानते हैं और एक ही समुदाय में रहते हैं, इसलिए वे एक-दूसरे की वित्तीय परिस्थितियों को समझते हैं और बहुत ही लचीली, अनुकूल और तेज सेवाएं प्रदान कर सकते हैं। ये सेवाएं क़ीमती भी साबित हो सकती हैं और वित्तीय उत्पादों की पसंद सीमित और उनकी अवधि बहुत ही कम हो सकती है। ऐसी अनौपचारिक सेवाएं भी जिनमें बचत करने की सुविधा हो, ख़तरे से खाली नहीं होतीं; कई लोग अपना पैसा खो देते हैं।
- सदस्य के स्वामित्व वाले संगठन
- इनमें शामिल हैं स्व-सहाय दल, क्रेडिट यूनियन और विभिन्न प्रकार के संकर संगठन जैसे ‘वित्तीय सेवा संघ’ और CVECA. अपने अनौपचारिक रिश्तेदारों के समान, वे सामान्यत: छोटे और स्थानीय होते हैं, जिसका मतलब यह हुआ कि उनको एक-दूसरे की वित्तीय परिस्थितियों के बारे में अच्छी खासी जानकारी रहती है और अनुकूल तरीक़े से और लचीले ढंग से सेवा प्रदान कर सकते हैं। चूंकि इसे ग़रीब लोग ही संभालते हैं, इसलिए इसका परिचालन खर्च कम होगा. लेकिन इन सेवा प्रदाताओं के पास वित्तीय कुशलता की कमी होती है और आर्थिक स्थिति बिगड़ने पर मुसीबत में पड़ सकते हैं या उनका परिचालन अधिक जटिल हो सकता है। अगर कारगर ढंग से इनकी सु-व्यवस्था और देखभाल न की जाए तो इनको एक या दो प्रभावी नेता हड़प सकते हैं और सदस्य अपना पैसा खो सकते हैं।
- ग़ैर सरकारी संगठन
- लघु-ऋण शिखर अभियान ने, 2006 के अंत तक क़रीब 133 मिलीयन ग्राहकों को उधार देनेवाली इन व्यष्टि वित्त संस्थाओं और ग़ैर सरकारी संगठनों में से 3,316 की गिनती की है।[२२] बांग्लादेश में ग्रामीण बैंक और BRAC, बोलिविया में प्रोडेम और FINCA इंटरनेशनल, जिसका मुख्यालय वाशिंगटन, DC में है, के नेतृत्व में ये ग़ैर सरकारी संगठन, पिछले तीन दशकों में विकासशील दुनिया में फैल गए हैं; अन्य, जैसे गमेलन परिषद, बडे क्षेत्रों को संभालते हैं। ये बेहद नवोन्मेषी साबित हुए हैं, जिन्होंने परस्पर-निर्भर उधार, ग्रामीण बैंकिंग और मोबाइल बैंकिंग जैसे नए बैंकिंग तकनीकों का अन्वेषण किया, जिनकी बदौलत ग़रीब आबादी की सेवा में पाई गई अड़चनें दूर की गई हैं। लेकिन, अगर ऐसे मंडल हों जो अपनी पूंजी या अपने ग्राहकों का अनिवार्य तौर पर प्रतिनिधित्व नहीं करते हैं, उनकी शासन रचना कमज़ोर हो सकती है और वे, बाहर के दानियों पर ज़रूरत से ज़्यादा निर्भर हो सकते हैं।
- औपचारिक वित्तीय संस्थान
- वाणिज्यिक बैंकों के अतिरिक्त, इनमें शामिल हैं राज्यों के बैंक, कृषि विकास बैंक, बचत बैंक, ग्रामीण और बैंकेतर वित्तीय संस्थाएं. इनको विनियमित किया जाता है और इनकी देख-भाल की जाती है और ये विभिन्न प्रकार की वित्तीय सेवाएं पेश करते हैं और एक ऐसे शाखा जाल को संभालते हैं जिसका फैलाव देश भर और दुनिया भर में हो सकता है। लेकिन वे सामाजिक लक्ष्य अपनाने से कतराते हैं और परिचालन खर्च अधिक होने के कारण, वे ग़रीबों अथवा दूरस्थ आबादी की सेवा नहीं कर पाते हैं। साख गणना जैसे व्या़पार ऋण में वैकल्पिक आंकड़ों के बढ़ते उपयोग से व्यष्टि-वित्त में वाणिज्यिक बैंकों का ब्याज बढ़ रहा है।[२३]
उचित विनियमन और देख-भाल के साथ, इन संस्थाओं में से हर एक, व्यष्टि-वित्त की समस्या का समाधान करने में प्रेरक साबित हो सकती हैं। उदाहरण के लिए, स्व-सहाय दल को वाणिज्यिक बैंकों के साथ जोड़ने के प्रयास किए जा रहे हैं, जिससे कि सदस्य की मिल्कियत के संगठन एक साथ मिल कर बड़े पैमाने पर और व्यापक रूप से मितव्ययिता हासिल कर सकें और मोबाइल बैंकिंग और ई-भुगतान प्रौद्योगिकियों का, उनके व्यापक शाखा जाल के साथ एकीकरण करते हुए, इनकी संख्या घटाने में वाणिज्यिक बैंकों के प्रयासों का समर्थन कर सकें.
लघु-ऋण और वेब
ग़रीब लोगों को उम्दा क़िस्म की बचत सेवाएं विकसित करने में हो रही धीमी प्रगति के कारण, विकसित दुनिया में उधारदाताओं के जरिए लघु उधार बढ़ाने के लिए समकक्ष मंच विकसित हुए हैं। 2005 में किवा(अमेरिका), 2006 में माइक्रोप्लेस (अमेरिका), 2007 में माईC4 (डेनमार्क), युनाइटेड प्रॉस्परिटी(अमेरिका), 51 गिव, वोकाई(चीन), रंग दे(भारत) और 2008 में युनाइटेड यूथ डेवलपमेंट आर्गनाइज़ेशन(युनाइटेड किंगडम). किवा के समकक्ष मंच के जरिए अगस्त 2009 तक 87 मिलीयन अमेरिकी डालर के ऋण दिए जा चुके थे (हर महीने किवा लगभग $5 मिलीयन तक ऋण सुविधाएं प्रदान करता है). इसकी तुलना में, 2006 के अंत में अनुमान लगाया गया था कि लघु-ऋण की 250 अरब अमेरिकी डालर के क़रीब आवश्यसकता होगी। [२४]
अधिकतर विशेषज्ञ सहमत हैं कि लेन-देन खर्च और विनिमय दर जोखिम घटाने के लिए ये निधि, उन देशों में जहां लघु-ऋण दिया जाता है, स्थानीय तौर पर संचित की जानी चाहिए।
समकक्ष मंचों पर प्रकटीकरण करने की समस्याएं रही हैं, जबकि कुछ स्रोतों से ख़बर मिली है कि जानी-पहचानी बैंकिंग संबंधी वार्षिक प्रतिशत दर के बदले उधारकर्ताओं से सपाट दर पद्धति से ब्याज वसूल किया गया।[२५]. सपाट दर पद्धति से, जिसे विकसित देशों में विनियमित वित्तीय संस्थाओं में क़ानून के दायरे से बाहर किया गया है, अलग-अलग उधारदाताओं को यह समझने में दुविधा हो सकती है कि उनका उधारकर्ता, वास्तविक से कम दर पर ब्याज दे रहा है। उधार देने संबंधी मानकों के बारे में अंतर्राष्ट्रीय सत्य प्रकट करने की दिशा में हाल में एक उद्योग व्यापी पहल की गई, जिसे ACCION इंटरनेशनल, CGAP, द एशियन डेवेलपमेंट बैंक, ग्रामीण बैंक, BRAC, प्लैनेट फाइनांस, कालवर्ट, WOCCU और JP मॉर्गन सहित लघु-ऋण की क़ीमत निर्धारित करनेवाले अनेक प्रमुख शेयरधारकों ने समर्थन दिया है।[२६] समकक्ष मंचों के बारे में अधिक जानकारी के लिए लघु-ऋण और वेब देखें.
ग़रीबी कम करने के साक्ष्य
व्यष्टि-वित्त के कुछ समर्थकों ने विश्वसनीय सबूत पेश किए बग़ैर दावा किया है कि व्यष्टि-वित्त के पास अकेले ही ग़रीबी हटाने की शक्ति है। इस दावे की काफी आलोचना की गई है।[२७] इसके अलावा, इस असर पर निगरानी रखने और इसे आंकने में कुछ हद तक कठिनाई होने के कारण आर्थिक विकास के एक साधन के तौर पर व्यष्टि-वित्त के वास्तविक प्रभाव पर बहुत कम अनुसंधान किया गया है।[२८] 2008 के अंत में, इन्नोवेशन फॉर पवर्टी एक्शन/फ़ाइनैनशियल एक्सेस इनिशिएटिव माइक्रोफ़ाइनैन्स रिसर्च कॉन्फ़्रेन्स में न्यूयॉर्क विश्वविद्यालय के अर्थशास्त्री, जोनाथन मोर्डुश ने बताया कि व्यष्टि-वित्त के असर के बारे में विधि-विज्ञान की दृष्टि से अच्छे-ख़ासे मानने लायक़ एक या दो अध्ययन ही हैं।[२९]
समाज वैज्ञानिक जॉन वेस्टोवर ने पता लगाया कि ग़रीबी हटाने में व्यष्टि-वित्त के प्रभाव का ज्यादा सबूत, उपाख्यानात्मक रिपोर्टों या मामला अध्ययनों पर आधारित हैं। उसने इस विषय पर प्रारंभ में 100 से ज्यादा लेख ढूंढ़ निकाले, लेकिन उन्हीं 6 लेखों को सम्मिलित किया जिनमें उदाहरण बनने लायक़ पर्याप्त गुणात्मक आंकड़े थे। इन अध्ययनों में से एक में पाया गया कि व्यष्टि-वित्त से ग़रीबी कम हुई। अन्य दो अध्ययनों में यह निष्कर्ष निकालना संभव नहीं हो पाया कि व्यष्टि-वित्त से ग़रीबी कम हुई। लेकिन इनमें कार्यक्रम पर सकारात्मक असर डालने कुछ अंश नजर आए। अन्य अध्ययनों ने इसी तरह का निष्कर्ष निकाला, जिनके सर्वेक्षण से पता चला कि अधिकतर सहभागियों ने वित्तीय सहायता के बारे में बेहतर महसूस किया, जबकि कुछ सहभागियों को ख़राब लगा। [३०]
मई 2009 में, इन्नोवेशन फॉर पवर्टी एक्शन इन न्यू हेवन ने एक लेख प्रकाशित किया, जिसमें यह पाया गया कि वित्तीय प्रशिक्षण पाने के लिए जिनको यादृच्छिक रूप से चुना गया था उनको अधिक लाभ मिला। लेकिन दूसरे असर नजर नहीं आए जैसे "जिन्होंने अपने कारोबार में समस्याएं होने की खबर दी" उनका अनुपात घटना.[३१]
व्यष्टि-वित्त और सामाजिक हस्तक्षेप
इस समय गिने-चुने सामाजिक हस्तक्षेप है जिनको HIV/AIDS की जागरूकता बढ़ाने के लिहाज़ से व्यष्टि वित्तपोषण के साथ जोड़ दिया गया है। ऐसे हस्तक्षेप हैं “AIDS और लिंग समानता के लिए व्यष्टि-वित्त के साथ हस्तक्षेप”(IMAGE) जो “दी सिस्टर्स फ़ॉर लाइफ़” कार्यक्रम के साथ व्यष्टि वित्तपोषण को समाविष्ट करता है, जो एक ऐसा भागीदारी कार्यक्रम है, जिसमें महिलाओं की संप्रेषण कुशलता और नेतृत्व बढ़ाने के लिए लिंग संबंधी विभिन्न भूमिकाओं, लिंग आधारित हिंसा और HIV/AIDS के बारे में शिक्षा प्रदान करता है।[३२] "दी सिस्टर्स फ़ॉर लाइफ’’ कार्यक्रम के दो चरण हैं, जिसके पहले चरण में सुविधा पहुंचाने वाले के साथ एक-एक घंटे के दस कार्यक्रम होते हैं, जबकि दूसरे चरण में समूह में नेता को पहचान कर, उनको आगे प्रशिक्षित किया जाता है और उनको अपने संबंधित केंद्रों में कार्य-योजना लागू करने की इजाज़त दी जाती है। व्यष्टि-वित्त को व्यावसायिक शिक्षा[३३] और स्वास्थ्य हस्तक्षेप के पैकेज के साथ भी जोड़ा गया है[३४]. BRAC (NGO) के ग्रामीण संगठन भी, व्यष्टि-वित्त को अन्य सामाजिक हस्तक्षेप के साथ जोड़ते हैं।
अन्य आलोचनाएं
उधारकर्ताओं से वसूली जा रही अधिक ब्याज दर की भी अधिक आलोचना की गई है। 2006 में अपनी स्वेच्छा से माइक्रो बैंकिंग बुलेटिन को रिपोर्ट प्रस्तु्त करने वाली 704 व्यष्टि-वित्त संस्थाओं के नमूने में दर्शाया गया वार्षिक वास्तविक औसत संविभाग प्रतिफल 22.3% रहा.लेकिन ग्राहकों से वसूल की गई ब्याज दर अधिक रही, क्योंकि इनमें स्थानीय मुद्रा-स्फ़ीति और व्यष्टि-वित्त संस्थाओं के अशोध्य ऋण संबंधी खर्च भी शामिल किए जाते हैं।[३५] मोहम्मद यूनुस ने हाल में इस बात पर ज़ोर देते हुए दोहराया है और अपनी नवीनतम क़िताब[३६] में यह दलील पेश की है कि अपने दीर्घावधि परिचालन खर्च से 15% अधिक ब्याज दर प्रभारित करने वाली व्यष्टि-वित्त संस्थाओं से दंड वसूलना चाहिए.
दानियों की भूमिका पर भी सवाल उठे हैं। ग़रीबों की मदद करने के लिए सलाहकारी दल (CGAP) ने हाल में टिप्पणी की कि खर्च किये गये उनके पैसों का बड़ा हिस्सा प्रभावोत्पादक नहीं होता है, या तो इसलिए कि वह, असफल और अक्सर जटिल निधियन तंत्र के बीच में ही (उदाहरण के लिए सरकारी शीर्ष सुविधा) लटक जाता है। कुछ मामलों में, बाजार को विकृत करते हुए और अल्प ब्याज अथवा ब्याज रहित मुद्रा के साथ घरेलू वाणिज्यिक पहल करते हुए, ख़राब तरीक़े से बनाए कार्यक्रमों के कारण, समग्र वित्तीय प्रणाली का विकास थम गया है।"[३७]
लघु उधारदाताओं की इस कारण भी आलोचना की गई है कि वे ग़रीब घरों की कार्यकारी स्थिति की अधिक जिम्मेदारी नहीं लेते हैं, ख़ास कर जब उधारकर्ता, व्यष्टि-वित्त संस्थाओं (MFI) द्वारा नियंत्रित किसी संगठन के ज़रिए अपने हस्तशिल्प अथवा अपनी कृषि पैदावार बेच कर आधी मजदूरी पर मजदूर बनते हैं। नाना रूप में आय पाने और उसे बढाने के इरादे से अपने उधारकर्ता की मदद करने की व्यष्टि-वित्त संस्थाओं (MFI) की चाहत ने इस तरह के रिश्ते की चिंगारी, कई देशों में ख़ास कर बांग्लादेश में, जहां हज़ारों की संख्या में उधारकर्ता, ग्रामीण बैंक अथवा BRAC की सहायक विपणन इकाइयों के लिए कारगर तरीक़े से मज़दूरी पानेवाले मजदूरों की तरह काम करते हैं, फैला दी है। आलोचकों का मानना है कि कार्य-समय, कार्य करने की स्थिति, सुरक्षा अथवा बाल श्रम के मामलों में अगर कोई नियम अथवा मानक हैं भी, तो वे बहुत ही कम हैं और दुर्व्यवहार को ठीक करने के निरीक्षण तंत्र भी न के बराबर हैं।[३८] मज़दूर संघ और सामाजिक दृष्टि से जिम्मेदार निवेश अधिवक्ता, इन कुछ चिंताजनक मामलों पर विचार करते रहे हैं।
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इन्हें भी देखें
- बैंक
- ऋण-संघ
- लघु-ऋण
- लघु-बीमा
- वन हेन
- अवसर वित्त
- तंज़ानिया में व्यष्टि-वित्त
- चीन में व्यष्टि-वित्त
- व्यष्टि-वित्त संगठन
- महाजन
- ROSCA
- बचत बैंक
- वैकल्पिक डाटा
- Prosper.com
नोट
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