व्यक्ति प्रति अपराध

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समाज में मनुष्य के प्रति तीन प्रकार के अपराध होते हैं, अर्थात्‌ (क) जीवन के प्रति, (ख) शरीर के प्रति, अथवा (ग) स्वाधीनता के प्रति।

जीवन के प्रति अपराध

मनुष्य के जीवन के प्रति किए जानेवाले अपराध चार प्रकार के होते हैं - (१) नरहत्या, (२) आत्महत्या, (३) भ्रूणहत्या और (४) शिशुहत्या।

नरहत्या

एक मनुष्य द्वारा किसी दूसरे मनुष्य का वध नरहत्या कहलाता है। प्राचीन काल में नरहत्या के सभी मामलों में एक सा दंड दिया जाता था। लेकिन आधुनिक काल में उच्चतर भावनाओं के जन्म तथा आपराधिक मनोविज्ञान के सिद्धांत का विकास होने के साथ नरहत्या के अपराधियों की दंडव्यवस्था में अंतर उत्पन्न हो जाता है। आधुनिक धारणाओं के अनुसार नरहत्या या तो वैध होती है या अवैध (अथवा अभियोज्य)।

वैध नरहत्या

वैध नरहत्या या तो क्षम्य होती है या फिर न्यायोचित।

(१) बिना किसी अपराधात्मक इरादे के दुर्घटना या दुर्भाग्यवश (धारा ८०); अथवा

(२) किसी बालक या असंतुलित मस्तिष्कवाले व्यक्ति द्वारा पागलपन या नशे की दशा में (धारा ८२, ८५); अथवा

(३) मृतक के हितार्थ किए गए सद्भावनापूर्ण कार्य द्वारा (धारा ८७, ८८ और ९२) होनेवाली नरहत्याएँ क्षम्य होती हैं।

नरहत्याएँ निम्नलिखित दशाओं में न्यायोचित होती हैं -

  • विधि द्वारा बाध्य व्यक्ति द्वारा (धारा ७६); अथवा
  • न्यायानुसार कार्यरत न्यायाधीश द्वारा (धारा ७७); अथवा
  • किसी न्यायालय के निर्णय या आदेश का पालन करनेवाले व्यक्ति द्वारा (धारा ७८); अथवा
  • ऐसे व्यक्ति द्वारा जो विधि के अंतर्गत हत्या करने के औचित्य में सद्भावनापूर्वक विश्वास रखता है (धारा ७९); अथवा
  • शरीर या संपत्ति शरीर या संपत्ति को अन्य हानियों से बचाने या उनको टालने के लिए अपराधात्मक इरादे से रहित व्यक्ति द्वारा (धारा ८१); अथवा
  • शरीर या संपत्ति की रक्षा के निजी अधिकार का प्रयोग कर रहे व्यक्ति द्वारा (धारा १०१ और १०३)।

क्षम्य और न्यायोचित नरहत्याओं के मामलों में दंड नहीं दिया जाता और इसीलिए ऐसी हत्याएँ वैध कहलाती हैं।

अभियोज्य नरहत्या

अभियोज्य नरहत्या (अर्थात्‌ अवैध नरहत्या) या तो हत्या की श्रेणी में आती है या हत्या की श्रेणी में नहीं आती। यदि कोई व्यक्ति (१) जान से मार डालने के इरादे से अथवा (२) ऐसी शारीरिक चोट पहुँचाने के इरादे से जिससे मृत्यु संभव हो अथवा (३) यह जानते हुए कि उसके ऐसे कार्य से मृत्यु की संभावना हो सकती है, मृत्यु का कारण बनता है तो ऐसा व्यक्ति अभियोज्य नरहत्या का अपराध करता है (धारा २९९)। अभियोज्य नरहत्या के लिए उक्त तीन तत्वों में से किसी एक का रहना आवश्यक है। इस प्रकार यदि निश्चित इरादे और जानकारी से किसी की हत्या हो जाती है तो यह अभियोज्य नरहत्या होगी। लेकिन यदि मृत्यु बिना किसी ऐसे इरादे अथवा जानकारी के हो जाती है तो यह अभियोज्य नरहत्या नहीं होगी। दुर्भावना अथवा बुरा इरादा इसके लिए आवश्यक नहीं है। उदाहरणस्वरूप यदि अ जान लेने के इरादे से अथवा इस जानकारी के साथ कि उसके कार्य से मृत्यु संभावित है, एक गड्ढे के ऊपर पतली लकड़ियाँ और घास डाल देता है और ज उसे ठोस भूमि समझकर उसपर चला जाता है, गिर पड़ता है और मर जाता है ता अ इस हत्या का अपराधी है। पुन:, अ जानता है कि ज झाड़ी के पीछे है, व यह नीं जानता। अ ज की जान लेने के इरादे से ब को झाड़ी पर गोली चलाने के लिए प्रेरित करता है। व गोली चला देता है और ज मारा जाता है। यहाँ पर व निरपराध हो सकता है लेकिन अ अभियोज्य नरहत्या करता है। इसी प्रकार अ फ़ाख्ता का शिकार कर उसको चुराने के उद्देश्य से गोली चलाता है जिससे झाड़ी के पीछे खड़े ब की मृत्यु हो जाती है। अ यह नहीं जानता था कि ब वहाँ खड़ा है। यहाँ यद्यपि अ एक अवैध कार्य कर रहा था लेकिन वह अभियोज्य नरहत्या का अपराधी नहीं है क्योंकि उसका इरादा जान लेने का नहीं था और न वह जानता था कि उसके इस कार्य से किसी की मृत्यु हो सकती है। इस दृष्टांत से यह नियम प्रतिपादित होता है कि यदि काई अपराधी एक अपराध करते हुए किसी की मृत्यु का कारण बनता है जब कि उसका न ऐसा इरादा था और न वह यह जानता था कि ऐसा कार्य मृत्यु का कारण बन सकता है तो ऐसे व्यक्ति को केवल उसी अपराध के लिए दंड दिया जाएगा, दुर्घटनावश जान लेने के लिए नहीं।

अभियोज्य नरहत्या का अस्तित्व किसी विशेष अपराध के रूप में नहीं है। इसका प्रयोग मूल अर्थ में ही होता है और इसीलिए भारतीय दंड संहिता में इसके लिए दंड का विधान नहीं है। यह दो प्रकार का होता है। अर्थात्‌ (अ) अभियोज्य नरहत्या जो हत्या की श्रेणी में आती है (धारा ३००, उपधारा १, २, ३ और ४) और (ब) अभियोज्य नरहत्या जो हत्या की श्रेणी में नहीं आती (धारा ३०४, ३०४ अ और धारा ३०० के पाँच अपवाद)। अंग्रेजी विधि के अंतर्गत दूसरे को मानववध कहते हैं।

हत्या

अभियोज्य नरहत्या हत्या समझी जाती है यदि वह कार्य, जिससे मृत्यु होती है-

(१) प्राण लेने के इरादे से किया जाता है (उदाहरणस्वरूप अ जान लेने के इरादे से ज पर गोली चलाता है जिसके फलस्वरूप ज मर जाता है। ऐसी दशा में अ ने हत्या की); अथवा

(२) यदि वह कार्य ऐसी शारीरिक चोट पहुँचाने के इरादे से किया जाता है जिसके बारे में अपराधी जानता है कि जिस व्यक्ति का चोट पहुँचाई जाएगी उसकी मृत्यु होने की संभावना है (उदाहरणस्वरूप यह जानते हुए कि ज ऐसे रोग से पीड़ित है कि एक ठोकर लगाता है जिसके फलस्वरूप ज मर जाता है। ऐसी दशा में अ हत्या का अपराधी है यद्यपि हो सकता है, स्वाभाविक रूप में स्वस्थ व्यक्ति की ऐसी ठोकर से मृत्यु न होती); अथवा

(३) यदि वह कार्य किसी व्यक्ति को शारीरिक चोट पहुँचाने के इरादे से किया जाता है और इस प्रकर पहुँचाई जानेवाली चोट स्वाभाविक रूप से मृत्यु का कारण बनने के लिए पर्याप्त है (उदाहरणस्वरूप अ जान बूझकर ज पर तलवार क ऐसा घाव करता है जिससे किसी भी व्यक्ति की साधारण रूप से मृत्यु हो सकती है। ऐसी दशा में अ हत्या का अपराधी है यद्यपि हो सकता है, उसका इरादा ज की जान लेने का न रहा हो); अथवा

(४) यदि उस कार्य को करनेवाला व्यक्ति यह जानता है कि उसका कार्य इतना खतरनाक है कि पप्रत्येक दशा में इससे मृत्यु होने की पूर्ण संभावनाएँ हैं अथवा वह ऐसी शारीरिक चोट पहुँचाता है जिससे मृत्यु होने की संभावना है और जान ले लेने के खतरे को उठाए बिना किसी कारण के ऐसा कार्य करता है अथवा पूर्वकथित ऐसी चोट पहुँचाता है। उदाहरणस्वरूप अ अकारण मनुष्यों की एक भीड़ पर भरी हुई बंदूक चलाता है और उनमें एक व्यक्ति को जान से मार देता है। ऐसी दशा में अ हत्या का अपराधी है, यद्यपि हो सकता है, उसकी किसी व्यक्तिविशेष को जान से मारने की कोई पूर्वनिर्धारित योजना न रही हो। वह इसलिए हत्या का अपराधी कहा जाएगा क्योंकि उसका कार्य आसन्न रूप से इतना खतरनाक है कि इससे प्रत्येक दशा में मृत्यु होगी (धारा ३००)।

अभियोज्य नरहत्या और हत्या में अंतर

कोई अपराध तब तक हत्या की श्रेणी में नहीं आएगा जब तक वह अभियोज्य नरहत्या की परिभाषा के अंतर्गत नहीं आता क्योंकि स्वयं हत्या की परिभाषा उन दशाओं की ओर संकेत करती है जिनमें अभियोज्य नरहत्या हत्या की श्रेणी में नहीं आ सकतीं। उदाहरणस्वरूप जब वह धारा ३०० के पाँच अपवादों में से किसी एक के अंतर्गत आ जाती है। एक समय था जब यह समझा जाता था कि अभियोज्य नरहत्या (धारा २९९) और हत्या (धारा ३००) के बीच का अंतर केवल धारा ३०० के पाँच अपवाद ही हैं। लेकिन अब यह निश्चित हो चुका है कि दोनों में अंतर है यद्यपि उनमें कोई अमूल अंतर नहीं है। जान लेना दोनों में उभयनिष्ठ है। जिस कार्य से मृत्यु होती है वह अपराधी का कार्य है और दोनों स्थितियों में अपराधिक इरादा अथवा जानकारी अनिवार्य है। वास्तविक अंतर इरादे अथवा जानकारी की सापेक्षता में है। अभियोज्य नरहत्या की अपेक्षा हत्या में घातक प्रहार करने का इरादा अथवा जानकारी अधिक रहती है। जान लेने की सभी दशाओं में ये दोनों अपराध आपस में एक दूसरे के न बहिष्कारकर्ता है और न विस्तारकर्ता।

सामान्यत: जब इरादा प्राण लेने का होता है तो किया गया अपराध हत्या है, यदि वह धारा ३०० के पाँच अपवादों में किसी के अंतर्गत नहीं आता। यदि अ जानता है कि ब की तिल्ली बढ़ी हुई और इस तथ्य की जानकारी के साथ अ उसकी तिल्ली के क्षेत्र में शक्तिपूर्वक घूँसा मारता है और ब मर जाता है तो यह अपराध हत्या है, अभियोज्य नरहत्या नहीं, क्योंकि अ को विशेष जानकारी थी। पुन:, यदि शारीरिक चोट से मृत्यु संभावित है तो यह अभियोज्य नरहत्या है। जब कि यदि ऐसी शारीरिक चोट पहुँचाने का इरादा है जो सामान्य रूप से जान लेने के लिए काफी है, तो यह हत्या होगी। दूसरे शब्दों में, यदि किए गए कार्य का परिणाम समस्त संभावित दशाओं में मृत्यु है तो यह हत्या है जब कि यदि मृत्यु होने की संभावना मात्र है तो अपराध अभियोज्य नरहत्या है।

मानववध

अभियोज्य नरहत्या की, जो हत्या की श्रेणी में नहीं आती, अथवा इंग्लिश विधि में मानववध की परिभाषा कहीं नहीं दी गई है और न इसकी आवश्यकता ही समझी गई हैं। इसके अंतर्गत दो प्रकार के अपराध आते हैं :

(१) वे जो अभियोज्य नरहत्या के अंतर्गत आते हैं (धारा २९९) किंतु हत्या की परिभाषा के अंतर्गत नहीं आते (धारा ३०० की चार उपधाराएँ); और

(२) वे जो धारा ३०० के पाँच अपवादों के अंतर्गत आते हैं।

हम प्रथम प्रकार के मामलों का दृष्टांत सबसे पहले देंगे। यदि कोई कार्य शारीरिक चोट पहुँचाने के इरादे से किया जाता है जिससे मृत्यु होने की संभावना है तो यह मानववध है। उदाहरण स्वरूप अ अपनी पत्नी को पूर्ण शक्ति से तमाचा लगाता है। फलस्वरूप वही गिर पड़ती है और मर जाती है। इस बात का कोई प्रमाण नहीं है कि वह बीमार थी। ऐसी दशा में अ मानववध का अपराधी है। यदि प्राण लेने के इरादे का अभाव है और जाँच का फल यह है कि कार्य इस जानकारी के साथ किया गया था कि उससे मृत्यु होने का संभावना थी तो यह मानववध है। उदाहरणस्वरूप जब लूटने के अपराध में आसानी पैदा करने के लिए किसी को धतूरा खिला दिया जाता है जिससे उसकी मृत्यु हो जाती है तो यह अपराध मानववध है। कभी-कभी यह निश्चित करना कठिन हो जाता है जब अपने अपराध के चिह्न छिपाने के लिए एक व्यक्ति किसी की जान ले लेता है जिसे वह मृत समझता है। उदाहरणस्वरूप अ, ब को जान से मारने के इरादे से उसके सिर पर तीन प्रहार करता है। फलस्वरूप ब बेहोश होकर गिर पड़ता है यद्यपि वह मरा नहीं है। अ उसको मृत समझकर अपराध के सारे प्रमाण नष्ट करने के लिए उस झोपड़ी में आग लगा देता है जिसमें ब पड़ा है। डाक्टर साक्ष्य यह है कि मृत्यु जलने से हुई है, प्रहारों से नहीं। बंबई उच्च न्यायालय ने "सम्राट् बनाम खांड़' (१५ बंबई, १९४) में बहुमत से यह निर्णय दिया था कि अ हत्या करने के प्रयत्न का अपराधी है, हत्या का नहीं। असहमत न्यायाधीश श्री पारसन ने उसको इस आधार पर हत्या का अपराधी होना होना निश्चित किया कि दोनों कार्य - प्रहार करना और झोपड़ी जलाना एक दूसरे से इतनी घनिष्ठता से संबद्ध हैं कि वे एक ही प्रक्रिया - मृतक की जान लेने - के अंग हैं। हमारे देश के अनेक उच्च न्यायालयों ने न्यायाधीश श्री पारसन के इस मत का समर्थन किया है और जिसको प्रिवी कौंसिल ने "मेरी बनाम महारानी' (१९५४) १. ए.ई.आर. ३७३ में स्वीकार किया है।

द्वितीय श्रेणी में धारा ३०० के पाँच अपवादों के अंतर्गत आनेवाले मामले आते हैं जिन्हें जान लेना कहते हैं :

(१) उत्तेजना में आकर, अथवा

(२) निजी रक्षा के अधिकार का अतिक्रमण करके अथवा

(३) सरकरी कर्मचारी द्वारा अपने अधिकारों का अतिक्रमण करके, अथवा

(४) बिना पूर्व विचार के यकायक संघर्ष होने पर, अथवा

(५) अनुमति से जान लेना।

जान लेने के इन सभी मामलों में मानववध अथवा अभियोज्य नर हत्या का, जो हत्या की श्रेणी में नहीं आती, छोटा अपराध होता है।

हत्या अथवा अभियोज्य नरहत्या का प्रयत्न - हत्या का प्रयत्न एक पृथक्‌ अपराध है और इसके लिए धारा ३०७ के अंतर्गत दंड दिया जाता है। इस अपराध को सिद्ध करने के लिए स्वयं प्रयत्न से ही मृत्यु होने की संभावना होनी चाहिए, अगर किसी परिस्थितिवश इसको कार्यान्वित होने से न रोका जाए इसमें दो बातें सिद्ध होनी चाहिए :

(१) जान लेने का इरादा और

(२) अभिकर्ता की चेष्टा शक्ति के स्वतंत्र रहकर किसी परिस्थिति के कारण उस इरादे की असफलता।

इसी प्रकार अभियोज्य नरहत्या करने का प्रयत्न धारा ३०८ के अंतर्गत दंडनीय है।

आत्महत्या

आत्महत्या स्वयं अपनी जान लेना है। आत्महत्या का अपराधी दंडनीय नहीं है क्योकि अपराधी जीवित ही नहीं बचता। केवल आत्महत्या का प्रयत्न धारा ३०५ और ३०६ के अतर्गत दंडनीय है। आत्महत्या साधारणत: वित्तीय विनाश, पारिवारिक कलह, निराश्रयता, शारीरिक संताप अथवा प्रेम की असफलता आदि के कारण की जाती है। इसके लिए गोली मारने, फाँसी पर लटकने, जहर खाने, पानी में डूबने, आग में जलने, गला काटने जैसे साधनों का प्रयोग किया जाता है।

हत्या करने के प्रयत्न की अपेक्षा आत्महत्या के प्रयत्न के लिए दंड हल्का है क्योंकि विधि या कानून आत्महत्या को दंड की अपेक्षा दया का अधिक उपयुक्त विषय मानता है।

भ्रूणहत्या

भ्रूणहत्या भ्रूण अथवा गर्भस्थ शिशु का विनाश है। यह अपराध अहस्तक्षेप्य है अर्थात्‌ पुलिस उस समय तक अपराधी के विरुद्ध काररवाई नहीं कर सकती जब तक इसके बारे में शिकायत न की जाए।

गर्भस्थ शिशु की माँ भी इस अपराध के लिए दंडनीय है बशर्ते सद्भावनावश उसके जीवन की रक्षा के लिए गर्भपात न कराया गया हो। यदि माँ नहीं जानती कि उसको कोई गर्भनाशक ओषधि खिलाई गई है तो वह दंडनीय नहीं है। सब ऐसे अपराध धारा ३१२ से लेकर ३१४ के अंतर्गत दंडनीय हैं।

शिशुहत्या

यह अपराध बच्चे का परित्याग करने अथवा उसके जन्म को छिपाने तथा उसको फेंक देने से होता है। साधारणत: हरामी बच्चों के माता-पिता यह अपराध करते हैं क्योंकि वे अपने अनैतिक कार्य के प्रमाण को सार्वजनिक दृष्टि से छिपाने के लिए चिंतित रहते हैं। संकटग्रस्त माता-पिता भी ऐसा कार्य करने के लिए झुक सकते हैं।

जन्म के बाद जब तक बच्चे में विवेक नहीं आ जाता अर्थात्‌ १२ वर्ष की अवस्था तक विधि उसको संरक्षण प्रदान करती है। इसलिए यदि उसका पिता अथवा माता अथवा अभिभावक उसको किसी जगह छोड़ आता है तो उसे दंड मिलता है। यदि बच्चा इस प्रकार परित्याग किए जाने से मर जाता है तो अपराधी, जैसी भी स्थिति हो, हत्या अथवा अभियोज्य नरहत्या के लिए दंडनीय होता है (धारा ३१७)। बच्चे के पालनपोषण का प्राथमिक उत्तरदायित्व माता-पिता पर होता है, जो उसको अस्तित्व में लाते हैं इसलिए यदि वे अपना यह कर्तव्य नहीं पालन करते तो आपराधिक विधि उनको दंड देती है।

शिशुहत्या का दूसरा पहलू नवजात शिशु को छिपाना है। यह धारा ३१८ के अंतर्गत दंडनीय है। सभी देशों में विधि की सामान्य नीति यह है कि जन्म और मृत्यु का पूर्ण रूप से प्रकाशन होना चाहिए। इसलिए शिशु को गुप्त रूप से फेंकना संदेहजनक कार्य है और फलस्वरूप दंडनीय है। इस अपराध के लिए गोपनीयता और परित्याग दोनों का होना आवश्यक है।

शरीर के प्रति अपराध

मानव शरीर की सुरक्षा के प्रति अपराध का, गंभीरता की दृष्टि से, दूसरा स्थान है। इस प्रकार के अपराध दो प्रकार के होते हैं : (१) चोट, मामूली या सख्त और (२) आक्रमण।

चोट, मामूली अथवा सख्त (धारा ३१९-३३८)

यदि काई व्यक्ति किसी दूसरे में शारीरिक पीड़ा, रोग अथवा निर्बलता उत्पन्न करता है तो उसके लिए कहा जाता है कि उसने चोट पहुँचाई। गंभीर चोटें सख्त कहलाती है। इस अपराध के लिए मानसिक तत्व बहुत आवश्यक है। दूसरे शब्दों में, अपराधी में या तो चोट पहुँचाने का इरादा होना चाहिए अथवा वह यह जानता हो कि उसके कार्य से चोट पहुँचने की संभावना है और ऐसी चोट अवश्य पहुँचाई जानी चाहिए।

मामूली अथवा सख्त चोट (१) चोट पहुँचाने के साधनों, जैसे घातक हथियार, अग्नि तथा ऐसे ही उपकरणों के उपयोग; अथवा (२) इसको पहुँचाने के लिए संपत्ति छीनने, या अवैधश् कार्य करने या सरकारी कर्मचारी को अपना कर्तव्यपालन करने से राकने के अपराधी के उद्देश्यों के अनुसार गुरुतर हो जाती है। ऐसे मामलों में गुरुतर दंड दिया जाता है। इस प्रकार मामूली अथवा सख्त चोट का अपराध हल्का हो जाता है यदि यह (१) गंभीर या आकस्मिक उत्तेजनावश अथवा (२) बिना विचारे अथवा असावधानीवश पहुँचाई जाती है। ऐसे मामलों में हल्का दंड दिया जाता है।

आक्रमण (धारा ३४९-३५०)

किसी दूसरे व्यक्ति पर अपनी शक्ति के प्रयोग को बल का प्रयोग कहते हैं। यह प्रयोग प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष हो सकता है, किंतु दूसरे या किसी अन्य वस्तु में गति का आना, गति का रुक जाना या गति में परिवर्तन होना आवश्यक है। बल उस समय अपराधात्मक बल हो जाता है जब इसका प्रयोग

  • (१) बिना अनुमति के,
  • (२) कोई अपराध करने के लिए या
  • (३) किसी दूसरे व्यक्ति को आघात, भय या संताप पहुँचाने के उद्देश्य से किया जाता है।

कोई व्यक्ति उस समय आक्रमण का अपराध करता है जब वह

  • (१) कोई मुद्रा बनाता है या तैयारी करता है,
  • (२) इस इरादे से या यह जानते हुए
  • (३) कि इस प्रकार की मुद्रा या तैयारी से किसी उपस्थित व्यक्ति के इस प्रकार भयभीत होने की संभावना है,
  • (४) कि मुद्रा बनानेवाला या तैयारी करनेवाला व्यक्ति उसके विरुद्ध अपराधात्मक बल का प्रयोग करनेवाला है। उदाहरणस्वरूपप अ, ज पर घूँसा तानता है, इस इरादे से अथवा यह जानते हुए कि इस बात की संभावना है कि इससे ज को यह विश्वास हो सकता है कि अ उसको मारनेवाला है। ऐसी दशा में अ आक्रमण का अपराध करता है।

आक्रमण का अपराध उस समय गुरुतर हो जाता है जब यह

  • (१) किसी सरकारी कर्मचारी को अपने कर्तव्यपालन से रोकने के लिए (धारा ३५३); अथवा
  • (२) किसी स्त्री का सतीत्व नष्ट करने के लिए (धारा ३५४); अथवा
  • (३) किसी व्यक्ति को वेइज्जत करने के लिए उदाहरणस्वरूप किसी ब्राह्मण का जनेऊ तोड़कर या किसी सिख की दाढ़ी काटकर; अथवा
  • (४) किसी संपत्ति की चोरी करने के प्रयास में (धारा ३५६), उदाहरणस्वरूप यदि काई जेबकतरा किसी मुसाफिर पर उसके हाथ में लगी घड़ी या किसी स्त्री पर उसके कान की बालियाँ छीनने के लिए करता है; अथवा
  • (५) किसी व्यक्ति को अनुचित रूप से कैद करने के प्रयास में (धारा ३५७) किया जाता है।

इन पाँचों दशाओं में गुरुतर दंड दिया जाता है। इसी प्रकार आक्रमण का अपराध हल्का हो जाता है, अगर यह गंभीर अथवा आकस्मिक उत्तेजनावश किया जाता है।

स्वाधीनता के प्रति अपराध (धारा ३५९ और ३७४)

प्रत्येक व्यक्ति का शरीर पवित्र और स्वतंत्र समझा जाता है और इसीलिए कानून उसको दंड देता है जो उसकी व्यक्तिगत स्वाधीनता को संकुचित करता है, यद्यपि यह हो सकता है कि उसके शरीर के विरुद्ध उसका कोई अभिप्राय न हो। ऐसे अपराध दो प्रकार के होते हैं :

(१) अनुचित पाबंदी और अनुचित कैद जिनके कारण आवागमन की स्वतंत्रता पर प्रभाव पड़ता है और

(२) बालापहरण तथा तत्सम अपराध, जो पूर्ण रूप से शारीरिक स्वाधीनता को प्रभावित करते हैं।

अनुचित पाबंदी और अनुचित कैद

इन अपराधों का संबंध व्यक्ति के आवागमन की स्वतंत्रता में हस्तक्षेप करने से है। अनुचित पाबंदी में (धारा ३३९ और ३४१) आवागमन की स्वतंत्रता पर आंशिक रोक रहती है। इस अपराध में दो तत्व रहते हैं :

(१) स्वेच्छित रुकावट डालना और

(२) इस प्रकार किसी व्यक्ति को उस दिशा की ओर जाने से रोकना जिधर उसको जाने का अधिकार है।

उदाहरणस्वरूप अ उस रास्ते में रुकावट डालता है जिसपर ज को चलने का अधिकार है और इस प्रकार वह ज को उस रास्ते पर जाने से रोकता है। ऐसी दशा में अ अनुचित पाबंदी का अपराध करता है। पाबंदी शारीरिक और व्यक्तिगत होनी चाहिए।

अनुचित कैद में व्यक्ति के आवागमन पर पूर्ण रूप से रुकावट रहती है। अनुचित कैद में रखा गया व्यक्ति परिसीमित क्षेत्र के बाहर नहीं जा सकता। उदाहरणस्वरूप कोई जेल डॉक्टर किसी बंदी को ऐनिमा देने के लिए एक कोठरी में बंद रखता है। ऐसी दशा में वह अनुचित कैद का अपराधी है।

(१) अनुचित रूप से कैद करने के समय (धारा ३४३ और ३४४); या

(२) कैद करने की जगह की गोपनीयता (धारा ३४६); अथवा

(३) रिहाई के लिए बंदी प्रत्यक्षीकरण आदेश जारी किए जाने पर कैद की अवैधता (धारा २४५); अथवा

(४) कैद के उद्देश्य, जैसे संपत्ति का ऐंठना (धारा ३४७);

के अनुसार अथवा अगर जबरदस्ती इकबाल कराना उद्देश्य हो (धारा ३४८), का अनुचित कैद का अपराध गुरुतर हो जाता है।

बालापहरण और तत्सम अपराध (धारा ३५९-३६८)

ऐसे अपराध पाँच प्रकार के होते हैं : क. बालापहरण, ख. बलात्‌ अपहरण, ग. अवैध अनिवार्य श्रम, घ. दासता और ङ. अनैतिक कार्य के लिए अवयस्क का क्रय विक्रय।

(क) बालापहरण - बालापहरण का शाब्दिक अर्थ बच्चे को चुराना है। अंग्रेजी विधि के अंतर्गत यह व्यक्ति की स्वाधीनता की अपेक्षा अभिभावक के अधिकार का अतिक्रमण अधिक समझा जाता है। इसमें मानव स्वाधीनता को इसलिए क्षति पहुँचती है कि अपहृत बालक व्यावहारिक रूप में एक ऐसे व्यक्ति के नियंत्रण और निगरानी में रहता है जो उसका वास्तविक अभिभावक नहीं होता।

बालापहरण दो प्रकार के होते हैं : (१) भारत से और (२) वैध अभिभावकता से (धारा ३५९), यद्यपि ये दोनों अपराध एक दूसरे में उपस्थित रह सकते हैं। भारत से बालापहरण (धारा ३६०), वयस्कों तथा अवयस्कों दोनों का उनके अभिभावकों अथवा स्वयं उनकी रजामंदी के बिना हो सकता है, जबकि बालापहरण अवयस्क का अर्थात्‌ १६ वर्ष से कम के लड़के अथवा १८ वर्ष से कम की लड़की अथवा किसी भी उम्र के विक्षिप्त व्यक्ति का वैध अभिभावकता से हो सकता है। इस अपराध में अपराधात्मक इरादा आवश्यक नहीं। इस अपराध के आवश्यक तत्व इस प्रकार हैं : १६ वर्ष से कम के लड़के अथवा १८ वर्ष से कम की लड़की को अथवा किसी विक्षिप्त व्यक्ति को (२) वैध अभिभावक के संरक्षण से (३) बिना उसकी रजामंदी के ले जाना।

ख. बलात्‌ अपहरण - जब कोई व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति को किसी स्थान से जाने के लिए ताकत से बाध्य करता है अथवा प्रपंच से फुसलाता है तो यह कहा जाता है कि उसने उस व्यक्ति का बलात्‌ अपहरण किया (धारा ३६२)। बलात्‌ अपहरण एक सहायक अपराध है। जब यह धारा ३६४ तथा आगे की धाराओं में उल्लिखित उद्देश्यों से किया जाता है तो यह दंडनीय होता है।

बालापहरण अथवा बलात्‌ अपहरण का अपराध गुरुतर हो जाता है और उसके लिए गुरुतर दंड दिया जाता है यदि वह निम्नलिखित उद्देश्यों से किया जाता है -

(१) हत्या करने के लिए (धारा ३६४), उदाहरणस्वरूप काली देवी को प्रसन्न करने की गरज से उसकी बलि चढ़ाने के लिए; अथवा

(२) गुप्त रूप से या अनुचित रूप से कैद करने के लिए (धारा ३६५); अथवा

(३) किसी स्त्री को विवाह के लिए बाध्य करने या निषिद्ध संभोग के लिए जबरदस्ती करने या फुसलाने के लिए (धारा ३६६); अथवा

(४) दस वर्ष से कम के बच्चे के शरीर से चल संपत्ति चुराने के लिए (धारा ३६९); अथवा

(५) किसी स्त्री को आपराधिक धमकी, अधिकार के दुरुपयोग अथवा बलप्रयोग के किसी दूसरे तरीके द्वारा निषिद्ध संभोग के उद्देश्य से किसी स्थान से जाने के लिए बाध्य करने के लिए (धारा ३६६); अथवा

(६) १८ वर्ष से कम की अवयस्क लड़की को, इस इरादे से अथवा इस जानकारी में किसी उसको निषिद्ध संभोग के लिए बाध्य किया जाएगा अथवा फुसलाया जाएगा किसी स्थान से जाने के लिए बाध्य करने के लिए (धारा ३६६ अ); अथवा

(७) २१ वर्ष से कम की लड़की का भारत से बाहर किसी देश से अथवा जम्मू तथा कश्मीर से आयात करने के लिए, इस इरादे से या इस जानकारी में कि उसकों निषिद्ध संभोग के लिए, इस इरादे से या इस जानकारी में कि उसको निषिद्ध संभोग के लिए, इस इरादे से या इस जानकारी में कि उसको निषिद्ध संभोग के लिए बाध्य किया जाएगा (धारा ३६६ ब), अथवा

(८) किसी व्यक्ति को सख्त चोट पहुँचाने, दास बनाने अथवा व्यभिचार के लिए (धारा ३६७), अथवा

(९) किसी व्यक्ति का छिपाकर रखने अथवा कैद करने के लिए (धारा ३६८)।

ग. अवैध अनिवार्य श्रम - व्यक्तिगत स्वतंत्रता मनुष्य का स्वनिहित अधिकार है। इसीलिए कोई भी यहाँ तक कि राज्य भी, उसको उसकी इच्छा के विरुद्ध, सार्वजनिक हित को छोड़कर, सेवाकार्य करने के लिए मजबूर नहीं कर सकता। इसीलिए सेवाकार्य करने के लिए बाध्य करना दंडनीय है (धारा ३७४)। इस अपराध के लिए तीन तत्व आवश्यक हैं। (१) श्रम, (२) अनिवार्यता और (३) अवैधता। "श्रम' शब्द का अर्थ शारीरिक और मानसिक दोनों परिश्रम है, उदाहरणस्वरूप खाइर्ं खोदना, गीत गाना, अथवा चित्र बनाना। भारत के संविधान के अनुच्छेद २३ के अनुसार भी मानव-क्रय-विक्रय तथा बेगार अथव जबरदस्ती कार्य कराने के इसी प्रकार के तरीके निषिद्ध हैं।

घ. दासता (धारा ३७०-३७१) - भारतीय दंड संहिता के अनुसार दासों का क्रय विक्रय दंडनीय है। दासता के अंतर्गत दो तत्व हैं : (१) किसी व्यक्ति के जीवन का क्रय विक्रय और (२) किसी को काम करने की स्वाधीनता से वंचित करना।

भारत में दास प्रथा प्रचलित थी, जो १८४३ ई. के अधिनियम ५ से समाप्त कर दी गई थी। अब इस अधिनियम की व्यवस्थाएँ भारतीय दंड संहिता की धारा ३७० में सम्मिलित कर ली गई हैं जिसके अनुसार किसी व्यक्ति का दास के रूप में क्रय, विक्रय, आयात अथवा निर्यात दंडनीय है। जो कोई भी आदतन दासव्यापार करता है वह धारा ३७१ के अंतर्गत दंडनीय है।

ङ. अनैतिक कार्य के लिए अवयस्क का क्रयविक्रय (धारा ३७२-३७१) - अनैतिक कार्य के लिए अवयस्क का क्रय और विक्रय दोनों भारतीय दंड संहिता के अंतर्गत दंडनीय हैं अवयस्कों के विक्रेता धारा ३७२ के अंतर्गत और क्रेता धारा ३७३ के अंतर्गत दंडनीय है। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि १८ वर्ष से कम की लड़की का विक्रय मात्र उस स्थिति में अपराध नहीं है जब वह गोद लेने अथवा विवाह के लिए किया जाता है।

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