विट्ठल भाई पटेल

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विट्ठल भाई पटेल

विट्ठल भाई पटेल (१८७१ - १९३३) भारत के प्रख्यात विधानवेत्ता, वक्तृत्वकला के आचार्य और भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन के देश-विदेश में प्रचारक, प्रवर्तक थे। वे सरदार वल्लभ भाई पटेल के बड़े भाई थे।

परिचय

आपका जन्म सन् 1871 ईसवी में गुजरात के खेड़ा जिला के अंतर्गत "करमसद" गाँव में हुआ था। आपकी प्रारभिक शिक्षादीक्षा करमसद और नडियाद में हुई। इसके बाद आप कानून की शिक्षा प्राप्त करने इंग्लैंड गए। वहाँ से वैरिस्टरी की परीक्षा में उत्तीर्ण होकर आप स्वदेश आए और वकालत प्रारम्भ की। आपके आकर्षक एवं प्रभावशाली व्यक्तित्व तथा कानून के पांडित्य ने, अल्पकाल में ही अपको इस क्षेत्र में प्रसिद्ध कर दिया तथा आपने पर्याप्त धन भी अर्जित किया। इसी बीच धर्मपत्नी की मृत्यु ने आपके जीवन में परिवर्तन किया और आप शीघ्र ही सार्वजनिक कार्यों में भाग लेने लगे।

सर्वप्रथम आपके मुम्बई कारपोरेशन, बंबई धारासभा तथा कांग्रेस में महत्वपूर्ण कार्य किया। 24 अगस्त 1925 ईसवी को आप धारासभा के अध्यक्ष चुने गए। यहीं से आपके जीवन का सबसे महत्वपूर्ण अध्याय प्रारम्भ होता है। आपकी निष्पक्ष, निर्भीक विचारधारा ने धरातल में आपके व्यक्तित्व की अमिट छाप अंकित की। संसदीय विधि विधानों के आप प्रकाण्ड पंडित थे। यही कारण है कि आप सदन में सभी दलों के आदर एवं श्रद्धा के पात्र थे और आपकी दी हुई विद्वत्तापूर्ण व्यवस्था सभी लोगों को मान्य हुआ करती थी। केंद्रीय धारासभा के अध्यक्ष के रूप में आप भारत में ही नहीं विदेशों में भी विख्यात हुए। विधि विषयक अपने सूक्ष्म ज्ञान से आप तत्कालीन सरकार को भी परेशानी में डाल दिया करते थे। अपने कार्य तथा देश को आपको सहज अभिमान था।

धारासभा में पंडित मोतीलाल नेहरू, श्री जिना की सिंहगर्जना से उत्पन्न क्षोभ एवं आवेश के गंभीर वातावरण को अपने प्रभावशाली व्यक्तित्व तथा असाधारण पांडित्य से आप देखते ही देखते परिवर्तित कर देते थे। सत्य के आप पुजारी थे और अन्याय के घोर विरोधी। इसलिये सरकार भी आपका लोहा मानती थी। श्री विट्ठल भाई ने धारासभा की अध्यक्षता द्वारा जैसे उच्च एवं उज्वल आदर्श उपस्थित किए, उन्हें ध्यान में रखकर यह बात नि:संकोच कही जा सकती है कि आपके सदृश सम्मान एवं गौरव सहित धारा सभा की अध्यक्षता आपके किसी पूर्ववर्ती ने नहीं की।

पंडित मोतीलाल नेहरू के नेतृत्व में जब स्वराज्य पार्टी ने केंद्रीय धारासभा के बहिर्गमन किया था, उस समय आपने अपनी असाधारण शक्ति का परिचय देशवासियों को दिया। आपने तत्काल ही सदन में घोषित किया कि धारासभा में बहुमत दल की अनुपस्थिति से उसका प्रतिनिधिमूलक स्वरूप समाप्त हो गया है। अत: सरकार को इस समय कोई भी विवादास्पद बिल सदन में उपस्थित नहीं करना चाहिए। इसके साथ ही आपने स्पष्ट कर दिया कि यदि सरकार यह बात न स्वीकार करेगी तो मुझे अपने विशेषाधिकार से धारासभा की बैठक स्थगित कर देनी पड़ेगी। अपनी विष्पक्षता तथा निर्भीकता के कारण ही आप दूसरे वर्ष भी निर्विरोध धारासभा के अध्यक्ष निर्वाचित हुए।

जनसुरक्षा बिल के समय आपने सरकार का जिस प्रकार मार्गदर्शन किया वह स्मरणीय है। आपने सरकार को परामर्श दिया कि मेरठ षड्यंत्र केस के कारण इस समय देश में सर्वत्र भारी क्षोभ एवं असंतोष फैला हुआ है, ऐसी स्थिति में अब सुरक्षा बिल पर विचार के लिये दो ही मार्ग हैं। एक तो बिल को संप्रति स्थगित रखा जाय और दूसरे, सरकार मेरठ षड्यंत्र केस को उठा ले। जब सरकर ने आपकी यह सलाह न मानी तो बिल पेश होने पर उसे आपने अपने विशेषाधिकार से उपस्थित किए जाने के अयोग्य करार दे दिया। सन् 1930 में जन कांग्रेस ने धारासभाओं का बहिष्कार आरंभ किया तो आपने भी धारासभा की अध्यक्षता से पदत्याग कर दिया। अपने त्यागपत्र में आपने लिखा कि - स्वतंत्रता की इस लड़ाई में मेरा उचित स्थान असेंबली की कुर्सी पर नहीं अपितु रण क्षेत्र में है।

सन् 1930 ईसवी में दिल्ली में कांग्रेस कार्यसमिति के सदस्यों के साथ ही आप भी गिरफ्तार कर जेल भेज दिए गए। आपको छ: मास की जेल की सजा सुनाई गई। जेल में आपका स्वास्थ्य खराब हो गया फलत: अवधि पूरी होने के पूर्व ही आपकी रिहाई हो गई। श्री विट्ठलभाई पटेल के हृदय में मातृभूमि को स्वतंत्र देखने की उत्कट अभिलाषा थी। इसी कारण आप अत्यंत सादगी एवं न्याय भावना से रहा करते थे। आपको धारासभा से जो वेतन मिलता था उसका भारी अंश महात्मा गांधी को दे देते थे और कम खर्च में ही अपना काम चलाते थे। इस प्रकार आपका चालीस हजार रुपया महात्मा गांधी के पास एकत्र हो गया था जिससे बालिकाओं के लिय एक स्कूल की स्थापना की गई और जिसका उद्घाटन आपके निधन के बाद 31 मई 1935 को महात्मा गांधी ने ही किया।

जेल से छूटने के बाद स्वास्थ्य ठीक न रहने पर भी आप अमरीका भ्रमण करने चले गए और वहाँ आपने भारतीय स्वतंत्रता के पक्ष में अत्यंत प्रभावशाली एवं ओजस्वी रूप में प्रचार किया। इस श्रम के कारण आपका स्वास्थ्य पुन: गिरने लगा। अंतत: आप चिकित्सार्थ जेनेवा आए। यहाँ उपचार के बावजूद आपके स्वास्थ्य में सुधार न हो सका और वहीं अस्पताल में सन् 1933 में आपका निधन हुआ।

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