विकृति मापी
विकृतिमापी या 'स्ट्रेन गेज' (strain gauge) किसी वस्तु की विकृति मापने के काम आती है। इसका आविष्कार एडवर्ड सिम्मोन्स (Edward E. Simmons) तथा आर्थर रूग ( Arthur C. Ruge) ने सन् 1938 में किया था।
अधिकांश विकृतिमापी किसी लोचदार अचालक के उपर किसी धातु की पतली पन्नी के समुचित पैटर्न से बना होता है। जिस वस्तु की विकृति मापनी होती है उसके उपर विकृतिमापी को किसी समुचित चिपकाने वाले पदार्थ (जैसे सायनो एक्रिलेट) की सहायता से चिपका दिया जाता है। जब यह वस्तु किसी बल के कारण विकृत होती है तो वह पन्नी (फ्वायल) भी विकृत होती है जिससे उसका प्रतिरोध बदल जाता है। प्रतिरोध में हुए परिवर्तन को किसी ह्वीटस्टोन सेतु आदि की सहायता से माप लिया जाता है। प्रतिरोध की यह माप सीधे विकृति से सम्बन्धित होती है (प्रायः विकृति के समानुपाती होती है।)
सिद्धान्त
- <math>R=\rho {L \over A}</math>
जहाँ:
ρ – विकृतिमापी के पदार्थ की प्रतिरोधकता ; L – विकृतिमापी के पैटर्न की लम्बाई ; A – विकृतिमापी के पैटर्न की लम्बाई की दिशा के लम्बवत क्षेत्रफल है।
इस सूत्र से, छोटे परिवर्तन के लिये निम्नलिखित संबन्ध प्राप्त होता है-
- <math> { \Delta R \over R } = { \alpha * \epsilon } </math>
जहाँ: ΔR – प्रतिरोध में परिवर्तन ;
α – विकृतिमापी के पदार्थ (धातु) का स्थिरांक, (प्रायः इसका मान 2 होता है।) ;
ε – विकृति <math> \epsilon = {\Delta L \over L} </math>