वासुदेव एस गायतोंडे

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Vasudeo S. Gaitonde
राष्ट्रीयता भारतn
शिक्षा Sir J. J. School of Art
प्रसिद्धि कारण Abstract painting
पुरस्कार Rockefeller Fellowship 1964
Padma Shri 1971

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वासुदेव एस गायतोंडे (1924-2001) भारत के सर्वश्रेष्ठ अमूर्त कलाकार के रूप में जाने जाते हैं। उन्होंने 1971 में पद्म श्री पुरस्कार प्राप्त किया।

व्यक्तिगत जीवन और शिक्षा

गायतोंडे का जन्म महाराष्ट्र के गोवा वंश में हुआ। उन्होंने 1948[१] में सर जेजे कला स्कूल से डिप्लोमा प्राप्त किया। 2001 में उनकी मृत्यु हो गई।

वासुदेव एस गायतोंडे भारत के सबसे बेहतरीन और एकांतवासी (संरक्षित) अमूर्त चित्रकारों में से एक माना गया। वासुदेव गायतोंडे का जन्म 1924 में हुआ एवं उन्होंने 1948 में जे जे कला स्कूल, मुंबई से अपना डिप्लोमा प्राप्त किया। उनके काम से प्रभावित होकर, वासुदेव को मुंबई के प्रगतिशील कलाकार समूह में शामिल होने के लिए आमंत्रित किया गया। उन्होंने सक्रिय रूप से समूह की गतिविधियों में भाग लिया। भारत के साथ-साथ विदेशों में उनकी कई प्रदर्शनियां आयोजित हुई.

1956 में, उन्होंने भारतीय कला प्रदर्शनी में भाग लिया जो पूर्वी यूरोपीय देशों में आयोजित की गई थी। उन्होंने 1959 और 1963 में ग्राहम आर्ट गैलरी, न्यूयार्क में आयोजित अन्य समूह प्रदर्शनियों में भी भाग लिया। गायतोंडे की अमूर्त कृतियां आधुनिक कला संग्रहालय, न्यूयॉर्क सहित कई भारतीय एवं विदेशी संकलनों में प्रस्तुत की गई हैं। 1957 में, उन्हें टोक्यो की युवा एशियाई कलाकारों की प्रदर्शनी में प्रथम पुरस्कार एवं इसके बाद 1964 में रॉकफेलर फैलोशिप से सम्मानित किया गया। 1971 में, उन्हें सृजनात्मक उत्कृष्टता के लिए भारत सरकार द्वारा दिए गए सर्वोच्च पुरस्कार अर्थात् पद्म श्री से सम्मानित किया गया।

गायतोंडे ने अपनी कृतियों में रूप एवं आकार का अत्यधिक प्रयोग किया। वासुदेव की छाया सदृश एवं विविध चित्रकलाएं वास्तविक दुनिया का एक अप्रकट एवं अस्पष्ट वर्णन प्रस्तुत करती हैं, हालांकि गायतोंडे ने स्वयं को 'अमूर्तवादी' उपाधि से विभूषित किये जाने की बिल्कुल परवाह नहीं की. वासुदेव के ऊपर ज़ेन दर्शन और प्राचीन सुलेखकला का एक गहरा प्रभाव था। उनकी कलाकृति के बीच, नियंत्रण एवं संपिंडित संरचना को सूक्ष्मता से चित्रित किया गया देखा जा सकता है। गायतोंडे ने अपने समकालीन कलाकारों के विपरीत एक धीमी एवं सूक्ष्म चित्रकला प्रक्रिया पसंद की, जिसके कारण उन्होंने केवल कुछ ही पूर्ण कृतियों को प्रस्तुत किया। गायतोंडे के प्रतीकात्मक तत्व और आधार रेखाओं के बहुत कम प्रयोग ने उनकी कृति को एक बहती हुइ नदी की तरह दिखाया. गायतोंडे की कृतियां हमें पॉल क्ली और जोन मिरो की याद दिलाते हैं जिनके साथ उन्होनें अपने कॉलेज के दिनों के दौरान अध्ययन किया था।

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गायतोंडे के मोहक दृश्यों ने दर्शक को उसकी उल्लेखनीय उपलब्धि की प्रशंसा करने के लिए मुग्ध किया और इनमें से लोगों के कई जोश उनकी मार्मिक छवियों की गहनता से प्रभावित हुए. वे अपने विशाल समझ-बूझों एवं बाध्यकारी भावना में असीमित थे। वासुदेव एस गायतोंडे नि:संदेह भारत के सबसे गंभीर एवं विचारोत्तेजक कलाकारों में से एक थे, जिन्होंने अपनी प्रख्यात उपस्थिति स्थापित की है और समकालीन भारतीय कला के सिद्धांत में अपनी दिव्य दृष्टि को प्रभावित किया है।

गायतोंडे का जन्म 1924 में नागपुर, महाराष्ट्र के एक गोवा परिवार में हुआ। उन्होंने 1948 में जे जे कला स्कूल, बम्बई से कला में डिप्लोमा पूरा किया। 1947 में और गोवा के एक अन्य अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त चित्रकार, फ्रांसिस न्यूटन सौसा और साथ ही साथ अन्य कलाकार मित्रों के साथ, उपनिवेशवादी शास्त्रीय रूढ़िवादिता द्वारा दमनात्मक ढंग से थोपे गए अतीत से दूर होकर व्यापक जागरूकता के साथ, उन्होंने 'प्रगतिशील कलाकार समूह' की स्थापना की तथा एक अंतर्राष्ट्रीय वाकशैली के लिए मार्ग प्रशस्त करने के लिए भारतीयता पर अधिकार जमाया. इस आंदोलन ने आधुनिक भारतीय कला को परिप्रेक्ष्य में रखते हुए देश में आज के जीवंत कला परिवेश की स्थापना की.

गायतोंडे इस ऐतिहासिक समूह की गौण गतिविधि में शामिल थे, लेकिन यह उनके साथ होने वाली मेरी एक बातचीत में स्पष्ट हुआ, उन्होंने कहा: "मैं इससे अलग था।" वे कभी भी समूह के प्रति उदासीन नहीं थे लेकिन एक व्यक्ति के रूप में यह उनके कलात्मक व्यक्तित्व की मुख्य विशेषता थी। उनके गैर-अनुसारक प्रकृति के साथ-साथ एक चित्रकार के रूप में उनकी पहचान के प्रति एक दृढ़ विशवास था और उनकी दृढ़ता के कारण, गायतोंडे ने अपने कैरियर के बहुत आरंभ में ही स्वयं को अपने परिवेश की उन सभी बातों से अलग कर लिया जिसे वे एक चित्रकार के रूप में अपनी पहचान के लिए अप्रासंगिक मानते थे। वर्षों तक उनके विकास की विशेषता बढ़ती हुई आंतरिक अवस्था एवं इस पहचान का सतर्क तथा सचेत दृढ़ीकरण था।

उनके एक प्रशंसक द्वारा एक बार उन्हें "एक शांत चित्त व्यक्ति और कल्पना की पूर्ण पहुंच वाला एक चित्रकार" कहा गया जो गायतोंडे को सबसे अच्छी तरह परिभाषित करता है, जिनमें एक बौद्धिक, वस्तुत: कुछ अज्ञात विचार से अन्दर ही अन्दर उबलते रहने की बाह्याकृति थी। वैचारिक रूप से, उन्होंने कभी भी स्वयं को एक अमूर्त चित्रकार नहीं माना एवं वे ऐसा कहा जाना पसंद भी नहीं करते हैं। वास्तव में वे यह जोर देकर कहते हैं कि अमूर्त चित्रकला जैसी कोई चीज नहीं होती, इसकी बजाय वे अपनी कृति को "गैर-वस्तुनिष्ठ" एक प्रकार का वैयक्तीकृत चित्रलेख एवं सुलेख संबंधी आविष्कार बताते हैं जो चित्रित सतह को चौकाने वाले सहज बोध के साथ ताजा करता है, जिसे उन्होंने ज़ेन की खोज करने में होने वाली अनिवार्य बैठक में समझा.

उनके भाषण से प्रकट होने वाली चिन्तनशील ज़ेन गुणवत्ता में भावनात्मक मौन की सर्वश्रेष्ठ मिसाल मिलती है, क्योंकि खामोशी (मौन) अपने आप में शाश्वत एवं अर्थपूर्ण होती है, इस दृष्टिकोण से व्यक्ति में रहस्यमय मूलभावों के पहचान करने की प्रवृत्ति नहीं होती है। गायतोंडे के कैनवस में सहज बोधों के प्रकटीकरण के साथ विभिन्न रंग-बिरंगे क्रमों में विभूषित उच्च रूप से व्यक्तिगत किये हुए चित्रालेख उस स्थान को खोलना चाहते हैं जिसे मस्तिष्क द्वारा भरे जाने हैं। गायतोंडे के चित्रों में रंग के परस्पर प्रभाव के साथ संरचनात्मक बनावट मुख्य उपकरण हैं जो चित्रकला के रहस्यमय "आत्म" को गति में संचालित करता है, यह पवित्र लेकिन अंतर्निहित (अप्रत्यक्ष) होता है, यह कभी भी हठपूर्ण नहीं होता है। उनकी रचनाओं में सजीवता (एनीमेशन) शामिल है जो एक गतिज उर्जा की तरह व्यवहार-कुशल ढंग से संतुलित विन्यास को गति प्रदान करती है, क्योंकि गायतोंडे ने उनके निरूपणों को रूप के अनुभूति के द्वारा नियंत्रित किया जो अनिवार्य था। उन्होंने अपने स्वयं के आतंरिक एकताल संबंधी जीवन वाले एक अंग, रंग में प्रत्येक संरचना की योजना बनाई. चूंकि गायतोंडे की कला एक तीव्रता में शुरू होती है जो स्वयं को परिष्कृत करने की तरफ निरंतर अग्रसर होती है एवं उनका प्रत्येक क्षण दार्शनिक रूप से चिंतनशील होता है एवं इसलिए उन्हें कोई भी चीज अपने भीतरी स्थानों एवं क्षणिक वास्तविकताओं की तलाश करने में सृजनात्मक प्रेरणा के क्षेत्र से नहीं रोक सकती है। उनके चित्र केवल अपने आप से संबंधित हैं, प्रक्रिया परिणाम है, कला में जीवन के सामान ही गैर-वस्तुनिष्ठ तल्लीनता (पूर्वव्यस्तता) दृढ़ होती है।

गायतोंडे दर्शकों को उनके चित्रों को एकटक देखने के लिए बाध्य करते हैं क्योंकि वे रूप, रंग एवं चित्रकला का एक अद्भुत भ्रम चित्रित करते हैं। उनमें साधारण सी वस्तु को आध्यात्मिक तत्व में बदल देने की क्षमता है। इस कलाकार की छायांकन में जबरदस्त प्रतिभा और कौशल है जो उनकी कृति को कभी खत्म नहीं होने वाले वितल (रसातल) का रूप प्रदान करता है। विभिन्न माध्यमों को पूर्ण रूप से प्रभावित करने एवं कैनवास पर मिश्रित करने के लिए गायतोंडे एक रोलर और एक रंग मिलाने के चाकू का उपयोग करते हैं। उनकी कलाकृति किसी अन्य रूप में लुप्त हो जाने वाले प्रत्येक तत्व के साथ उत्कृष्ट होती हुई मालूम पड़ती है। अपने चमकीले प्रकाश पुंजों के साथ उनके अमूर्त चित्र गुप्त गहनता पैदा करते हैं। गायतोंडे की कृति कैनवास पर विशाल समतली सतहों एवं रंगों के सूक्ष्म परतों से एक चिंतनशील सौन्दर्य बिखेरती मालूम पड़ती है। उनके चित्रों में प्रकाश की एक विशेषता है जो इसे पूरा करती मालूम पड़ती है। उनकी कृति रंगों का निर्माण करती हैं एवं बाद में उन्हें गायतोंडे द्वारा तैयार किये गए वांछित प्रभाव के लिए सावधानीपूर्वक हटा दिया जाता है।

वी.एस. गायतोंडे पहले भारतीय समकालीन चित्रकार थे जिनकी कृति ओशियन कला नीलामी में 92 लाख रुपए में बेची गई। गायतोंडे की 2002 में मृत्यु हो गई। वी.एस. गायतोंडे को अभी भी भारत के सबसे प्रमुख अमूर्तवादी एवं एक आध्यात्मिक चित्रकार के रूप में माना जाता है। www.arnkalwankar.com द्वारा प्राप्त सूचना

प्रदर्शनियां

1949 प्रगतिशील कला समूह प्रदर्शनी, बॉम्बे आर्ट सोसायटी सैलून, बम्बई.

1956 भारतीय कला प्रदर्शनी, पूर्वी यूरोप.

1957 भारतीय कला के 5,000 वर्ष, एसेक्स.

1957 युवा एशियाई कलाकार, टोक्यो.

1958, 59, 63 लंदन और न्यूयॉर्क में समूह प्रदर्शनी.

1959, 71, 73 नई दिल्ली में एकल प्रदर्शनी.

1965 न्यूयॉर्क में एकल प्रदर्शनी.

1966, 67, 70, 73, 74, 77, 80 बम्बई में एकल प्रदर्शनी.

1982 भारत महोत्सव, लंदन.

संग्रह

राष्ट्रीय आधुनिक कला दीर्घा, नई दिल्ली.

ललित कला अकादमी, नई दिल्ली.

टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च, मुंबई.

आधुनिक कला संग्रहालय, न्यूयॉर्क.

पुन्डोल आर्ट गैलरी, मुंबई.

मिस्टर बाल छाबड़ा, मुंबई.

जहांगीर निकोल्सन संग्रह, मुंबई.

पुरस्कार

1950 रजत पदक, बॉम्बे आर्ट सोसायटी, बम्बई.

1957 युवा एशियाई कलाकार पुरस्कार, टोक्यो.

1971 पद्मश्री, भारत सरकार प्राप्त किया।

1964-65 जे.डी. रॉकफेलर III, ट्रैवेलिंग फेलोशिप, संयुक्त राज्य अमेरिका प्राप्त किया।

शैली (स्टाइल)

उनके एक प्रशंसक द्वारा एक बार उन्हें "एक शांत चित्त व्यक्ति और कल्पना की पूर्ण पहुंच के भीतर वाला एक चित्रकार" कहा गया जो गायतोंडे को सबसे अच्छी तरह परिभाषित करता है, जिनमें एक बौद्धिक, वस्तुत: कुछ अज्ञात विचार से अन्दर ही अन्दर उबलते रहने की बाह्याकृति थी। वैचारिक रूप से, उन्होंने कभी भी स्वयं को एक अमूर्त चित्रकार नहीं माना एवं वे ऐसा कहा जाना पसंद भी नहीं करते हैं। वास्तव में वे यह जोर देकर कहते हैं कि अमूर्त चित्रकला जैसी कोई चीज नहीं होती, बजाय वे अपनी कृति को "गैर-वस्तुनिष्ठ" एक प्रकार का वैयक्तीकृत चित्रलेख एवं सुलेख संबंधी आविष्कार बताते हैं जो चित्रित सतह को चौकाने वाले सहज बोध के साथ ताजा करता है, जिसे उन्होंने ज़ेन की खोज करने में होने वाली अनिवार्य बैठक में समझा. उनके भाषण से प्रकट होने वाली चिन्तनशील ज़ेन गुणवत्ता में भावनात्मक मौन की सर्वश्रेष्ठ मिसाल मिलती है, क्योंकि खामोशी (मौन) अपने आप में शाश्वत एवं अर्थपूर्ण होती है, इस दृष्टिकोण से व्यक्ति में रहस्यमय मूलभावों के पहचान करने की प्रवृत्ति नहीं होती है। गायतोंडे के कैनवस में सहज बोधों के प्रकटीकरण के साथ अपने ईश्वर की कृति से विभूषित उच्च रूप से व्यक्तिगत किये हुए चित्रालेख ज़ेन दर्शन एवं प्राचीन सुलेख कला द्वारा प्रभावित होते हैं।

पुरस्कार

  • युवा एशियाई कलाकार प्रदर्शनी में प्रथम पुरस्कार. 1957 में टोक्यो
  • 1964 में रॉकफेलर फेलोशिप.
  • 1971 में पद्म श्री.

प्रमुख कृतियों की सूची

  • होमी भाभा अध्ययन - 1959

सन्दर्भ

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बाहरी कड़ियाँ

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