वज़ीर अली ख़ान

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साँचा:infobox मिर्ज़ा वज़ीर अली खान(१७८० - १८१७)[१],[२] चौथे[३] नवाब वज़ीर अल ममालिक ए एवध थे।

पांच माह के शासन काल के अंदर ही उन्हें अंग्रेज़ों और अपनी प्रजा, दोनों ही द्वारा विलग कर दिया गया और अंततः उन्हें पदच्युत कर के चुनार के किले में बंदी बनाया गया और वहीं उनका देहांत हुआ।[४]

उत्तराधिकार शृंखला

साँचा:start box साँचा:succession box साँचा:end boxजब भी हिंदुस्तान में गुलाम भारत में अंग्रेजों के खिलाफ पहले क्रांति की बात होती है तो एका एक ही हमारे जेहन में 1857 या उसके आस पास के सालों की तस्वीर उभरने लगती है पर शायद बहुत कम लोगों को ही पता होगा की 1857 से भी 58 साल पहले 1799 में नवाब वज़ीर अली ख़ान ने अंग्रेजों के खिलाफ बनारस से ही बगावत का झंडा बुलंद कर दिया था। हालाँकि इतिहास के साथ हुए छेड़ छाड़ से ये तारीख हमारी आने वाली नस्लों को शायद ही पढने को मिले या जान बुझ के इसे इतिहास के पन्नो से मिटा दिया गया है पर उन शहीदों के खून के कतरे और कुछ खुद्दार लोग इसे क़ुरबानी को आज तक याद किये हुए हैं। इस बगावत की शुरुआत होती है 21 जनवरी 1799 से जब अंग्रेजों ने नवाब असफ-उद-दौला के दत्तक पुत्र नवाब वजीर अली खान पर धोके का इल्जाम लगाकर उन्हें गद्दी से हटाकर बनारस भेज दिया। वजीर अली के जगह पर उनके चाचा सआदत अली खान को अवध का अगला नवाब चुना गया और वजीर अली को रामनगर में नजरबंद कर दिया गया। उन्हें अंग्रेज पेंसन के तौर पे डेढ़ लाख रुपये सलाना दिया जाता रहा तथा तत्कालीन गवर्नर जनरल सर जॉन शोर ने हुक्म दिया की वजीर अली को कही घुमने या किसी से मिलने से ना रोका जाये। 18 साल की उम्र में ही झूटे इल्जाम के बुनियाद पर तख़्त छीन जाने के बुनियाद पे वजीर अली को अंग्रेजों से नफरत हो गयी थी और उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ बगावत करने का मन ही मन कसम खायी…। इस बिच अंग्रेजों का अगला हुक्म आया जिसमे उन्हें बनारस से ब्रिटिश मुख्यालय कोलकाता भेजने को कहा गया। इस बात ने वजीर अली की नफरत के आग को और भड़का दी और उन्होंने अपने वफादार सिपहसालारों इज्जत अली और वारिस अली को बुलावा भेजा और गुपचुप तरीके से 200 सिपाहियों का लश्कर भी तैयार कर लिया। 14 जनवरी 1799 को इस जंग का आगाज हो गया। वजीर अली ने खुद को बनारस से हटाने के फैसले के खिलाफ तत्कालीन कमांडर जार्ज फ्रेडरिक चेरी से मिलने की ख्वाहिश जाहिर की। इस पर चेरी ने हामी भर दी। वजीर अली अपने सिपहसालार इज्जत अली और वारीस अली के साथ चेरी के मिंट हाउस स्थित घर पे अपने लाव लश्कर के साथ पहुचे। बातचीत के दौरान हो उन्होंने हमला बोल दिया नवाब की फ़ौज जो पहले से तैयार थी उसने कमांडर कैंप को घेरकर संतरियों को कब्जे में ले लिया। बागियों ने कमांडर चेरी,कैप्टन कानवे,रोबर्ट ग्राहम ,कैप्टन ग्रेग इवांस सहित सात अंग्रेज सिपाहियों को मौत के घाट उतार दिया। सिर पर खून इस कदर सवार था की बागियों ने उस पूरे कैंप का ही सफाया करने की ठान ली। कमांडर के घर से कुछ दूर नदेसर क्षेत्र में तत्कालीन मजिस्ट्रेट एम. डेविस का घर था बागियों ने यहाँ भी हमला कर दिया और कई संतरियों को मार डाला। पत्नी ,बच्चों और दो नौकरों को डेविस ने छत पे छिपा दिया और बागियों से लड़ने के लिए खुद बाहर आ गया। छतपर जाने वाले सीढी के पीछे बैठकर डेविस ने बागियों को काफी देर तक रोके रखा। ब्रिटिश के बगावत की खबर आग की तरह फ़ैल गयी और मजिस्ट्रेट को बचाने के लिए ब्रिटिश फ़ौज नदेसर पहुच गयी। हालाँकि फिर बागियों को पीछे हटना पड़ा और इन वक्तों में नवाब के साथ और भी हजारों बागी जुड़ गए। नवाब के बगावत को कुचलने के लिए कोलकाता से जेनेरल अर्सकिन को फ़ौज लेकर बनारस आना पड़ गया। अर्सकिन के भारी फ़ौज के आगे बागी टिक नहीं पाए। सैकड़ो लोग मारे गये बचने का कोई रास्ता ना देख सबने आपसी सहमती से वहाँ से निकल जाने की योजना बनाई वजीर अली भी जान बचाते बचाते राजस्थान के बुटवल पहुंचे। तब जयपुर के तत्कालीन अंग्रेज परस्त राजा ने उन्हेअपने यहाँ ठहरने की दावत दी। नवाब के साथ धोका करके उसने 1799 में वजीर अली को अंग्रेजों के हवाले कर दिया। अंग्रेजों ने वजीर अली को कोलकाता के फोर्ट विलियम जेल भेज दिया। 17 साल जेल में गुजारने के बाद 1817 में नवाब की जेल में ही मौत हो गयी।पश्चिम बंगाल के कैसिया बागान में आज भी वजीर अली की कब्र मौजूद है।

सन्दर्भ

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