रेंगा विधा

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रेंगा (連歌) सर्वप्रथम जापान में प्रयुक्त श्रृंखला-बद्ध काव्य की एक पुरानी विधा है। मान्योशू के अनुसार हिन्दी हाइकुकारों के लिए यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि "हाइकु" रेेंगा की प्रारंभिक तीन पंंक्तियाँ हैैं । भारत में रेेंगा विधा का विशुुद्ध प्रयोग विश्व के प्रथम रेंगा संग्रह "कस्तूरी की तलाश" में सम्मिलित रेेंगा रचनाओं से पहले नहीं हुआ है। उल्लेखनीय है कि इस संकलन में 66 कवियों द्वारा रचित 100 रेंगाओं को संकलित किया गया है । जापान में रेंगा का प्रथम चरण "होक्कु" कहलाया और स्वतंत्र अभ्यास का विषय भी बना। कालांतर में रेंगा के बन्धन से मुक्त हो कर यह हाइकु के नाम से अपने आप में पूर्ण कविता के रूप में स्वीकृत और प्रतिष्ठित हुआ है।

प्रो. सत्यभूषण वर्मा जी के मतानुसार "हेइआन युग में कविता-रचना अभिजात वर्ग की सांस्कृतिक अभिरुचि का विषय बन चुका था। आशु-कविता-प्रतियोगिताओं में प्रायः एक व्यक्ति पूर्वांश की तीन पंक्तियों की रचना करके उत्तरांश की रचना दूसरे के लिए छोड़ देता था। इस प्रकार दो अथवा दो से अधिक व्यक्ति मिलकर कविता की रचना करने लगे जिससे रेंगा अथवा श्रृंखलित पद्य की परंपरा का विकास हुआ ।"[१]

सन्दर्भ

  1. जापानी हाइकु और आधुनिक हिन्दी कविता (शोध-प्रबंध : प्रो. सत्यभूषण वर्मा) डायमंड पब्लिकेशन नई दिल्ली, प्रकाशन वर्ष-1983, पृष्ठ क्र. 08