रुय्यक

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कश्मीर के एक विद्वान्‌ परिवार में राजानक रुय्यक या रुचक का जन्म बारहवीं शताब्दी के प्रथम भाग में हुआ था। उद्भट के काव्यालंकार संग्रह के विवृतिकार राजानक तिलक इनके पिता थे, जो अलंकारशास्त्र के पंडित थे। 'श्रीकंठचरित्‌' में मंखक ने अध्यापक, विद्वान्‌ व्याख्याकार तथा साहित्यशास्त्री के रूप में अपने गुरु रुय्यक का परिचय दिया है।

इनके ग्रंथों की संख्या बारह है। सहृदयलीला, साहित्यमीमांसा, काव्यप्रकाशसंकेत, व्यक्तिविवेकव्याख्यान्‌, तथा अलंकार सर्वस्व प्रकाशित ग्रंथ हैं। नाटकमीमांसा, अलंकारानुसारिणी, अलंकारमंजरी, अलंकारवार्तिक, (नाट्यशास्त्र, सुलंकारशास्त्र), श्रीकंठस्तव (काव्य), हर्षचरितवार्तिक, तथा बृहती (टीकाएँ) की सूचना संदर्भों से मिलती है पर अभी तक प्राप्य नहीं हैं। स्पष्ट है कि रुय्यक का प्रधान प्रतिपाद्य विषय काव्यशास्त्र - विशेषत: अलंकारमीमांसा - है। अलंकारसर्वस्व, जिसका प्रणयन 1135-50 ई. के बीच हुआ था, भाषा के पाक और चिंतन की प्रौढ़ि (परिक्वता) से इनकी सर्वश्रेष्ठ देन है। इसी लिए रुय्यक की प्रसिद्धि सर्वस्वकार के रूप में है। इसके दो भाग हैं, सूत्र तथा वृत्ति सत्तासी सूत्रों में छह: शब्दालंकार तथा पचहत्तर अर्थालंकारों का (जिनमें परिणाम, रसवदादि, विकल्प तथा विचित्र नवीन अलंकार हैं) संक्षेप में नपी तुली भाषा में निरूपण है। इन सूत्रों की वृत्ति में भामह से प्रारंभ कर सर्वस्वकार के समय तक विकसित अलंकारमीमांसा का - स्वरूप, भेद तथा उदाहरणों के साथ-मौलिक उपस्थापन हैं। इसके तीन टीकाकार हैं कश्मीर के जयरथ (1193 ई.) केरल के समुद्रबंध (1300 ई.) तथा गुजरात के श्री विद्याचक्रवर्ती (14वीं शती)। प्रथम तथा अंतिम टीकाकार निर्विावाद रूप से अलंकारसर्वस्व का लेखक रुय्यक या रुचक को ही मानते हैं; शोभाकर से लेकर पंडितराज जगन्नाथ तक आलंकारिकों की सुदीर्ध परंपरा में मंखक का आलंकारिक के रूप में, एक प्रसंग को छोकर, कहीं संदर्भ नहीं है। प्राचीन पांडुलिपियों की पुष्पिकाएँ रुय्यक को सर्वस्व का लेखक घोषित करती हैं। अंत: साक्ष्य भी यही बात प्रमाणित करता है, तथापि समुद्रबंध ने अलंकार सर्वस्व को मंखक की कृति माना है। संभव है, संधिविग्रहिक मंखक ने अपने गुरु के ग्रंथ का संपादन संशोधन किया हो जिससे सुदूर दक्षिण में उसके कृतित्व की भ्रांत परंपरा चल पड़ी हो।

अलंकारों के शब्द, अर्थ तथा उभय में विभाग के लिए रुय्यक का सिद्धांत (जिसके बीज राजानक तिलक की काव्यालंकार संग्रह की विवृति में थे) आश्रयाश्रयिभाव का है। जो अलंकार जिस पर आश्रित होता है वह उसका अलंकार होता है। किसी शब्द का होना या न होना (अन्ययव्यतिरेक) अलंकार विभाग का नियामक नहीं है। इस प्रकार तो इवादिप्रयोगसापेक्ष शाब्दी उपमा अर्थालंकार न होकर शब्दालंकार कहलाएगी। कुंडल कान का और तार हार कंठ का आभूषण कहलाता है, क्योंकि वे उनपर आश्रित हैं; कान या कंठ के रहनने या रहने से कर्णालंकार अथवा कंठ के हार का कोई संबंध नहीं है। लौकिकालंकार का सिद्धांत काव्यालंकार के संदर्भ में भी चरितार्थ है। इस आश्रय का बोध सहृदयंवेद्या अनुभव पर अवलंबित है; शब्दार्थ के चमत्कार विच्छित्ति या वैचित्रय का वही निर्णायक निकष है। अत: आश्रयाश्रयभाव का जीवातु यद्वैचित्रयवाद है। रुय्यक ने अर्थालंकारों को सादृश्य, विरोध, श्रृंखलाबंध, तर्कन्याय, वाक्यन्याय, लोकन्याय, गूढार्थप्रतीति पर, तथा चित्तवृत्तिमूल के वर्गों में बाँटा है। इस वर्गीकरण को सर्वाधिक व्यवस्थित तथा वैज्ञानिक माना जाता है। इसके पूर्व वस्तुत: किसी भी आलंकारिक ने किन्हीं मूलाधारों को लेकर व्यवस्थित वर्गीकरण की पद्धति नहीं अपनाई थी। प्रतीति का पौर्वापर्य तथा अलंकार लक्षणों का परस्पर साधर्म्य वैधर्म्य एक वर्ग में आनेवाले अलंकारों के क्रम के नियामक तत्व है।

अलंकारों की सांगोपांग मीमांसा, ध्वनिसिद्धांत से उसका संबंध ही नहीं अपितु महिमभट्ट के ध्वनिविरोधी सिद्धांत अनुमितिवाद का व्याख्यान तथा ध्वनिसंप्रदाय की पुन:प्रतिष्ठा भी रुय्यक का प्रधान कार्य है। व्यक्तिविवेक व्याख्यान या 'विचार' में महिमभट्ट के मत का विवेचन करते हुए यह सिद्ध किया है कि अनुमानप्रक्रिया में ध्वनिमार्ग को या अनुमिति में व्यंग्यार्थ सौंदर्य को नहीं बाँधा जा सकता। अलंकारसर्वस्व की प्रस्तावना में रुय्यक ने भामह, उद्भट, रुद्रट आदि के अलंकारप्राधान्यवाद में तथा वामन के रीतिवाद में ध्वनि के बीज बताते हुए यह स्पष्ट कर दिया है कि भट्टनायक के भावना तथा भोग नामक काव्यव्यापारों में कुंतक की वक्रोक्ति तथा महिमभट्ट के 'अनुमान' में ध्वनि का अंतर्भाव संभव नहीं है। संस्कृत के साहित्यशास्त्र का रुय्यक द्वारा यह संक्षिप्त सर्वेक्षण एक महत्वपूर्ण कार्य है।

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