रिजवान ज़हीर उस्मान

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रिजवान ज़हीर उस्मान
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रिजवान ज़हीर उस्मान (12 अगस्त 1948- 03 नवंबर 2012) राजस्थान के एक भारतीय साहित्यकार और नाट्यकर्मी थे। वे हिंदी के आधुनिक नाटककारों में अपनी मौलिक नाटकीयता के कारण जाने जाते हैं। उन्होने 100 से अधिक कहानियों और 150 नाटकों के लेखन के अलावा कला, साहित्य, कहानी, और नाटक के क्षेत्र में जीवनभर योगदान दिया था। उन्होंने करीब डेढ़ सौ से अधिक नाटकों का मंचन व प्रदर्शन किया और स्वयं अभिनय करते 50 से अधिक नाटकों का निर्देशन भी किया। उन्हें संगीत नाटक अकादमी द्वारा नाट्य लेखन एवं निर्देशन के लिए 'लाइफ टाइम एचीवमेंट अवार्ड' से सम्मानित किया जा चुका है। साहित्य अकादमी द्वारा नाटक ’कल्पना पिशाच’ के लिये 'देवीलाल सामर नाट्य लेखन पुरस्कार’ दिया जा चुका है। जयपुर के जवाहर कला केन्द्र द्वारा आयोजित पूर्वांकी नाट्य-लेखन में सर्वश्रेष्ठ नाटक ‘वही हुआ जिसका डर था तितली कों‘ पुरस्कृत किया गया था। किडनी की समस्या के कारण लम्बी बीमारी के बाद उनके पैतृक निवास भूत-महल मोहल्ले में हाथीपोल उदयपुर में उनका निधन हो गया।

उस्मान सही अर्थों में एक आधुनिक/ उत्तर-आधुनिक रंगकर्मी थे, जिनकी नाट्य-दृष्टि अगर आधुनिक साहित्य, खास तौर पर कविताओं से प्रेरणा लेती थी तो बहुधा उसका विसर्जन राजनीति के ज्वलंत सवालों से टकराहट में होता था । उस्मान मूलतः राजनैतिक मंतव्यों के नाट्य-शिल्पी थे और उनका पक्ष स्पष्ट – कि नाटक महज़ मनोरंजन की विधा नहीं, उसका एक सन्देश भी है, मानव-संवेदना के परिष्कार के पक्ष में एक साफ़-सुथरा उद्देश्य भी ।

मनुष्य की नियति और अवस्थिति की वह बड़े गहरी समझ वाले निर्देशक और लेखक थे । विडम्बना, असमानता, हिंसा, हत्या, शोषण, लालच, वासना, ईर्ष्या, पूंजीवाद, संहार, युद्ध उनके लिए सिर्फ शब्द नहीं थे- इन सब के नाट्य-प्रतीक उस्मान ने अपने नाटकों में इतनी भिन्नता से रचे कि देख कर ताज्जुब में पड़ जाना होता है। इतिहास, परंपरा और संस्कृति पर उनकी स्वयं की एक अंतर्दृष्टि थी और एक अल्पसंख्यक होते हुए भी उनका सम्पूर्ण लेखन हर तरह की सीमित साम्प्रदायिकता, ओछे धार्मिक-वैमनस्य और सामजिक-प्रतिहिंसा के कीटाणुओं से पूरी तरह मुक्त था। नाटक बनाने सोचने लिखने और मंच पर लाने की उनकी एक खास 'स्टाइल' थी, और उनकी शैली की नक़ल लगभग असंभव। उनके नाट्य-प्रयोग और उनके नाटकों के अनेकानेक दृश्यबंध ही नहीं, पात्र और उनके नाम तक उस्मान के अपने निहायत मौलिक हस्ताक्षरों की अप्रतिमता का इज़हार करते जान पड़ते हैं। तोता, कोरस, आद, छठी इन्द्रिय, हक्का, पैसे वाली पार्टी, लेबर, ईगो, योद्धा, दिवंगत दादाजान, मामा, बहुत बड़ा सांप ........आदि उस्मान के‘पात्रों’ में शुमार हैं। हर पात्र की अपनी अंतर्कथा और चरित्र है- हर पात्र नाटक में ज़रूरी पात्र है और कथानक में उसकी अपनी जगह अप्रतिम।

‘राजस्थान साहित्य अकादमी’ उदयपुर ने इनके कुछ नाटकों- 'आखेट-कथा', ,'अनहद नाद' दोनों सही, दोनों गलत', 'बंसी टेलर', 'भीड़', 'चन्द्रसिंह गढ़वाली', 'छलांग' 'दिन में आधी रात', 'एकतरफा यातायात', 'लोमड़ियाँ', ' माँ का बेटा और कटार वाले नर्तक', 'मेरे गुनाहों को बच्चे माफ़ करें' , 'पुत्र', 'रहम दिल सौदागर' , 'यहाँ एक जंगल था श्रीमान' को ‘मधुमती’ में समय-समय पर प्रकाशित किया है. इनके निधन के कुछ समय पश्चात् अकादमी ने इनके एक महत्त्वपूर्ण रंगमंचीय नाटक ‘‘आखेट-कथा’’ को प्रकाशित किया था। उनके कुछ आलोचकों का आरोप था : उस्मान के कई नाटकों में खून-खराबे, वध, हिंसा, हत्या, आदि के दृश्य हैं और हत्या के उपकरण- चाकू, गदा, खंजर, कुल्हाडी, हंटर, तलवार, बंदूक, तोप, हेंडग्रेनेड, रिवॉल्वर, टाइम बम कार्बाइन, ए के-47, पिस्तौलें, बम आदि भी और प्राचीन भारतीय ‘नाट्यशास्त्र’ रंगमंच पर ऐसी विकृत-अवस्थाओं का प्रदर्शन खास तौर पर वध-चित्रण को ‘त्याज्य’ ही मानता आया है। किन्तु उस्मान के पक्षधर समालोचक लिखते हैं- भरत मुनि का अपेक्षाकृत संयत संतुलित सौमनस्य भरा तत्कालीन समाज और आज का हमारा समाज, क्या हर तरह से भिन्न समाज नहीं है? भरत मुनि के 'नाट्यशास्त्र' के इतने सालों बाद क्या आधुनिक-जीवन के यथार्थ को व्यक्त करने के लिए हिंसा भी आज नए थियेटर में कोई अछूत-सन्दर्भ रह सकता है? क्या हमारा सिनेमा हिंसा के दृश्यों से सर्वथा मुक्त है? क्या आज के समाज के रंगमंच पर वास्तविक जीवन में हिंसा के कई स्पष्ट और प्रछन्न रूप हमें रोज़-रोज़ तांडव करते नहीं दिख रहे? क्या समकालीन जीवन-शैली की स्वार्थपरकता, आपाधापी, गला-काट प्रतियोगिता, टांग-खिंचाई, ओछी-प्रतिस्पर्धा, आदि हमें दिखलाई नहीं दे रही?

अतः इधर अब उस्मान के नाटकों पर पुनर्विचार की नयी शुरुआत हुई है !



[१][२] साँचा:asbox

सन्दर्भ

बाहरी कड़ियाँ