राजस्थान की आधुनिक कला (१९६० से २०१० तक)
सन् 1960 से 2010 के छः दशक राजस्थान की आधुनिक कला के लिए दो कारणों से महत्त्वपूर्ण कहे जा सकते हैं। एक तो यह कि इस अन्तराल में बहुतेरे उल्लेखनीय चित्रकारों का काम सामने आया और दूसरे यह कि यहाँ के कुछ चित्रकारों ने राष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान बनाने के लिए निहायत मौलिक, अपनी निजी चित्रभाषा भी ईजाद की। इन्हीं वर्षों के दौरान विश्वविद्यालय-स्तर पर कला के अध्ययन-अध्यापन की भी शुरुआत हुई। कला के क्षेत्र में शोध और अनुसन्धान भी इसी अवधि में ज्यादा सामने आ पाए। आज राजस्थान में छोटे-बड़े ‘आधुनिक‘ शैली के शायद तीन सौ से भी अधिक चित्रकार हैं, किन्तु सरसरे तौर पर ऐसे कलाकारों का उल्लेख किया जा सकता है, जिनकी रचनाओं में अपनी चैत्रिक-निजता है अगर 'कथ्य' में नहीं, तो अंकन में तो अवश्य ही।
पारदर्शी निस्तब्धता का शिल्प
भारत में ऐसे चित्रकारों की संख्या बहुत अधिक नहीं, जिन्होंने अपने प्रायः पूरे कला-जीवन में केवल ज्यामितिक रूपाकारों को लेकर ही काम किया हो, पर निस्संदेह मोहन शर्मा की जगह ऐसे ही लोगों में थी। चितेरों के कस्बे नाथद्वारा (उदयपुर) में जन्मे मोहन शर्मा (1942-1988) की कृतियाँ झिलमिलाती हुई एक ऐसी ‘यूटोपियन‘ नगरीय व्यवस्था को दर्शाती रहीं, जो फैन्टेसी की दिव्य रोशनी से आलोकित है। 1966 से लगा कर अपनी अंतिम कृति तक मोहन शर्मा ने जिन ज्यामितिक रूपाकारों को सृजन का आधार बनाया, वे रूपाकार महानगर के पारदर्शी सन्नाटों को प्रतिध्वनित करने में कामयाब हुए, जिनका नीलवर्णी स्वप्निल माहौल मोहन शर्मा के अचेतन में बहुत गहरे पैठ गया मालूम होता था।
चित्रांकन की बुनियादी सच्चाइयों लम्बाई, चौड़ाई, गहराई, दूरी, प्रकाश और छाया के प्रति निरन्तर सचेत रहते हुए मोहन शर्मा की कृतियाँ उन चित्राकर्षक ज्यामितिक आकृतियों सी सृष्टि करती रहीं-जिन्हें देख कर हम ठगे से खड़े रह सकते हैं। यदि इनके काम को कोई ‘स्थूल‘ पहचान देना चाहें, तो हम कह सकते हैं कि अन्ततः ये कृतियाँ ‘घनवाद‘ का ही नवीन रूपान्तरण हैं।
1970 और इसके बाद मोहन शर्मा ने ‘कॉस्मिक-क्रिस्टल्स‘ शीर्षक से जो शृंखला पेन्ट की थी, उनके बहाने आरम्भ से ही हम कल्पना और कारीगरी की एक ऐसी दुनिया देखते आए हैं, जिसमें आज का महानगर-बोध प्रखरता से उभरा है। ये केवल दीवारों, चौराहों और गलियों की सामान्य या चलताऊ अभिव्यक्ति नहीं है, अपितु आकारों से ठसाठस भरी किसी महानगरीय जिन्दगी के जीवन्त अक्स हैं। यहाँ राजमार्गों, फ्लाईओवर्स और पुलों के संकेत हैं, जहाँ रोशनी और अंधेरों की अजीब सी ऐन्द्रजालिक झिलमिलाहट है। कहीं खिड़कियों की आँखों से झांकती रोशनी का धुंधला सा सिरा हमारे हाथ लगता है और अचानक डूब जाता है, यह सब जैसे एक मायालोक हिस्सा है, जहाँ रंगों की रहस्यवादिता के डैने, नगर-आकारों को अपने आगोश में बाँध लेना चाहते हैं। ऐक्रेलिक रंगों को 'फ्यूज़' करते, उनकी दमक और ‘दिव्यता’ को सुरक्षित रखते और एक रंगीन प्रभामण्डल की शक्ल में उनको चित्र-फलक पर फैलाते मोहन शर्मा एक मंजे हुए क्राफ्टमैन की तरह सामने उपस्थित रहे थे। मोहन शर्मा की चित्र दुनिया इतनी एकान्तिक और स्तब्ध है कि मानवीय स्पंदन का कोई सूत्र कल्पनाशील सौन्दर्य से भरी इस सृष्टि में विचारते हुए हमारे हाथ नहीं लगता। एक सीमा के बाद उनके चित्रों की निस्तब्धता, जड़ता और सुन्दर एकान्त हमें भीतर से कचोटता है क्योंकि उनके सजे-धजे रंगमंच पर कहीं कोई पात्र है ही नहीं। इस अर्थ में मोहन शर्मा गूंजते अकेलेपन के वास्तुशिल्पी थे।
मोहन शर्मा के चित्रों में नगर-बोध जितनी प्रखरता से उभरा था-उतना शायद राजस्थान के किसी चित्रकार की रचनाओं में नहीं। वह अपनी छोटी, किन्तु सार्थक जिन्दगी में ज्यामिति की उंगली थाम कर हमें महानगर की उचाट आत्मा तक ले जाने की कोशिश करते रहे। मोहन का मानना था कि अब गाँव की दुनिया में, उसके पवित्र अतीत में लौटना जब हमारे निकट संभव ही नहीं है, तो फिर कला के लिए वर्तमान-जीवन के बिम्ब और आधुनिक सभ्यता के प्रतीक ही रचना की प्रेरणा क्यों नहीं बने रह सकते ? जब मनुष्य द्वारा निर्मित वास्तु की ज्यामितिक दुनिया समकालीन समाजों के लिए एक अनिवार्य वास्तविकता है, तो फिर ‘काल्पनिक’ गाँव की तरफ कला को जो ले जाना क्या एक तरह का मानसिक पलायन नहीं ?
यह भी एक अजीब बात ही कही जाएगी कि मनुष्य की भौतिक निर्मितियों के प्रति मोहन शर्मा जितने संवेदनशील और आशान्वित थे, उतनी ही बेरुखी और अरुचि उन्हें कला में-मनुष्य की उपस्थिति से थी। वह मनुष्य द्वारा रचे गए सभ्यता के संसार को उसकी सर्जनात्मक क्षमताओं का एक बेहतरीन उदाहरण मानते थे, पर कैनवासों में उन्हें मनुष्य की मौजूदगी कभी उपयुक्त नहीं लगी। मोहन मानते थे कि आधुनिक आदमी भीतर से नितान्त स्वार्थी, क्रूर और बदसूरत है। उसका सर्वोत्तम पक्ष अभी भी उसकी सृजनवृत्ति ही है- जिसका प्रतिरूप विशाल जल-राशियों को थाम कर बनाए जाने वाले बांधों, सीमेन्ट-कंक्रीट के अनंत फैलाव और आकाश को छूती हुई शहरी-प्रगति के विविध रूपों में देखा जा सकता है।
‘‘ऐसा नहीं कि मेरी दिलचस्पी ‘आदमी’ में नहीं, पर मैं अपनी स्वयं की इमेज, निराशा और असन्तोष से इतना उकता गया हूँ कि मुझे डर है कि चित्रों में ऐसे आदमी की उपस्थिति उन्हें बदसूरत न कर दे....’’ मोहन शर्मा ने अपने एक कैटेलॉग में लिखा भी था। इनके चित्रों में नगर-अनुभवों के अलावा ‘अचल-जीवन’ की आनन्ददायक मौजूदगी भी है - खिड़कियों के सहारे रखी चाय की मेजें, गुलदान, प्याले, केतलियाँ, फल और दूसरी चीजें जिनकी छवि भी वह अपने केनवासों में उभारते रहे। ऐसा लगता है जैसे ‘ठोस’ यहाँ कुछ है ही नहीं, सब कुछ काँच सा पारदर्शी और घुला-मिला है, जिसके भीतर प्रकाश और छाया की मनोहर आवृत्तियाँ हैं। इस आशय में इनका अमूर्तन ‘निराकार’ नहीं है, क्योंकि किसी न किसी चाक्षुष-यथार्थ से वह हमें सम्बद्ध करके रखना चाहते थे। सूज़ा ने लिखा है, मोहन शर्मा में -‘‘घनवादी संरचनाओं की उल्लेखनीय समझ है।‘‘ उनके चित्र देख कर पहली बार में हेमंत शेष को लियोनल फाइनैन्जर (1871-1956) की कृतियाँ याद आईं, पर सूजा का यह मानना है कि ‘‘20 वीं सदी के जर्मन घनवाद की बजाए मोहन शर्मा के काम की जड़ें सोलहवीं शताब्दी के चामुण्डा देवी के मन्दिर बासोली की शिल्पकृतियों के अधिक निकट हैं।’’
मोहन शर्मा की रचनाओं में सर्वत्र जिस ‘कारीगरी’ की तारीफ की गई है उसका एक सबब है - रंगतों का सधा हुआ आलेप और ज्यामितिक आकारों का ब्लेड सा तीखापन। 1976 और बाद की इनकी कृतियों में परिवर्तन के कुछ एक स्पष्ट चिन्ह देखे जा सकते हैं। सबसे बड़ा तो यह कि उनके रूपाकार उतने घनीभूत और ठसाठस गुँथे नहीं रहे, जिनते पूर्ववर्ती कला-दौर में वे रहा करते थे। 1976 के बाद की इनकी रचनाओं का शिल्प अपेक्षाकृत सरल हुआ। उसमें इसी कारण गहराई और परिप्रेक्ष्य के कुछ नए अनुभव प्रविष्ट हुए। रंगों के फ्यूजन की तकनीक यहाँ भी है, परन्तु बाद के दौर की कृतियों में मोहन शर्मा एक विशिष्ट तरह के सरलीकरण की ओर बढ़ते दीख पड़ते थे। यह बात क्या अन्ततः उनकी चित्रकर्म में आई और गहरी ‘परिपक्वता’ की ओर ही संकेत नहीं करती?
दूसरी प्रमुख बात यह है कि 1976 के बाद उनके कथानक भी किंचित बदले हुए हैं। केवल दीवारों और भवनों की पुनरावृत्ति से हट कर उन्होंने चुनाव किया -प्राकृतिक दुनिया के सैरों या दृश्यों का, जिनमें सबसे प्रमुख हैं-समुद्र और रेगिस्तान। कलाकार की आँख से देखें तो समुद्र और रेगिस्तान में कोई अन्तर है ही नहीं। कला-प्रयोजनों के लिए वे दोनों पर्यायवाची हैं। दोनों में एक अनन्त भाव है। वे दोनों ही देखे जाने के सुख से हमें बाँधते हैं। यहाँ रेगिस्तान या सागर का विस्तार क्षितिज तक फैला हुआ है और कई बार तो ऐसा लगता है जैसे वह निस्सीम है या दृष्टि-पथ से आगे भी वह सजीव है। मोहन शर्मा के इसी दौर की कृतियों में सैरों और जहाजों के संकेत हैं।
प्रसंगवश यहाँ यह भी लिखना संगत होगा कि चित्रावकाश को लेकर भी एक सजग-भाव इनके मन में था। यहाँ कैनवास के अपने टैक्सचर को भी प्रयोग में लाने की कोशिश की गई है।‘‘मैं कला को मानसिक शांति और संतुलन की अभिव्यक्ति का जरिया मानता हूँ ....‘‘ मोहन कहा करते थे। सचमुच हमारे परिपक्वतर कलाकारों में इनकी रचनाएँ विषय और उसके निर्वाह को लेकर कुछ सधा हुआ और नफीस देखने का अवसर प्रदान करती हैं। रंगतों का शालीन इस्तेमाल और सटीक ब्रशवर्क मोहन शर्मा की निजी खूबियाँ थीं- जिसके सहारे उन्होंने अपना एक अलग मुहावरा विकसित किया। शायद इसीलिए सूजा ने मोहन शर्मा को भारत में ‘पैग’ (प्रोग्रैसिव आर्टिस्ट्स ग्रुप) की कला-चेतना की ‘एक अगली कड़ी’ के रूप में ही देखा और बार-बार सराहा।
यह समकालीन चित्रकला के लिए दुर्भाग्यपूर्ण था कि मोहन शर्मा अचानक हमारे बीच से चले गए। कैंसर जैसे जानलेवा रोग से लड़ते हुए अपनी अंतिम सांस तक वे जीवन के प्रति आशान्वित थे और उससे भी ज्यादा इस बात के प्रति कि वह ठीक हो कर फिर से चित्र बना सकेंगे। पर ऐसा होना बदा न था। भले ही मोहन शर्मा आज नहीं हैं, पर जो कुछ वह अपने प्रशंसकों और परिचितों के लिए स्मृति में छोड़ गए हैं- वे कुछ ऐसी कृतियाँ हैं, जिनका सम्मोहन आने वाले सम्भावनाशील नए लोगों के बेहतरीन काम से कम भले हो जाए, पूरी तरह खत्म तो वह हो ही नहीं सकता।
सब रंगों की माँ है - काला
विद्यासागर उपाध्याय (जन्म 1948, परतापुरा-बाँसवाड़ा) का नाम भारतीय आधुनिक कला के मैदान में जाना पहचाना है। वह अपनी स्याह-सफेद अमूर्त कृतियों के कारण पहचाने जाते हैं। शैलीगत विशिष्टिता के कारण भी विद्यासागर उन रचनाकारों में रहे हैं, जिन्होंने अपनी कला के लिए राज्य से बाहर भी एक कला-संग्राहक और प्रेक्षक-वर्ग तैयार किया है। विद्यासागर ने चित्रांकन की शुरुआत पेंसिल रेखांकनों से की थी और 1968 से 1976 तक लगातार साधनों और अर्थाभाव के चलते वह केवल पेंसिल में ही रेखांकन करते रहे थे। इस कार्यकाल में उनकी प्रिय पेंसिल थी-3-बी, जिसका सघन प्रयोग करते हुए इन्होंने अपने माध्यम की कोमल सम्वेदनशीलता से रिश्ता कायम किया। इनके यहाँ कागज पर काले-सफेद आकारों का फैलाव पेंसिल के लगातार स्ट्रोकों से उपजता है, जिसमें लैड की बारीकियाँ और स्थूलताएँ तो कहीं-कहीं देखते ही बनती हैं।
हालाँकि केवल पेंसिल की रंगतों का प्रदर्शन ही इनका एकमात्र अभीष्ट नहीं, परन्तु चलते-चलाते कई दफा हम ऐसा अहसास पा जाते हैं जैसे वह पेंसिल की ‘कमनीयता’ और इसके जल्दी-जल्दी बदल जाने वाले मिजाज को ही अपनी कृतियों में गिरफ़्तार करना चाह रहे हों। काले घटाघोप वातावरण की सर्जना करने में विद्यासागर की पेंसिल है भी सिद्धहस्त। वह बखूबी जानती है कि लगातार घिसाई कागज पर कितना प्रभावशाली कालापन रच सकती है। बहुत बड़ी संख्या में बनाए गए अपने पेंसिल रेखांकनों में जो भी रूपाकार विद्यासागर ने कागज पर उपजाए हैं वे अमूर्त हैं-कहीं भी वास्ताविक दृश्य-जगत् के प्रभावों की तरह नहीं, बल्कि अंधेरे की उन ठोस अनुभूतियों की तरह, जो अचेतन की जटिल दुनिया के प्रतिबिम्ब पैदा करती हैं। अंधकार और लगातार बना रहने वाला कोई रहस्य ही इन रेखांकनों का मूल भाव है। काले रूपाकारों के द्वारा विद्यासागर अंधेरे की सृष्टि करते हैं और प्रकारान्तर से हमें एक अजीब तरह की लयात्मकता, रहस्यात्मकता और गहरे ऐंद्रिक सम्वेदन में ले जाने का प्रयास भी। उनके आरम्भिक काम में तंत्र-चित्रों की सम्वेदना मुखर है। कहीं इनकी ऐसी कृतियों में हम यौन प्रतीकों अथवा गुप्तांगों से साक्षात्कार कर बैठते हैं, तो कभी दबी-ढँकी प्रतीकात्मकता के सहारे उन तक पहुँचते हैं।
प्रकाश इनकी रचनाओं में उन्मुक्त भाव से नहीं उपजा, लेकिन जहाँ भी वह उपस्थित है, लगातार अपने अस्तित्व का भान करवाता चलता है। अंधकार के जादुई रहस्य के बीच मद्धिम से मद्धिम रोशनी की लौ भी जैसे अपने लिए एक आकर्षण पैदा करती है-इसी तरह खाली छूटी सफेद जगह का उजलापन इनके रेखांकनों में एक विशिष्ट सम्वेदना जगाता है। कभी अपने ‘कम्पोजिशन’ के साँचे में सकारण इस्तेमाल करने, कभी प्रेक्षक को आश्चर्यमिश्रित प्रफुल्लता में डालने के लिए इन्होंने टैक्सचर को कागज की पीठ से उभारा है। अतः टैक्सचरों में उनकी रुचि के कई कारण हैं-‘विषय’ की आंतरिक माँग से ले कर केवल कौशल और आत्ममुग्धता तक के लिए। पर उल्लेखनीय यह है इनके चित्रों के भीतरी अनुशासन को बिगाड़ने में टैक्सचरों ने कभी भी अपनी सीमाओं का अतिक्रमण नहीं किया। वे जहाँ भी हैं शालीन और शिष्ट हैं और अपने ’होने’ के बावजूद इतने ‘वाचाल’ नहीं है कि चित्रों की आन्तरिक ताकत को क्षति पहुंचाएँ।
पेंसिल रेखांकनों की श्रृंखलाओं में उपाध्याय ने उदयपुर के बहुत से कलाकारों की तरह ही, अपने लिए ज्यामितिक-संरचना की राह पसन्द की थी और इनकी आरम्भिक कृतियाँ ज्यादातर ‘सैन्ट्रल-कम्पोज़िशन’ में ही बनाई गई हैं। 1976 के बाद विद्यासागर ने पैंसिल से हट कर नए रंग-माध्यम एक्रिलिक का सहारा लिया और आज भी वह इसी में काम कर रहे हैं। उनका माध्यम में बदलाव (पेंसिल से ऐक्रेलिक या तैलरंग) यह सूचना तो देता है कि ‘माध्यम’ के रूढ़ हो जाने का अहसास उनके अचेतन में था, किन्तु लगभग वही कथ्य, वे ही रूपाकार और वही केन्द्रीय-संयोजन हमें इनके चित्रों में कागज की बजाए कैनवास पर आरंभ के कुछ वर्षों में उतरा मिलता है। इस अर्थ में 1978 तक विद्यासागर का माध्यम परिवर्तन ‘रचनामूलक’ परिवर्तन नहीं था। यह महज कला-सामग्री का बदलाव ही था।
1978 और इसके बाद विद्यासागर एक नए रचना-लोक के साथ हमारे सामने उपस्थित हुए। अपने रूढ़ियों और कथानक से हट कर वह जो नई चीज लाए, वह थी-प्रकृति। चाहे वे पर्वतों, बादलों, नदियों और चट्टानों के बिम्ब हों या दूसरे दृश्य, वह पूर्व की विषयवस्तु-तंत्र और ज्यामिति को त्याग कर उस पहाड़ी और पथरीले ठेठपन को रेखांकित करते रहे हैं-जिनके बीच लम्बे अरसे तक वे रहे हैं।
‘‘मेरे लिए यह आवश्यक नहीं कि कोई अनुभव ठीक उसी शक्ल सूरत में कला में आए या प्रयुक्त हो। एक अनुभव दूसरे अनुभव या बहुत सारे अनुभवों के साथ जुड़ता और रूपायित होता है। कौन सी चीज रचना-कर्म में कब और किस तरह काम आती है-बहुत पेचीदा बात है। मैंने एक ही चीज को कई-कई बार कहा है। जैसे ‘पेबल्स’ को अपनी बहुत सी रचनाओं में चित्रित किया और मन भर कह लेने के बाद फिर किसी दूसरे अनुभव को उठा लिया। मछलियों, जहाज़ों के मूवमेन्ट, 'फ्लाइंग बर्ड्स' या 'फ्लाइंग रॉक्स' के इम्प्रैशन भी मेरी पेन्टिंगों में आते रहे हैं।’’ विद्यासागर बतलाते हैं।
इन मुक्त और निर्बन्ध रचनाओं से, जहाँ उनकी पुरानी विषयवस्तु सम्बन्धी एकरसता भंग हुई है, वहीं ये काले-सफेद रेखांकन और तैलचित्र हमें ले जाते हैं - उन पर्वतीय अनुभवों में, जो अपने अनगढ़पन और स्वतंत्र - अस्तित्व की वजह से लुभाते हैं। पेंसिल के अलावा ऐक्रिलिक रंगों के इनके चित्रों में हम दृश्यों के नजदीक जाते हैं-इस अनुभूति के सहारे कि ये पहाड़ और चट्टानें अमूर्त, अंधकारपूर्ण होते हुए भी हमें बांध सकने का भाव अपने में संजोए हैं। यहाँ हम प्रकृति को, जो इनका नवीनतम विषय रही है- एक समझदार स्पेस-संयोजन में घटित हुआ भी देखते हैं। कागज या कैनवास की सफेद सतह को अपने अवकाश के लिए बरतने और छोड़ने का कौशल भी यहाँ है। कुछ एक बार वह अपने लयात्मक या जैवकीय से दीख पड़ने वाले रूपाकारों को एक खास तरह के जमाव के द्वारा व्यक्त करने की इच्छा में डूबे मालूम देते हैं। नदी किनारे के गोल-गोल पत्थरों, आकाश के धब्बों और पठारों के सुदूर बिम्बों को पकड़ती इनकी कृतियाँ हमें असल-कथ्य से इतर भी प्रकृति की पृष्ठभूमि के आलोक या धुंधलकों का परिचय देती हैं। अतः जो चीजें मूल-फलक पर आई हैं, उनकी भूमिका के तौर पर विद्यासागर उसकी पृष्ठभूमि के अंकन में भी रुचिशील हैं और असल में यही इन दृश्यांकनों की सम्पूर्णता का रहस्य है।
उपाध्याय के चित्रों की एक और विशेषता का उल्लेख करना यहाँ अप्रसांगिक न होगा। वह विशेषता है- रंगतों (टोन्स) का अध्ययन। काले-सफेद की एकरसता के स्वाद को, कैनवास के एकसेपन को जो चीज भंग करती है, वे हैं-रंगतें। रंगतों के बहुत से प्रकार इनमें हैं-तरल, मध्यम, गहरे और घने। रंगतों की वजह से ही हम चित्रों में एक खास तरह के अनुभव की विविधता से जुड़ते हैं। वह दृश्यांकनों में रंगतों से ही परिप्रेक्ष्य और चीजों के बीच सापेक्षिक दूरियों का अहसास जगाते हैं।
विद्यासागर उपाध्याय के रेखांकनों पर सुपरिचित कथाकार और समीक्षक अशोक आत्रेय की यह टिप्पणी भी महत्वपूर्ण है-‘‘.....उनके बचपन के संस्कारों में भी अरावली-श्रृंखलाओं का स्थान कम महत्वपूर्ण नहीं रहा। ऐसा लगता है कि विद्यासागर के नए चित्र, पहाड़ों के अंतरंग साक्षात्कार के मोहक दृश्य उपस्थित करते हैं। उनमें सम्मोहन जगाने वाली कुशलता है। यों ये चित्र किसी भी स्तर पर पहाड़ों का कोई ‘रेखाचित्रीय‘ अनुभव नहीं कराते, बल्कि अत्यन्त निजता के स्तर पर उनके गोपन रहस्यों की परतें खोलते प्रतीत होते हैं। कहीं-कहीं पर लगता है जैसे वे किसी विशाल काली रात्रि के डैनों के समान आकृतियाँ काट कर बनाए गए हैं। वह अपने माध्यम का भरपूर उपयोग करते हैं और कागज पर तब तक घिसते हैं जब तक उससे अपेक्षित गहरा संतोष (गाढ़ी कमाई) प्राप्त नहीं कर लेते। वह अपनी शैली में एक श्रमिक की निष्ठा रख कर वह सम्मोहन जगा देते हैं कि प्रकृति अपनी भारी-भरकम मुद्रा बनाने के बावजूद एक सहजता, एक रहस्य लिए खड़ी रहती है।....विद्यासागर में जहाँ पहाड़ सा भारी मन है, वहाँ वह आकाश सा विश्राम भी अपने प्रेक्षक को प्रदान करते हैं और यों लगता है कि वह किसी ऐसी यात्रा में अकेले निकल पड़े हैं, जहाँ ‘पड़ाव‘ ढूँढने की उनकी शर्तें हैं। पेंसिल के विशाल बेलनाकार, गोल, तिकोने, तीखे, घुमावदार, सीधे और ऊंचे-नीचे ऐसे कई पड़ावों की ओर विद्यासागर अपने शिल्प के माध्यम से संकेत करते हैं, कि यात्रा थकाने या उबाने वाली प्रतीत होती।....
एक बार पूछने पर कि केवल स्याह-सफेद में ही चित्र क्यों बनाते रहे हैं, विद्यासागर उपाघ्याय ने कहा था- ‘‘ मेरा मानना है कि केवल रंगों से ही कलाकार का व्यक्तित्व नहीं बनता। मैं रंगों को उस रूप में प्रयुक्त नहीं करता, जिस तरह कलाकार आम तौर पर करते हैं, पर मैं काले-सफेद की टोन्स को ही प्रकृति के रंगों के रूप में देखता और प्रयोग करता हूँ। पेंसिल को शुरू में एक तरह की रचनात्मक मजबूरी में थामा था, पर धीरे-धीरे काला सफेद ही मेरी अभिव्यक्ति का अभिन्न अंग बन गया। आज भी मन इससे भरा नहीं है, इसलिए इसी में काम करता जा रहा हूँ ....‘‘
किन्तु बाद में रंगों के सम्मोहन ने विद्यासागर जैसे चित्रकार को भी अपनी तरफ खींच ही लिया, जो सिर्फ काले और सफेद को ही अपनी पहली अभिव्यक्ति मानते रहे थे। हालांकि विद्यासागर रंगों के अनुशासन में एकाएक प्रविष्ट नहीं हुए, पर स्याह सफेद से हट कर रंगों तक पहुंचना उनके लिए एक बड़े क्रांतिकारी महत्वपूर्ण परिवर्तन जैसा रहा है। उदाहरण के लिए हम इन रंगमय कैनवासों में प्रकृति की विभिन्न मुद्राओं को एक पुराने सम्मोहन की ही तरह, चित्र फलक पर उतरा हुआ देख सकते हैं। इन चित्रों में विद्यासागर ने पेड़ों, पहाड़ों, चट्टानों, बादलों और शिलाओं का रूपांतरण किया है। यहाँ भूरे, पीले, काले और दूसरे हल्के रंगों की रंगतें हैं। अपनी तरल संवेदना का जैसे आश्रय लेते हुए ये रंग एक प्रेक्षक को प्रकृति के विराट् और उसकी लगातार बदलने वाली संश्लिष्ट आकृतियों तक ले जाते हैं।
रंगों के चयन को विद्यासागर अपनी इस नई चित्र-शृंखला के लिए काफी ऊर्जादायक मानते हैं। उनका विचार यह भी है कि ‘‘इन रंगों में मैं एक ऐसी तरल, पारदर्शी और संवेदनशील सृष्टि खोज सकता हूँ, जिसकी अभिव्यक्ति दूसरे किसी माध्यम में शायद अपेक्षाकृत कठिन होती।
वह इन चित्रों में अपनी पुरानी कथावस्तु को नये ढंग से कहने के पक्षधर हैं। इस चित्रों की एक खासियत यह भी है कि इनमें विद्यासागर उपाध्याय की परिचित चित्र-मुद्रा, विशेष रूप से काले और सफेद को लेकर किए गए अन्वेषण, यहाँ आ कर समाप्त नहीं हो जाते। वे अपने परिचित चाक्षुष-सौन्दर्य को बरकरार रखते हुए अत्यन्त तरल और हल्के रंगों और उनकी रंगतों को खोलते हैं। चित्रावकाश और प्राकृतिक रूपों के प्रति उनके मन में जो एक खास आग्रह उसकी विशालता को लेकर है, उसकी अभिव्यंजना वह बड़े आकार के कैनवास चुन कर करते हैं। यहॉ बहुत सारा अवकाश है-एक निर्वात जैसा, जिसमें प्रकृति के रूपाकार रंगों के बीच उभर रहे हैं। उनमें दूर तक दिखने वाले दृश्यों और अवान्तर बिम्बों की आकृतियाँ हैं। प्रकृति के विशाल स्वरूप को यहाँ सघनीकृत किया गया है। उनमें परिप्रेक्ष्य की गहराई, कथानक की बनावट और टैक्सचर की आर्द्रता देखी जा सकती है।
इस रंगीन कृतियों में विद्यासागर पर्याप्त काव्यात्मक और संवेदनपूर्ण बने रह सके हैं। इन कैनवासों की संरचना में लगाता मौजूद है- एक ज्यामितिक लय और गति, जो आकारों में हो रहे उद्दाम बदलावों की पूर्व-सूचना जैसी है। लयात्मकता के प्रति उनकी लगन और प्रकृति को लेकर छाया रहने वाला अनुराग विद्यासागर के मन में कई वर्षों से है। अपने नवीन चित्रों में वह इसी लगाव के और निकट पहुँच रहे प्रतीत होते हैं। बारीक तंतुओं और काली रेखाओं की सक्रिय उपस्थिति से वह हमारे सामने रूपाकारों के भीतर उपस्थित रहने वाली छोटी, किन्तु महीन और सक्रिय संवेदनाओं को भी खोलते हैं। अब इनके रूपाकार उतने औपचारिक नहीं रहे, वे बहुत दूर तक प्रकृति की निर्बाध गतिशीलता और उसके अंदरूनी संवेगों को टटोलते दिखलाई पड़ते हैं।
इस प्रकार के मुक्त आकारों में जहाँ प्रकृति की अभिव्यक्ति के लिए नए धरातल उपजे हैं, वहीं कई बार इनके जरूरत से ज्यादा ‘अनगढ़‘ हो जाने के खतरे भी सामने आए हैं, किन्तु एक बनते हुए चित्र-संसार में ये सब बातें अधिक महत्व की नहीं हैं। लगातार काम करने वाले चित्रकारों में विद्यासागर उपाध्याय एक प्रतिष्ठित कलाकार के रूप में हमारी अभिशंसा के हकदार हैं। और हम, उनकी कृतियों में हर नए रचना-पड़ाव के प्रति आशान्वित।
निराकार का भी कोई आकार तो है!
सुरेश शर्मा के तैलचित्र, एक ही रंग की रंगतों और उसमें अत्यन्त सावधानी से रची गई ज्यामिति का उदाहरण हैं। वह कैनवास के विशाल स्पेस में खुद अपना अर्थ तलाशती रंगतों के चित्रकार हैं, जिनके यहाँ ‘निराकार‘ के प्रति तीव्र व्यामोह या पूर्वराग बराबर उपस्थित रहता आया है। विशुद्ध रंगों और रंगतों को स्प्रे के सहारे उत्पन्न की गई उसी एक या कुछ रंगों की रंगतों में छिपा बहुत तरल पर प्रकट ज्यामितिक आग्रह सुरेश शर्मा के चित्रों को अपना एक अलग व्यक्तित्व देता है। यह शुभ है कि भले कुछ सुप्रसिद्ध विदेशी चित्रकारों से उनके चित्र-साम्य को छोड़ दें, उनका काम राजस्थान में रह रहे आधुनिक चित्रकारों में भिन्न भी है और ‘साहसिक‘ भी।
सुरेश शर्मा (जन्म 1937, कोटा) ने तैलचित्रों के अलावा मूर्तिशिल्प और ग्राफिक छापे भी बनाए हैं और उनकी कला-यात्रा के विकास में इन तीनों माध्यमों में काम करने का अनुभव कुछ इस तरह जुड़ा हुआ है कि उसे अलग-अलग करके देखना कठिन है। हालाँकि विगत कुछ वर्षों से वह केवल तैलचित्र ही बना रहे हैं। (और आज उनकी छवि एक मूर्तिकार या ग्राफिक छापेकार के रूप में नहीं, बल्कि चित्रकार के रूप में ही है) पर उन्होंने आरंभिक वर्षों में ग्राफिक में जो काम किया है, वह उनकी इस माध्यम में कुछ नए अन्वेषण करने की रुचि और रुझान का परिचायक है। सुरेश शर्मा की कला राजस्थान में रह रहे दूसरे बहुत सारे समकालीन कलाकारों से अपने अर्थ और प्रभाव में भिन्न है। उनकी यह सृजनात्मक स्वायत्तता ही उनकी सबसे उल्लेखनीय पूंजी है- हालाँकि इन पर-‘अमौलिक‘ होने का यदा-कला जो आरोप लगाया जाता है- उसकी वजह यह है कि इनकी रचनाएँ देखते हुए हमें नई अमेरिकन कला-धारा के ऐड रैनहर्ड और जोज़फ एलबर्स सरीखे कलाकारों के कामों की स्मृति अचानक हो आती है। यह प्रभाव शायद इसलिए भी इतना पारदर्शी और स्प्ष्ट है कि वह कुछ समय के लिए अमरीका में रहे हैं। जाहिर है कि वहाँ की कला-प्रवृत्तियों की छाप उन पर गहरी है। उनके चित्रों की याद रखने लायक बात यह है कि उनका अमूर्तन आकारों या विरूपण का अमूर्तन नहीं है- बल्कि वह ‘निराकार‘ रच कर भी अवान्तर से एक दूसरे भाव-बोध का दरवाजा हमारे लिए खोलते हैं।
इसके चित्रों की दो विशेषताएँ और हैं। एक तो यह कि अपेक्षाकृत एक विशाल चित्र-अवकाश इनके यहाँ है (क्योंकि इनके कैनवास आकार-प्रकार में अमूमन बड़े हैं) दूसरी यह कि वह केवल ‘रंगतों‘ पर ही काम करते हैं। रंगतों को ‘प्रयुक्त‘ करने की शैली भी इन ऐक्रिलिक चित्रों में भिन्न है। इन्हीं विशेषताओं को लेकर ही उनके कैनवासों के लक्ष्य अन्यों से कुछ अलग हैं। इनके चित्रों में संवेदना से भरी रंगतें हैं, जो रंगों के स्प्रे से उत्पन्न सारे फलक पर कुछ इस तरह छाई रहती हैं, जैसे दिसम्बर में उड़ता हुआ कोहरा। वे किसी भी रंग की हो सकती हैं- नीले, काले, बैंगनी या किसी और गहरे रंग की, पर वे सारे कैनवास पर एकछत्र साम्राज्य स्थापित किए रहती हैं। इनके भीतर एक घुमड़न और मंथन का भाव मौजूद है। ऐसा लगता है जैसे देखते ही देखते बादल अपनी आकृतियाँ बदल लेते हैं- शायद कैनवास की ये रंगतें भी उसी प्रक्रिया में है। इसमें निरन्तर एक स्पंदन और कंपन है। वे कभी-कभी तो धुंएँ की तरल चादर की तरह पूरे फलक पर ‘छा जाना‘ चाहती हैं।
सुरेश शर्मा कैनवास पर (सैलो-टेप के सहारे) कहीं-कहीं बहुत हल्के और ध्यान से देखने पर ही नजर आने वाले जमितिक-पैटर्न डाल कर हमें रंगतों की एकरसता से बचाना चाहते हैं, पर ये ज्यामितिक-चौखाने भी इतने विरल और सांकेतिक हैं कि चित्र की तरल संवेदना पर ‘बोझ‘ नहीं बनते। इनके काम में पृष्ठभूमि और मुख्यभूमि (फोरग्राउंड) जैसी कोई अवधारणा है ही नहीं। जो पृष्ठभूमि है, वही फलक पर हमारे सामने भी उपस्थित है। उसमें ऐसा कोई भेद नहीं कि कौन आगे है कौन सी पीछे। ऐसा इसलिए है क्योंकि वह किसी ‘आकार‘ का अमूर्तीकरण नहीं। सुरेश शर्मा हमें रंगों के अर्थपूर्ण प्रभावों के सहारे जैसे एक दार्शनिक शून्य से साक्षात्कार करवाना चाहते हैं। इसलिए इसके कैनवासों के सामने खडे़ हो कर हमें कई बार यह अपेक्षा होने लगती है कि शायद इस पर कोई ‘बोल्ड‘ रंग-घटना घटेगी या हमें रंगतों पर कुछ ‘ठोस‘ देखने को मिलेगा- पर ऐसा कभी होता नहीं। उनके सारे चित्र हमें दूसरे तरह के मौन में ले जाते हैं। यह रंगतों के ग्रेडेशन से बनी खामोशी है, जिस पर कोई रंग-घटना नहीं उभरती, सिर्फ धुंध की तरह उड़ती हुई रंगतें कैनवास पर घुमड़ती रहती हैं। सुरेश शर्मा की सबसे बड़ी उपलब्धि या ‘साहसिकता‘ यही है कि इन्होंने केवल रंगों को ही रूपाकार के रूप में काम में लिया है।
यह कहना उनके साथ शायद ज्यादती होगी कि एकाएक वह अपने वर्तमान कला-मुहावरे पर ‘कूद‘ पड़े हैं। उनके इस निराकार के पीछे रही हैं कुछ यात्राएँ-ग्राफिक और ऐक्रिलिक में, जहाँ शुरू में दूसरे कलाकारों ही की तरह हमें वह एक ‘आकृति प्रधान‘ अमूर्तन ही में ले जाने की कोशिश में तल्लीन दीख पड़ते थे। उनके ग्राफिक छापों में यह मुद्रा कदाचित ज्यादा मुखर थी। किन्तु क्रमशः उनके कैनवासों से आम तौर पर नजर आने वाली रंग-योजनाएँ, आकार (फॉर्म्स) और उनकी संवेदनाएँ लुप्त होने लगीं- और उनकी जगह ले ली- सिर्फ रंगों और रंगतों ने, रंगतें जिनको समूचे कैनवास पर छिटका कर वह उनके जरिए एक सूक्ष्मतर ‘बोध‘ हमारे भीतर जगाने की बात शायद सोचते हों। हो सकता है हम में से बहुतों को सुरेश शर्मा का यह संसार बहुत सीमा तक सरलीकृत लगे, किन्तु मेरे अपने विचार में यह सरलीकरण एक खास प्रकार का अमूर्तीकरण है। एक ऐसा अमूर्तन जो पहली मर्तबा में इतना ग्राह्य और सामान्य नहीं कि चलते-चलाते या ‘केजुअल ऐप्रोच‘ रखते हुए उसे हम सराह सकें। ऐसा करने के लिए हमें उनके चित्र-दर्शन के साथ ही बहना होगा, कभी समानान्तर, कभी उससे बाहर और परे। अपनी सारी रचना-प्रक्रिया में अस्तित्ववादी विचारकों की तरह ही वह भी दूसरे (अदर) की उपस्थिति को कतई जरूरी नहीं मानते। इसी से यह बात साफ होती है कि क्यों इनकी सारी कला नितान्त वैयक्तिक और विषयपरक है? वह अधिकांश चित्रकारों की तरह क्यों किसी आकारपरक अमूर्तन के प्रति आग्रहशील नहीं?
जहाँ तक सुरेश शर्मा के काम में ज्यामितिक संकेतों की मौजूदगी का सवाल है, जैसा हमने पहले कहा, उसका असल अभिप्राय यही है कि एक तो ये वर्ग, चौखाने या समानांतर रेखाएँ (बीम्स) कैनवास की रंग एकरसता का खण्डन करती हैं और दूसरा यह भी कि वे पेंटिंग के प्रति कलाकार के एक सचेत संबंध का सूचक हैं। कला-रचना यहाँ एक आकस्मिक घटना नहीं रह जाती, बल्कि वह सृजन-वृत्ति को सायास कला-वस्तु में गढ़ने वाली कोशिश बन जाती है। ये रेखाएं, वर्ग और ज्यामितिक संकेत इतने स्पष्ट और मूर्तमान नहीं कि एकाएक पूरी रचना पर उभर आएँ, बल्कि इनका धुंधलापन और सांकेतिकता बहुधा एक अलग स्वाद का सम्मोहन हममें जगाती है। जितना हम उनकी उपस्थिति से अलग हटने की कोशिश करते हैं, यह विरल, पारदर्शी ज्यामिति हमारे भीतर उतना ही कुतूहल उपजाती है, यों इस चित्र-लोक को सीधे सपाट तरीके से सराह पाना कठिन इसलिए है कि उसमें दृश्यात्मकता, खास तौर पर स्थूल रूपाकारों के प्रति आग्रह कहीं है ही नहीं और जैसा कि हम कह चुके हैं ‘निराकार‘ के प्रति उनका सचेत व्यामोह ही उन्हें अपनी तरह के अलग मुहावरे का कलाकार बनाता है।
उनका काम देख कर हमें यही लगता है कि कला में आधुनिक होने का एक मायना शायद यह भी है कि चालू रैटरिक से अलग हम रंगों की व्याकरणविहीन विराट् दुनिया में प्रवेश कर जाएँ और रंगतों व रंगों के निराकार को ही अपना खुद एक अर्थ तलाशने दें।
अँधेरे में जलती हुई मेहताब
शब्बीर हसन काज़ी (जन्म 1946, अजमेर) के काम की अभी कोई रूढ़ि बनी हो- ऐसा इसलिए नहीं लगता क्योंकि वह अभी अपनी चित्र-दुनिया को पहचानने की प्रक्रिया में लगे हुए हैं। लगातार काम करने वाले ऐसे चित्रकारों में उनकी गिनती है जो अपने लिए गंभीरतापूर्वक कोई स्पष्ट मार्ग तलाश करने की रचनात्मक ऊहापोह से गुजर रहे हैं। उनकी यह कोशिश ही इस बात के लिए हमंे प्रेरित करती है कि उनकी कला पर चर्चा की जाए। वह 1969 से काम कर रहे हैं और अब तक मूल रूप से उनकी दिलचस्पी का विषय रही है- तंत्र या ज्यामिति की कल्पनाएँ। गहरे रंग उन्हें सब से ज्यादा भाते हैं। वह एक वक्त में लाल, काले और हरे को खुल कर कैनवास पर लगाने वाले चित्रकार थे। सत्तर के आसपास के चित्रों में उनके यहाँ केवल हरे का सघन उपयोग था। सारे के सारे फलक पर हरापन मंडित हुआ करता था, जिस पर सफेद काले और दूसरे गहरे वर्णों से कुछ ‘साइकैडैलिक‘ सी मिलती जुलती काली-पट्टियों और लहरों वाले स्वतंत्र रूपाकार थे। शब्बीर के शुरूआत के काम में अधिकतर आँखों को अपील करने वाला ‘व्यावसायिक‘ ढंग का अमूर्तन था, जो कहीं-कहीं ‘डिजाइन‘ बन जाने के खतरे के बहुत करीब ही था। वह अपनी कृतियों में आकारों के प्रति इतने सावधान थे कि ज्यामितिक आकृतियों का कैनवास पर आयोजन एक हिचक भरे इस्तेमाल के साथ करते दीख पड़ते थे। उनकी बहुत सी प्रारंभिक कृतियों में एक खास तरह के रहस्य, उलझन और झिझक का भाव बना रहा था और कई बार लगता था कि उनकी चिन्ता, चित्र की अंदरूनी सृष्टि में कम और उसे आकर्षक रंग-संयोजन के साथ पूरा कर अपने दायित्व से ‘मुक्ति‘ पा लेने में ज्यादा है। पर टाइप बनते चित्रांकन और ज्यामिति या तंत्र जैसे पुराने विषयों के दोहरे खतरे से खेलते हुए शब्बीर ने एकदम नया और मौलिक न सही पर प्रांजल और आकर्षक लग सकने वाला काम कर कला में प्रवेश किया था।
उदयपुर-स्कूल के अनेक नौजवान चित्रकारों की ही भाँति शब्बीर ने भी शुरू शुरू में ज्यामिति को ले कर अपनी बात कहनी चाही थी। ज्यामिति के आकर्षण ने हालाँकि इन्हें अब भी अपने में बांध रखा है- पर इधर के काम में ज्यामिति के सन्दर्भ पुराने नहीं हैं- वे कदाचित परिवर्तित और परवर्धित हैं। उसकी जड़ता टूट रही है और अब वह चित्रों की दुनिया का ही हिस्सा नजर आती है।
शब्बीर की 1975 और आसपास के वर्षों की रचनाओं में (तंत्र-चित्रकला के नाम पर) काम और अध्यात्म के कुछ अति परिचित प्रतीक हैं- कमल, स्त्री-योनि, चन्द्र, नेत्र, अंधकार वगैरह जिनको ज्यामिति के अनुशासन में पिरोया गया है। इन चित्रों में शब्बीर ने यौन-प्रतीकों का उपयोग चित्र की अपनी कम्पोजिशन को बनाने या उसे बदलने में किया है। कभी-कभी इन्हें देख कर गुलाम रसूल सन्तोष के चित्रों के पुराने तंत्र की स्मृति ताजा हो आती थी। पर ये सब बातें एक बनते हुए चित्रकार के साथ आम तौर पर घटित होती ही हैं। शब्बीर हसन काजी के तांत्रिक-प्रतीकों को ले कर बनाए इन चित्रों में एक क्राफ्ट्समैन का कौशल सर्वत्र है। उनमें एक नियोजन और सधाव है। वह मेहनत से रंग लगाने के पक्षधर हैं। उनके इन चित्रों में रूपाकार पहले की अपेक्षा अधिक ठोस और आयताकार हैं। वे ज्यामितिक संरचनाओं में तेज रंगों के बीच स्थापित हैं। उनके बीच कहीं-कहीं प्रकाश और उजास की भूमिका है। इन्हें देख कर ऐसा लगता है जैसे कोई ठोस चीज धूसर और तरल हो रही हो। शब्बीर के इस दौर के काम में कोई स्पष्ट लौकिक-छवियाँ ढूंढ़ना ज्यादती ही होगी, पर कल्पना करें तो उनमें डैने फैलाए हुए पक्षियों या उड़ान भरते हवाई जहाजों की सी आकृतियाँ पहचानी जा सकती हैं। ‘हार्ड-ऐज‘ के ये साफ सुथरे हिस्से कहीं-कहीं बहुत काव्यात्मक हैं। उनमें उष्ण रंगों की उपस्थिति के बावजूद भी एक मार्मिक तरलता है। रंगों के फ्यूजन या रंगतें बनाने में शब्बीर हसन, मोहन शर्मा जैसे कलाकारों से पीछे जरूर हैं- पर वह भी इस बात की कोशिश में तल्लीन नजर आते हैं कि गहरे या मूल रंगों से खूब अच्छी तरह भरे कैनवास की स्थिरता या जड़ता में थोड़ी सी ‘हलचल‘ पैदा करने के लिए हल्की, किन्तु संवेदनशील गुलाबी या पीली रंगतें ‘उगी हुई‘ नजर आएं। ये रंगतें हमारे लिए किसी आकार लेते हुए उजाले की संकेतक हो सकती हैं, जो कम होते हुए भी अपनी तरफ हमारा ध्यान आकर्षित करने में सक्षम है। हरे और लाल के अलावा काले और बैंगनी में भी शब्बीर ने बहुत सा काम किया है।
इनके शुरू के काम में परिप्रेक्ष्य-चेतना उतनी मुखर नहीं है, पर बाद के दौर में वह इस कला-यथार्थ के बारे में भी सजग होने का आभास देने लगते हैं। शुरू के लोक-अलंकरण की सी सपाट अन्वितियों या काले सफेद चौखानों और पट्टियों के साइकैडैलिक इस्तेमाल के बाद उन्होंने चित्रों ने एक अलग करवट ली और वह काले के माध्यम से कोई रहस्य, विषाद या अंधकार खड़ा चाहते हैं। ‘कालापन‘ तो विद्यासागर जैसे चित्रकार में भी बहुत है, पर शब्बीर के चित्रों का अंधेरा बहुत रौमेन्टिक और रंगीन है। उनके चित्रों को देख कर ऐसा लगता है जैसे अंधेरे कमरे में कोई महताब जला रहा हो। उनकी चित्र शृंखला ‘शमाँ‘ में ऐसी ही अनुभूतियाँ मौजूद हैं।
कैनवास के अवकाश में इनके यहाँ रूपाकार जिस शैली में रचे गए थे वह देखना भी रोचक है। पहले वे पट्टियों या फर्श की सी छवियों के द्वारा किसी रह आपस में सम्बद्ध थे- बीच के कला दौर (1974-1980) में वे एक दूसरे से स्वतंत्र और निरपेक्ष रहे, अब फिर से वे कैलीग्राफी या लिपि-संकेतों के साथ आपस में संयुक्त हो रहे हैं। इनकी नई रचनाओं में दो विशेष प्रवृत्तियाँ हैं- एक तो यह कि यहाँ फारसी की कैलीग्राफी प्रविष्ट हो रही है और दूसरी यह कि अब रंगों का मिजाज बहुत कुछ बदला हुआ है। रंग उतने बोल्ड और सीधे नहीं है, वरन् उनमें एक घनी उदासी का संमिश्रण है। यह प्रक्रिया कुछ-कुछ ऐसी ही है, जैसे मंच की तेज रोशनी को बदलने के लिए नाट्यगृह में आर्कलैम्प के सामने जिलैटिन कागज लगा दिया जाता है।
शब्बीर में आए इस बदलाव को हम उने चित्रों के मिजाज की निरन्तरता में देख सकते हैं। परिवर्तन, कलाकार में एक खास मुहावरे में काम करने और उसकी सम्भावनाओं को उकेर लेने के बाद आना सहज और स्वाभाविक है। यहाँ भी परिवर्तन हालाँकि धीमा और क्रमबद्ध है और इसके पीछे चित्रों की यात्रा है, पर इसे सहज ही समझ जाना भी आसान है। खास तौर पर उनके लिए जो कभी शब्बीर को चटख ज्यामिति और ‘ऑप्टिकल इल्यूजन‘ पैदा करने वाले एक कलाकार के रूप में देखते और जानते आए हैं।
‘‘.....फारसी की यह कैलीग्राफी केवल कैलीग्राफी की तरह चित्रों में नहीं आई, पर इसके पीछे मेरे कुछ दूसरे अनुभव भी सम्बद्ध हैं। मैंने पिछले सालों में अध्यात्म की दुनिया को पहचानने की कोशिश की है। मैं एक ‘बन्दे‘ की तरह सूफी पीरों के जीवन-दर्शन और व्यक्तित्व को नजदीक से देखने जानने को उत्कंठित रहा हूँ‘‘.....शब्बीर कहते हैं। ‘‘पता नहीं अचानक जाने कैसे मुझे धर्म और अध्यात्म में गहरी रुचि पैदा हुई और इसी जुनून में मैं इस अरसे में सूफियों के सान्निध्य में रहा भी हूँ.....सूफीवाद की सारी ‘फीलिंग‘ ही अमूर्त है‘‘.....शब्बीर हसन का विचार है। वह अपने कुछ चित्रों में इसी ‘बोध‘ के निकटतर जा रहे प्रतीत होते हैं। हरा रंग तो पहले से ही इनकी रचनाओं में इस्लामी धार्मिक सम्वेदना के रूप में उपस्थित रहा है, परन्तु अपनी एक चित्र श्रृंखला में भी वह हरे और काले को वह अपनी पूरी दमक और मौलिकता में प्रयुक्त करते थे, अब रंगों की चमक को धीरे-धीरे कम करके वह अपने कथानक की गहराई के नजदीक ले जा रहे हैं। अंधेरा, इनके अनुसार, चित्रों में सृष्टि या ‘अज्ञान‘ का प्रतीक है, जिसमें ही दिव्य रोशनी (डिवाइन लाइट) छिपी है। ‘‘मेरी रचनाओं का काला रंग नेगेटिव नहीं है, बल्कि उसमें भी जीवन है।‘‘ शब्बीर का विचार है कि शुद्ध ज्यामिति में काम करने पर भी उन्हें वह लुत्फ नहीं आया जो आनंद धार्मिक या ‘सूफी‘ सम्वेदना को ले कर बनाए गए नए चित्रों में था। ज्यामिति की सीमाओं से परिचित होने के बाद अब शब्बीर में उसे उस पुराने अर्थ में प्रयुक्त करने का उत्साह नहीं है और वह काफी मुक्त रूपाकारों को अपने कैनवासों पर ला रहे हैं।
ऐसे ही चित्रों की अगली सीढ़ी के रूप में अब शब्बीर ने शायद एक बार फिर से प्रकृति के प्रति अपनी दिलचस्पी प्रकट करते हुए वृक्षों, फूलों और ऐसे ही दूसरे आकारों को चित्रित करना प्रारम्भ किया है। यदि इन चित्रों का विषय प्रकृति है, तो इनकी अभिव्यक्ति के लिए यहाँ वह ज्यामितिक और स्वतंत्र रूपाकारों के संयोजन की कोशिश करते हैं। पूर्व में रचे गए अपने आध्यात्मिक विषयों की ही तरह यहाँ ज्यामिति के प्रति उनके शुरू के आग्रह हालाँकि कमजोर पड़े हैं, पर ज्यामिति से वह पूरी तरह मुक्त नहीं हुए। प्रकृति को लेकर तैयार इस कैनवासों में आधार-रंगों के साथ ज्यामितिक आकृतियाँ भी बदस्तूर दिखलाई पड़ती हैं। कैनवास में ये ज्यामितिक आकार, मुख्य रंगभूमि के लिए बस एक आधार ही हैं, ज्यामिति की सुन्दरता को खोजना इनका मंतव्य नहीं है। यहाँ रंगों का गहरा आलेप है, किन्तु एक कौशल के साथ। शब्बीर हसन के इन चित्रों में हम देखते हैं काले, हरे, लाल, नीले और इसी तरह के कुछ गरम रंग, जिनकी खूबी, एक सधी हुई पृष्ठभूमि तैयार करने और फिर उस पर अपने कथानक को उपयुक्त जगह देने के सन्दर्भ में महत्त्वपूर्ण है। ऐसा लगता है कि वह निरन्तर मूल रंगों से ही काम लेना चाहते हैं। इन चित्रों में आकृति का अंकन नियोजित और सधा हुआ है। शब्बीर के बनाए फूल या वृक्ष जिस रंग-लोक का हिस्सा हैं, वह सम्भवतः प्रत्यक्ष में दिखलाई नहीं दे सकते। ऐसा लग सकता है हम किसी अंधेरे स्वप्न या अधखुली नींद में इन फूलों को देख रहे हैं।
यह एक उल्लेखनीय परिवर्तन है और इनके कैनवासों में अब एक नए पड़ाव की अनुगूंज सुनाई पड़ रही है। मानव आकृतियों के खंडित बिम्ब उनके हाल के काम में आये हैं। आकर्षक रंग-प्रयोग और तकनीक में सिद्धि इनकी उल्लेखनीय विशेषताएँ हैं, जिसके सहारे हम शब्बीर हसन काजी जैसे चित्रकारों से और गहरी आशाएँ रख सकते हैं।
आकारों का अमर-बेल में बदल जाना
साहित्य की तरह कला के लिए आंचलिकता भी एक बड़ी प्रेरणा है। शायद इसलिए कि लोक जीवन में ही अपना सुदूरतम अतीत ढूंढ़ सकते हैं। हमारे नगर-चेतना के पेड़ की आदिम जड़ें अंततः गाँवों में ही हैं, इसलिए भवानीशंकर शर्मा (जन्म 1945, वनस्थली) के चित्रों और रेखांकनों में हमें घूम फिर कर किसी न किसी रूप में ग्राम्य-संसार के दृश्यों से साक्षात्कार करना पड़ता है तो यह कोई अस्वाभाविक घटना नहीं।
वह हमारे लिए अदल-बदल कर राजस्थान के गाँव की दृश्यावली के बिम्ब लाते हैं। ये बिम्ब हो सकते हैं: मोरों के, झोंपड़ियों के, उनके अलंकृत दरवाजों के, बाड़ों के और खपरैलों के, आलों, खिड़कियों और वृक्षों के। पिछले कुछ वर्षों से भवानीशंकर ‘गाँव‘ के प्रति एक रचनाशील संवेग से जुड़े हुए हैं- उसका चित्रात्मक सरलीकरण करते हुए वह हमें कम से कम रंगों में (अधिकतर स्याही में) आंचलिक दृश्यों की सर्वव्यापकता में ले जाने का आग्रह करते हैं।
वह कैनवास पर सीधे काली स्याही से रेखांकन करते हैं। अपेक्षाकृत बड़े आकार में पेन्ट किए सफेद कैनवास की स्पेस को वह स्याही के सक्रिय रेखांकन से भरते हैं। यहाँ वनस्पति या उलझी हुई ठेठ बेलों और वृक्षावलियों की मौजूदगी तो है ही, जो दृश्य के निर्माण में भागीदार हैं, झोंपड़ियों और तप्त भू-खण्डों के प्रति कलाकर्मी के इशारे भी हैं: ग्रामीण दृश्यों की एक तरल अभिव्यक्ति, जो कुछ पहचान में आ सकने वाले सुज्ञात प्रतीकों से मिल कर बनी है।
ग्राम्य-सृष्टि को ही ले कर चित्रांकन करने वाले दूसरे परिचित वरिष्ठ कलाकार उदयपुर के पी.एन.चोयल से भवानी शंकर के चित्र-अभिप्राय बहुत कुछ अलग हैं। पी.एन.चोयल की आंचलिक दुनिया में झोंपड़ियों, पुरानी बरसातों से पसीजी हुई दीवारों, पेड़ों और दरवाजों के रूपाकार आपस में घुल मिल कर एक विचित्र रंगमय धुंधलके में ठहर गए से लगते हैं। वे कहीं ठहरे हुए भी, पिघलते और बहते हुए दीख पड़ते हैं। उनमें एक टैक्सचरपूर्ण आर्द्रता है, किन्तु भवानीशंकर उतने प्रतीकात्मक और धुंधमय नहीं। वह बहुत कम रेखाओं में सीधे-सीधे हमें आंचलिक-जीवन का बोध कराना चाहते हैं।
भवानीशंकर ने ग्राफिक छापे भी तैयार किए हैं जिनमें अधिकांशतः मोरों का अध्ययन है। 1970 और आसपास के सालों में निर्मित इन छापों में हम चीजों को बिल्कुल वैसा नहीं देखते जैसी वे हैं, बल्कि उनकी व्यक्तिगत रचना-दृष्टि के माध्यम से बाहर आते-आते वे हमें किंचित बदली सी नजर आती हैं। लेकिन उस सीमा तक भी नहीं कि वे हमें बेगानी या अजनबी लगने लगें। सीमित विरूपण के साथ इन छापों में मोरों और मुर्गों की आकृतियाँ, उनकी गति और विभिन्न मुद्राएँ हैं। वनस्थली में, जहाँ वह रहते और काम करते रहे थे-मोर बहुत हैं। मोर, वनस्थली विद्यापीठ की आश्रम संस्कृति का अंग रहे हैं। रेखांकनों में भावानी शंकर मोरों की हर एक ’अदा’ को पकड़ने की कोशिश करते हैं। वह नाचते, थिरकते, प्रेम करते, लड़ते और चलते हुए मोरों की मुद्राएं अंकित करते हैं। मोरों का उनका अध्ययन कुछ अर्थों में उनके पिता-चित्रकार देवकीनन्दन शर्मा (१९१९ - २००५) से किंचित भिन्न है। इन रचनाओं में वह गैर-परम्परागत अंदाज में अपने कला-गुरु और पिता से भिन्न, मोरों के चाक-चौबन्द, उड़ान के लिए तत्पर या कुत्ते के हमले से आहत स्वरूप को यथासंभव कम और अर्थजनक रेखाओं में व्यक्त करते हैं। इन रचनाओं में बड़े उन्मुक्त ढंग से, ऐचिंग, ऑफसैट, लिथोग्राफ या वुडकट तकनीकों में मोर की गतिमान आकृति का अमूर्त चित्रण किया गया है। रेखाओं में तेजी और तकनीक की सादगी इन छापों की विषेषताएँ कही जा सकती हैं।
1975 और उसके बाद भवानीशंकर की कृतियों में एक उल्लेखनीय बदलाव देखा जा सकता है। वह यह कि उनकी दिलचस्पी में न केवल कुछ और विषय दाखिल हुए हैं, अपितु इस दौर में ग्राफिक के अलावा भी वह तैलरंगों को भी अपनी चित्राभिव्यक्ति का माध्यम बनाते हैं। हालाँकि उनके इस काल की रचनाओं में भी मोर की उपस्थिति यदा-कदा बरकरार है, किन्तु वह इसके अलावा राजस्थान के जन-जीवन, मेलों-ठेलों और आंचलिक दुनिया के रंगों की छटा और उजास भी लाते हैं।
उनके इस दौर के चित्रों की एक गौरतलब खासियत है-चित्रावकाश का उपयोग। भवानीशंकर पूरे फलक पर घटाटोप रचना नहीं करते। वह उसके एक भाग को प्रेक्षक की कल्पना के लिए अधूरा सा भी छोड़ते हैं। कैनवास का यह खालीपन कोई खालीपन नहीं, पर इसके भीतर भी एक अदृष्य रचना-लोक मौजूद है, जो सामने दिखलाई देने वाले मूर्त का ही प्रसार या विस्तार है। हम खाली जगह के भीतर भी छिपे हुए दृष्यों को अनुभूत कर सकते हैं। जैसे राजस्थान के मेलों से सम्बद्ध चित्रों में उनके लिए मानवाकृतियाँ असल में केवल रंग-बोध ही रह गई हैं। वहाँ मेले में जमा भीड़ थोड़े से लाल नीले पीले और काले रंग-धब्बों के जरिए उपजाई गई है। किसी नदी-तट पर जुड़े मेले में सबसे पीछे खड़े हो कर जैसे कोई छायाकार समूचे दृश्य को 'वाइड ऐंगल' से देखता हो, वैसे ही वह 'दूरियों' का संकेत देते राजस्थान के मेलों की स्फीत छवियाँ रचना चाहते हैं। ऐसे कुछ चित्रों में कैनवास का पूरा हिस्सा उपयोग में नहीं लाया गया, किन्तु ’निर्वात’ में भी कुछ ’होने’ का भाव सन्निहित है। इनके चित्रावकाष की यह एक रचनात्मक पूंजी है।
विगत अरसे में भवानीशंकर शर्मा ने एक और शृंखला पर काम आरंभ किया था, जिसमें वह आज भी रचनाएँ कर रहे हैं। यहाँ वह दो विपरीत कही जानी वाली संवेदनाओं का संयोजन उपस्थित करते हैं। प्रकृति, जैसा हमने पहले कहा, आधुनिक चित्रकारों के निकट एक बहुत अर्थपूर्ण सरोकार है। भवानीशंकर भी वनस्पति या प्रकृति की अपनी संरचनाओं से स्फूर्ति ग्रहण करते हैं। जैसे जंगल की बेलों और मुक्त टहनियों को विशाल और कठोर शिलाखंड आगे बढ़ने से नहीं रोक पाते, वैसे ही ‘हार्ड ऐज‘ की ठोस जड़ता को भीतर से तोड़ कर बाहर जाती हुई गतिमान वनस्पति चित्रों में अपनी उपस्थिति लगातार दर्ज करती है।
काले ठोस ज्यामितिक ब्लॉक इनके यहाँ ‘मैटर‘ या भौतिक वस्तुजगत का प्रतीक हैं, जिनके मध्य दरारों से अदम्य जीवन का प्रतीक वनस्पति खुद-ब-खुद कोई आकार ले रही है। वनस्पति इस जगह चेतना या ‘कॉन्शसनैस‘ को ही बिम्बित करती है। एक ऐसी गतिमान चेतना, जिसकी निरन्तरता और सामर्थ्य इसी में सन्निहित है कि वह अपनी जिजिविषा को बरकरार रख सके, समस्त अवरोधों के बावजूद! इस शृंखला के चित्र मिश्रित-माध्यम में हैं जिनमें कैनवास पर स्याही और तैलरंगों का मिला-जुला इस्तेमाल है।
कैनवास के एक भाग में, वह जहाँ सधे कौशल से अधिकतर स्याही रेखांकन के सहारे वनस्पति की बुनावट का अंकन करते हैं, वहीं सीधे ब्रश से उस पर अनगढ़ और गहरे रंग आघात लगाते हैं। इससे रचना का परम्परागत रोमैन्टिसिज्म टूटता है वहीं यह बात रचना के दो भिन्न ध्रुवों को एक साथ सामने रखने की कोशिश भी है।
इन रचनाओं में भवानीशंकर मानव-आकृतियों के प्रति उतने आग्रहशील नहीं, किन्तु प्रयास करने पर प्रेक्षक उनके रूपाकारों में चारों ओर से घिरे हुए आदमी की छवियाँ पक्षी जैसी आकृतियाँ और वृक्षों के बिम्ब खोज सकता है। लघुचित्र में की गई कारीगरी की ही तरह वह बहुधा कैनवास पर काली स्याही से रेखांकन रचते हैं। सघन और उलझी हुई अमरबेलें जैसे एक दूसरे में गुथीं समूचे वृक्ष की सत्ता पर छा जाना चाहती हैं, वैसे ही इनके चित्रों में लताएँ और वृक्षों की डालियाँ गतिमान हो कर अग्रसर होती सी जान पड़ती हैं। वह अधिकतर अपने रूपाकारों को पल्लवित करने में ही तल्लीन दिखलाई पड़ते हैं। इसलिए उनकी इस सीरीज़ का शीर्षक अगर ‘फ्लावरिंग ऑफ फॉर्म‘ है तो यह असंगत नहीं।
‘‘प्रकृति में मिलने वाले रूपाकारों से मैं अपनी बात शुरू करता हूँ। रचना की अन्दरूनी जरूरत के अनुसार रूपाकार बदलते हैं। मैं भी चित्र-सम्वेदना के अनुरूप इनका सरलीकरण या अमूर्तीकरण करता हूँ..... ‘‘ भवानी शंकर कहते हैं।
गांव, धूप, जंगल और मौसम
यहाँ समकालीन कला-प्रवृत्तियों को रेखांकित करते हुए ऐसे चित्रकारों की चर्चा भी शायद अप्रासंगिक न हो, जो प्रभाववादी सैरों और प्राकृतिक दृश्यचित्रों के सर्जक हैं। वाश-तकनीक में स्व. मोनी सान्याल, स्व. सुरेश राजोरिया, राम जैसवाल, ओ. पी. अग्रवाल, राजीव गर्ग रघुनाथ और प्रदीप वर्मा आदि प्रकृति के अलग-अलग मूड्स और उसकी संवेदनशीलता को प्रभाववादी ढंग से पकड़ते रहे हैं जिनके यहाँ दृश्यात्मक बिम्बों की उपलब्धता है। 'मोनी सान्याल ((1912-1989)) भी वरिष्ठ पीढ़ी के ऐसे ही असाधारण चित्रकार हुए हैं, जिनकी रचनाओं में धरती, वृक्षावलियाँ, ऋतुओं के मिजाज और कार्यरत स्त्रियों का कमनीय, किन्तु अत्यन्त मनोहर चित्रण मिलता है।
स्व. सुरेश राजोरिया रेखांकनों और जलरंगों में वृक्षों, बादलों, चट्टानों, घास और बरसात के सरलीकृत बिम्ब पैदा करते थे। उनकी कृतियों में कहीं भूरे पहाड़ हैं, तो कहीं हरे-भरे खेत, कहीं बहते हुए झरने, कहीं गहरे जंगल और कहीं धूप के पीले धब्बे! झोपड़ियों, कार्यशील ग्राम्याओं, कस्बे की कम चहल-पहल वाली गलियों और मार्च में पत्ते झरा कर उदास खड़े पेड़ों को राजोरिया ने अपनी ग्राम्य-गंध के सहारे कागज पर उतारने की सफल कोशिश की।
कथाकार-चित्रकार राम जैसवाल (1937) के जलरंग-चित्रों में (बंगाल शैली के प्रभाव के साथ) प्रकृति के भिन्न-भिन्न स्वरूप आकार ग्रहण करते हैं। लेखन, खास तौर पर कहानी के क्षेत्र में वह पांच कहानी संग्रहों और एक कविता-संग्रह के लेखक हैं। अपने आरम्भिक शिक्षक दौर में वह पहले मेरठ गए, बाद में लखनऊ के कॉलेज ऑफ आर्ट में अध्यापन से जुड़ गये। 1964 में वह राजस्थान में स्नात्कोत्तर स्तर पर कला का अध्यापन शुरू होने के बाद दयानन्द कॉलेज, अजमेर में प्राध्यापक पद पर आ गए और तब इन्होंने यहां आ कर मौसमों, वृक्षावलियों, स्थानीय पहाड़ों, घरों, जानवरों, बाजारों, गलियों और रोजमर्रा के दृश्यों का वाश-शैली में चित्रण किया। उन्होंने न केवल भारतीय देवी-देवताओं को ही रंगों में उतारा, पर जयशंकर ‘प्रसाद‘ की कुछ कविताओं पर आधारित कल्पनाशील चित्र भी बनाये। अपने व्यक्तिचित्रों को लेकर इन्हें कला-जगत में खास जगह और पहचान मिली। अजमेर में जैसवाल ने जलरंग चित्रण की बहुत सी बारीकियों का स्पर्श करते हुए कई सैरे और पोर्टेट रचे, किन्तु राम जैसवाल की प्रतिभा पर परम्परागत बंगाल और लखनऊ घरानों के अंकन का प्रभाव ही ज्यादा मुखर रहा। वह हमेशा से एक सुन्दर फलक दर्शक को उपलब्ध कराने के लिए सचेत रहे हैं, भले ही कथित आधुनिकता के नाम पर उन्होंने ‘स्ट्रीट सिंगर्स‘ या ‘नीतिज्ञ‘ जैसे कुछ एक चित्र भी बनाए हों।
स्मृतियाँ, शहर और भवन-भूगोल
परम्परा का नये सन्दर्भों एवं मायनों में रूपान्तरण, यहाँ की वर्तमान कला-प्रवृत्तियों की एक उल्लेखनीय विशेषता है। इस खूबी को शैल चोयल (1945) के चित्रों में भी देखा जा सकता है। रूढ़ वर्गीकरण करना चाहें तो उनकी कृतियों में हमें मेवाड़ शैली का सर्जनात्मक रूपान्तरण देखने को मिल जाता है। वह परम्परागत कलम के भवन-शिल्पों, वनस्पति एवं उनकी आन्तरिकता को (और जरूरत पड़ने पर तो पात्रों को भी) अपने यहाँ उतार लेना चाहते रहे हैं। इन्होंने आरम्भ से ही मिनिएचरों की प्रचलित और दृश्यावली के प्रति एक स्थाई-अनुराग विकसित करते हुए आँखों को अच्छा लगने सकने वाला ऐसा काम किया है, जिसे हम परम्परा के ‘इस्तेमाल‘ के रूप में और भी चित्रकारों (मसलन सुमहेन्द्र, चरन शर्मा, प्रभा शाह, किरण मुर्डिया, लाल चंद मारोठिया वगैरह) में भी देख सकते हैं।
इनके काम में जो आकर्षक रंग-योजना एवं संयोजन-क्षमता है, उसका सबब यह है कि शैल ने परम्परा को एक सीढ़ी की तरह इस्तेमाल किया है। शैल चोयल के चित्रों की विशेषता और कमजोरी दोनों यह है कि वह भी मिनिएचर शैली के पारम्परिक चितेरों ही की तरह हमें बस घूम-फिर कर एक ‘स्थूल‘ चाक्षुष सुख से ही आबद्ध करना चाहते हैं। चाहे वह (सुमेहन्द्र की तरह) परम्परागत चित्रांकन में व्यावसायिक तौर पर उतने निरत कलाकार न भी हों, शैल चोयल लघुचित्रों की सी कमनीयता, ऐंद्रिक आकर्षण और विषयबद्धता के आधार पर हमें अधिकतर अपने नव-व्यावसायिक तकाजों तक ले जाते हैं।
जैसा कि हमने पहले कहा, इनके चित्रों की अनिवार्य शर्त है- दृश्यात्मकता। वे चाहे नायक-नायिका के अभिसार-क्षण हों या उनके शयन-कक्ष की अन्तरंगताएँ; शैल चोयल अपने चित्रों में अक्सर एक प्रशस्त, पर कथानक भरे एकांत की सर्जना करने वाले कलाकार के रूप में सामने आते हैं। यह स्व. मोहन शर्मा जैसे चित्रकारों की महानगरीय शिल्प-रचनाओं में आया सन्नाटा या प्रभा शाह के मध्यकालीन महलों का तरल एकांत नहीं, बल्कि शैल चोयल के यहाँ अन्तरंग सन्नाटा, मेवाड़ी खिड़कियों और झरोखों की कमनीयता, राजमहलों की पारभासकता और हरी-सघन वनस्पति से मिल कर बना है, जो हम लघुचित्र परम्परा में भी बराबर देखते आए हैं।
वह अपने तैलचित्रों एवं ग्राफिक छापों में झरोखों, सीढ़ियों, मुंडेरों और फर्शों की दर्शनीयता को सुरक्षित रखते हुए हमें अक्सर एक रंग-बिरंगी ‘नव-सामन्ती‘ दुनिया सौंप देना चाहते हैं। उनकी रचनाएँ देख कर बहुधा ऐसा लगता है, जैसे वह परिप्रेक्ष्य की अदला-बदली से दृश्यों के भीतर छिपे हुए दृश्य हमारे लिए खोज कर लाना चाहते हों। परिभाषा के अर्थ में वह केवल सैरों या दृश्यांकनों के ही चित्रकार नहीं हैं, पर कैनवास पर पर्वतों, वृक्षों और वनस्पतियों की कमनीयता प्रकट करते हुए शैल चोयल परम्परागत मेवाड़ी भवनों, राजपूत छतरियों और अलंकृत द्वार-पाटों का प्रचुरता से अंकन करते हैं।
लगभग इसी विषयवस्तु के आसपास प्रभा शाह के तैलचित्र प्रेक्षक के लिए लाते हैं- गरिमामय गुम्बजों, छतरियों और नफीस राजमहलों के बिम्ब! ज्यामिति का कल्पनापूर्ण उपयोग प्रभा शाह में है। एक या दो रंगों की रंगतों का अधिकाधिक प्रयोग करते हुए वह रचती हैं- राजस्थान, जो अपने शिल्प, ठेठपन और स्थापत्य के लिहाज से अप्रतिम है। कहीं न कहीं उदयपुर उनके गहरे अचेतन में जरूर छिपा है। वह केवल तैलरंगों में, राजस्थान की परम्परागत छतरियों, महलों और भवनों के बिम्ब उभारती हैं। प्रभा शाह के चित्रों में रंगतों में खोए प्रासाद और भवन, प्रशांत और स्तब्ध हैं। इधर कुछ सालों से उनका कोई काम प्रदर्शन में नहीं दिखा है।
उदयपुर ने एक चित्रोपम शहर के बतौर बहुतेरे चित्रकारों को चित्र-रचना की प्रेरणा दी है। किरण मुर्डिया भी परमानन्द चोयल, छोटूलाल, प्रभा शाह, शैल चोयल, आभा मुर्डिया, चरन शर्मा, हेमंत चित्रकार और कई अन्यों की तरह ही अपने पैतृक-शहर उदयपुर के 'भवन-भूगोल' से प्रभावित हैं, पर उल्लेखनीय बात यह है कि इनमें से हर चित्रकार का अंकन-नजरिया एक-दूसरे से भिन्न है। कहने को तो किरण मुर्डिया के चित्रों में भी मेवाड़ी पर्वतमालाओं, रास्तों, पेड़ों और महलों की मौजूदगी है, पर किरण की संवेदना उतनी 'सरल' नहीं। चित्रों में किरण मुर्डिया बहुत कुछ अनौपचारिक, रचावपूर्ण एवं देशज हैं। पर्वतों-खण्डों और उन पर बसे हुए धवल-भवनों, आपस में गुंथे हुए पेड़-पौधों एवं दृश्यावली के चित्रण में वह छोटूलाल, शैल चोयल या प्रभा शाह और अन्यों से सघन, ठसाठस, आधुनिक अलंकृति से युक्त व भिन्न हैं।
इसी तरह उदयपुर को लेकर शैल चोयल जितने साफगो तो नहीं, पर हाँ, पुरानी पीढ़ी के बहुत कलात्मक और संवेदनशील चित्रकारों में हैं, इनके कलाकार पिता पी.एन.चोयल (1924)। शैल चोयल के चित्रों में में जितनी व्यवसायिक-सजावट है, उसके विपरीत इनके चित्रकार पिता पी.एन. चोयल की 1970 और उसके बाद की रचनाओं में, आकारों को रंगमय-तरलता के सहारे धूमिल करने का उपक्रम।
राजस्थान के बाहर रह कर यहाँ जन्मे जो चित्रकार रचनारत रहे हैं, उनमें नारायण आचार्य, प्रभा शाह, सपना शर्मा, पी. मनसाराम (कनाडा), चिंतन उपाध्याय, चरन शर्मा (मुम्बई) और केवल साइबर माध्यम में ही आधुनिक शैली के चित्रांकन कर रहे परिजात देवर्षि (दिल्ली) आदि प्रमुख हैं।
'पी. मनसाराम भी राजस्थान में जन्मे और पले ऐसे प्रतिभावान और जाने-माने चित्रकारों में हैं, जिन पर समकालीन कला-जगत में काफी कुछ कहा गया है। कोलाज, ज्यामिति, मूर्तिशिल्प, छायांकन और रचनात्मक लेखन, कई क्षेत्रों में पी. मनसाराम ने विशिष्ट काम कर अपनी जगह निर्मित की है। मनसाराम ने केवल कैनवास पर रंगों का आमफहम इस्तेमाल कर लेने से ही संतोष नहीं किया, उन्होंने अपने चित्रकार को दूसरे माध्यमों के भीतर भी गहराई से झांकने का मौका दिया। यह देखना दिलचस्प है कि उन्होंने कुछ बरस पहले अपने जन्मस्थान-माउण्ट आबू में एक स्थाई सुविधासम्पन्न कार्यशाला चित्रकार-आवास के तौर पर शुरू की है। पांचाल मनसाराम ने रंगों, फोटोग्राफी, ग्राफिक, कम्प्यूटर और फोटोकॉपी मशीन के मिले-जुले उपयोग से भारत को लेकर बेहतरीन रचनाएं देश-विदेशों में प्रदर्शित कीं। माउण्ट आबू के अरावली पहाड़ों, मुम्बई की भीड़भाड़, बनारस की गंगा आदि के अलावा हिन्दुस्तान की आम छवियों को उन्होंने बेहद कौशल और कल्पना से साकार किया है।
मनसाराम ने अपनी कलाकर्मी पत्नी तरुणिका के सहयोग से अरावली की विशाल चट्टानों पर विभिन्न रंगों से चित्रकारी करके माउंट आबू में बने अपने घर ‘मीत‘ को बहुत दूर से ही एक कलाकृति की तरह देखे जा सकने लायक जगह में तब्दील कर दिया है। हर साल वह अपने वतन आते हैं और अपने आप को समकालीन भारतीय कला की नवीनतम गतिविधियों से जुडे़ रखने के लिए लम्बी-लम्बी यात्राएं करते हैं।
नारायण आचार्य ने ग्राफिक छापे और अन्यों ने तैलचित्र बनाए हैं तो पी. मनसाराम की कला-सृष्टि अपेक्षाकृत व्यापक है। नारायण आचार्य (दिल्ली) का योगदान ग्राफिक माध्यम को अपनी अभिव्यक्ति के लिए चयनित करने के लिए महत्वपूर्ण कहा जा सकता है, क्योंकि जब उन्होंने इस माध्यम को ग्रहण किया था, तब यह उतना ‘लोकप्रिय‘ नहीं था।
चरन शर्मा ने अपनी प्रारंभिक कृतियों में स्याही और दूसरे मिश्रित माध्यमों का उपयोग किया पर अपने बाद के कला-दौर में वह बहुत बड़े आकार के ऐक्रेलिक रंगों में संयोजित राजस्थान के शिल्प की बहुत सी रोचक-स्मृतियाँ ले कर उपस्थित दिखते हैं। चरन शर्मा को हम उनके नवीनतम काम में अपने शहर की भवन-स्मृतियों से निरन्तर जुड़ा हुआ कुछ उस तरह नहीं देखते जिस तरह यह बात प्रभा शाह और शैल चोयल की रचनाओं में है। चरन की अर्धांगिनी निमिषा शर्मा एक बहुत सक्षम आधुनिक कलाकर्मी हैं।
चरन शर्मा के तमाम प्रारम्भिक रेखाकंनों और तैलचित्रों में भी सांकेतिक तौर पर नाथद्वारा उपस्थित था। आसपास की दुनिया चित्रकार की संवेदना का अटूट हिस्सा हो- यह बात सहज और स्वाभाविक है और इसी से हम चरन शर्मा के प्रारम्भिक काम में मेवाड़ी-बावड़ियों, कुण्डों और ठसाठस बसे मकानात देख सकते हैं। ठीक वैसे ही जैसे भवानीशंकर के चित्रों में राजस्थानी मेले-ठेले या वनस्थली के मोर।
चरन शर्मा के प्रारम्भिक काम में राजस्थान की बहुत सी स्मृतियां हैं। चरन शर्मा प्रारम्भ में रेखांकन और जलरंगों में कार्य करते थे, बाद में वह तैलरंगों और ऐक्रेलिक माध्यम में उतरे। अपने बाद के काम में चरन ने गौतम बुद्ध की तपस्वी छवियों को एक विलक्षण गहराई से मूर्त किया है। राजस्थान मूल की अपनी चित्रकार पत्नी निमिषा शर्मा के साथ वह कई दशकों से मुम्बई में रह कर अब विशाल आकार के कैनवास बना रहे हैं, जो फोटोग्राफी के उनके अनुभवों का रचनाशील रूपांतरण भी हैं और विषय के तौर पर, राजस्थान की दुनिया के स्थूल यथार्थ से आगे जाने की उनकी प्रतिज्ञा भी।
मुम्बई में रहते राज्य के युवतर चित्रकारों में चिंतन उपाध्याय का काम और नाम बहुचर्चित है। वह अपने हर पुराने काम को बदल कर नया रचना चाहते हैं। औपचारिकता और नवोन्मेष की दिशा में उनके चित्र और इंस्टालेशन अन्यों से अलग हैं। टेंटुआ दबा दो नामक इंस्टालेशन-सिरीज़ में चिंतन ने बालिका-भ्रूण हत्या की ठेठ हिन्दुस्तानी गलित मानसिकता पर ध्यानाकर्षक टिप्पणी की थी।