राजनीति विज्ञान

मुक्त ज्ञानकोश विकिपीडिया से
(राजनीति-विज्ञान से अनुप्रेषित)
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ
The printable version is no longer supported and may have rendering errors. Please update your browser bookmarks and please use the default browser print function instead.

राजनीतिशास्त्र वह विज्ञान है जो मानव के एक राजनीतिक और सामाजिक प्राणी होने के नाते उससे सम्बन्धित राज्य और सरकार दोनों संस्थाओं का अध्ययन करता है।।[१]

राजनीति विज्ञान अध्ययन का एक विस्तृत विषय या क्षेत्र है। राजनीति विज्ञान में ये तमाम बातें शामिल हैं: राजनीतिक चिन्तन, राजनीतिक सिद्धान्त, राजनीतिक दर्शन, राजनीतिक विचारधारा, संस्थागत या संरचनागत ढाँचा, तुलनात्मक राजनीति, लोक प्रशासन, अन्तरराष्ट्रीय विधान और संगठन आदि।

परिचय

राजनीति विज्ञान का उद्भव अत्यन्त प्राचीन है। यूनानी विचारक अरस्तू को राजनीति विज्ञान का पितामह कहा जाता है। यूनानी चिन्तन में प्लेटो का आदर्शवाद एवं अरस्तू का बुद्धिवाद समाहित है|

राजनीतिशास्त्र या राजनीति विज्ञान अत्यन्त प्राचीन विषय है। प्रारंभ में इसे स्वतंत्र विषय के रूप में नहीं स्वीकारा गया। राजनीति विज्ञान का अध्ययन नीतिशास्त्र, दर्शनशास्त्र, इतिहास, एवं विधिशास्त्र आदि की अवधारणाओं के आधार पर ही करने की परम्परा थी। आधुनिक समय में इसे न केवल स्वतंत्र विषय के रूप में स्वीकारा गया अपितु सामाजिक विज्ञानों के सन्दर्भों में इसका पर्याप्त विकास भी हुआ। राजनीति विज्ञान का अध्ययन आज के सन्दर्भ में पहले की अपेक्षा एक ओर जहां अत्यधिक महत्वपूर्ण है वहीं दूसरी ओर वह अत्यन्त जटिल भी है।

राजनीति विज्ञान का महत्व इस तथ्य से प्रकट होता है कि आज राजनीतिक प्रक्रिया का अध्ययन राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय-दोनों प्रकार की राजनीति को समझने के लिये आवश्यक है। प्रक्रिया के अध्ययन से ही वास्तविक राजनीति एवं उनके भीतर अवस्थित तथ्यों का ज्ञान संभव है।

राजनीति विज्ञान की जटिलता उनके अतिव्यापी रूप व उनसे उत्पन्न स्वरूप एवं प्रकृति से जुड़ी हुई है। आज राजनीति विज्ञान ’राजनीतिक’ व गैर राजनीतिक दोनों प्रकार के तत्वों से सम्बंधित है। राजनीतिक तत्व प्रत्यक्ष रूप से राजनीतिक प्रक्रिया को संचालित करते है और इस दृष्टि से राजनीति विज्ञान के अन्तर्गत राज्य सरकार, सरकारी संस्थाओं, चुनाव प्रणाली व राजनीतिक व्यवहार का अध्ययन किया जाता है। गैर राजनीतिक तत्व अप्रत्यक्ष रूप से राजनीतिक प्रक्रिया को चलाने में योगदान देते हैं और इस कारण राजनीति की सही समझ इनको समन्वित करके ही प्राप्त की जा सकती है। इसी उद्धेश्य से राजनीतिक अध्ययन में समाज, अर्थव्यवस्था, धर्म, संस्कृति, भूगोल, विज्ञान व तकनीकी, मनोविज्ञान व इतिहास जैसे सहयोगी तत्वों को पर्याप्त महत्व दिया जाता है।

यूनानी विचारकों के समय से लेकर आधुनिक काल तक के विभिन्न चिन्तकों, सिद्धान्तवेत्ताओं और विश्लेषकों के योगदानों से राजनीति विज्ञान के रूप, अध्ययन सामग्री एवं उसकी परम्पराएँ समय-समय पर परिवर्तित होती रही हैं। तद्नुरूप इस विषय का निरन्तर विकास होता रहा हैं। इस विकासक्रम में राजनीति विज्ञान के अध्ययन के सम्बन्ध में दो प्रमुख दृष्टिकोणों का उदय हुआ है : परम्परागत दृष्टिकोण एवं आधुनिक दृष्टिकोण। पारम्परिक या परम्परागत दृष्टिकोण राज्य-प्रधानता का परिचय देता है जबकि आधुनिक दृष्टिकोण प्रक्रिया-प्रधानता का।

YouTube per search anup highlight

राजनीति विज्ञान का परम्परागत दृष्टिकोण

ईसा पूर्व छठी सदी से 20वीं सदी में लगभग द्वितीय महायुद्ध से पूर्व तक जिस राजनीतिक दृष्टिकोण (political approach) का प्रचलन रहा है, उसे अध्ययन सुविधा की दृष्टि से 'परम्परागत राजनीतिक दृष्टिकोण' कहा जाता है। इसे आदर्शवादी या शास्त्रीय दृष्टिकोण भी कहा जाता है।

परम्परागत राजनीतिक सिद्धान्त के निर्माण व विकास में अनेक राजनीतिक विचारकों का योगदान रहा है यथा- प्लेटो, अरस्तू, सिसरो, सन्त अगस्टीन, एक्विनास, लॉक, रूसो, मॉण्टेस्क्यू, कान्ट, हीगल, ग्रीन आदि। आधुनिक युग में भी अनेक विद्वान परम्परागत दृष्टिकोण के समर्थक माने जाते है जैसे- लियो स्ट्रॉस, ऐरिक वोगोलिन, ऑकसॉट, हन्ना आरेण्ट आदि।

प्राचीन यूनान व रोम में राजनीतिक सिद्धान्त के निर्माण के लिये दर्शनशास्त्र, नीतिशास्त्र, तर्कशास्त्र, इतिहास व विधि की अवधारणाओं को आधार बनाया गया था किन्तु मध्यकाल में मुख्यतः ईसाई पन्थशास्त्रीय दृष्टिकोण को राजनीतिक सिद्धान्त के निर्माण का आधार बनाया गया। 16वीं सदी में पुनर्जागरण आन्दोलन ने बौद्धिक राजनीतिक चेतना को जन्म दिया साथ ही राष्ट्र-राज्य अवधारणा को जन्म दिया। 18 वीं सदी की औद्योगिक क्रांति ने राजनीतिक सिद्धान्त के विकास को नई गति प्रदान की। इंग्लैण्ड की गौरवपूर्ण क्रांति, फ्रांस व अमेरिका की लोकतान्त्रिक क्रान्तियों ने परम्परागत राजनीतिक सिद्धान्त का विकास ’उदारवादी लोकतान्त्रिक राजनीतिक सिद्धांत’ के रूप में किया।

परम्परागत राजनीतिक दृष्टिकोण ने राजनीतिक सिद्धान्त के निर्माण के लिये मुख्यतः दार्शनिक, तार्किक नैतिक, ऐतिहासिक व विधिक पद्धतियों को अपनाया है। 19वीं सदी से इसने विधिक, संवैधानिक, संस्थागत, विवरणात्मक एवं तुलनात्मक पद्धतियों पर विशेष बल दिया है। 20वीं सदी के प्रारम्भ से ही परम्परागत दृष्टिकोण ने राजनीतिक सिद्धान्त के निर्माण के लिये एक नई दृष्टि अपनाई जो अतीत की तुलना में अधिक यथार्थवादी थी। परम्परागत राजनीतिक विज्ञान में सरकार एवं उसके वैधानिक अंगों के बाहर व्यवहार में सरकार की नीतियों एवं निर्णयों को प्रभावित करने वाले सामाजिक राजनीतिक तथ्यों के अध्ययन पर बल दिया। राजनीतिक दल एवम् दबाबसमूहों के साथ-साथ औपचारिक संगठनों के अध्ययन पर बल दिया। इसने उन सामाजिक, आर्थिक परिस्थितियों एवं आन्दोलनों के अध्ययन पर भी बल दिया जो स्पष्टतः सरकार के औपचारिक संगठन से बाहर तो होते हैं किन्तु उसकी नीतियों एवं कार्यक्रमों को प्रभावित करते हैं।

अर्थ एवं परिभाषा

आधुनिक युग में जब संसार प्रत्येक विषय के वैज्ञानिक व व्यवस्थित अध्ययन की ओर झुक रहा है, राज्य से सम्बंधित विषयों का अध्ययन राजनीति शास्त्र अथवा राजनीति विज्ञान कहा जाता है। परम्परागत राजनीति विज्ञान के विद्वानों ने राजनीति विज्ञान की भिन्न-भिन्न परिभाषाएॅ दी हैं। इन परिभाषाओं की निम्नांकित शीर्षकों के अन्तर्गत व्याख्या की जा सकती हैः-

(१) राजनीति विज्ञान राज्य का अध्ययन है- अनेक राजनीतिशास्त्रियों की मान्यता है कि प्राचीन काल से ही राजनीति विज्ञान राज्य नामक संस्था के अध्ययन का विषय है। विद्वानों की मान्यता है कि प्राचीन काल से आधुनिक काल तक राजनीति विज्ञान का ’केन्द्रीय तत्व’ राज्य ही रहा है। अतः राजनीति विज्ञान में राज्य का ही अध्ययन किया जाना चाहिये। प्रसिद्ध राजनीतिशास्त्री ब्लुंशली के अनुसार राजनीति शास्त्र वह विज्ञान है जिसका सम्बन्ध राज्य से है और जो यह समझने का प्रयत्न करता है कि राज्य के आधारभूत तत्व क्या है, उसका आवश्यक स्वरूप क्या है, उसकी किन-किन विविध रूपों में अभिव्यक्ति होती है तथा उसका विकास कैसे हुआ।’ जर्मन लेखक गैरिस का कथन है कि राजनीति शास्त्र में, शक्ति की संस्था के रूप में, राज्य के समस्त सम्बन्धों, उसकी उत्पत्ति, उसके मूर्त रूप (भूमि एवं निवासी), उसके प्रयोजन, उसके नैतिक महत्व, उसकी आर्थिक समस्याओं, उसके अस्तित्व की अवस्थाओं उसके वित्तीय पहलू, उद्धेश्य आदि पर विचार किया जाता है। डाक्टर गार्नर के अनुसार ’’राजनीति शास्त्र का प्रारंभ तथा अन्त राज्य के साथ होता है।’’ डाक्टर जकारिया का कथन है कि ’’राजनीति शास्त्र व्यवस्थित रूप में उन आधारभूत सिद्धान्तों का निरूपण करता है जिनके अनुसार समष्टि रूप में राज्य का सङ्गठन होता है और प्रभुसत्ता का प्रयोग किया जाता है।’

उपर्युक्त सभी परिभाषाओं से स्पष्ट है कि राजनीति विज्ञान का केन्द्रीय विषय राज्य है। इसका कारण प्लेटोअरस्तू के समय से चली आ रही यह मान्यता है कि राज्य का अस्तित्व कुछ पवित्र लक्ष्यों की प्राप्ति के लिये है।

(२) राजनीति विज्ञान सरकार का अध्ययन है - कुछ राजनीतिशास्त्रियों की राय में राजनीति विज्ञान में राज्य का नहीं अपितु सरकार का अध्ययन किया जाना चाहिये। उनका मत है कि राज्य मनुष्यों का ही सङ्गठन विशेष है तथा उसकी क्रियात्मक अभिव्यक्ति सरकार के माध्यम से होती है। उनका तर्क है कि राज्य एक अमूर्त संरचना है जबकि सरकार एक मूर्त एवं प्रत्यक्ष संस्था है और सरकार ही सम्प्रभुता का प्रयोग करती है। सरकार ही राज्य का वह यन्त्र होता है जिसके द्वारा उसके उद्देश्य तथा प्रयोजन कार्यरूप में परिणित होते हैं। अतः राजनीति विज्ञान में सरकार का ही अध्ययन होना चाहिये। सीले के अनुसार ’’राजनीति विज्ञान शासन के तत्वों का अनुसंधान उसी प्रकार करता है जैसे सम्पत्ति शास्त्र सम्पत्ति का, जीवविज्ञान जीवन का, अङ्कगणित अङ्कों का तथा रेखागणित स्थान एवं लम्बाई-चौड़ाई का करता है।’’ लीकॉक ने इस सन्दर्भ में संक्षिप्त एवं सारगर्भित परिभाषा दी है- ‘‘राजनीति विज्ञान सरकार से सम्बंधित शास्त्र है।’’[२]

(३) राजनीति विज्ञान राज्य एवं सरकार दोनों का अध्ययन है- परम्परागत राजनीति विज्ञान के कुछ विद्वानों की मान्यता है कि केवल राज्य या केवल सरकार की दृष्टि से दी गई परिभाषाएँ अपूर्ण हैं। वस्तुतः राज्य एवं सरकार का परस्पर घनिष्ठ सम्बन्ध है और इनमें से किसी एक के अभाव में दूसरे का अध्ययन ही नहीं किया जा सकता है। यदि राज्य अमूर्त संरचना है तो सरकार इसे मूर्त व भौतिक रूप प्रदान करती है तथा इसी प्रकार यदि राज्य प्रभुसत्ता को धारण करने वाला है तो सरकार उस प्रभुसत्ता का उपभोग करती है। अतः राजनीति विज्ञान के अन्तर्गत इन दोनों का ही अध्ययन किया जाना चाहिये। पॉल जैनेट के अनुसार ’’राजनीति विज्ञान सामाजिक विज्ञानों का वह अङ्ग है जिसमें राज्य के आधार तथा सरकार के सिद्धान्तों पर विचार किया जाता है।’’ डिमॉक के अनुसार राजनीति विज्ञान का संबंध राज्य तथा उसके साधन सरकार से है।’’ गिलक्राइस्ट ने संक्षिप्त परिभाषा देते हुये कहा है कि ’’राजनीति विज्ञान राज्य व सरकार की सामान्य समस्याओं का अध्ययन करता है।’’

(४) राजनीति विज्ञान मानव तत्व के सन्दर्भ में अध्ययन है- कुछ राजनीतिशास्त्री उपरोक्त परिभाषाओं को पूर्ण नहीं मानते क्योंकि इन परिभाषाओं में मानव तत्व की उपेक्षा की गई है। इनकी मान्यता है कि राज्य या सरकार का अध्ययन बिना मानव के उद्देश्यहीन एवं महत्वहीन है क्योंकि इनका निर्माण मानव के हित के लिये ही हुआ है अतः मानव-तत्व का अध्ययन अनिवार्य है।

प्रोफेसर लास्की की अनुसार ‘‘राजनीति शास्त्र के अध्ययन का सम्बन्ध संगठित राज्यों से सम्बंधित मनुष्यों के जीवन से है।’’ राजनीति शास्त्र के प्रसंग में मानव तत्व का महत्व व्यक्त करते हुये एन्साइक्लोपीडिया ऑफ सोशल साइन्सेज में हरमन हेलर ने तो यहाँ तक कहा है कि ’’राजनीति शास्त्र के सर्वांगीण स्वरूप का निर्धारण उसकी मनुष्य विषयक मौलिक मान्यताओं द्वारा होता है।’’ वस्तुतः इसका अर्थ यह है कि राजनीति विज्ञान एक ऐसा सामाजिक विज्ञान है जिसके अन्तर्गत इस तथ्य का भी अध्ययन किया जाता है कि किसी सङ्गठित राजनीतिक समाज में स्वयं मनुष्य की स्थिति क्या है। राजनीति विज्ञान व्यक्ति के अधिकार व स्वतन्त्रताओं के अध्ययन के साथ समाज के विभिन्न समुदायों व वर्गों के प्रति सरकार की नीतियों का भी अध्ययन करता है।

अतः राजनीति विज्ञान की परिभाषा हम ऐसे शास्त्र के रूप में कर सकते है जिसका संबंध उसके राज्य नामक संगठन से होता है और जिसके अन्तर्गत स्वभावतः सरकार का भी विस्तृत अध्ययन सम्मिलित होता हैं संक्षेप में राजनीति विज्ञान के अन्तर्गत राज्य, सरकार तथा अन्य सम्बन्धित सङ्गठनों व संस्थाओं का, मानव के राजनीतिक जीवन के सन्दर्भ में अध्ययन किया जाता है।

राजनीति विज्ञान से सम्बंधित परम्परागत परिभाषायें निम्न प्रवृत्तियाँ इङ्गित करती है-

  1. अपने पारम्परिक सन्दर्भ में राजनीति विज्ञान राज्य व सरकार दोनों का अध्ययन करता है।
  2. राजनीति विज्ञान का राज्य विषयक अध्ययन मूलतः संस्थात्मक है क्योंकि उसमें केन्द्रीय महत्व राज्य अथवा सरकार का है, अन्य तत्व मात्र सांयोगिक है।
  3. राजनीति विज्ञान औपचारिक रूप से राजनीतिक संस्थाओं का अध्ययन करते हुये राज्य के संविधान में निहित कानूनी वास्तविकता को अध्ययन का आधार बनाता है।
  4. परम्परागत राजनीति विज्ञान राजनीतिक प्रक्रियाओं के अध्ययन की अपेक्षा राज्य की नीतियों के अध्ययन पर बल देता है।

राजनीति विज्ञान का क्षेत्र

जिस प्रकार राजनीति विज्ञान की परिभाषा विभिन्न विचारकों ने विभिन्न प्रकार से की है, उसी प्रकार उसके क्षेत्र को भिन्न-भिन्न लेखकों ने विभिन्न शब्दों में व्यक्त किया है। उदाहरणार्थ फ्रांसीसी विचारक ब्लुंशली के अनुसार ’’राजनीति विज्ञान का सम्बन्ध राज्य के आधारों से है वह उसकी आवश्यक प्रकृति, उसके विविध रूपों, उसकी अभिव्यक्ति तथा उसके विकास का अध्ययन करता है।’’ डॉ॰ गार्नर के अनुसार ’’इसकी मौलिक समस्याओं में साधारणतः प्रथम राज्य की उत्पत्ति और उसकी प्रकृति का अनुसंधान, द्वितीय राजनीतिक संस्थाओं की प्रगति, उसके इतिहास तथा उनके स्वरूपों का अध्ययन, तथा तृतीय, जहां तक संभव हो, इसके आधार पर राजनैतिक और विकास के नियमों का निर्धारण करना सम्मिलित है। गैटेल ने राजनीति शास्त्र के क्षेत्र का विस्तृत वर्णन करते हुये लिखा है कि ‘‘ऐतिहासिक दृष्टि से राजनीति शास्त्र राज्य की उत्पत्ति, राजनीतिक संस्थाओं के विकास तथा अतीत के सिद्धान्तों का अध्ययन करता है।... वर्तमान का अध्ययन करने में यह विद्यमान राजनीतिक संस्थाओं तथा विचारधाराओं का वर्णन, उनकी तुलना तथा वर्गीकरण करने का प्रयत्न करता है। परिवर्तनशील परिस्थितियों तथा नैतिक मापदण्डों के आधार पर राजनीतिक संस्थाओं तथा क्रियाकलापों को अधिक उन्नत बनाने के उद्धेश्य से राजनीति शास्त्र भविष्य की ओर भी देखता हुआ यह भी विचार करता है कि राज्य कैसा होना चाहिये।’’

राजनीति शास्त्र के क्षेत्र के विषय में उपरोक्त परिभाषाओं से तीन विचारधाराएँ सामने आती है-

  • प्रथम राज्य को राजनीति विज्ञान का प्रतिपाद्य विषय मानती है,
  • द्वितीय विचारधारा सरकार पर ही ध्यान केन्द्रित करती है
  • तृतीय विचारधारा राज्य व सरकार दोनों को राजनीति विज्ञान का प्रतिपाद्य विषय मानती है।

परम्परागत राजनीति विज्ञान का क्षेत्र निर्धारण करने हेतु संयुक्त राष्ट्र संघ की यूनेस्को द्वारा सितम्बर 1948 में विश्व के प्रमुख राजनीतिशास्त्रियों का सम्मेलन अयोजित किया गया जिसमें परम्परागत राजनीति विज्ञान के क्षेत्र के अन्तर्गत निम्नलिखित अध्ययन विषय शामिल किये जाने का निर्णय किया गया-

(१) राजनीति के सिद्धान्त- अतीत और वर्तमान के राजनीतिक सिद्धान्तों एवं विचारों का अध्ययन।

(२) राजनीतिक संस्थाएँ - संविधान, राष्ट्रीय सरकार, प्रादेशिक व स्थानीय शासन का सरल व तुलनात्मक अध्ययन।

(३) राजनीतिक दल, समूह एवं लोकमत- राजनीतिक दल एवं दबाब समूहों का राजनीतिक व्यवहार, लोकमत तथा शासन में नागरिकों के भाग लेने की प्रक्रिया का अध्ययन।

(४) अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्ध- अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति, अन्तर्राष्ट्रीय विधि, अन्तर्राष्ट्रीय संगठन तथा अन्तर्राष्ट्रीय प्रशासन का अध्ययन।

परम्परागत राजनीति विज्ञान की विशेषताएँ

परम्परागत राजनीति विज्ञान दर्शन एवं कल्पना पर आधारित है। परम्परावादी विचारक अधिकांशतः दर्शन से प्रभावित रहे हैं। इन विचारकों ने मानवीय जीवन के मूल्यों पर ध्यान दिया हैं। इनके चिन्तन की प्रणाली निगमनात्मक है। परम्परागत राजनीति विज्ञान में प्लेटो का विशेष महत्व है। प्लेटो के अतिरिक्त रोमन विचारक सिसरो और मध्ययुग में संत ऑगस्टाइन के चिन्तन में परम्परागत राजनीति विज्ञान की स्पष्ट झलक मिलती हैं। आधुनिक युग में परम्परागत राजनीति विज्ञान के प्रबल समर्थको की काफी संख्या है। रूसो, काण्ट, हीगल, ग्रीन, बोसांके, लास्की, ओकशॉट एवं लियोस्ट्रास की रचनाओं में प्लेटो के विचारों की स्पष्ट झलक दिखाई देती है।

राजनीति विज्ञान का आधुनिक दृष्टिकोण

आधुनिक काल में परम्परागत राजनीति विज्ञान की अध्ययन सामग्री एवं राज्य संबंधी धारणओं की कटु आलोचना हुई है। आलोचकों के अनुसार राज्य व राजनीतिक संस्थाओं की परिधि से परे भी कुछ प्रक्रियाएँ एवं एक परिवेश देखने को मिलता है जिसके अध्ययन की उपेक्षा राजनीति विज्ञान की गरिमा व उपयोगिता के लिये अनर्थकारी है।

इस मत के प्रतिवादक यह मानते है कि सभी समाज विज्ञानों की प्रेरणा स्रोत व अध्ययन का केन्द्र बिन्दु मानव-व्यवहार है और राजनीति विज्ञान सामान्यतः मानव व्यवहार के राजनीतिक पहलू का अध्ययन है। द्वितीय महायुद्ध से पूर्व कतिपय राजनीतिक विचारक राजनीति विज्ञान के अध्ययन में मनुष्य की राजनीतिक प्रक्रियाओं एवं गतिविधियों को प्रमुख स्थान दिये जाने के प्रति आग्रहशील रहे। बाल्टर वैजहॉट, वुडरो विल्सन, लार्ड ब्राइस आदि ने राजनीति के यथार्थवादी अध्ययन पर बल दिया। ग्राहम वालास, आर्थर बैन्टले, कैटलिन और लासवैल ने मानव एवं उसके व्यवहार के अध्ययन पर बल दिया। चार्ल्स मैरियम ने 1925 की अमरीकी राजनीति विज्ञान एशोसियेशन के सम्मेलन में राजनीति विज्ञान के अध्ययन के लिये वैज्ञानिक तकनीकों एवं प्रविधियों के विकास एवं प्रयोग पर बल दिया। 1930 में लासवैल ने अपनी पुस्तक ‘साइको-पैथौलॉजी एण्ड पॉलिटिक्स’ में राजनीतिक घटनाओं एवं क्रियाओं की व्याख्या के लिये फ्राइड के मनोविज्ञान को आधार बनाया।

द्वितीय महायुद्ध के पूर्व अमेरिका का शिकागो विश्वविद्यालय व्यवहारवादी राजनीति विज्ञान का कार्यक्षेत्र बन चुका था। परम्परागत राजनीति विज्ञान से आधुनिक राजनीति विज्ञान तक की विकास प्रक्रिया में द्वितीय महायुद्ध की घटना का विशेष महत्व है जिसके बाद की दुनिया पूर्व की दुनिया से राजनीतिक संरचना, औद्योगिक विकास, वैज्ञानिक व तकनीकी उपलब्धियों तथा सैन्य क्षमता की दृष्टि से अत्यधिक भिन्न थी। विश्वस्तर पर हुये इस गंभीर परिवर्तन ने मानव समाज व संस्कृति की परम्परागत अवधारणाओं के स्थान पर नई अवधारणाओं को जन्म दिया। द्वितीय महायुद्ध के पश्चात् इस वातावरण में चार्ल्स मैरियम के अपनी रचना ’न्यू आस्पेक्ट ऑफ पॉलिटिक्स’ में राजनीति विज्ञान के अध्ययन हेतु नवीन एवं वैज्ञानिक तकनीकों के प्रयोग का पूर्ण समर्थन किया।

उपरोक्त पृष्ठभूमि में 1960 के दशक में अमेरिका के शिकागो विश्वविद्यालय के राजनीतिशास्त्रियों ने राजनीति विज्ञान को दार्शनिक पद्धति से मुक्त करने एवं उसके अध्ययन को अधिक से अधिक वैज्ञानिक बनाने का प्रयत्न किया। राजनीति विज्ञान को सामाजिक विज्ञान मानते हुये इसके अध्ययन को पूर्ण बनाने हेतु समाजशास्त्र, मनोविज्ञान, अर्थशास्त्र, मानवशास्त्र जैसे समाज विज्ञानों की वैज्ञानिक पद्धतियों को अपनाना उचित समझा। इन वैज्ञानिकों में डेविड ईस्टन, कैटलिन, लासवैल आदि प्रमुख है।

राजनीति विज्ञान का अर्थ एवं परिभाषा

राजनीति विज्ञान की आधुनिक अवधारणाओं की दृष्टि से जार्ज कैटलिन, डेविड ईस्टन, हैराल्ड लासवैल व काप्लान विशेष उल्लेखनीय है। इन विद्वानों ने राजनीति विज्ञान संबंधी अपने कथ्यों में राजनीति के वास्तविक एवं व्यावहारिक सन्दर्भों पर बल देते हुये उसे शक्ति, प्रभाव, राजनीतिक औचित्य एवं सत्ता का अध्ययन माना है।

आधुनिक दृष्टिकोण के समर्थक राजनीति शास्त्रियों द्वारा राजनीति विज्ञान के बारे में जो विचार प्रस्तुत किये हैं उनको निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत स्पष्ट किया जा सकता है-

(१) राजनीति विज्ञान मानव क्रियाओं का अध्ययन है- राजनीति विज्ञान के आधुनिक दृष्टिकोण के अनुसार राजनीति विज्ञान मानव के राजनीतिक व्यवहार एवं क्रियाओं का अध्ययन करता है। मानव व्यवहार को गैर राजनीतिक-कारक भी प्रभावित करते है। इन सभी कारकों का राजनीति विज्ञान में अध्ययन किया जाता है। ए. हर्ड एवं एस. हंटिग्टन का कथन है ’’राजनीतिक व्यवहारवाद शासन को मानव और उसके समुदायों के कार्यों की एक प्रक्रिया के रूप में स्वीकारता है। हस्जार व स्टीवेन्सन का यह विचार है कि ’’राजनीति विज्ञान अपने अध्ययन क्षेत्र में प्राथमिक रूप में व्यक्तियों के पारस्परिक व सामूहिक तथा राज्य एवं राज्यों के मध्य प्रकट शक्ति संबंधों से सम्बंधित है।

(२) राजनीति विज्ञान शक्ति का अध्ययन है- कैटलिन व लासवैल इस विचार के समर्थक है। दोनों के विवेचन का मुख्य आधार मनोविज्ञान है। कैटलिन ने 1927-28 में राज्य के स्थान पर मनुष्य के राजनीतिक क्रिया कलाप के अध्ययन पर बल देते हुये राजनीति को प्रभुत्व एवं नियंत्रण के लिये किये जाने वाला संघर्ष बताया है। उसके मतानुसार संघर्ष का मूल स्रोत मानव की यह इच्छा रही है कि दूसरे लोग उसका अस्तित्व मानें। 1962 में अपनी पुस्तक सिस्टेमैटिक पॉलिटिक्स में कैटलिन ने लिखा है- नियंत्रण भावना के कारण जो कार्य किये जाते है तथा नियंत्रण की भावना पर आधारित संबंधों की इच्छाओं के कारण जिस ढाँचे व इच्छाओं का निर्माण होता है, राजनीति शास्त्र का संबंध उन सबसे है। अन्य शक्तिवादी विचारक लासवैल की मान्यता है कि समाज में कतिपय मूल्यों व मूल्यवान व्यक्तियों की प्राप्ति के लिये हर व्यक्ति अपना प्रभाव डालने की चेष्टा करता हैं तथा प्रभाव चेष्टा में शक्ति भाव निहित रहता है। अतः लासवैल के अनुसार 'राजनीति शास्त्र का अभीष्ट वह राजनीति है जो बतलाये कि कौन, क्या, कब और कैसे प्राप्त करता है।' उसके अनुसार राजनीतिक क्रियाकलाप का प्रारंभ उस परिस्थिति से होता है जिसमें कर्ता विभिन्न मूल्यों की प्राप्ति के लिये प्रयत्न करता है तथा शक्ति जिसकी आवश्यक शर्त होती है।

(३) राजनीति विज्ञान राज-व्यवस्थाओं का अध्ययन है- इस दृष्टिकोण के समर्थक डेविड ईस्टन, आमण्ड, आर. केगन आदि है। यह दृष्टिकोण राजनीति विज्ञान को समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण में परिभाषित करता हैं। इनकी मान्यता है कि सम्पूर्ण समाज स्वयं में एक व्यवस्था है और राज व्यवस्था इस सम्पूर्ण समाज व्यवस्था की एक उपव्यवस्था है तथा वह उसके एक अभिन्न भाग के रूप में होती है। राज्य व्यवस्था में अनेक क्रियाशील संरचनाएॅ होती हैं जैसे संविधान सरकार के अंग, राजनीतिक दल, दबाब समूह, लोकमत एवं निर्वाचन एवं मानव-व्यववहार इस व्यवस्था का अभिन्न भाग है। संक्षेप में इन विद्वानों की मान्यता है कि राजनीति विज्ञान सम्पूर्ण समाज व्यवस्था के अंग के रूप में राज-व्यवस्था की इन संरचनाओं की पारस्परिक क्रियाओं एवं संबंधों तथा मानव के राजनीतिक व्यवहार का अध्ययन करता है। राजनीति विज्ञान राजव्यवस्था के अध्ययन के अन्तर्गत निम्न तथ्यों पर अधिक बल देता है -संपूर्ण समाज व्यवस्था के अंग के रूप में राजनीतिक प्रक्रिया का अध्ययन, व्यवस्था की संरचना एवं समूहों के पारस्परिक संबंधों का अध्ययन।

(४) राजनीति विज्ञान निर्णय प्रक्रिया का अध्ययन है- इस दृष्टिकोण के समर्थक राजनीतिशास्त्री यह मानते है कि राजनीति विज्ञान सरकार का अध्ययन करते हुये समाज या राज्य में विद्यमान परिस्थितियों के सन्दर्भ में सरकार या शास्त्र के नीति संबंधी निर्णय लेने की प्रक्रिया का भी अध्ययन करता है। इस कारण राजनीति विज्ञान ऐसा विज्ञान है जो किसी शासन की नीति-प्रक्रिया एवं उसके द्वारा नीति निर्माण का अध्ययन करता है विशेषकर इन दोनों को प्रभावित करने वाले कारकों के संदर्भ में, इस दृष्टिकोण की मान्यता है कि मानव प्रकृति के सन्दर्भ में सरकार द्वारा नीति निर्माण-प्रक्रिया का का अध्ययन किया जाना चाहिए। वास्तविक राजनीतिक जीवन में शासन के नाम पर निर्णय लेने का कार्य स्वयं व्यक्ति करते हैं और इसलिये निर्णय निर्माण प्रक्रिया पर निर्णयकर्ताओं के व्यक्तित्व, अभिरूचि संस्कृति, धर्म, राजनीतिक विचारधारा, मानसिक स्तर निर्णय लेने की शक्ति आदि तत्वोंं का व्यापक प्रभाव पड़ता है।

अतः यह कहा जा सकता है कि आधुनिक दृष्टिकोण के अनुसार राजनीति विज्ञान मनुष्य के सामाजिक राजनीतिक जीवन का अध्ययन करता है। इसके अन्तर्गत राजनीतिक प्रक्रियाओं के साथ साथ राजनीतिक संगठनों का भी अध्ययन किया जाता है। पिनॉक एवं स्मिथ के अनुसार क्या है (यथार्थ) तथा क्या होना चाहिये (आदर्श) और इन दोनों के बीच यथासंभव समन्वय कैसे प्राप्त किया जाये, इस दृष्टि से हम सरकार तथा राजनीतिक प्रक्रिया के व्यवस्थित अध्ययन को राजनीति विज्ञान कहते है।

राजनीति विज्ञान के क्षेत्र

आधुनिक युग में राजनीति विज्ञान का क्षेत्र अत्यधिक विकसित है। शक्तिप्रभाव के सन्दर्भ में राजनीति की सर्वव्यापकता ने उसे हर तरफ पहुंचा दिया है और न केवल सामाजिक बल्कि व्यक्गित जीवन के भी लगभग सभी पक्ष राजनीतिक व्यवस्था के अधीन है। राजनीति की सर्वव्यापकता ने जहाँ एक तरफ राजनीतिक व्याख्याओं की लोकधर्मिता सिद्ध की है वहीं उसने राजनीतिक क्या है, इस संबंध में अस्पष्टता व भ्रम भी पैदा किया हैं। इसके बावजूद राजनीतिक विज्ञान के क्षेत्र को राज्यप्रधान व राज्येतर सन्दर्भों में भलीभांति समझा जा सकता है।

राज्यप्रधान संदर्भ में राज्य की अवधारणाओं- समाजवाद, लोकतंत्र इत्यादि, सरकार या संगठन संविधान वर्णित व वास्तविक व्यवहार संबंधी, सरकारी पद व संस्थाओं के पारस्परिक संबंध, निर्वाचन, व्यवस्थापिका व न्यायपालिका के संगठनात्मक व प्रयोगात्मक पक्ष तथा राज्य की व्याख्या से सम्बंधित राजनीतिक विचारधारा व अवधारणाएॅ, उत्पत्ति के, राज्य क्रियाशीलता के सिद्धान्त, राज्य-परक विचारधाराएँ स्वतंत्रता, समानता, अधिकार इत्यादि।

राज्येत्तर सन्दर्भ में राजनीति की प्रक्रियात्मक वास्तविकता, राजनीति व्यवस्था के विभिन्न दृष्टिकोण, राज्येत्तर संस्थाएॅ जैसे राजनीतिक दल, दबाव व हित समूह, गैर राज्य-प्रक्रियाएॅ व उनका विस्तार, अन्तर्राष्ट्रीय राजनीतिक वास्तविकताएॅ तथा जटिलताएॅ इत्यादि आती हैं। प्रतिनिधित्व के सिद्वान्तों व विधियों को भी इसी सन्दर्भ में समझा जा सकता है।

राजनीति विज्ञान के अध्ययन क्षेत्र के बारे में आधुनिक दृष्टिकोण की कुछ आधारभूत मान्यताऐं हैं जैसे- अध्ययन क्षेत्र के निर्धारण में यथार्थपरक दृष्टिकोण अपनाना, राजनीतिक विज्ञान की विषय वस्तु को अन्तर-अनुशासनात्मक दृष्टिकोण के अन्तर्गत समझा जाये, राजनीति विज्ञान के अध्ययन में वैज्ञानिक पद्धति व उपागमों को प्रयोग में लाया जाये।

आधुनिक दृष्टिकोण के अनुसार राजनीति विज्ञान के क्षेंत्र को निम्न बिंदुओं के अन्तर्गत स्पष्ट किया जा सकता है-

(१) मानव के राजनीतिक व्यवहार का अध्ययन- आधुनिक दृष्टिकोण मानव के राजनीतिक व्यवहार के अध्ययन पर बल देता है। यद्यपि पर मानव व्यवहार को प्रभावित करने बल्कि गैर-राजनीतिक तत्वों का भी अध्ययन करता है उसकी मान्यता है कि मानव व्यवहार को यथार्थ रूप में समझने के लिये उन सभी गैर राजनीतिक भावनाओं, मान्यताओं एवं शक्तियों के अध्ययन को सम्मिलित किया जाये जो मानव के राजनीतिक व्यवहार को प्रभावित करते है।

(२) विभिन्न अवधारणाओं का अध्ययन - आधुनिक राजनीति विज्ञान मुख्यतः शक्ति, प्रभाव, सत्ता, नियंत्रण, निर्णय प्रक्रिया आदि का वैज्ञानिक अध्ययन करता है। इस दृष्टिकोण के अनुसार ये ऐसी अवधारणाऐं है जिनकी पृष्ठभूमि में ही राजनीतिक संस्थाएॅ कार्य करती है। राजनीतिशास्त्री इन्हीं अवधारणाओं के परिप्रेक्ष्य में राजनीतिक संस्थाओं का अध्ययन करते है। इसी कारण इस प्रकार के अध्ययन को सत्ताओं का अनौपचारिक अध्ययन कहा गया है।

(३) राजनीति विज्ञान समस्याओं एवं संघर्षों का अध्ययन - आधुनिक राजनीतिशास्त्री यथा प्रोफेसर डायक एवं पीटर ओडगार्ड राजनीति शास्त्र को सार्वजनिक समस्याओं व संघर्षों का अध्ययन क्षेत्र में शामिल करते है। उनके मत में मूल्यों एवं साधनों की सीमितता के कारण उनके वितरण की समस्या पैदा होने से तनाव व राजनीति का प्रारंभ हो जाता है। वह राजनीतिक दलों के अतिरिक्त विभिन्न व्यक्तियों व समूहों में तक में फैल जाती हैं। प्रोफेसर डायक ने राजनीति को सार्वजनिक समस्याओं पर परस्पर विरोधी इच्छाओं वाले पात्रों के संघर्ष की राजनीति कहा है। पीटर ओडीगार्ड की मान्यता है कि इस संघर्ष में राजनीति के अलावा अन्य बाह्यतत्वों का नियंत्रण नहीं होना चाहिये।

(४) सार्वजनिक सहमति व सामान्य अभिमत का अध्ययन - कुछ विद्वानों के मत में राजनीति विज्ञान सार्वजनिक समस्याओं पर सहमति व सामान्य अभिमत का अध्ययन है। उनके विचार में संघर्ष संघर्ष के लिए ही नहीं वरन सामान्य सहमति व सामान्य अभिमत को प्रभावित करने के लिये होता है। इसीलिये एडवर्ड वेनफील्ड ने कहा है कि ‘किसी मसले को संघर्षमय बनाने अथवा सुलझाने वाली गतिविधियों (समझौता वार्ता, तर्क-वितर्क, विचार विमर्श शक्ति प्रयोग आदि) सभी राजनीति का अंग है।’’

उपरोक्त विश्लेषण से स्पष्ट है कि आधुनिक दृष्टिकोण के विद्धानों में राजनीति विज्ञान के क्षेत्र के संबंध में कुछ मतभेद होने के बावजूद कुछ आधारभूत बातों पर सहमति है, जैसे सभी की मान्यता है कि राजनीति विज्ञान का अध्ययन क्षेत्र यथार्थवादी हो, इसके अध्ययन में अंतर-अनुशासनात्मक दृष्टिकोण व वैज्ञानिक पद्धति का प्रयोग होना चाहिए। हालांकि यह सत्य है कि आधुनिक राजनीतिशास्त्रियों का राजनीति विज्ञान में वैज्ञानिक प्रामाणिकता व सुनिश्चितता का दावा अभी पूर्ण नहीं हुआ है। इसी कारण पिनॉक एवं स्मिथ ने आधुनिक दृष्टिकोण में कुछ संशोधन को स्वीकार करते हुए राजनीति विज्ञान के अध्ययन में व्यावहारिक राजनीति के अध्ययन के साथ ही राजनीतिक संस्थाओं के संगठनात्मक एवं मूल्यात्मक अध्ययन को उचित स्थान देने की बात

राजनीति विज्ञान का अन्य समाज विज्ञानों से सम्बन्ध

अरस्तु के अनुसार मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। सामाजिक जीवन के समस्त आयाम (सांस्कृतिक, सामाजिक, नैतिक, मनोवैज्ञानिक, आर्थिक, राजनीतिक) उसकी जीवन शैली को सम्पन्न करते हैं। मानक जीवन की धुरी पर इन आयामों के सभी नियामक विषय परस्पर जुड़कर सतत परिचालित है। राजनीति इन सभी आयामों को समन्वित करने का महत्वपूर्ण कार्य करती है।

राजनीति विज्ञान एवं अन्य सामाजिक विज्ञानों की घनिष्ठता के कारण ही राजनीति विज्ञान के अध्ययन में प्राचीन काल से अन्तर-अनुशासनात्मक अध्ययन की परम्परा रही है। प्राचीन यूनानी विचारक प्लेटो, अरस्तू की रचनाओं में दर्शनआचारशास्त्र से राजनीति की घनिष्ठता स्पष्ट होती है। मध्ययुगीन विचारक सेण्ट आगस्टाइनटॉमस एक्वीनास की रचनाओं में धर्मशास्त्रनीतिशास्त्र के साथ राजनीति की घनिष्ठता प्रकट होती है।

16वीं सदी अर्थात् आधुनिक युग के प्रारम्भ के विद्वान मैकियावली ने इतिहास का अपने वैचारिक आधार में प्रयोग किया। उसके बाद हाब्स ने ज्यामिति, यांत्रिकी तथा चिकित्साविज्ञान के तथ्यों व सिद्धान्तों का उपयोग किया। रूसोमॉन्टेस्क्यू ने राजनीति व भूगोल की घनिष्ठता को स्पष्ट किया। 18वीं सदी के उत्तरार्द्ध व 19वीं सदी के प्रारम्भिक काल में राजनीति विज्ञान व अन्य समाज विज्ञानों के बीच घनिष्ठ सम्बन्ध स्वीकारने में बाधा आयी क्योंकि इस काल में विभिन्न विज्ञानों द्वारा अपने को पूर्ण एवं स्वतंत्र विज्ञान मानने पर बल दिया गया। किन्तु 19वीं सदी के मध्यकाल से पुनः इस तथ्य को स्वीकारा जाने लगा कि सभी समाज विज्ञानों में घनिष्ठ सम्बन्ध होते है। कार्ल मार्क्स एवं आगस्त काम्टे ने सामाजिक विज्ञानों की घनिष्ठता पर बल दिया।

20 वीं सदी के प्रारम्भ के साथ ही राजनीति विज्ञान की अन्य विज्ञानों से घनिष्ठता प्रायः निर्विवाद रूप से स्वीकारी जाने लगी। व्यवहारवाद एवं उत्तर-व्यवहारवाद ने अन्तर-अनुशासनात्मक अध्ययन की अनिवार्यता को स्थापित किया। इस विकास में अमेरिकी राजनीति विज्ञानियों, विशेषकर शिकागो स्कूल के राजनीति विज्ञानियों, का प्रमुख योगदान रहा है। केटलिन, चार्ल्स मेरियम, गॉस्वेल, लासवेल, डेविड ईस्टन, स्टुअर्ट राइस, वी.ओ. की। (जूनियर) आदि ने अनुभववादी प्रमाणों के आधार पर अन्तर-अनुशासनात्मक अध्ययनों को पुख्ता किया। पॉल जेनेट ने लिखा है-

’’राजनीति शास्त्र का राजनीतिक अर्थव्यवस्था या अर्थशास्त्र से गहरा सम्बन्ध है’, इसका कानून से सम्बन्ध है चाहे वह प्राकृतिक हो या मानवीय जो कि नागरिकों के आपसी संबन्धों को नियमित करता है, वह इतिहास से सम्बन्धित है जो कि इसको आवश्यकता के अनुसार ’तथ्य’ देता है, इसका ‘तत्व ज्ञान’ या दर्शनशास्त्र और विशेषकर नैतिकता या आचार से सम्बन्ध है जो कि इसको ‘सिद्धान्त’ देता है।

सारांश यह है कि समाजशास्त्रों में पारस्परिक अर्न्तनिर्भरता पायी जाती है। कोई भी एक समाज विज्ञान समाज का उचित एवं समग्र अध्ययन नहीं कर सकता। इसलिए तमाम समाजशास्त्र आपस में सम्बन्धित हैं और अन्तर्शास्त्रीय अध्ययन पद्धति ने फिर से समाजशास्त्रों के इस सम्बन्ध को उभार दिया है। आज राजनैतिक अर्थशास्त्र (पॉलिटिकल इकोनॉमी), राजनैतिक नैतिकता (पॉलिटिकल मौरेलिटी), राजनैतिक इतिहास (पॉलिटिकल हिस्ट्री), राजनैतिक समाजशास्त्र (पॉलिटिकल सोशियोलॉजी), राजनैतिक मनोविज्ञान (पॉलिटिकल साइकोलॉजी), तथा राजनैतिक भूगोल (political geography) आदि विभिन्न राजनीति विज्ञान की नई शाखाओं का खुलना इस बात का प्रतीक है कि राजनीति विज्ञान अन्य समाज विज्ञानों से सम्बन्ध स्थापित किये बिना नहीं चल सकता।

इन्हें भी देखें

सन्दर्भ

  1. साँचा:cite book
  2. Elements of Political Science (1906)

बाहरी कड़ियाँ