राजनीतिक दर्शन

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राजनीतिक दर्शन (Political philosophy) के अन्तर्गत राजनीति, स्वतंत्रता, न्याय, सम्पत्ति, अधिकार, कानून तथा सत्ता द्वारा कानून को लागू करने आदि विषयों से सम्बन्धित प्रश्नों पर चिन्तन किया जाता है : ये क्या हैं, उनकी आवश्यकता क्यों हैं, कौन सी वस्तु सरकार को 'वैध' बनाती है, किन अधिकारों और स्वतंत्रताओं की रक्षा करना सरकार का कर्तव्य है, विधि क्या है, किसी वैध सरकार के प्रति नागरिकों के क्या कर्त्तव्य हैं, कब किसी सरकार को उकाड़ फेंकना वैध है आदि।

प्राचीन काल में सारा व्यवस्थित चिंतन दर्शन के अंतर्गत होता था, अतः सारी विद्याएं दर्शन के विचार क्षेत्र में आती थी। राजनीति सिद्धान्त के अन्तर्गत राजनीति के भिन्न भिन्न पक्षों का अध्ययन किया जाता हैं। राजनीति का संबंध मनुष्यों के सार्वजनिक जीवन से हैं। परम्परागत अध्ययन में चिन्तन मूलक पद्धति की प्रधानता थी जिसमें सभी तत्वों का निरीक्षण तो नहीं किया जाता हैं, परन्तु तर्क शक्ति के आधार पर उसके सारे संभावित पक्षों, परस्पर संबंधों प्रभावों और परिणामों पर विचार किया जाता हैं।

परिचय

'सिद्धान्त' का अर्थ है तर्कपूर्ण ढंग से संचित और विश्लेषित ज्ञान का समूह। राजनीति का सरोकार बहुत-सी चीजों से है, जिनमें व्यक्तियों और समूहों तथा वर्गों और राज्य के बीच के संबंध और न्यायपालिका, नौकरशाही आदि जैसी राज्य की संस्थाएँ शामिल हैं।

राजनीतिक सिद्धान्त की परिभाषा करते हुए डेविड वेल्ड कहते हैं-

राजनीतिक जीवन के बारे में ऐसी अवधारणाओं और सामान्यीकरणों का एक ताना-बाना है ‘जिनका संबंध सरकार, राज्य और समाज के स्वरूप, प्रयोजन और मुख्य विशेषताओं से तथा मानव प्राणियों की राजनीतिक क्षमताओं से संबंधित विचारों, मान्यताओं एवं अभिकथनों से है।

एंड्रू हैकर की परिभाषा के अनुसार-

राजनीतिक सिद्धान्त एक ओर अच्छे राज्य और अच्छे समाज के सिद्धान्तों की तटस्थ तलाश और दूसरी ओर राजनीतिक तथा सामाजिक यथार्थ की तटस्थ खोज का संयोग है।

राजनीतिक सिद्धान्त

गुल्ड और कोल्ब ने राजनीतिक सिद्धान्त की एक व्यापक परिभाषा करते हुए कहा है कि राजनीतिक सिद्धान्त, राजनीति विज्ञान का एक उप-क्षेत्र है, जिसमें निम्नलिखित का समावेश हैः

  • राजनीतिक दर्शन - राजनीति का एक नैतिक सिद्धान्त और राजनीतिक विचारों का एक ऐतिहासिक अध्ययन,
  • एक वैज्ञानिक मापदंड,
  • राजनीतिक विचारों का भाषाई विश्लेषण,
  • राजनीतिक व्यवहार के बारे में सामान्यीकरणों की खोज और उनका व्यवस्थित विकास।

हम यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि बुनियादी तौर पर राजनीतिक सिद्धान्त का संबंध दार्शनिक तथा आनुभविक दोनों दृष्टियों से राज्य की संघटना से है। राज्य तथा राजनीतिक संस्थाओं के बारे में स्पष्टीकरण देने, उनका वर्णन करने और उनके संबंध में श्रेयस्कर सुझाव देने की कोशिश की जाती है। निःसन्देह, नैतिक दार्शनिक प्रयोजन का अध्ययन तो उसमें अंतर्निहित रहता ही है। चिंतक वाइन्स्टाइन ने गागर में सागर भरते हुए कहा था कि राजनीतिक सिद्धान्त मुख्यतः एक ऐसी संक्रिया है जिसमें प्रश्न पूछे जाते हैं, उन प्रश्नों के उत्तरों का विकास किया जाता है और मानव प्राणियों के सार्वजनिक जीवन के संबंध में काल्पनिक परिप्रेक्ष्यों की रचना की जाती है। जो प्रश्न पूछे जाते हैं वे कुछ इस तरह के होते हैंः

राज्य का स्वरूप और प्रयोजन क्या है?
राजनीतिक संगठन के साध्यों, लक्ष्यों और पद्धतियों के बारे में हम कैसे निर्णय करें?
राज्य और व्यक्ति के बीच संबंध क्या है और क्या होना चाहिए?

इतिहास के पूरे दौर में राजनीतिक सिद्धान्त इन प्रश्नों के उत्तर देता रहा है। इसे इसलिए महत्त्वपूर्ण माना गया है क्योंकि मनुष्य का भाग्य इस बात पर निर्भर होता है कि शासकों और शासितों को किस प्रकार की प्रणाली प्राप्त हो पाती है और जो प्रणाली प्राप्त होती है उसके फलस्वरूप क्या सामान्य भलाई के लिए संयुक्त कार्यवाही की जाती है।

राजनीतिक सिद्धान्त तथा राजनीतिक दर्शन

दर्शन में सत्य और ज्ञान की खोज में किसी भी विषय पर किए गए समस्त चिंतन का समावेश है। जब वह खोज राजनीतिक विषयों पर होती है तब उसे हम राजनीतिक दर्शन कहते हैं। इसलिए जरूरी नहीं कि उसमें कोई सिद्धान्त प्रस्तावित किया जाए और राजनीतिक दर्शन तथा राजनीतिक सिद्धान्त में यही अंतर है। इस प्रकार राजनीतिक सिद्धान्त राजनीतिक दर्शन का हिस्सा है, लेकिन राजनीतिक दर्शन अधिकांशतः काफी अधिक व्यापक होता है और आवश्यक नहीं कि उसमें कोई सिद्धान्त शामिल हो।

इस प्रकार हम कह सकते हैं कि राजनीतिक दर्शन राज्य, सरकार, राजनीति, स्वतंत्रता, न्याय, संपत्ति, अधिकारों, कानून और किसी भी प्राधिकरण द्वारा कानूनी संहिता को लागू कराने आदि से संबंधित प्रश्नों अर्थात् वे क्या हैं? उनकी जरूरत अगर है तो क्यों है? कौन-सी बातें किसी सरकार को वैध बनाती हैं, उसे किन अधिकारों और किन स्वतंत्रताओं की रक्षा करनी चाहिए और उसे क्यों और कौन-सा रूप ग्रहण करना चाहिए और कानून क्यों है और क्या है और वैध सरकार के प्रति नागरिकों के कर्तव्य यदि हैं तो क्या हैं और कब किसी सरकार को अपदस्थ कर देना वैध होगा या नहीं होगा आदि प्रश्नों का अध्ययन है। ‘राजनीतिक दर्शन’ से बहुधा हमारा तात्पर्य राजनीति के प्रति सामान्य दृष्टिकोण या उसके संबंध में विशिष्ट नैतिकता अथवा विश्वास या रुख से होता है और यह सब जरूरी तौर पर दर्शन के संपूर्ण तकनीकी विषय के अंतर्गत नहीं आता है।

राजनीतिक दर्शन का सरोकार अक्सर समकालीन प्रश्नों से नहीं, बल्कि मनुष्य के राजनीतिक जीवन के अधिक सार्वभौम प्रश्नों से होता है। लेकिन राजनीतिक सिद्धान्तकार की दृष्टि मुख्य रूप से समकालीन राजनीतिक जीवन पर होती है और यद्यपि राज्य के स्वरूप और प्रयोजन और इसी प्रकार के सामान्य प्रश्नों की व्याख्या करने में वह दिलचस्पी लेता है तथापि वह राजनीतिक व्यवहार, राज्य तथा नागरिकों के बीच के वास्तविक संबंध और समाज में शक्ति की भूमिका के यथार्थों का वर्णन करने और उन्हें समझने की भी कोशिश कर रहा होता है। राजनीति विज्ञान का अध्ययन करते हुए हमें यह महसूस होता है कि राजनीतिक सिद्धान्त की अनुपूर्ति हमें राजनीतिक दर्शन के अध्ययन से करनी चाहिए अन्यथा वह बंजर और अप्रासंगिक प्रतीत होते हैं।

राजनीतिक सिद्धान्त तथा राजनीतिक चिन्तन

राजनीतिक सिद्धान्त को कभी-कभी राजनीतिक चिंतन के पर्याय के रूप में देखा जाता है, लेकिन यह समझ लेना जरूरी है कि उनका अर्थ आवश्यक रूप से एक ही नहीं होता। राजनीतिक चिंतन एक सामान्यीकृत मुहावरा है, जिसमें राज्य तथा राज्य से संबंधित प्रश्नों पर किसी व्यक्ति या व्यक्तियों के समूह या समुदाय के सभी चिंतनों, सिद्धान्तों और मूल्यों का समावेश होता है। जब कोई व्यक्तिµचाहे वह प्रोफेसर, पत्रकार, लेखक, कवि, उपन्यासकार आदि जो भी हो या बेशक वह राजनीतिज्ञ ही होµऐसे विचार व्यक्त करता है जिनका हमारे जीवन से सरोकार है और जो विचार राज्य और शासन तथा इनसे संबंधित प्रश्नों के बारे में हैं तब वह वस्तुतः राजनीतिक चिंतन कर रहा होता है। उसके विचारों में सिद्धान्त का समावेश हो भी सकता है और नहीं भी हो सकता है। उन विचारों में तब कोई सिद्धान्त निहित नहीं होगा जब उन में राज्य और शासन आदि के राजनीतिक नियम से संबंधित ऐतिहासिक तथा राजनीतिक संघटना की व्याख्या करने के लिए प्रस्तुत की गई कोई व्यवस्थित और तर्कसम्मत प्राक्कल्पना न हो। इस प्रकार राजनीतिक चिंतन हमेशा किसी व्यक्ति या समूह का राजनीति-विषयक सामान्य विचार होता है, जबकि राजनीतिक सिद्धान्त अपने-आप में पूर्ण और अपने बल-बूते खड़ी ऐसी व्याख्या या विचार अथवा सिद्धान्त होता है जिसमें प्रश्नों के उत्तर देने, इतिहास की व्याख्या करने और भविष्य की संभावित घटनाओं के बारे में पूर्वानुमान लगाने का प्रयत्न किया जाता है। बेशक, यह सिद्धान्त हमेशा किसी एक चिंतक व्यक्ति की सृष्टि होता है। बार्कर ने कहा था कि राजनीतिक चिंतन किसी पूरे युग का अंतर्वर्ती दर्शन होता है, लेकिन राजनीतिक सिद्धान्त किसी एक व्यक्ति का चिंतन होता है।

राजनीतिक सिद्धान्त तथा राजनीति विज्ञान

राजनीति विज्ञान अध्ययन का एक विस्तृत विषय या क्षेत्र है और राजनीतिक सिद्धान्त उसका एक उप -क्षेत्र भर है। राजनीति विज्ञान में ये तमाम बातें शामिल हैं: राजनीतिक चिंतन, राजनीतिक सिद्धान्त, राजनीतिक दर्शन, राजनीतिक विचारधारा, संस्थागत या संरचनागत ढांचा, तुलनात्मक राजनीति, लोक प्रशासन, अंतर्राष्ट्रीय कानून और संगठन आदि। कुछ चिंतकों ने राजनीति विज्ञान के विज्ञान पक्ष पर बल दिया है। उनका कहना है कि जब राजनीति विज्ञान का अध्ययन एक विज्ञान के रूप में वैज्ञानिक पद्धतियों से किया जाता है तब राजनीतिक सिद्धान्त जिस हद तक राजनीतिक दर्शन का हिस्सा है उस हद तक वह राजनीति विज्ञान नहीं माना जा सकता, क्योंकि राजनीति विज्ञान में तो अमूर्त्त और अंतःप्रेरणा से उद्भूत निष्कर्षों या चिंतनों के लिए कोई स्थान नहीं है लेकिन राजनीतिक दर्शन ठीक इन्हीं अयथार्थ पद्धतियों पर भरोसा करके चलता है। राजनीतिक सिद्धान्त न तो शुद्ध चिंतन है, न शुद्ध दर्शन और न शुद्ध विज्ञान।

राजनीतिक सिद्धान्त की आधारभूत विशेषताएँ

  • (१) कोई राजनीतिक सिद्धान्त सामान्यतः किसी एक व्यक्ति की सृष्टि होता है, जो उसके नैतिक और बौद्धिक रुख पर आधारित होता है और जब वह अपने सिद्धान्त का प्रतिपादन कर रहा होता है तब वह सामान्यतः मानव जाति के राजनीतिक जीवन की घटनाओं, संघटनाओं और रहस्यों की व्याख्या करने की कोशिश कर रहा होता है। उस सिद्धान्त को सच माना या न माना जा सकता है, लेकिन उसे एक सिद्धान्त के रूप में हमेशा मान्य किया जा सकता है। आमतौर पर हम देखते हैं कि किसी चिंतक का राजनीतिक सिद्धान्त किसी-किसी मानक कृति में प्रस्तुत किया जाता है, जैसे अफलातून ने रिपब्लिकमें या रॉल ने ए थिओरी ऑफ़ जस्टिसमें प्रस्तुत किया।
  • (२) राजनीतिक सिद्धान्त सामान्यतः मानव जाति, उसके द्वारा संगठित समाजों और इतिहास तथा ऐतिहासिक घटनाओं से संबंधित प्रश्नों के उत्तर देने का प्रयत्न करता है। वह विभेदों को मिटाने के तरीके भी सुझाता है और कभी-कभी क्रांतियों की हिमायत करता है। बहुधा भविष्य के बारे में पूर्वानुमान भी दिए जाते हैं।
  • (३) राजनीतिक सिद्धान्त सामान्यतः विद्या की किसी-न-किसी शाखा पर आधारित होता है और यद्यपि अध्ययन का विषय वही रहता है, तथापि सिद्धान्तकार कोई दार्शनिक, अर्थशास्त्री, धर्मतत्वज्ञ या समाजशास्त्री आदि हो सकता है।
  • (४) इस प्रकार राजनीतिक सिद्धान्त केवल व्याख्याएँ एवं पूर्वानुमान ही नहीं प्रस्तुत करता है बल्कि कभी-कभी वह ऐतिहासिक घटनाओं को प्रभावित और उनमें भागीदारी भी करता है, खास कर तब जब वह किसी खास ढंग की राजनीतिक कार्यवाही प्रस्तावित करता है और जिस ढंग की कार्यवाई वह सुझाता है उसे व्यापक स्वीकृति प्राप्त होती है। महान सकारात्मक उदारवादी चिंतक हेरॉल्ड लास्की ने कहा था कि राजनीतिक सिद्धान्तकार का काम केवल वर्णनकरना नहीं बल्कि जो होना चाहिए उसका सुझाव देना भी है।
  • (५) राजनीतिक सिद्धान्त बहुधा पूरी विचारधारा का आधार भी होता है। उदारवादी सिद्धान्त उदारवाद का आधार बन गए और मार्क्स का सिद्धान्त मार्क्स की छाप की समाजवादी विचारधारा का किसी चिंतक द्वारा प्रस्तावित कोई राजनीतिक सिद्धान्त सामान्यतः हमेशा उस चिंतक की राजनीतिक विचारधारा को प्रतिबिंबित कर रहा होता है। यही कारण है कि जब विचारधाराओं के बीच विभेद होते हैं तो उसके फलस्वरूप विचारधाराओं में अंतर्निहित सिद्धान्तों के बारे में बहस चलती है।

राजनीतिक सिद्धान्त के लिए महत्त्वपूर्ण प्रश्न

राजनीतिक सिद्धान्त में जिन प्रश्नों का महत्त्व रहा है वे समय के साथ-साथ बदलते रहे हैं। क्लासिकी और प्रारंभिक राजनीतिक सिद्धान्त का सरोकार नैतिक दृष्टि से दोष-रहित राजनीतिक व्यवस्था की तलाश से था और उसने विशेष ध्यान राज्य के स्वरूप और प्रयोजन, राजनीतिक सत्ता के उपयोग के आधार और राजनीतिक अवज्ञा की समस्या से प्रश्नों पर दिया। आधुनिक राष्ट्र राज्यों के उदय और आर्थिक संरचना में हुए परिवर्तनों तथा औद्योगिक क्रांति के फलस्वरूप नई प्राथमिकताएँ सामने आईं और ध्यान का केंद्र व्यक्तिवाद तथा व्यक्ति की स्वतंत्रता और समाज एवं राज्य के साथ उसका संबंध बन गया। अधिकार, कर्त्तव्य, स्वतंत्रता, समानता और संपत्ति जैसे प्रश्न अधिक महत्त्वपूर्ण हो गए। धीरे-धीरे एक अवधारणा के साथ दूसरो के संबंध की व्याख्या जैसे स्वतंत्रता और समानता, न्याय और स्वतंत्रता, या समानता और संपत्ति के बीच के संबंध की व्याख्या : भी महत्त्वपूर्ण हो गई। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद एक नए प्रकार के आनुभविक राजनीतिक सिद्धान्त का उदय हुआ। इसमें मनुष्य के राजनीतिक व्यवहार का अध्ययन करने और उसके आधार पर सैद्धांतिक निष्कर्ष निकालने की कोशिश की गई। मानव-व्यवहारों का अध्ययन करने वाले विद्वानों ने अध्ययन के लिए नए प्रश्नों को सामने रखा। वे बहुधा विधा की अन्य शाखाओं से ऐसे प्रश्न उधार लेते थे। इनमें से कुछ प्रश्न इस प्रकार हैं-

राजनीतिक संस्कृति और वैधता, राजनीतिक प्रणाली, अभिजन समूह, राजनीतिक दल आदि।

विगत कुछ दशकों से कई और भी मसले उभरे हैं - जैसे पहचान, लिंग, पर्यावरणवाद, पारिस्थितिकी, समुदाय आदि। साथ ही मूल्य-आधारित राजनीतिक सिद्धान्त का भी पुनरोदय हुआ है, जिसमें स्वतंत्रता, समानता और न्याय के प्रश्नों पर नए ढंग से जोर दिया गया है।

राजनीतिक सिद्धान्त की प्रासंगिकता

हम मानव गण सामाजिक प्राणियों के रूप में साथ-साथ समाज में रहते हैं, जिसमें हम संसाधनों, रोजगारों और पुरस्कारों में साझेदारी करते हैं। साथ ही हम व्यक्ति भी हैं, जिस हैसियत में हमें कुछ बुनियादी मानवाधिकारों की जरूरत है। इसलिए मेल-जोल तथा खुशहाली को अधिकतम सीमा तक ले जाने के खातिर और व्यक्तिगत आत्म-सिद्धि के लिए अनुकूल परिस्थितियाँ सुलभ कराने के निमित्त राज्य तथा समाज के संगठन की प्रक्रिया महत्त्वपूर्ण हो जाती है। फलतः मानव समाजों की एकता और अखंडता का या समाज की सामूहिक आवश्यकताओं की पूर्ति का मार्ग प्रशस्त करने के लिए राजनीतिक सिद्धान्त महत्त्वपूर्ण हो जाता है, क्योंकि वह समस्याओं का अध्ययन करने और उस प्रक्रिया में उनका समाधान ढूँढ़ने की कोशिश करता है। राजनीतिक सिद्धान्त की प्रासंगिकता राज्य के स्वरूप और प्रयोजन के प्रति, राजनीतिक सत्ता के आधार और सरकार के सबसे श्रेयस्कर रूप के संबंध में और राज्य तथा व्यक्ति के बुनियादी अधिकारों के संदर्भ में उन दोनों के बीच के संबंधों के बारे में विभिन्न दृष्टिकोणों का विकास करने में निहित होती है। इसके अतिरिक्त, राजनीतिक सिद्धान्त राजनीतिक राज्य की नैतिक गुणवत्ता की परख के लिए नैतिक मापदंड स्थापित करने तथा वैकल्पिक राजनीतिक प्रबंधन और व्यवहार सुझाने का भी प्रयत्न करता है। संक्षेप में कहें तो राजनीतिक सिद्धान्त की प्रासंगिकता निम्नलिखित बातों में निहित हैः

  • राजनीतिक संघटना की व्याख्या और वर्णन करना,
  • किसी समुदाय के लिए श्रेयस्कर राजनीतिक लक्ष्यों और कार्यवाहियों का चुनाव करने में सहायता देना,
  • नैतिकता की परख के लिए आधार प्रस्तुत करने में मदद देना।

यह भी याद रखना चाहिए कि कम से कम वर्तमान काल में राज्य अधिकाधिक परिमाण में गरीबी, भ्रष्टाचार, जनाधिक्य और संजातीय तथा नस्ली तनावों, पर्यावरण प्रदूषण आदि की चुनौतियों का सामना कर रहा है। इनके अलावा अंतर्राष्ट्रीय विभेदों आदि की समस्या तो है ही। राजनीतिक सिद्धान्त समाज के राजनीतिक जीवन की वर्तमान तथा भावी समस्याओं का अध्ययन करने और उन समस्याओं के समाधान को सुझाने का प्रयत्न करता है। डेविड हेल्डने कहा है कि राजनीतिक सिद्धान्त का कार्य अपनी जटिलताओं के कारण बहुत गुरु-गंभीर है, क्योंकि व्यवस्थित अध्ययन के अभाव में इस बात का खतरा रहता है कि राजनीति अज्ञान और स्वार्थी लोगों के हाथों में अपनी शक्ति की भूख मिटाने का साधन बनकर न रह जाए।

इस प्रकार यदि हमें सामाजार्थिक यथार्थ एवं आदर्शों तथा राजनीतिक दर्शन का ध्यान रखते हुए, राज्य के स्वरूप और प्रयोजन तथा शासन की समस्याओं पर व्यवस्थित ढंग से विचार करना है तो हमें समस्या के सैद्धांतिक अध्ययन का रास्ता अपनाना होगा। इस प्रकार राजनीतिक सिद्धान्त प्रासंगिक है। साथ ही व्यक्तिगत स्तर पर राजनीतिक सिद्धान्त का अध्ययन करने से हमें अपने अधिकारों तथा कर्त्तव्यों की जानकारी मिलती है और गरीबी, हिंसा, भ्रष्टाचार आदि सामाजार्थिक यथार्थों और समस्याओं को समझने में सहायता मिलती है। राजनीतिक सिद्धान्त इसलिए भी महत्त्वपूर्ण हैं कि विभिन्न राजनीतिक सिद्धान्तों को आधार बना कर ‘आगे बढ़ते हुए वह हमें समाज को बदलने के उपाय और दिशाएँ सुझा सकता है, ताकि आदर्श समाज स्थापित किया जा सके। मार्क्सवादी सिद्धान्त एक ऐसे सिद्धान्त का उदाहरण है जो न केवल दिशा सुझाता है बल्कि समतावादी समाज की स्थापना के लिए क्रांति की हिमायत करने की हद तक जाता है। यदि कोई राजनीतिक सिद्धान्त सही है तो वह आम लोगों तक संप्रेषित किया जा सकता है और तब वह समाज तथा मानव जाति को प्रगति के पथ पर ले जाने वाली प्रबल शक्ति बन सकता है।

राजनीतिक चिन्तन का महत्व

दुनिया में अनेक विद्वान राजनीतिक चिन्तन को अनुपयोगी एवं हानिप्रद मानते है। इसमें मुख्य रूप से बेकन, लेस्ली, स्टीफन, बर्क, डनिंङ आदि प्रमुख हैं। स्टीफन तो कहता है कि -वे देश भाग्यशाली है जिनके पास कोई राजनैतिक दर्शन नहीं है क्योंकि ऐसा तत्व चिन्तन निकट भविष्य में होने वाली क्रान्तिकारी उथलपुथल का सूचक होता है। डनिंग का स्पष्ट मत था कि - जब कोई राजनैतिक पद्धति राजनैतिक दर्शन का स्वरूप ग्रहण करने लगे तो समझ लेना चाहिए कि उसके विनाश की घड़ी आ गई है।" उपरोक्त कथन चिन्तन को भी मानते है। वे इसे आदर्शवादी, काल्पनिक, भ्रम पैदा करने वाला मानते है। वे तर्क देते है कि अच्छे विचारक प्रायः अच्छे शासक नहीं होते हैं। वे कहते हैं कि सैद्धान्तिक ज्ञान व्यावहारिक नहीं होता है तथा व्यावहारिक ज्ञान सिद्धान्त पर खरा नहीं उतरता है। प्लेटो इसका आदर्श उदाहरण है। वह अपने आदर्श राज्य को मूर्त रूप देने में पूर्णतः असफल रहा।

इसका दूसरा दोष यह है कि अधिकांश विचार परिस्थितिजन्य होते हैं। अतः उनका सामान्यीकरण करते हुए सिद्धान्त नहीं बनाया जा सकता। राजनैतिक दर्शन में हाल्स, रूसो तथा मैकियावेली के मानव सम्बन्धी विचार तत्कालीन समाज की देन थे। कतिपय यही कारण था कि तत्कालीन परिस्थितियों में उपजी निराशा, हताशा ने उनके विचार को मानव के प्रति नकारात्मक बना दिया था। उपरोक्त दोष के होते हुए भी चिन्तन का अध्ययन मानवोपयोगी है। इससे होने वाले लाभ निम्नलिखित हैं-

  • (१) राज्य और उसका मूर्त रूप सरकार है। यह मानव से निर्मित है तथा मानव के इर्द-गिर्द ही घूमता है। अतः मानव के संबंध में विचार करना, विभिन्न प्रश्नों पर विचार करना सदैव से मानव तथा समाज के लिये लाभदायक रहा है।
  • (२) राजनीतिक चिन्तन का मानव के साथ घनिष्ट संबंध रहा है। विद्वानों द्वारा समय-समय पर प्रतिपादित विभिन्न सिद्धान्तों ने मानव को बहुत लाभ पहुंचाया है। रूसो के विचारों ने 18वीं शताब्दी में फ्रांसीसी क्रान्ति को जन्म दिया और इसी क्रान्ति से समानता, स्वतन्त्रता तथा भाईचारे का विचार सामने आया। कार्ल मार्क्स ने 20वीं शताब्दी में बोल्शेविक क्रान्ति को जन्म दिया। इसी से साम्यवादी विचारधारा का उदय हुआ।
  • (४) राजनीतिक चिन्तन के अध्ययन से एक अन्य लाभ यह होता है इससे हमें ऐतिहासिक घटनाओं को समझने और उसकी व्याख्या करने में सहायता मिलती है।
  • (५) इससे वर्तमान घटनाओं को समझने में सहायता मिलती है। वर्तमान समस्याओं की जड़ सदैव इतिहास में रहती है। अतः उसका निवारण भी इतिहास से आता है। चिन्तन समस्या का निवारण ही नहीं करता वरन भविष्य में आने वाली समस्याओं का हल एवं मार्गदर्शन प्रस्तुत करता है।

इस प्रकार से स्पष्ट है कि चिन्तन का अध्ययन प्रत्येक दृष्टि से लाभप्रद है। यह स्वभाविक प्रक्रिया है जो लम्बे समय से चली आ रही है।

राजनीतिक सिद्धान्त की महत्त्वपूर्ण धाराएँ

जिन सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण राजनीतिक सिद्धान्तों की अहमियत कायम रही है और जो काल की कसौटी पर खरे उतरे हैं, वे निम्नलिखित हैं:

  1. क्लासिकी राजनीतिक सिद्धान्त
  2. उदारवादी राजनीतिक सिद्धान्त
  3. मार्क्सवादी राजनीतिक सिद्धान्त
  4. आनुभविक वैज्ञानिक राजनीतिक सिद्धान्त
  5. समकालीन राजनीतिक सिद्धान्त

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सन्दर्भ

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