युग
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युग सनातन धर्म में एक विशाल समयावधि है जो भूतकाल, वर्तमान तथा भविष्यकाल से संबंधित है।[१] यह वस्तुतः, सत्य युग, त्रेतायुग, द्वापर युग तथा कलियुग, इन चार धार्मिक युगों में से किसी भी एक युग को बताने के लिये प्रयुक्त होता है। चारो युगों के चक्र को चतुर्युग कहते हैं।[२][३]
संदर्भ के अनुसार, यह एक मौसम, पीढियों, राजाओं के काल, कल्प (ब्रह्मा के दिवस) निर्माण की अवस्थाओं (प्रकट, अनुरक्षण, अव्यक्त) या १,००० वर्ष की अवधि का उल्लेख कर सकता है।[४]
युग आदि का परिमाण
मुख्य लौकिक युग सत्य (उकृत), त्रेता, द्वापर और कलि नाम से चार भागों में (चतुर्धा) विभक्त है। इस युग के आधार पर ही मन्वंतर और कल्प की गणना की जाती है। इस गणना के अनुसार सत्य आदि चार युग संध्या (युगारंभ के पहले का काल) और संध्यांश (युगांत के बाद का काल) के साथ 12000 वर्ष परिमित होते हैं। चार युगों का मान 4000 + 3000 + 2000 + 1000 = 10000 वर्ष है; संध्या का 400 + 300 + 200 + 100 = 1000 वर्ष; संध्यांश का भी 1000 वर्ष है। युगों का यह परिमाण दिव्य वर्ष में है। दिव्य वर्ष = 360 मनुष्य वर्ष है; अत: 12000 x 360 = 4320000 वर्ष चतुर्युग का मानुष परिमाण हुआ। तदनुसार सत्ययुग = 1728000; त्रेता = 1296000; द्वापर = 864000; कलि = 432000 वर्ष है। ईद्दश 1000 चतुर्युग (चतुर्युग को युग भी कहा जाता है) से एक कल्प याने ब्रह्मा की आयु 100 वर्ष है। 71 दिव्ययुगों से एक मन्वंतर होता है। यह वस्तुत: महायुग है। अन्य अवांतर युग भी है। प्रत्येक संख्या में ३६० के गुणा करना होता है क्योंकि और कलियुग जो की १२०० दिव्यवर्ष अवधि का था वह मानव वर्षों के रूप में ४३२००० वर्ष का बना होता है चारों युगों की अवधि इस प्रकार है सत्य 17,28,000 वर्ष ,त्रेता 12,96,000 वर्ष ,द्वापर 8,64,000 वर्ष कलियुग 4,32,000 वर्ष चारों युगों का जोड़ 43,20,000 वर्ष यानी एक चतुर्युग | दुसरी गलती यह हुई कि जब द्वापर समाप्त हुआ तो उस समय २४०० वा वर्ष चल रहा था जब कलियुग शुरू हुआ तो उसको कलियुग प्रथम वर्ष लिखा जाना चाहिए था लेकिन लिखा गया कलियुग २४०१ तो जो कहा जाता है की २०१८ में कलियुग शुरू हुए ५१२० वर्ष हो गए हैं उसमे से त्रुटिपूर्ण जुड़े २४०० वर्ष निकालने होंगे शेष बचे २७२० वर्ष ही सही अंक है | यह कहा गया कलियुग के बाद सत्ययुग आएगा ये व्यवहारिक नहीं है कलियुग की आखरी रात्री सोयेंगे सुबह उठेंगे तो सबकुछ सही होगा हर व्यक्ति सतोगुणी होगा यह संभव तभी होगा जब कल्कि अवतार के बाद भगवान धर्म की स्थापना करेंगे। पतन जिस प्रकार धीरे धीरे हुआ उसी प्रकार उत्थान होगा अधोगामी कलियुग के बीतने पर उर्ध्वगामी कलियुग की शुरुआत होगी फिर द्वापर फिर त्रेता फिर सत्ययुग आएगा |इंसान केवल अपनी बुद्धि लगा कर वेद धर्मशास्त्र का अर्थ निकाल सकता है उसके बिल्कुल सत्य भाव को व्यक्त नहीं कर सकता है अतः मानव बुद्धि से गलती की बहुत संभावना होती है यंहा म़ैं यह बताना चाहूंगा कि कलियुग का महायुग आज से 8911साल पहले शुरू हों गया था तब महाभारत काल था ओर त्रिदेव युग के अंदर कलियुग 911 ईस्वी सन से शुरू हो गया यदि कलियुग आदि शंकराचार्य कि मृत्यु के तुरुंत बाद शुरू माना जाय तो 2038 में कलियुग समाप्त हो जाएगा।
युग गणना स्वामी श्री युक्तेश्वर गिरी जी के अनुसार
गधर्म
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सूर्य अपने महा केंद्र (ब्रह्मा) के चक्कर लगाता है इसके एक चक्कर मे पृथ्वी के 24000 वर्ष लगते हैं इसमे 12000 वर्षों (चार युग की अवधि)का एक आरोही अर्धचक्र तथा 12000 (चार युग की अवधि)वर्षों का एक अवरोही अर्धचक्र होता है ।
अवरोही अर्धचक्र में 12000 वर्षों में सूर्य अपने महाकेन्द्र से सबसे दूरस्थ स्थान तक पहुंचता है तब धर्म का ह्रास होते होते वह इतनी निकृष्ठ अवस्था मे पहुंच जाता है इस काल मे मनुष्य स्थूल जगत से परे कुछ भी समझ नहीं पाता था युद्ध तलवारों से लड़े जा रहे थे । उसी प्रकार आरोही अर्धचक्र में सूर्य जब महकेन्द्र के सबसे निकट स्थान की ओर बढ़ना शुरू करता है तब धर्म भी उन्नत होना शुरू हो जाता है । यह विकास 12000 वर्षों में धीरे धीरे पूर्ण होता है । इन दोनों आरोही या अवरोही चक्रों में प्रत्येक को एक दैव युग कहते हैं ।
धर्म (मानसिक सद्चरित्रता) की उन्नति धीरे धीरे होती है और 12000 वर्षों की अवधी में यह चार अवस्थाओं में विभाजित होती है -
कलि युग - 1200 वर्ष (जब सूर्य अपने परिक्रमा पथ के 1/20 हिस्से में भ्रमण करता है) धर्म अपनी प्रारंभिक अवस्था मे होता है । मनुष्य की बुद्धि नित्य परिवर्तनशील वाह्य जगत से अधिक कुछ भी समझने में असमर्थ होती है ।
द्वापर युग - 2400 वर्ष (जब सूर्य अपने परिक्रमा पथ के 2/20 हिस्से में भ्रमण करता है) इस काल मे धर्म अपनी द्वितीय अवस्था मे पहुंच जाता है । मनुष्य की बुद्धि वाह्य जगत का सृजन करने वाले सूक्ष्म तत्वों और उनके गुणों को समझने लगती है ।
त्रेता युग - 3600 वर्ष (जब सूर्य अपने परिक्रमा पथ के 3/20 हिस्से में भ्रमण करता है) धर्म तृतीय अवस्था मे पहुंच जाता है । मनुष्य की बुद्धि समस्त विद्युत शक्तियों के मूल स्रोत अर्थात ईश्वरीय चुम्बकीय शक्ति को समझने में समर्थ हो जाती है ।
सत्ययुग - 4800 वर्ष (जब सूर्य अपने परिक्रमा पथ के 4/20 हिस्से में भ्रमण करता है) धर्म चौथी अवस्था मे पहुंच कर पूर्ण विकसित हो जाता है । बुद्धि सब कुछ समझने के योग्य हो जाती है । सृष्टि से परे परब्रह्म का भी पूर्ण ज्ञान हो सकता है । सत्ययुग में हुए महान ऋषि मनु ने अपनी मनु सहिंता में स्पष्ट वर्णन किया है-
चत्वार्याहु: सहस्त्राणि वर्षणान्तु कृतं युगम ।
तस्य तावच्छति संध्याम संधाश्च तथाविध: ।।
इतरेषु ससंध्येशु ससंध्यानशेषु च त्रिषु ।
एकपायेन वर्तन्ते सहस्त्राणि शतानि च ।।
यदेतत परिसंख्यातमादावेव चतुर्युगम ।
एतद द्वादशसाहस्र देवानां युगमुच्यते ।।
देवीकानां युगानान्तु सहस्रं परिसंख्यया ।
ब्रह्ममेकमहर्ज्ञेयम तावती रात्रिरेव च ।।
कृत युग या सत्ययुग चार हज़ार वर्षों का होता है उसके उदय की संधि के उतने ही सौ वर्ष और अस्त की संधि के भी उतने ही सौ वर्ष होते हैं
इसके आगे के युग और युग संधी प्रत्येक क्रमश 1000 और 100 वर्षों के हिसाब से घट जाती हैं । उदाहरण-
सत्ययुग (400+4000+400=4800)
त्रेता (300+3000+300=3600)
द्वापर (200+2000+200=2400)
कलियुग (100+1000+100=1200)
चारों युगों (चतुर्युग)की अवधि का जोड़ एक दैव युग(12000 वर्ष) कहते हैं ।
1000 दैव युगों से ब्रह्मा का एक दिन बनता है और इतने ही दैव युगों से ब्रह्मा की एक रात ।
ब्रह्मा वह महा केंद्र है जिसके चक्कर सूर्य 24000 वर्षों में लगाता है ।
ईसा पूर्व सन 11501 में जब शारदीय विषुव मेष राशि के प्रथम बिंदु पर था तब सूर्य का अपने परिक्रमा मार्ग में महकेन्द्र के निकटतम बिंदु से दूरस्थ बिंदु की ओर प्रस्थान शुरू हुआ और उसी के साथ मानव की बुद्धि क्षीण होने लगी । 4800 वर्ष(सत्ययुग) के अंत तक आध्यात्मिक ज्ञान को समझने की शक्ति को खो दिया 3600 वर्ष(त्रेतायुग) चुम्बकीय ज्ञान को समझने की शक्ति का ह्रास 2400 वर्ष (द्वापर) विद्युत शक्तियों को समझने की शक्तियों का ह्रास अगले 1200 वर्ष (कलियुग) पूर्ण होने पर ईसवी सन 499 में सूर्य अपने महकेन्द्र से दूरस्थ बिंदु पर आ गया था। भौतिक जगत से परे कुछ भी समझ पाने की क्षमता मनुष्य में नहीं रही थी । इस प्रकार 499 ईसवी पूरे युगचक्र (24000 वर्ष) का सबसे अंधकारमय काल था इसके पश्चात सूर्य अपने महकेन्द्र के निकटतम बिंदु की ओर बढ़ने लगा और मानव की बुद्धि धीरे धीरे विकसित होने लगी इस उर्ध्वगामी कलियुग के 1100 वर्षों (ईसवी सन 1599) तक मानव बुद्धि जड़ होने के कारण सूक्ष्म शक्तियों का ज्ञान नहीं था राजनीतिक स्तर पर भी कहीं शांति नहीं थी ।
इस काल के बाद आरोही द्वापर युग से पहले कलियुग के संधिकाल के 100 वर्षों में विधुयुत शक्तियों सूक्ष्म तत्वों का पुनः ज्ञान होना शुरू हुआ ।
कलियुग के अंत मे दशम अवतार कहीं दसवे गुरु गोविंद सिंह जी ही तो नहीं जिनका जन्म 1666 और निर्वाण 1708 में हुआ था ।
ईसवी सन 1600 में गिल्बर्ट ने चुमवकीय शक्तियों को 1601 में केप्लर ने खगोल विज्ञान के नियमों को गैलीलियो ने टेलेस्कोप को 1621 में ड्रेबल ने माइक्रोस्कोप 1670 में नूतन ने गुरुत्वाकर्षण नियम 1700 में सेवरी ने स्टीम इंजन से पानी खींचने 1720 में स्टीफन ग्रे ने मानव शरीर पर विद्युत शक्ति के परिणाम को पूनह बताया । विज्ञान की पुनः प्रगति के साथ विश्व भर में रेलवे और टेलीग्राफिक तारों का जाल बीच गया ।
1899 में द्वापर युग की संधि के 200 वर्ष पूर्ण होकर 2000 वर्ष अवधि के वास्तविक द्वापर युग की शुरुआत हुई जिसमे विद्युत शक्तियों और उनके गुणधर्म का पूर्ण ज्ञान मानव प्राप्त करेगा।
वर्तमान पंचांगों में कलियुग 432000 वर्षों का क्यों दर्शाया गया है -------
ऐसा होने का कारण है मनुस्मृति में दिए सूत्र में कलयुग की अवधि पृथ्वी के 1200 वर्षों को 1200 दैववर्ष मान लेना जिसमे 30 -30 दैव दिनों के 12 दैव महीने होते हैं और एक दैव दिन पृथ्वी के 1 वर्ष के बराबर होता है ।
इस प्रकार 1200 दैव वर्ष =1200×30×12 = 432000 दैव दिवस = 432000 सौर वर्ष
यह गलती राजा परीक्षित के दरबारी पंडितों के गलत गड़ना के आधार पर हुई है राजा युधिष्ठिर ने जब कलियुग के आगमन से पूर्व हिमालय में जाने का निश्चय किया तो उनके साथ उनके दरबार के सभी ज्ञानीजन भी कलियुग को देखने की अनिच्छा से हिमालय चले गए महाराजा परीक्षित के दरबार मे कोई ऐसा ज्ञानीजन न बचा जो युग युगांतर की कालगड़ना का ज्ञान रखता हो अतः उस समय चल रहे द्वापर युग के 2400 वर्ष में एक कि संख्या जोड़ कर कलियुग के प्रथम वर्ष के स्थान पर 2401 लिखा गया क्योंकि कलियुग के शुरू होने पर बुद्धि अपने निम्नतर स्तर पर चली गयी और यह गलती किसी के ज्ञान में न आई इस प्रकार 1200 वर्ष अवरोही कलियुग के बीतने पर सन 499 ईसवी में कलियुग के चरम बिंदु आया और 1200 वर्ष अवधि का उर्ध्वगामी कलियुग शुरू हुआ जो ईसवी सन 1699 में समाप्त हुआ (गुरु गोविन्द सिंह जी जिनका जन्म कलियुग के आखिरी चरण में सन १६६६ में जन्म लिया और कलियुग की समाप्ति १६९९ के बाद १७०८ में निर्वाण प्राप्त किया शोध का विषय है वही कल्कि अवतार तो नहीं थे ?) और द्वापर के संधिकाल 200 वर्ष की शुरुआत हुई जो 1899 में समाप्त हुआ तब से आज सन 2017 तक 117 वर्ष बीत चुके हैं यानी द्वापर का 318 वा वर्ष चल रहा है ।
यहां यह भी ध्यान देने योग्य है कि कलियुग की समाप्ति पर सीधा सत्ययुग नहीं आता पहले द्वापर फिर त्रेता फिर सत्ययुग आता है सुधार धीरे धीरे होता है रातों रात नहीं । ऐसा संभव नहीं हैं कि कलियुग के आखरी दिन सोये सुबह उठे तो सब कुछ सत्ययुग में अच्छा अच्छा था ।
कहा जाता है २०१८ में कलियुग के 5120 वा वर्ष चल रहा है अब इसमें से द्वापर के 2400 वर्ष घटाने पर (क्योंकि द्वापर के 2400 वर्ष पूर्ण होने पर 1 जोड़ कर ही कलियुग की गिनती शुरू की गई थी)2720 वर्ष शेष रहते हैं जिसमे आरोही कलियुग के 1200 और अवरोही कलियुग के 1200 वर्ष घटाने पर 320 वर्ष शेष रहते हैं जो वर्तमान में द्वापर के 320 वे वर्ष को प्रदर्शित करते हैं ।
केवल्य दर्शनम नामक पुस्तक में दिए ज्ञान पर आधारित ।
वैज्ञानिक प्रमाण
राम#भगवान श्री राम जी के जन्म-समय पर आधुनिक शोध
युगधर्म का विस्तार के साथ प्रतिपादन इतिहास पुराणों में बहुत मिलता है (देखिये, मत्स्यपुरण 142-144 अ0; गरूड़पुराण 1.223 अध्यय; वनपर्व 149 अध्याय)। किस काल में युग (चतुर्युग) संबंधी पूर्वोक्त धारण प्रवृत्त हुई थी, इस संबंध में गवेषकों का अनुमान है कि खोष्टीय चौथी शती में यह विवरण अपने पूर्ण रूप में प्रसिद्ध हो गया था। वस्तुत: ईसा पूर्व प्रथम शती में भी यह काल माना जाए तो कोई दोष प्रतीत नहीं होता।
कलियुग का आरम्भ
विद्वानों ने कलियुगारंभ के विषय में विशिष्ट विचार किया है। कुछ के विचार से महाभारत युद्ध से इसका आरंभ होता है, कुछ के अनुसार कृष्ण के निधन से तथा एकाध के मत से द्रौपदी की मृत्युतिथि से कलि का आरंभ माना जा सकता है। यत: महाभारत युद्ध का कोई सर्वसंमत काल निश्चत नहीं है, अत: इस विषय में अंतिम निर्णय कर सकना अभी संभव नहीं है।
इन्हें भी देखें
- भूवैज्ञानिक कालगणना
- युग (भौमिकी)
- युग वर्णन - विभिन्न युगों की विशेषताएँ
- ↑ साँचा:cite book
- ↑ साँचा:Dictionary.com
- ↑ A kalpa is described as lasting 1,000 catur-yuga in Bhagavata Purana 12.4.2 ("catur-yuga") and Bhagavad Gita 8.17 ("yuga") :
- ↑ साँचा:cite journal