मौर्यकालीन स्थापत्य या वास्तु कला

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चित्र:Maurya arts.jpg
मौर्यकालीन कला के अवशेष

मौर्यकालीन कला

कला की दृष्टि से हड़प्पा की सभ्यता और मौर्यकाल के बीच लगभग 1500 वर्ष का अंतराल है। इस बीच की कला के भौतिकअवशेष उपलब्ध नहीं है। महाकाव्यों और बौद्ध ग्रंथों में हाथीदाँत, मिट्टी और धातुओं के काम का उल्लेख है। किन्तु मौर्यकाल से पूर्व वास्तुकला और मूर्तिकला के मूर्त उदाहरण कम ही मिलते हैं। मौर्यकाल में ही पहले—पहल कलात्मक गतिविधियों काइतिहास निश्चित रूप से प्रारम्भ होता है। राज्य की समृद्धि और मौर्य शासकों की प्रेरणा से कलाकृतियों को प्रोत्साहन मिला।



इस युग में कला के दो रूप मिलते हैं। एक तो राजरक्षकों के द्वारा निर्मित कला, जो कि मौर्य प्रासाद और अशोक स्तंभों में पाई जाती है। दूसरा वह रूप जो परखम के यक्ष दीदारगंज की चामर ग्राहिणी और वेसनगर की यक्षिणी में देखने को मिलता है। राज्य सभा से सम्बन्धित कला की प्रेरणा का स्रोत स्वयं सम्राट था। यक्ष—यक्षिणियों में हमें लोककला का रूप मिलता है। लोककला के रूपों की परम्परा पूर्व युगों से काष्ठ और मिट्टी में चली आई है। अब उसे पाषाण के माध्यम से अभिव्यक्त किया गया।

यह भी देखिये

राजकीय कला

राजकीय कला का सबसे पहला उदाहरण चंद्रगुप्त का प्रासाद है, जिसका विशद वर्णन एरियन ने किया है। उसके अनुसार राजप्रासाद की शान—शौक़त का मुक़ाबला न तो सूसा और न एकबेतना ही कर सकते हैं। यह प्रासाद सम्भवतः वर्तमान पटना के निकट कुम्रहार गाँव के समीप था। कुम्रहार की खुदाई में प्रासाद के सभा—भवन के जो अवशेष प्राप्त हुए हैं उससे प्रासाद की विशालता का अनुमान लगाया जा सकता है। यह सभा—भवन खम्भों वाला हाल था। सन् 1914—15 की खुदाई तथा 1951 की खुदाई में कुल मिलाकर 40 पाषाण स्तंभ मिले हैं, जो इस समय भन्न दशा में हैं। इस सभा—भवन का फ़र्श और छत लकड़ी के थे। भवन की लम्बाई 140 फुट और चौड़ाई 120 फुट है। भवन के स्तंभ बलुआ पत्थर के बने हुए हैं और उनमें चमकदार पालिश की गई थी। फ़ाह्यान ने अत्यन्त भाव—प्रवण शब्दों में इस प्रासाद की प्रशंसा की है। उसके अनुसार, "यह प्रासाद मानव कृति नहीं है वरन् देवों द्वारा निर्मित है। प्रासाद के स्तंभ पत्थरों से बने हुए हैं और उन पर सुन्दर उकेरन और उभरे चित्र बने हैं।"फ़ाह्यान के वृत्तान्त से पता चलता है कि अशोक के समय इस भवन का विस्तार हुआ।

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मेगस्थनीज के अनुसार मौर्य कला

मेगस्थनीज़ के अनुसार पाटलिपुत्र, सोन और गंगा के संगम पर बसा हुआ था। नगर की लम्बाई 9-1/2 मील और चौड़ाई 1-1/2 मील थी। नगर के चारों ओर लकड़ी की दीवार बनी हुई थी जिसके बीच—बीच में तीर चलाने के लिए छेद बने हुए थे। दीवार के चारों ओर एक ख़ाई थी जो 60 फुट गहरी और 600 फुट चौड़ी थी। नगर में आने—जाने के लिए 64 द्वार थे। दीवारों पर बहुत से बुर्ज़ थे जिनकी संख्या 570 थी। पटना में गत वर्षों में जो खुदाई हुई उससे काष्ठ निर्मित दीवार के अवशेष प्राप्त हुए हैं। 1920 में बुलंदीबाग़ की खुदाई में प्राचीर का एक अंश उपलब्ध हुआ है, जो लम्बाई में 150 फुट है। लकड़ी के खम्बों की दो पंक्तियाँ पाई गई हैं। जिनके बीच 14-1/2 फुट का अंतर है। यह अंतर लकड़ी के स्लीपरों से ढका गया है। खम्भों के ऊपर शहतीर जुड़े हुए हैं। खम्भों की ऊँचाई ज़मीन की सतह से 12-1/2 फुट है और ये ज़मीन के अन्दर 5 फुट गहरे गाड़े गए थे। यूनानी लेखकों ने लिखा है कि नदी—तट पर स्थित नगरों में प्रायः काष्ठशिल्प का उपयोग होता था। पाटलिपुत्र की भी यही स्थिति थी। सभा—मंडप में शिला—स्तंभों का प्रयोग एक नई प्रथा थी।



मौर्यकाल के सर्वोत्कृष्ट नमूने, अशोक के एकाश्मक स्तंभ हैं जोकि उसने धम्म प्रचार के लिए देश के विभिन्न भागों में स्थापित किए थे। इनकी संख्या लगभग 20 है और ये चुनार (बनारस के निकट) के बलुआ पत्थर के बने हुए हैं। लाट की ऊँचाई 40 से 50 फुट है। चुनार की खानों से पत्थरों को काटकर निकालना, शिल्पकला में इन एकाश्मक खम्भों को काट—तराशकर वर्तमान रूप देना, इन स्तंभों को देश के विभिन्न भागों में पहुँचाना, शिल्पकला तथा इंजीनियरी कौशल का अनोखा उदाहरण है। इन स्तंभों के दो मुख्य भाग उल्लेखनीय हैं—(1) स्तंभ यष्टि या गावदुम लाट (tapering shaft) और शीर्ष भाग। शीर्ष भाग के मुख्य अंश हैं घंटा, जोकि अखमीनी स्तंभों के आधार के घंटों से मिलते—जुलते हैं। भारतीय विद्वान इसे अवांगमुखी कमल कहते हैं। इसके ऊपर गोल अंड या चौकी है। कुछ चौकियों पर चार पशु और चार छोटे चक्र अंकित हैं (जैसे सारनाथ स्तंभ शीर्ष की चौकी पर) तथा कुछ पर हंसपक्ति अंकित है। चौकी पर सिंह, अश्व, हाथी तथा बैल आसीन हैं। रामपुर में नटुवा बैल ललित मुद्रा में खड़ा है। सारनाथ के शीर्ष स्तंभ पर चार सिंह पीठ सटाए बैठे हैं। ये चार सिंह एक चक्र धारण किए हुए हैं। यह चक्र बुद्ध द्वारा धर्म—चक्र—प्रवर्तन का प्रतीक है। अशोक के एकाश्मक स्तंभों का सर्वोत्कृष्ट नमूना सारनाथ के सिहंस्तंभ का शीर्षक है। मौर्य शिल्पियों के रूपविधान का इससे अच्छा दूसरा नमूना और कोई नहीं है। ऊपरी सिंहों में जैसी शक्ति का प्रदर्शन है, उनकी फूली नसों में जैसी स्वाभाविकता है और उनके नीचे उकेरी आकृतियों में जो प्राणवान वास्तविकता है, उसमें कहीं भी आरम्भिक कला की छाया नहीं है। शिल्पों ने सिंहों के रूप को प्राकृतिक सच्चाई से प्रकट किया है।

स्तंभों की—विशेषता

सारनाथ स्तंभ की—चमकीली पालिश, घंटाकृति तथा शीर्ष भाग में पशु आकृति के कारण पाश्चात्य विद्वानों ने यह मत व्यक्त किया है कि कला को प्रेरणा अखमीनी ईरान से मिली है। चौकी पर हंसों की उकेरी गई आकृतियों और अन्य सज्जाओं में यूनानी प्रभाव भी दिखाई देता है।

भारतीय विद्वानों के अनुसार अशोक के स्तंभ की कला का स्रोत भारतीय है। मौर्य स्तंभ—शीर्षों की पशु—मूर्तियाँ, सारनाथ का सिंहस्तंभ, रामपुरवा का बैल प्राचीन सिंधु घाटी से प्रवाहमान परम्परा के अनुकूल है। किन्तु वासुदेव शरण अग्रवाल ने महाभारत और आपस्तम्ब सूत्र से प्रमाण प्रस्तुत किए हैं, जिनसे सिद्ध होता है कि चमकीली पालिश उत्पन्न करने की कला ईरान से कहीं पहले भारत में ज्ञात थी। मौर्यकाल से पूर्व और एक हद तक मौर्यकालीन स्थानों पर जो काली पालिश वाले मृदभांड पाए गए हैं उनसे प्रतीत होता है कि देश के इतिहास में एक युग ऐसा था जब ओपदार चमक में रुचि ली जाती थी। यह भी सिद्ध होता है कि पालिश का रहस्य केवल राजशिल्पियों तक सीमित नहीं था। पिंपरहवा स्तूप से मिली स्फटिक मंजूषा, पाटलिपुत्र के दो यक्ष और दीदारगंज की यक्षी में भी यह पालिश पाई जाती है। सारनाथ के धर्मचक्र की कल्पना नितांत भारतीय है।

ईरानी स्तंभों और मौर्य स्तंभों में स्पष्ट भेद हैं

स्वतंत्र स्तंभों की कल्पना भारतीय है। ईरानी स्तंभ नालीदार हैं जबकि भारतीय स्तंभ सपाट हैं। ईरानी स्तंभ अलग—अलग पाषाण—खंडों के बने हुए हैं किन्तु अशोक स्तंभ एक ही पत्थर के हैं। स्तंभ के शीर्ष भाग को घंटा कहा गया है। किन्तु भारतीय विद्वानों के अनुसार यह आवांगमुख कमल अथवा पूर्णघट है जो बाहर की ओर लहराती हुई कमल की पंखुड़ियों से ढका हुआ है। यदि कुछ समय के लिए इसे घंटा मान भी लिया जाए तो यह ईरानी घंटे से भिन्न है। तथाकथित मौर्य घंटा घटपल्लव या पूर्णघट के अभिप्राय के सदृश बनाया गया है। इसके अलावा ईरानी और मौर्य स्तंभ शीर्षकों के अलंकरणों में भी अंतर है। मौर्यकालीन शिल्पियों ने चिरपरिचित परम्परा को अपनाया और अपनी प्रतिभा से उसे नवीन आकार प्रदान किया। यदि ईरानी प्रभाव को मान भी लिया जाए, तो भी अशोक स्तंभों की संगत राशी मूर्तिकला तथा अलंकरण को अखमीनी, ईरानी या यूनान की मूलाकृतियों की नक़ल मात्र नहीं माना जा सकता। विदेशी कला—लक्षणों का सम्यक् अध्ययन करके भारतीय कलाकारों ने अपनी प्रतिभा से रूपातंरण किया है और उन्हें अपने ढंग से कलाकृतियों में अभिव्यक्त किया है।

स्तूप निर्माण

अशोक ने स्तूप निर्माण की परम्परा को भी प्रोत्साहन दिया। बौद्ध अनुश्रुति के अनुसार अशोक ने 8,400 स्तूप बनवाए। साँची तथा भरहुत के स्तूपों का निर्माण मूल रूप में अशोक ने ही करवाया था। शुंगों में साँची स्तूप का विस्तार हुआ।

मौर्य काल वास्तु कला

अशोक ने वास्तुकला के इतिहास में एक नई शैली का प्रारम्भ किया, अर्थात चट्टानों को काटकर कंदराओं का निर्माण किया। गया के निकट बाराबर की पहाड़ियों में अशोक ने अपने राज्याभिषेक के 12वें वर्ष में सुदामा गुहा आजीवक भिक्षुओं को दान में दी। इस गुफा में दो कोष्ठ हैं। एक गोल व्यास है जिसकी छत—अर्धवृत्त या ख़रबूज़िया आकार की है। उसके बाहर का मुखमंडप आयताकार है किन्तु छत गोलाकार है। दोनों कोष्ठों की भित्तियों और छतों पर शीशे जैसी चमकती हुई पालिश है। इससे ज्ञात होता है कि चैत्य गृह का मौलिक विकास अशोक के समय में ही प्रारम्भ हो गया था और इस शैली का पूर्ण विकास महाराष्ट्र के भाजा, कन्हेरी और कार्ले चैत्यगृहों में परिलक्षित होता है। अशोक के पुत्र दशरथ ने नागार्जुनी पहाड़ियों में आजाविकों को 3 गुफाएँ प्रदान कीं। इनमें से एक प्रसिद्ध गुफा गोपी गुफा है। इनका विन्यास सुरंग जैसा है। इसके मध्य में ढोलाकार छत और दोनों शिरों पर दो गोल मंडप हैं, जिनमें से एक को गर्भगृह और दूसरे को मुखमंडप समझना चाहिए। इसमें अशोककालीन गृहशिल्प की पूर्णतः रक्षा हुई है।

लोक कला

मौर्यकाल की लोक कला का ज्ञान उन महाकाय यक्ष—यक्षी मूर्तियों के द्वारा होता है जो मथुरा से पाटलिपुत्र, विदिशा, कलिंग और पश्चिम सूर्पारक तक पाई जाती है। इन यक्ष—यक्षियों की मूर्तियों की अपनी निजी शैली है, जिसका ठेठ रूप देखते ही अलग पहचाना जा सकता है। अतिमानवीय महाकाय मूर्तियाँ खुले आकाश के नीचे स्थापित की जाती थीं। इस सम्बन्ध में परखम ग्राम से प्राप्त यक्ष मूर्ति, पटना से प्राप्त यक्ष मूर्ति—जिस पर ओपदार चमक है और एक लेख भी है—पटना शहर में दीदारगंज से प्राप्त चामरग्राहिणी यक्षी—जिस पर भी मौर्य शैली की चमक है—और बेसनगर से प्राप्त यक्षी विशेष उल्लेखनीय है। ये मूर्तियाँ महाकाय हैं और माँसपेशियों की बलिष्ठता और दृढ़ता उनमें जीवंत रूप से व्यक्त हुई है। वे पृथक रूप से खड़ी है पर उनके दर्शन का प्रभाव सम्मुखीन है, मानों शिल्पी ने उन्हें सम्मुख दर्शन के लिए ही बनाया हो। उनका वेश है सिर पर पगड़ी, कंधों और भुजाओं पर उत्तरीय, नीचे धोती जो कटि में मेखला से कायबंधन से बँधी है। कानों में भारी कुँडल, गले में कंठा, छाती पर तिकोना हार और बाहुओं पर अंगद है। मूर्तियों को थोड़ा घटोदर दिखाया गया है जैसे परखम की मूर्ति में देखने को मिलता है। गुहा वास्तु

 ==गुहा वास्तु(वास्तु कला)==

गुहा वास्तु भारतीय प्राचीन वास्तुकला का एक बहुत ही सुन्दर नमूना है। अशोक के शासनकाल से गुहाओं का उपयोग आवास के रूप में होने लगा था। गया के निकट बराबर पहाड़ी पर ऐसी अनेक गुफाएँ विद्यमान हैं, जिन्हें सम्राट अशोक ने आवास योग्य बनवाकर आजीवकों को दे दिया था। अशोककालीन गुहायें सादे कमरों के रूप में होती थीं, लेकिन बाद में उन्हें आवास एवं उपासनागृह के रूप में स्तम्भों एवं मूर्तियों से अलंकृत किया जाने लगा। यह कार्य विशेष रूप से बौद्धों द्वारा किया गया। मौर्य काल का शासन प्रबंध मौर्यों के शासनकाल में भारत ने पहली बार राजनीतिक एकता प्राप्त की। 'चक्रवर्ती सम्राट' का आदर्श चरितार्थ हुआ। कौटिल्य ने चक्रवर्ती क्षेत्र को साकार रूप दिया। उसके अनुसार चक्रवर्ती क्षेत्र के अंतर्गत हिमालय से हिन्द महासागर तक सारा भारतवर्ष है। 'मौर्य युग' में राजतंत्र के सिद्धांत की विजय है। इस युग में गण राज्यों का ह्रास होने लगा और शासन सत्ता अत्यधिक केन्द्रित हो गई। साम्राज्य की सीमा पर तथा साम्राज्य के अंदर कुछ अर्ध-स्वतंत्र राज्य थे, जैसे- काम्बोज, भोज, पैत्तनिक तथा आटविक राज्य।

छठा शिलालेख

अपने छठेशिलालेख में अशोक ने यह विज्ञप्ति जारी की थी कि- "वह प्रजा के कार्य के लिए प्रतिक्षण और प्रत्येक स्थान पर मिल सकता है और प्रजा की भलाई के लिए कार्य करने में उसे बड़ा संतोष मिलता है"।

नीति निर्धारण राजा ही राज्य की नीति निर्धारित करता था और अपने अधिकारियों को राजाज्ञाओं द्वारा समय-समय पर निर्देश दिया करता था। अशोक के शिला तथा स्तंभ लेखों से यह स्पष्ट है कि प्रजा के नाम उसकी राजाज्ञाएँ जारी होती थी। चंद्रगुप्त मौर्य के समय में गुप्तचरों के माध्यम से दूरस्थ प्रदेशों में शासन कर रहे अधिकारियों पर सम्राट का पूरा नियंत्रण रहता था। अशोक के समय पर्यटक महामात्रों, राजुकों, प्रादेशिकों, पुरुषों तथा अन्य अधिकारियों की सहायता लेते थे। संचार व्यवस्था के संचालन के लिए सड़कें थीं, सामरिक महत्त्व की जगहों पर सेना की टुकड़ियाँ तैनात रहा करती थीं। अधिकारियों की नियुक्ति देश की आंतरिक रक्षा और शान्ति, युद्ध संचालन, सेना की नियंत्रण आदि सभी राजा के अधीन था। अधिकारियों का चयन कौटिल्य का दृढ़ मत था कि राजस्व (प्रभुता) बिना सहायता से सम्भव नहीं है, अतः राजा को सचिवों की नियुक्ति करनी चाहिए तथा उनसे मंत्रणा लेनी चाहिए। राज्य के सर्वोच्च अधिकारी मंत्री कहलाते थे। इनकी संख्या तीन या चार होती थी। इनका चयन अमात्य वर्ग से होता था। 'अमात्य' शासन तंत्र के उच्च अधिकारियों का वर्ग था। राजा द्वारा मुख्यमंत्री तथा पुरोहित का चुनाव उनके चरित्र की भली-भाँति जाँच के बाद किया जाता था। इस क्रिया को 'उपधा परीक्षण' कहा गया है (उपधा शुद्धम्)। ये मंत्री एक प्रकार से अंतरंग मंत्रिमंडल के सदस्य थे। राज्य के सभी कार्यों पर इस अंतरंग मंत्रिमंडल में विचार-विमर्श होता था और उनके निर्णय के पश्चात ही कार्यारम्भ होता था। मंत्रिपरिषद मंत्रिमंडल के अतिरिक्त एक और मंत्रिपरिषद् भी होती थी। अशोक के शिलालेखों में 'परिषा' का उल्लेख है। राजा बहुमत के निर्णय के अनुसार कार्य करता था। जहाँ तक मंत्रियों तथा मंत्रिपरिषद् के अधिकार का सवाल है, उनका मुख्य कार्य राजा को परामर्श देना था। वे राजा की निरंकुशता पर नियंत्रण रखते थे, किन्तु मंत्रियों का प्रभाव बहुत कुछ उनकी योग्यता तथा कर्सठता पर निर्भर करता था। अशोक के छठे शिलालेख से अनुमान लगता है कि परिषद् राज्य की नीतियों अथवा राजाज्ञाओं पर विचार-विमर्श करती थी और यदि आवश्यक समझती थी तो उनमें संशोधन का सुझाव भी देती थी। यह राजा के हित में था कि वह मंत्री या परिषद के सदस्यों के परामर्श से लाभ उठाए। किन्तु किसी नीति या कार्य के विषय में अन्तिम निर्णय राजा के ही हाथ में होता था। शासन का भा शासन कार्य का भार मुख्यतः एक विशाल वर्ग पर था, जो साम्राज्य के विभिन्न भागों से शासन का संचालन करते थे। 'अर्थशास्त्र' में सबसे ऊँचे स्तर के कर्मचारियों को 'तीर्थ' कहा गया है। ऐसे अठारह तीर्थों का उल्लेख है, इनमें से कुछ महत्त्वपूर्ण पदाधिकारी थे- मंत्री, पुरोहित, सेनापति, युवराज, समाहर्ता, सन्निधाता तथा मंत्रिपरिषदाध्यक्ष। तीर्थ शब्द एक-दो स्थानों पर प्रयुक्त हुआ है। अधिकतर स्थलों पर इन्हें 'महामात्र' या 'महामात्य' की संज्ञा दी गई है। सबसे महत्त्वपूर्ण तीर्थ या महामात्र मंत्री और पुरोहित थे। राजा इन्हीं के परामर्श से अन्य मंत्रियों तथा अमात्यों की नियुक्ति करता था। राज्य के सभी अधिकरणों पर मंत्री और पुरोहित का नियंत्रण रहता था। सेनापति सेना का प्रधान होता था। ज्येष्ठ पुत्र युवराज पद पर विधिवत अभिषिक्त होता था। शासन कार्य में शिक्षा देने के लिए उसे किसी ज़िम्मेदार पद पर नियुक्त किया जाता था। बिन्दुसार के काल में अशोक मालवा प्रदेश का प्रशासक था और उसे विद्रोहों को दबाने या विजयाभियान के लिए भेजा जाता था। राजस्व राजस्व एकत्र करना, आय व्यय का ब्यौरा रखना तथा वार्षिक बजट तैयार करना, समाहर्ता के कार्य थे। देहाती क्षेत्र की शासन व्यवस्था भी उसी के अधीन थी। शासन की दृष्टि से देश को छोटी छोटी इकाइयों में विभक्त किया जाता था और अधिकारियों की सहायता से शासन कार्य चलाया जाता था। इन्हीं अधिकारियों की सहायता से वह जनगणना, गाँवों की कृषि योग्य भूमि, लोगों के व्यवसाय, आय व्यय, तथा प्रत्येक परिवार से मिलने वाले कर की मात्रा की जानकारी रखता था। यह जानकारी वार्षिक आय व्यय का बजट तैयार करने के लिए आवश्यक थी। गुप्तचरों के द्वारा वह देशी व विदेशी लोगों की गतिविधियों की पूरी जानकारी रखता था। जो कि सुरक्षा के लिए काफ़ी महत्त्वपूर्ण ज़िम्मेदारी थी। प्रदेष्ट्रि अथवा प्रादेशिकों, स्थानिकों और गोप की सहायता से वह चोरी, डक़ैती करने वाले अपराधियों को दंडित करता था। इस प्रकार समाहर्ता एक प्रकार से आधुनिक वित्त मंत्री और गृहमंत्री के कर्तव्यों को पूरा करता था। सन्निधातृ एक प्रकार से कोषाध्यक्ष था। उसका काम था साम्राज्य के विभिन्न प्रदेशों में कोषगृह और कोष्ठागार बनवाना और नक़द तथा अन्न के रूप में प्राप्त होने वाले राजस्व की रक्षा करना। अर्थशास्त्र के 'अध्यक्ष प्रचार' अध्याय में 26 अध्यक्षों का उल्लेख है। ये विभिन्न विभागों के अध्यक्ष होते थे और मंत्रियों के निरीक्षण में काम करते थे। कतिपय अध्यक्ष इस प्रकार थे—कोषाध्यक्ष, सीताध्यक्ष, पण्याध्यक्ष, मुद्राध्यक्ष, पौतवाध्यक्ष, बन्धनागाराध्यक्ष आदि। इन अध्यक्षों के कार्य—विस्तार के अध्ययन से ज्ञात होता है कि राज्य देश के सामाजिक एवं आर्थिक जीवन और कार्य—विधि पर पूरा नियंतत्र रखता था। शासन के कई विभागों के अध्यक्ष, मंडल की सहायता से कार्य करते थे। जिनकी ओर मेगस्थनीज़ का ध्यान आकृष्ट हुआ। केन्द्रीय महामात्य (महामात्र) तथा अध्यक्षों के अधीन अनेक निम्न स्तर के कर्मचारी होते थे जिन्हें 'युक्त' और 'उपयुक्त' की संज्ञा दी गई है। अशोक के शिलालेखों में युक्त का उल्लेख है। इन कर्मचारियों के माध्यम से केन्द्र और स्थानीय शासन के बीच सम्पर्क बना रहता था। केन्द्रीय शासन का एक महत्त्वपूर्ण विभाग सेना विभाग था। यूनानी लेखकों के अनुसार चंद्रगुप्त के सेना विभाग में 60,000 पैदल, 50,000 अश्व, 9,000 हाथी व 400 रथ की एक स्थायी सेना थी। इसकी देखदेख के लिए पृथक सैन्य विभाग था। इस विभाग का संगठन 6 समितियों के हाथ में था। प्रत्येक समिति में पाँच सदस्य होते थे। समितियाँ सेना के पाँच विभागों की देखदेख करती थी—पैदल, अश्व, हाथी, रथ तथा नौसेना। सेना के यातायात तथा युद्ध सामग्री की व्यवस्था एक समिति करती थी। सेनापति सेना का सर्वोच्च अधिकारी होता था। सीमांतों की रक्षा के लिए मज़बूत दुर्ग थे जहाँ पर सेना अंतपाल की देखरेख में सीमाओं की रक्षा में तत्पर रहती थी। सम्राट न्याय प्रशासन का सर्वोच्च अधिकारी होता था। मौर्य साम्राज्य में न्याय के लिए अनेक न्यायालय थे। सबसे नीचे ग्राम स्तर पर न्यायालय थे। जहाँ ग्रामणी तथा ग्रामवृद्ध कतिपय मामलों में अपना निर्णय देते थे तथा अपराधियों से ज़ुर्माना वसूल करते थे। ग्राम न्यायालय से ऊपर संग्रहण, द्रोणमुख, स्थानीय और जनपद स्तर के न्यायालय होते थे। इन सबसे ऊपर पाटलिपुत्र का केन्द्रीय न्यायालय था। यूनानी लेखकों ने ऐसे न्यायधीशों की चर्चा की है जो भारत में रहने वाले विदेशियों के मामलों पर विचार करते थे। ग्रामसंघ और राजा के न्यायलय के अतिरिक्त अन्य सभी न्यायलय दो प्रकार के थे—धर्मस्थीय और कंटकशोधन। धर्मस्थीय न्यायालयों का न्याय—निर्णय, धर्मशास्त्र में निपुण तीन धर्मस्थ या व्यावहारिक तथा तीन अमात्य करते थे। इन्हें एक प्रकार से दीवानी अदालतें कह सकते हैं। कुछ विद्वानों के अनुसार धर्मस्थ न्यायालय वे न्यायालय थे, जो व्यक्तियों के पारस्परिक विवाद के सम्बन्ध में निर्णय देते थे। कंटकशोधन न्यायालय के न्यायधीश तीन प्रदेष्ट्रि तथा तीन अमात्य होते थे और राज्य तथा व्यक्ति के बीच विवाद इनके न्याय के विषय थे। इन्हें हम एक तरह से फ़ौज़दारी अदालत कह सकते हैं। किन्तु इन दोनों के बीच भेद इतना स्पष्ट नहीं था। अवश्य ही धर्मस्थीय अदालतों में अधिकांश वाद—विषय विवाह, स्त्रीधन, तलाक़, दाय, घर, खेत, सेतुबंध, जलाशय—सम्बन्धी, ऋण—सम्बन्धी विवाद भृत्य, कर्मकर और स्वामी के बीच विवाद, क्रय—विक्रय सम्बन्धी झगड़े से सम्बन्धित थे। किन्तु चौरी, डाके और लूट के मामले भी धर्मस्थीय अदालत के सामने पेश किए जाते थे। जिसे 'साहस' कहा गया है। इसी प्रकार कुवचन बोलना, मानहानि और मारपीट के मामले भी धर्मस्थीय अदालत के सामने प्रस्तुत किए जाते थे। इन्हें 'वाक् पारुष्य' तथा 'दंड पारुष्य' कहा गया है। किन्तु समाज विरोधी तत्वों को समुचित दंड देने का कार्य मुख्यतः कंटकशोधन न्यायालयों का था। नीलकंठ शास्त्री के अनुसार कंटकशोधन न्यायालय एक नए प्रकार की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए बनाए गए थे ताकि एक अत्यन्त संगठित शासन तंत्र के विविध विषयों से सम्बद्ध निर्णयों को कार्यान्वित किया जा सके। वे एक प्रकार के विशेष न्यायालय थे जहाँ अभियोगों पर तुरन्त विचार किया जाता था। मौर्य शासन प्रबन्ध में गूढ़ पुरुषों (गुप्तचरों) का महत्त्वपूर्ण स्थान था। इतने विशाल साम्राज्य के सुशासन के लिए यह आवश्यक था कि उनके अमात्यों, मंत्रियों, राजकर्मचारियों और पौरजनपदों पर दृष्टि रखा जाए, उनकी गतिविध और मनोभावनाओं का ज्ञान प्राप्त किया जाए और पड़ोसी राज्यों के विषय में भी सारी जानकारी प्राप्त होती रहे। दो प्रकार के गुप्तचरों का उल्लेख है—संस्था और संचार। संस्था वे गुप्तचर थे जो एक ही स्थान पर संस्थाओं संगठित होकर कापटिकक्षात्र, उदास्थित, गृहपतिक, वैदेहक (व्यापारी) तापस (सिर मुंडाय या जटाधारी साधु) के वेश में काम करते थे। इन संस्थाओं में संगठित होकर ये राजकर्मचारियों के शौक़ या भ्रष्टाचार का पता लगाते थे। संचार ऐसे गुप्तचर थे जो एक स्थान से दूसरे स्थान पर घूमते रहते थे। ये अनेक वेशों में एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाकर सूचना एकत्रित कर राजाओं तक पहुँचाते थे। राज्य को कई प्रशासनिक इकाइयों में बाँटा गया था। सबसे बड़ी प्रशासनिक इकाई प्रान्त थी। चंद्रगुप्त के समय इन प्रान्तों की सख्या क्या थी, यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता है। किन्तु अशोक के समय पाँच प्रान्तों का उल्लेख मिलता है-- (1) उत्तरापथ—इसकी राजधानी तक्षशिला थी, (2) अवन्तिराष्ट्र—जिसकी राजधानी उज्जयिनी थी, (3) कलिंगप्रान्त—जिसकी राजधानी तोसली थी, (4) दक्षिणपथ—जिसकी राजधानी सुवर्णगिरि थी, और (5) प्राशी (प्राची, अर्थात् पूर्वी प्रदेश)—इसकी राजधानी पाटलीपुत्र थी। प्राशी अथवा मगध तथा समस्त उत्तरी भारत का शासन पाटलिपुत्र से सम्राट स्वंय करता था। सौराष्ट्र भी चंद्रगुप्त के साम्राज्य का एक प्रान्त था। इतिहासकारों के अनुसार सौराष्ट्र की स्थिति अर्ध—स्वतंत्र प्राप्त की थी और चंद्रगुप्त के समय पुष्यगुप्त तथा अशोक के समय तुषास्फ की स्थिति अर्ध—स्वशासन प्राप्त सामंत की थी। तथापि उसके कार्यकलाप सम्राट के ही अधिकार क्षेत्र के अंतर्गत आते थे। प्रान्तों का शासन वाइसराय रूपी अधिकारी द्वारा होता था। ये अधिकारी राजवंश के होते थे। अशोक के अभिलेखों में उन्हें "'कुमार'" कहा गया है। केन्द्रीय शासन की ही भाँति प्रान्तीय शासन में मंत्रिपरिषद् होती थी। रोमिला थापर का सुझाव है कि प्रान्तीय मंत्रिपरिषद् केन्द्रीय मंत्रिपरिषद् की अपेक्षा अधिक स्तंत्रत थी। दिव्यावदान में कुछ उद्धरणों से उन्होंने यह निष्कर्ष निकाला है कि प्रान्तीय मंत्रिपरिषद् का सम्राट से सीधा सम्पर्क था। अशोक के शिलालेखों से भी यह स्पष्ट है कि समय—समय पर केन्द्र से सम्राट प्रान्तों की राजधानियों में महामात्रों को निरीक्षण करने के लिए भेजता था। साम्राज्य के अंतर्गत कुछ—कुछ अर्धस्वशासित प्रदेश थे। यहाँ स्थानीय राजाओं को मान्यता दी जाती थी किन्तु अन्तपालों द्वारा उनकी गतिविधि पर पूरा नियंत्रण रहता था। अशोक के अन्य महामात्र इन अर्धस्वशासित राज्यों में धम्म महामात्रों द्वारा धर्म प्रचार करवाते थे। इसका मुख्य उद्देश्य उनके उद्दंड क्रिया—कलापों को नियंत्रित करना था। प्रान्त ज़िलों में विभक्त थे, जिन्हें 'आहार' या 'विषय' कहते थे और जो सम्भवतः विषयपति के अधीन था। ज़िले का शासक स्थानिक होता था और स्थानिक के अधीन गोप होते थे जो पूरे 10 गाँवो के ऊपर शासन करते थे। स्थानिक समाहर्ता के अधीन भी थे। समाहर्ता के अधीन एक और अधिकारी शासन कार्य चलाता था जिसे 'प्रदेष्ट्र' कहा गया है। वह स्थानिक गोप और ग्राम अधिकारियों के कार्यो की जाँच करता था। इन प्रदेष्ट्रियों को अशोक के प्रादेशिकों के समरूप माना गया है। मेगस्थनीज़ ने नगर शासन का विस्तृत वर्णन दिया है। नगर का शासन प्रबन्ध 30 सदस्यों का एक मंण्डल करता था। मण्डल समितियों में विभक्त था। प्रत्येक समिति के पाँच सदस्य होते थे। पहली समिति उद्योग शिल्पों का निरीक्षण करती थी। दूसरी समिति विदेशियों की देखरेख करती थी। इसका कर्तव्य था, विदेशियों के आवास का उचित प्रबन्ध करना तथा बीमार पड़ने पर उनकी चिकित्सा का उचित प्रबन्ध करना। उसकी सुरक्षा का भार भी इसी समिति पर था। विदेशियों की मृत्यु होने पर उनकी अंत्येष्टि क्रियाओं तथा उनकी सम्पत्ति उचित उत्तराधिकारियों के सुपुर्द करने का कार्य भी यही समिति करती थी। यह देखरेख के माध्यम से विदेशियों की गतिविधियों पर नज़र भी रखती थी। तीसरी समिति जन्म—मरण का हिसाब रखती थी। जन्म—मरण का ब्यौरा केवल करों का अनुमान लगाने के लिए ही नहीं बल्कि इसलिए भी रखा जाता था कि सरकार को पता रहे कि मृत्यु क्यों और किस प्रकार हुई। राज्य की दृष्टि से यह जानकारी आवश्यक थी। चौथी समिति व्यापार और वाणिज्य की देखरेख करती थी। माप—तौल की जाँच, वस्तु विक्रय की व्यवस्था करना और यह देखना कि प्रत्येक व्यापारी एक से अधिक वस्तु का विक्रय न करे। एक से अधिक वस्तु का विक्रय करने वाले को अतिरिक्त शुल्क देना पड़ता था। पाँचवीं समिति निर्मित वस्तुओं के विक्रय का निरीक्षण करती थी और इस बात का ध्यान रखती थी कि नई और पुरानी वस्तु को मिलाकर तो नहीं बेचा जा रहा। इस नियम का उल्लघंन करने वालों को सज़ा दी जाती थी। नई—पुरानी वस्तुओं को मिलाकर बेचना क़ानून के विरुद्ध था। छठी उपसमिति का कार्य बिक्रीकर वसूल करना था। विक्रय मूल्य का दसवाँ भाग कर के रूप में वसूल किया जाता था। इस कर से बचने वाले को मृत्युदंड दिया जाता था। मौर्य साम्राज्य जैसे विस्तृत साम्राज्य के संचालन के लिए धन की आवश्यकता रही होगी—इसमें तो सन्देह हो ही नहीं सकता। वास्तव में इस युग में पहली बार राजस्व प्रणाली की रूपरेखा तैयार की गई और उसके पर्याप्त विवरण कौटिल्य ने भी दिए हैं। राज्य की आय का प्रमुख स्रोतों के कुछ विवरण ऊपर भी दिए जा चुके हैं। उनके अतिरिक्त अनेक व्यवसाय ऐसे थे, जिन पर राज्य का पूर्ण आधिपत्य था और जिसका संचालन राज्य के द्वारा किया जाता था। इनमें ख़ान, जंगल, नमक और अस्त्र—शस्त्र के व्यवसाय प्रमुख थे। राजा का यह दायित्व था कि वह कुशल कर्मकारों का प्रबन्ध कर ख़ानों का पता लगए, ख़ानों से खनिज पदार्थ निकालकर उन्हें कर्मान्तों या कारख़ानों में भिजवाए और जब वस्तुएँ तैयार हो जाएँ तो उनकी बिक्री का प्रबन्ध करे। कौटिल्य ने दो प्रकार की ख़ानों का उल्लेख किया है—स्थल ख़ानें और जल ख़ानें। स्थल ख़ानों से सोना, चाँदी, लोहा, ताँबा, नमक आदि प्राप्त किए जाते थे और जल ख़ानों से मुक्ता, शुक्ति, शंख आदि। इन ख़ानों से राज्य को पर्याप्त आय होती थी। जंगल राज्य की सम्पत्ति होते थे। जंगल के पदार्थों को कारख़ानों में भेजकर उनसे विविध प्रकार की पण्य वस्तुएँ तैयार कराई जाती थीं। राज्य को कोष्ठागारों में संचित अन्न से, ख़ानों और जंगलों से प्राप्त द्रव्य से और कर्मान्तों में बनी हुई पण्य वस्तुओं के विक्रय से भी काफ़ी आय होती थी। मुद्रा—पद्धति से भी आय होती थी। मुद्रा संचालन का अधिकार राज्य को था। लक्षणाध्यक्ष सिक्के जारी करता था और जब लोग सिक्के बनवाते तो उन्हें राज्य का लगभग 13.50 प्रतिशत ब्याज रुपिका और परीक्षण के रूप में देना पड़ता था। विविध प्रकार के दंडों से तथा सम्पत्ति की ज़ब्ती से भी राज्य की आमदनी होती थी। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में अनेक ऐसी परिस्थितियों का निरूपण किया गया है, जिनसे राज्य सम्पत्ति ज़ब्त कर लेता था। संकट के काल में राज्य अनेक अनुचित उपायों से भी धन संचय करता था, जैसे अदर्भुत प्रदर्शन और मेलों को संगठित करना। पंतजलि के अनुसार मौर्य काल में धन के लिए देवताओं की प्रतिमाएँ बनाकर बेची जाती थीं। इस प्रकार मौर्य शासन काल में राज्य की आय के सभी साधनों को जुटाया गया।

==राजकीय व्यय को विभिन्न वर्गों में रखा जा सकता है==—

1. राजा और राज्य परिवार का भरण—पोषण, 

2. राज्य कर्मचारियों के वेतन, राज्य की आय का बड़ा भाग वेतन देने पर खर्च होता था। सबसे अधिक वेतन 48,000 पण मंत्रियों का था और सबसे कम वेतन 60 पण था। आचार्य, पुरोहित और क्षत्रियों को वह देह भूमि दान में दी जाती थी जो कर मुक्त होती थी। ख़ान, जंगल, राजकीय भूमि पर कृषि आदि के विकास के लिए राज्य की ओर से धन व्यय किया जाता था। सेना पर काफ़ी धन व्यय किया जाता था। अर्थशास्त्र के अनुसार प्रशिक्षित पदाति का वेतन 500 पण, रथिक का 200 पण और आरोहिक (हाथी और घोड़े पर चढ़कर युद्ध करने वाले) का वेतन 500 से 1000 पण वार्षिक रखा गया था। इससे अनुमान लग सकता है कि सेना पर कितना खर्च होता था। उच्च सेनाधिकारियों का वेतन 48,000 पण से लेकर 12,000 पण वार्षिक तक था। यद्यपि मौर्य साम्राज्य में सैनिकों पर अत्यधिक खर्च किया जाता था, तथापि यह स्वीकार नहीं किया जा सकता कि इस शासन—व्यवस्था में कल्याणकारी राज्य की कई विशेषताएँ पाई जाती हैं, जैसे राजमार्गों के निर्माण, सिंचाई का प्रबन्ध, पेय जल की व्यवस्था, सड़कों के किनारे छायादार वृक्षों का लगाना, मनुष्य और पशुओं के लिए चिकित्सालय, मृत सैनिकों तथा राज कर्मचारियों के परिवारों के भरण—पोषण, कृपण—दीन—अनाथों का भरण—पौषण आदि। इन सब कार्यों पर भी राज्य का व्यय होता था। अशोक के समय इन परोपकारी कार्यों की संख्या में अत्यधिक वृद्धि हुई।

सन्दर्भ

  1. Joshi, Tarun (2010). "मौर्यकालीन स्थापत्य एवं वास्तु कला" (in अंग्रेज़ी). {{cite journal}}: Cite journal requires |journal= (help)