मानदण्डक नीतिशास्त्र
मानदण्डक नीतिशास्त्र (साँचा:lang-en) नीतिशास्त्रीय कार्य का अध्ययन हैं। यह दार्शनिक नीतिशास्त्र की शाखा हैं, जो उन प्रश्नों को जाँचती हैं, जिनका उद्गम यह सोचते वक़्त होता हैं कि नैतिक तौर पर किसी को कैसे कार्य करना चाहियें। इसकी व्युपत्ति मानदण्डक से हुई, जिसका सम्बन्ध किसी आदर्श मानक या मॉडल से हैं, या उस पर आधारित हैं, जो, कोई चीज़ करने का सामान्य या उचित तरीका माना जाता हो।
मानदण्डक नीतिशास्त्र अधिनीतिशास्त्र (मेटा-ऍथिक्स, meta-ethics) से अलग हैं, क्योंकि वह कार्यों के सही या गलत होने के मानकों का परीक्षण करता हैं, जबकि मेटा-नीतिशास्त्र नैतिक भाषा और नैतिक तथ्यों के तत्वमीमांसा के अर्थ का अध्ययन करता हैं। मानदण्डक नीतिशास्त्र वर्णात्मक नीतिशास्त्र से भी भिन्न हैं, क्योंकि पश्चात्काथित लोगों की नैतिक आस्थाओं की अनुभवसिद्ध जाँच हैं। अन्य शब्दों में, वर्णात्मक नीतिशास्त्र का सम्बन्ध यह निर्धारित करने से हैं कि किस अनुपात के लोग मानते हैं कि हत्या सदैव गलत हैं, जबकि मानदण्डक नीतिशास्त्र का सम्बन्ध इस बात से हैं कि क्या यह मान्यता रखनी गलत हैं। अतः, कभी-कभी मानदण्डक नीतिशास्त्र को वर्णात्मक के बजाय निर्देशात्मक कहा जाता हैं। हालांकि, मेटा-नीतिशास्त्रीय दृष्टि के कुछ संस्करणों में जिन्हें नैतिक यथार्थवाद कहा जाता हैं, नैतिक तथ्य एक ही वक़्त पर, दोनों वर्णात्मक और निर्देशात्मक होते हैं।[१]
ज़्यादातर परम्परागत नैतिक सिद्धांत उन सिद्धान्तों पर आधारित हैं जो निर्धारित करते हैं कि कोई कार्य सही या गलत हैं या नहीं। इस शैली में, क्लासिकी सिद्धान्तों में उपयोगितावाद, काण्टीयवाद और कुछ संविदीयवाद के रूप शामिल हैं। यह सिद्धान्त मुश्किल नैतिक निर्णयों का समाधान करने हेतु मुख्यतः नैतिक सिद्धान्तों का व्यापक उपयोग प्रदान करते हैं।
मानदण्डक नीतिशास्त्रीय सिद्धान्त
इस बात को लेकर असहमति हैं कि निश्चित रूप से वह क्या हैं जो किसी कार्य, नियम या अयान को उसका नीतिशास्त्रीय बल प्रदान करता हैं। Broadly speaking, there are three competing views on how moral questions should be answered, along with hybrid positions that combine some elements of each. गुण नीतिशास्त्र का फोकस कार्य करने वालों के चरित्र पर होता हैं, जबकि दोनों, कर्त्तव्यवैज्ञानिक नीतिशास्त्र और परिणामवाद का फोकस कार्य, नियम या अयान की स्थिति पर होता हैं। पश्चात्कथित नीतिशास्त्र के दोनों संप्रत्यय, अपने आप में कई रूपों में आते हैं।
- गुण नीतिशास्त्र, जिसकी वक़ालत अरस्तु और थॉमस अक्विनस ने की। इनका फोकस व्यक्ति के अन्तर्निहित चरित्र पर होता हैं, न की विशेष क्रियाओं पर। पिछली अर्ध-शताब्दी में गुण नीतिशास्त्र का महत्त्वपूर्ण पुनःप्रवर्तन हुआ हैं, जिसका श्रेय G. E. M. Anscombe, Philippa Foot, Alasdair Macintyre, Mortimer J. Adler, Jacques Maritain, Yves Simon, और Rosalind Hursthouse जैसे दार्शनिकों के कार्य को जाता हैं।
- कर्त्तव्यविज्ञान, जिसका यह मत हैं कि किसी के कर्त्तव्यों और अधिकारों के कारकों को देखकर निर्णय लियें जाने चाहियें। कुछ कर्त्तव्यवैज्ञानिक सिद्धान्तों में निम्न सम्मिलित हैं -
- इमानुएल काण्ट का Categorical Imperative, जो मानवता की तर्कसंगत क्षमता में नैतिकता को स्थापित करता हैं, और कुछ अनुल्लंघनीय नैतिक नियमों को दृढ़तापूर्वक रखता हैं।
- जॉन रॉल्स का contractualism, जो यह कहता हैं कि नैतिक कार्य वे होते हैं, जिन्हें हम सब स्वीकृत करते, यदि हम निष्पक्ष होते।
- प्राकृतिक अधिकार के सिद्धान्त, जैसे कि John Locke or Robert Nozick के सिद्धान्त, जो ये कहते हैं कि इंसानों के पास पूर्ण, प्राकृतिक अधिकार होते हैं।
- परिणामवाद (Teleology) यह तर्क देता हैं कि किसी कार्य की नैतिकता उस कार्य के आउटकम या फल पर आकस्मिक होता हैं। परिणामवादी सिद्धान्तों में, अक्सिओलोजी के मूल्य को मानने में भिन्नता को मद्देनज़र, निम्न सम्मिलित हैं -