महाश्रमण
आचार्य महाश्रमण | |
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जैन श्वेताम्बर तेरापंथ धर्मसंघ के ११वें आचार्य महाश्रमणजी | |
नाम (आधिकारिक) | आचार्य महाश्रमण |
व्यक्तिगत जानकारी | |
जन्म नाम | मोहन दुगड़ |
जन्म | साँचा:br separated entries |
निर्वाण | साँचा:br separated entries |
माता-पिता | झुमरमलजी और नेमादेवी दुगड़ |
शुरूआत | |
नव सम्बोधन | मुदित |
सर्जक | मुनि श्री सुमेरमलजी |
सर्जन स्थान | सरदारशहर, राजस्थान, भारत |
सर्जन तिथि | 5 मई 1974 |
दीक्षा के बाद | |
पद | आचार्य |
कार्य | अणुव्रत आंदोलन और प्रेक्षाध्यान |
पूर्ववर्ती | आचार्य महाप्रज्ञ |
आचार्य महाश्रमण (जन्म 13 मई 1962) जैन श्वेतांबर तेरापंथ के ग्याहरवें आचार्य हैं ।[१] आचार्य महाश्रमण जी, तेरापंथ संगठन के तहत काम करने वाली सभी गतिविधियों का नेतृत्व करते हैं, विशेष रूप से अणुव्रत, प्रेक्षा ध्यान, जीवन विज्ञान । सभी तेरापंथ उप-संगठन, विशेष रूप से जैन विश्व भारती,जैन श्वेतांबर तेरापंथी महासभा आदि आचार्य श्री महाश्रमण के मार्गदर्शन में काम कर रहे हैं ।[२][३] एक धार्मिक संगठन के आचार्य होने के बावजूद, उनके विचार उदार और धर्मनिरपेक्ष हैं । अहिंसा, नैतिक मूल्यों और सिद्धांतों को बढ़ावा देने में उनका दृढ़ विश्वास है ।[४][५]
जन्म
सरदारशहर की पुण्यस्थली। वि. सं. २०१९, वैशाख शुक्ला नवमी (१३ मई १९६२) का मंगल प्रभात । एक अनाम शिशु ने दूगड़ परिवार मे मातुश्री नेमादेवी की कुक्षि से जन्म लिया। व्यवहार जगत् में 'मोहन' नाम से पहचान बनाई । पिताश्री झूमरमल जी का हृदयांगण खुशियों से भर गया । बालक मोहन बचपन से ही मेधावी, श्रमशील, कार्यनिष्ठ विद्यार्थी थे। उनकी विनम्रता, भद्रता, ऋजुता, मृदुता और पापभीरुता हृदय का छूने वाली थी । उस समय कौन जानता था कि वह बालक आगे चलकर तेरापंथ का ग्यारहवां अधिशास्ता बनेगा ।[६]
दीक्षा
जब बालक मोहन मात्र सात वर्ष की लघु अवस्था में थे तभी वे पितृ-वात्सल्य से वंचित हो गए ।[७] परिवार में एक अपूरणीय क्षति हो गई किन्तु मातुश्री ने अपनी वत्सलता और स्नेह देकर कभी अपने लाडले को उस रिक्तता की अनुभूति नहीं होने दी । [८] जीवन की क्षणभंगुरता ने बालक की दिशा और दशा—दोनों को बदल दिया । उनके मन में वैराग्य का अंकुर प्रस्फुटित हो गया। ज्यों-ज्यों उसे सिंचन मिला वह पुष्पित, पल्लवित होता चला गया । अध्यात्म के प्रति रुचि बढ़ती गई । धीरे-धीरे उन्होंने उन अर्हताओं को अर्जित कर लिया, जो एक दीक्षित होने वाले साधक में होनी चाहिए। उन्होंने अपने मनोबल और शरीरबल को तोलकर दीक्षा लेने की भावना आचार्यश्री तुलसी के सामने रखी । उस समय आचार्यश्री दिल्ली में प्रवासित थे । आचार्यश्री ने उनका यथोचित परीक्षण कर सरदारशहर की पुण्य भूमि पर ही मुनिश्री सुमेरमलजी (लाडनूं) को दीक्षा देने की अनुमति प्रदान की । वि.सं. २०३१, वैशाख शुक्ला १४ (५ मई, १९७४) रविवार के दिन बारह वर्ष की लघु अवस्था में वे दीक्षित हो गए, मोहन से मुनि मुदित बन गए। बाह्य परिवेश बदलने के साथ-साथ उनका आन्तरिक परिवेश भी बदल गया । सारी प्रवृत्तियां संयममय हो गई । व्यवहार में बाहर जीना और निश्चय में भीतर में रहना उनका जीवनसूत्र बन गया। वे अपना अधिकाधिक समय स्वाध्याय, ध्यान, पाठ का कंठीकरण और उसके पुनरावर्तन में नियोजित करते थे। समय-समय पर उन्हें आचार्य तुलसी और युवाचार्य महाप्रज्ञ का सान्निध्य मिलता रहा । वि. सं. २०४१, ज्येष्ठ कृष्णा अष्टमी को आचार्यश्री ने उन्हें अपनी व्यक्तिगत सेवा में नियुक्त कर लिया । [६]इससे उन्हें ज्ञानार्जन, गुरुसेवा और गुरुकुलवास में रहने का सहज ही अवसर मिल गया । संस्कृत, प्राकृत, हिन्दी और अंग्रेजी भाषाओं में उनका अध्ययन चलता रहा । महाश्रमण प्रारम्भ से ही एक प्रशान्तमूर्ति के रूप में प्रसिद्ध थे । न अधिक बोलना और न अधिक देखना । आंखों की पलकें भी प्राय: निमीलित ही रहती थीं। उनकी निस्पृहता, निरभिमानता सबको लुभाने वाली थी । ज्यों-ज्यों उनकी अर्हताएं बढ़ रही थीं दायित्व की परिधि भी विस्तार पा रही थी। वि. सं. २०४१, जोधपुर प्रवास में वे एक उपदेष्टा के रूप में उभर कर सामने आए । आचार्य तुलसी ने उन्हें व्याख्यान से पूर्व प्रतिदिन उपदेश देने के कार्य में नियोजित किया ।[६]
महाश्रमणपद पर प्रतिष्ठित
आचार्य तुलसी ने संघ में अनेक नवीन कार्य किए । 'महाश्रमण' पद का सृजन भी उसी नवीनता का परिचायक था । योगक्षेम वर्ष का पावन प्रसंग। लाडनूं की पुण्यस्थली। वि. सं. २०४६, भाद्रव शुक्ला नवमी (६ सितम्बर, १९८९) का मंगलमय प्रभात ।[९] आचार्य तुलसी के पट्टोत्सव का पावन प्रसंग ।[६] उस दिन आचार्यवर ने मुनि मुदित को 'महाश्रमण' के गरिमामय पद पर नियुक्त कर एक नया इतिहास बना दिया । महाश्रमण को सम्मानस्वरूप पछेवड्री ओढ़ाने का श्रेय शासन गौरव मुनिश्री बुद्धमलजी को मिला । वरीयता के क्रम में यह पद आचार्य और युवाचार्य के बाद होने वाला तीसरा पद था। यह पद अपने आप में गौरवशाली भी था और रचनात्मक कार्य करने की दिशा में एक नया कदम भी था ।[८]
युवाचार्यपद
पूज्यवर्य गणाधिपति श्री तुलसी के महाप्रयाण के कुछ दिनों पश्चात् आचार्य महाप्रज्ञ ने अप्रत्याशित रूप से युवाचार्य मनोनयन की घोषणा कर दी। वि .सं. २०५४, भाद्रव शुक्ला द्वादशी (१४ सितम्बर, १९९७) का मंगलमय दिवस । चौपड़ा हाई स्कूल का विशाल मैदान । वह दृश्य जन-जन के लिए कितना आह्लादकारी और नयनाभिराम था । जब आचार्य महाप्रज्ञ ने विशाल जनमेदिनी के मध्य-'आओ मुदित'-कहकर पुकारा । एक शब्द के साथ ही लाखों हाथ हवा में ठहरा उठे, जय निनाद से धरती-अंबर गूंज उठे और खुशियों से मंगल शंख बज उठे । एक आवाज के साथ ही महाश्रमण मुनि मुदित युवाचार्य महाश्रमण बन गए, लाखों लोगों के आराध्य और पूजनीय बन गए । आचार्यश्री महाप्रज्ञ ने पहले स्वयं पछेवडी (उत्तरीय) धारण कर बाद में महाश्रमण को ओढ़ाकर उन्हें युवाचार्य के रूप में प्रतिष्टित किया और अपने समीप पट्ट पर बिठा कर अलंकृत किया ।[८][१०]
आचार्य पदाभिषेक
वि.सं. २६५७, द्वि. वैशाख कृष्णा एकादशी (९ मई, २०१०) के दिन आचार्य महाप्रज्ञ का सरदारशहर, गोठी भवन में आकस्मिक महाप्रयाण हो गया। वि.सं. २०६७, द्वि. वैशाख शुक्ला दशमी (२३ मई, २०१०) को गांधी विद्या मन्दिर के विशाल प्रांगण में आचार्य महाश्रमण का ग्यारहवें अनुशास्ता के रूप में पदाभिषेक का विशाल आयोजन था । उस समय देश के कोने-कोने से समागत ३५ हजार श्रद्धालुजन तथा देश के शीर्षस्थ राजनीतिज्ञ व चिंतक श्रीलालकृष्ण आडवाणी, राजनाथ सिंह, राजस्थान के स्वास्थ्य मंत्री राजकुमार शर्मा सांसद सन्तोषजी बागडोरिया, राजस्थान भाजपा के पूर्व अध्यक्ष श्री महेश शर्मा आदि उपस्थित थे ।[११][६]
अहिंसा यात्रा
आचार्यश्री महाश्रमण ने अहिंसक चेतना के विकास , नैतिक मूल्यों के जागरण एवं शांति के संदेश को जन जन तक पहुंचाने हेतु देश की राजधानी दिल्ली के लालकिले से सन् 2014 में अहिंसा यात्रा का प्रारंभ किया [१२]। अहिंसा यात्रा के उपक्रम से और आचार्यश्री की प्रेरणा से हर जाति, धर्म, वर्ग के लाखों लोगों ने इस अहिंसा यात्रा में सद्भावना, नैतिकता और नशामुक्ति के संकल्पों की प्रतिज्ञा को स्वीकार किया है।यह प्रथम अवसर है,जब कोई जैनाचार्य पदयात्रा करते हुए सिर्फ राष्ट्रीय ही नहीं अंतरराष्ट्रीय क्षेत्रों का स्पर्श भी कर रहे हैं ।[१३]आचार्यश्री महाश्रमण ने अब तक भारत के दिल्ली, बिहार, असम, नागालैंड, मेघालय, पश्चिम बंगाल, झारखंड, उड़ीसा, तमिलनाडु, कर्नाटक, केरल, पांडिचेरी, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, महाराष्ट्र ,छत्तीसगढ़ और नेपाल[१४] एवं भूटान की यात्रा कर लोगों को नैतिकता और सदाचार के मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित किया हैं।[१५][१६]
28 जनवरी 2021 को, अहिंसा यात्रा के प्रणेता आचार्यश्री महाश्रमण ने पदयात्रा करते हुए 50,000 किलोमीटर के आंकड़े को पार किया और एक नया इतिहास रचा । भौतिक संसाधनों से भरे आज के युग में, जहाँ परिवहन के बहुत सारे साधन हैं और व्यवस्थाएँ हैं, फिर भी भारतीय ऋषि परंपरा को जीवित रखते हुए, महान दार्शनिक आचार्य श्री महाश्रमणजी जनोपकार व मानवता की सेवा के लिए निरंतर पदयात्रा कर रहे हैं। चरैवेति-चरैवेति सूत्र के साथ गतिमान आचार्य श्री की यह 50,000 किलोमीटर की यात्रा अपने आप में विलक्षण है।[१७] आंकड़ों से, यह यात्रा महात्मा गांधी के दांडी मार्च से १२५ गुना बड़ी है और पृथ्वी की परिधि से १.२५ गुना अधिक है। [१८]यदि कोई व्यक्ति ऐसी पदयात्रा करता है, तो वह भारत के उत्तरी छोर से दक्षिणी छोर या पूर्वी छोर से पश्चिमी छोर तक 15 से अधिक बार यात्रा कर सकता है। [१९] [२०] अहिंसा यात्रा शुरू होने से पहले ही आचार्यश्री महाश्रमणजी ने जनकल्याण के उद्देश्य से लगभग 34,000 किमी की पैदल यात्रा की थी।[२१]ध्यान, योग आदि का प्रशिक्षण देकर, दुर्वृतियों के परिष्कार का मार्ग प्रशस्त किया। आचार्यश्री ने सदैव हृदय परिवर्तन पर जोर दिया है और अपनी यात्रा के दौरान विभिन्न सेमिनारों, कार्यशालाओं के माध्यम से जनता को प्रशिक्षित किया। उनकी प्रेरणा से, विभिन्न जाति, धर्म और वर्ग के लाखों लोगों ने सद्भावना, नैतिकता और धर्म की प्रतिज्ञा को स्वीकार कर लिया।[२२]
प्रभाव
भारत की पूर्व राष्ट्रपति श्रीमती प्रतिभा पाटिल ने कहा,
“आप महिला विकास और पर्यावरण संरक्षण के लिए भी काम कर रहे हैं। आपके उत्कृष्ट, निर्मल और विधायी लेखकत्व को नमस्कार करते हुए, हम विश्व स्तर पर एक शांतिपूर्ण समाज बनाने में आपके सहयोग का अनुरोध करते हैं। ”[२३]
आचार्य श्री महाश्रमण जी की पुस्तक "विजयी बानो" का विमोचन 10 जुलाई 2013 को राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी द्वारा किया गया ।[२४] तत्कालीन मुख्यमंत्री अशोक गहलोत भी उस अवसर पर उपस्थित थे।[२५]
उनके प्रयासों से प्रभावित होकर, पेसिफिक यूनिवर्सिटी ने उन्हें 29 मई को उदयपुर,राजस्थान में "विश्व धर्मगुरु सम्मेलन" में शांतिदूत की उपाधि से सम्मानित किया।[२६] भारतीय दिगम्बर जैन तीर्थयात्रा समिति ने उन्हें "श्रमण संस्कृती उद्गाता" के रूप में सुशोभित किया।[२७]
पुस्तकें
- आओ हम जीना सीखें
- क्या कहता है जैन वाङ्मय
- दुख मुक्ति का मार्ग
- संवाद भगवान से
- महात्मा महाप्रज्ञ
- धम्मो मंगल मुखित्तम
इन्हें भी देखें
- आचार्य तुलसी - जैन आचार्य
- आचार्य महाप्रज्ञ- जैन आचार्य
- साध्वी कनकप्रभा - जैन श्वेताम्बर तेरापंथ की साध्वियों की मुखिया।
बाहरी कड़ियां
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