महाशय चिरंजीलाल 'प्रेम'

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महाशय चिरंजीलाल 'प्रेम' (१८८० - जुलाई, १९५७) भारत के स्वतन्त्रता के पहले से समय के एक पत्रकार एवं आर्यसमाजी थे।[१] वे लाला लाजपतराय के पत्र ‘दैनिक वन्देमातरम्’ तथा महाशय कृष्ण के दैनिक ‘प्रताप’ पत्रों के सहायक सम्पादक रहे। जब पंजाब की आर्य प्रतिनिधि सभा ने पं. लेखराम की स्मृति में ‘आर्य मुसाफिर’ नामक मासिक उर्दू पत्र का प्रकाशन आरम्भ किया तो इसका आद्य सम्पादक महाशय ‘प्रेम’ जी को ही बनाया गया। यह ‘आर्य मुसाफिर’ पत्र का पुनर्प्रकाशन था।

'आर्य मुसाफिर' अपने समय का प्रमुख व सर्वश्रेष्ठ पत्र था। आर्यसमाज के उर्दू जानने वाले विद्वानों के लेख तो इस पत्र में प्रकाशित होते ही थे। पं. इन्द्र विद्यावाचस्पति, पं. भीमसेन विद्यालंकार तथा पं. बुद्धदेव विद्यालंकार आदि जैसे उर्दू न जानने वाले विद्वानों के लेख भी इसमें उर्दू रूपान्तर के साथ प्रकाशित होते थे।

महाशय जी अनेक भाषाओं के विद्वान थे जिनमें अंग्रेजी, उर्दू, फारसी, अरबीहिन्दी आदि सम्मिलित हैं। आपका उच्चारण बहुत शुद्ध था। देश विदेश के लेखकों व विद्वानों के साहित्य का आपका अध्ययन व स्वाध्याय भी गहन व गम्भीर था। आपके लेखों व व्याख्यानों में देशी व विदेशी लेखकों व विद्वानों के अनेक उद्धरण होते थे। इसका कारण यह था कि महाशय जी ने सभी महत्वपूर्ण प्रमाणों को अपनी तीव्र स्मरण शक्ति के कारण कण्ठस्थ किया हुआ था। अतः आपके लेखों व व्याख्यानों में कोई भी बात अप्रमाणिक व निराधार नहीं होती थी।

आपने सीमा प्रान्त, सिन्ध, पंजाब, राजस्थान व दिल्ली के साथ केरल तक में जाकर प्रचार किया था। आपने मुसलमानों के सभी पन्थ व सम्प्रदायों के मौलवियों से अनेक विषयों पर शास्त्रार्थ किये। मिर्जाई व ईसाई विद्वानों से भी आपने अनेक शास्त्रार्थ किये।

जीवनी

महाशय चिरंजीलाल ‘प्रेम’ जी को महर्षि दयानन्द के गुरु दण्डी स्वामी विरजानन्द सरस्वती की जन्मभूमि ‘करतारपुर’ में जन्म लेने का गौरव प्राप्त है। आपका जन्म सन् 1880 में हुआ था। आपके पिता का नाम शंकरदास था जो रेलवे विभाग में स्टेशन मास्टर थे। महाशय जी की प्रारम्भिक शिक्षा अपने जन्म स्थान पर ही सम्पन्न हुई। जब वे विद्यार्थी थे तब आप इस्लाम से प्रभावित हुए परन्तु पं. लेखराम के धर्म प्रचार के सम्पर्क में आकर आप सनातन वैदिक धर्म का त्याग करने से बच गये।

महाशय जी एक अच्छे वक्ता थे। उनके स्वर व बोलचाल में मिठास थी। बोलते समय आप मन्द मन्द मुस्काते भी रहते थे जिससे श्रोताओं पर आपका कहीं अधिक प्रभाव होता था। व्याख्यान देते समय प्रसंगानुसार आप अपनी आंखें कभी बन्द कर लेते थे और कभी खोल लेते थे। व्याख्यान में अधिक रोचक प्रसंगों व चुटकलों आदि का प्रयोग करना अच्छा नहीं मानते थे परन्तु अपवाद स्वरूप ऐसा हो जाया करता था। अकबर का दाढ़ी खरीदने का प्रसंग आप प्रायः सुनाया करते थे जो काफी लम्बा हो जाया करता था। वर्णन शैली प्रभावशाली होने के कारण श्रोता उबते नहीं थे। आप वार्तालाप व व्याख्यान में चुटकियां लेकर अपनी बातें कहा करते थे जिससे अपने व बेगाने भी मुग्ध हो जाया करते थे।

महाशय जी अत्यन्त विनोदी स्वभाव के थे। शास्त्रार्थ करते हुए आप कभी उत्तेजित दिखाई नहीं दिए। बतातें हैं कि आप अपनी फुलझड़ियों से विपक्षी वक्ता की कटुता का प्रभाव नष्ट कर देते थे। आपने आर्य विद्वान प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी को उनके बचपन में बताया था कि एक सम्पादक, अध्यापक व मिशनरी को प्रत्येक विषय के बारे में कुछ-कुछ और कुछ विषयों के बारे में सब बातों का ज्ञान होना चाहिए।

कृतियाँ

महाशय चिरंजीलाल ‘प्रेम’ जी ने उर्दू, फारसी व अंग्रेजी में उच्च कोटि की काव्य रचनायें की है। महाशय जी ने ‘मरने के बाद’, कविताओं का संग्रह ‘ऋषि दयानन्द के अहसानात्’ व ‘सूर्ख आंधी’ आदि कई पुस्तकें लिखी हैं। श्री राजेन्द्र जिज्ञासु जी ने आपकी पुस्तक ‘मरने के बाद’ को हिन्दी में अनूदित कर प्रकाशित किया है। आपने एक सर्वधर्म सम्मेलन में ‘वैदिक धर्म में स्त्रियों का स्थान’ विषयक एक व्याख्यान दिया था जो पुस्तकाकार प्रकाशित हुआ था। आपकी अंग्रेजी में लिखी एक पुस्तक है ’Do Something Be Something’। इसका उर्दू में अनुवाद ‘कुछ करके दिखा कुछ बनके दिखा’ नाम से प्रकाशित हुआ था।

‘आर्य मुसाफिर’ मासिक लाहौर के 1932 के अंकों में आपने 'स्वराज्य कौन दिलायगा' विषयक कुछ सम्पादकीय टिप्पणियां की थी। उन्होंने लिखा था कि श्री पं. लोकनाथ तर्कवाचस्पति, आर्योपदेशक ने गुरुकुल कांगड़ी के उत्सव पर सर्वथा उचित ही कहा था कि यदि भारतवर्ष को सच्चा स्वराज्य मिल सकता है तो केवल आर्यसमाज के द्वारा ही मिल सकता है।

नीचे महाशय चिरंजीलाल द्वारा लिखित एक प्रसिद्ध भजन देखिए, जो स्वामी श्रद्धानन्द का प्रिय भजन था। पुराने समय में ‘प्रेम’ जी की यह रचना सभी आर्यसमाजों में गाई जाती थी। जिन दिनों हरिद्वार के निकट गंगा पार गुरुकुल कांगड़ी होता था, तब रात्रि समय में पहरा देते समय स्वामी श्रद्धानन्द जी झूम झूम कर इसे गाया करते थे।

मुझे धर्म वेद से हे पिता सदा इस तरह का प्यार दे।
कि न मोडूं मुख कभी इससे मैं कोई चाहे सर भी उतार दे।
वोह कलेजा राम को जो दिया, वोह जिगर जो बुद्ध को अता किया।
वोह उदार दिल दयानन्द सा घड़ी भर मुझे भी उधार दे॥
न हो दुश्मनों से मुझे गिला, करूं मैं बदी की जगह भला।
मेरे मुख से निकले सदा दुआ, कोई चाहे कष्ट हजार दे॥
नहीं मुझको खाहशे मर्तबा, न मालोजर की हवस2 मुझे।
मेरी उमर खिदमते खल्क में मेरे ईश्वर तू गुजार दे॥
न किसी का मर्तबा देखकर, जले दिल में नारे हसद3 कभी।
जहां पर रहूं रहूं मस्त मैं, मुझे ऐसा सबरो करार4 दे॥
मुझे प्राणी मात्र के वास्ते, करो सोजे दिल5 वोह अता6 पिता।
जलूं इनके गम में मैं इस तरह, कि न खाक तक भी गुबार7 दे॥
मेरी ऐसी जिन्दगी हो बसर कि हूं सुर्खरू तेरे सामने।
न कहीं मुझे मेरा आतमा ही, यह शर्म लैलो निहार8 दे॥
लगे जख्म दिल पै अगर किसी के तो मेरे दिल में तड़प उठे।
मुझे ऐसा दे दिल दर्दरस, मुझे ऐसा सीना फिगार9 दे॥
है ‘प्रेम’ की यही कामना, यही एक उसकी है चाहना।
कि वोह चन्द रोजा हयात10 को, तेरी याद में ही गुजार दे॥
(कठिन शब्दों के अर्थः 2 हवस=लालसा, 3 हसद=द्वेषाग्नि 4 करार=सन्तोष व धीरज, 5 सोजे दिल=तड़पन, 6 अता=प्रदान, 7 गुबार=धुल के गणों से उठता धुंआं सा, 8 निहार=दिन रैन, 9 फिगार दे=घायल, 10 हयात=स्वल्प जीवन।)

सन्दर्भ

इन्हें भी देखें

बाहरी कड़ियाँ