भूत विद्या

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भूत विद्या अथवा ग्रह चिकित्सा आयुर्वेद चिकित्सा का एक विभाग है। यह प्रत्यक्ष रूप से अज्ञात कारणों से होने वाले रोगों के निदान के लिए प्रयुक्त किया जाता है। यह मुख्यतः मानव के मानसिक विकारों को ठीक करने के लिए काम में लिया जाता है। आधुनिक शब्दावली में इसे अज्ञातहेतुक रोग (बिना कारण के उत्पन्न होने वाला रोग) माना जाता है जिसमें रोग का ठीक कारण अज्ञात होता है।

वस्तुत: अष्टांग आयुर्वेद में आठवां अंग भूत चिकित्सा है। यह भूत (प्रेत इत्यादि) वाला भूत नहीं बल्कि यहां अर्थ पंच महाभूत (पाँच भौतिक तत्व) से है। [१] पंचभौतिक तत्व में 1. अग्नि, 2. पृथ्वी, 3. वायु, 4. जल ओर 5. पांचवां तत्व आकाश हैं, इन्हीं पंच तत्वों में से किसी एक तत्व की कमी या अधिकता से (इनका संतुलन बिगड़ जाने से) शारीरिक और मानसिक रोग प्रकट होते हैं। उपरोक्त चार तत्वों (अग्नि, पृथ्वी, वायु, और जल के असंतुलन के कारण शारीरिक तथा आकाश तत्व के असंतुलन से मानसिक व्याधियां उत्पन्न होती हैं। क्योंकि प्रथम चार तत्व तो स्थूल (दिखाई देने वाले) हैं, परंतु पांचवां आकाश तत्व नेत्रों से दिखाई नहीं देता, इस लिये इस प्रकार के रोगों के लिए चिकित्सा भी स्थूल औषधियों से नहीं हो सकती, आयुर्वेद में इस प्रकार के मानसिक व्याधियों को भूत चिकित्सा के नाम से जाना जाता है, और इन की चिकित्सा के लिए जड़ी बूटियों को विशेष प्रकार से जैसे उन्हें जलाकर (सूक्ष्मीकृत) उसके धूम्र से और विशेष मंत्रों के द्वारा चिकित्सा की जाती थी। इसी लिए आयुर्वेद के आचार्यों ने आयुर्वेद का एक विशेष (आठवां) अध्याय भूत चिकित्सा के नाम से आयुर्वेद में सम्मिलित किया था। (- डॉ.आर.बी.धवन) । [२]

सन्दर्भ

  1. चरक संहिता सुश्रुत संहिता, वागभट्ट इत्यादि।

रोग एवं ज्योतिष (Dr.R.B.Dhawan)

आई एस बी एन -978-93-84707-00-2

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  2. साँचा:cite book

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