भारतीय पशुचिकित्सा अनुसंधान संस्थान
भारतीय पशुचिकित्सा अनुसंधान संस्थान (Indian Veterinary Research Institute या IVRI) भारत के उत्तर प्रदेश राज्य के बरेली जिले में इज्जतनगर में स्थित है। यह पशुचिकित्सा अनुसंधान के क्षेत्र में भारत की प्रमुख संस्था है। इसकी स्थापना सन् 1889 में हुई थी।
परिचय
भारतीय पशुचिकित्सा अनुसंधान संस्थान (आई.वी.आर.आई) भारत का एक प्रमुख शोध संस्थान है जो पशुचिकित्सा शोध में अग्रणी भूमिका निभाकर देश के विकास में सतत् रूप से प्रयासरत है। 275 से अधिक वैज्ञानिक मुख्यतया शोध, शिक्षण, सलाहकारी सेवाओं एवं तकनीकी हस्तान्तरण की गतिविधियों मे लगे हुए हैं। संस्थान देश एवं विदेश के छात्रों को गुणवत्तायुक्त स्नात्तकोत्त्र शिक्षा प्रदान करता है। वर्तमान में संस्थान को मानद् विश्वविद्यालय का दर्जा प्राप्त है और पशुचिकित्सा विज्ञान के क्षेत्र में मानव संसाधन विज्ञान में अनुपम योगदान दे रहा है। यह संस्थान पशुचिकित्सा एवं पशुविज्ञान, पशुधन उत्पादन प्रौद्योगिकी, बेसिक विज्ञान एवं प्रसार शिक्षा के 20 से अधिक विषयों में स्नात्तकोत्तर एवं पीएच.डी. की डिग्री प्रदान करता है। फील्ड पशुचिकित्सकों को प्रशिक्षित करने के प्रयोजन से संस्थान पशुचिकित्सा प्रतिरोधक औषधि, पशुपालन, पशुचिकित्सा जैविक उत्पाद, पशुपुनरूत्पादन, मुर्गीपालन, औषधि एवं शल्यचिकित्सा, चिडि़याघर एवं वन्य पशु स्वास्थ्य रक्षा एवं प्रबन्धन, मास एवं मास उत्पाद प्रौद्योगिकी में डिप्लोमा कोर्स भी आयोजित करता है।
वर्तमान समय में संस्थान में 157 शोध एवं 44 सर्विस परियोजनाएं चल रही हैं।पशु स्वास्थ्य एवं उत्पादन तन्त्र पर बहुत सी राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय परियोजनाएं संस्थान द्वारा चलाई जा रही हैं।
इतिहास
भारतीय पशुचिकित्सा अनुसंधान संस्थान (आई.वी.आर.आई.) इज्जतनगर की स्थापना सन् 1889 में भयंकर रोगों से भारतीय पशुधन सम्पदा के बचाव हेतु शोध कार्य करने के लिए इम्पीरियल बैक्टिरिओलॉजिकल लेबोरेटरी के नाम से हुई थी। प्रयोगशाला का नींव का पत्थर 9 दिसम्बर, 1989 में लगभग 2.2 हेक्टेयर भूमि में जो कि एक उपकारी एवं हितकारी व्यक्ति सर दिनशाव मोनाकजी द्वारा पूना में विज्ञान काॅलेज के पास दान की गई भूमि में बम्बई के तत्कालीन गवर्नर द्वारा रखा गया।
डा0 अल्फ्रेड लिंगार्ड जो कि प्रतिष्ठित मेडिकल जीवाणु विज्ञानी थे,को प्रयोगशाला का सन् 1891 में प्रभारी नियुक्त किया गया। दो वर्ष की अल्पावधि में ही जनसंख्या घनत्व वाले पूना शहर में संक्रामक रोगों के सूक्ष्म जीवों एवं विकृतिजन्य सामग्री को संभालने की गंभीरता एवं खतरे को दृष्टिपात रखते हुए यूनाइटेड प्रोविन्स में समुद्र तल से 1500 मीटर की ऊँचाई में हिमालय की कुमायूं पर्वत श्रृंखलाओं में घने जंगलों में स्थित मुक्तेश्वर नामक सुरम्य एवं पृथक स्थान पर प्रयोगशाला को 1893 में स्थानान्तरित कर दिया गया। लिंगार्ड ने जर्मनी में जीवाणु विज्ञान का अध्ययन किया था। उन्हीं के प्रयासों से सन् 1897 में जाने-माने जीवाणु विज्ञानी डा0 रोबर्ट कोच, पीफर एवं गाफकी ने मुक्तेश्वर का ऐतिहासिक दौरा किया और रिन्डरपेस्ट नामक घातक पशुरोग की रोकथाम एवं नियन्त्रण के लिए किये जा रहे उपायों पर बेहतर सलाह दी। इसी वर्ष एन्टी-रिन्डरपेस्ट सीरम के उत्पादन पर कार्य शुरू हुआ और सन् 1899 में इसका प्रथम बैच उत्पादित किया। सन् 1901 से 1906 तक के आगामी वर्षों के दौरान एन्थ्रैक्स, हीमोरेजिक सेप्टिसीमिया एवं टिटनेस के लिए एन्टीसीरा, ब्लेक क्वार्टर के लिए एक वैक्सीन एवं अश्व गलेन्डरों के लिए एक रोग नैदानिक का उत्पादन संस्थान ने प्रारम्भ किया। मैदानों में कुछ प्रयोग करने के लिए बरेली के निकट करगैना में एक उपकेन्द्र स्थापित किया गया। सर लौनार्ड रोजर, सहायक जीवाणु विज्ञानी जो मुक्तेश्वर में चिकित्सा कार्मिक भी थे, शोध में डा0 लिंगार्ड के साथ घनिष्ठ रूप से जुड़े हुए थे। उन्होंने कोलकाता एवं लन्दन के उष्णकटिबन्धीय स्कूलों में उल्लेखनीय योगदान दिया और 1898 से 1900 तक स्थापन्न निदेशक के रूप में कार्य किया एवं बाद में भारतीय मेडिकल सेवा में वापस चले गये।