बायोनिक्स
प्रकृति में पायी जाने वाली प्रणालियों एवं जैववैज्ञानिक विधियों का अध्ययन करके एवं इसका उपयोग करके इंजीनियरी तंत्रों की डिजाइन करना बायोनिकी या बायोनिक्स (Bionics) कहलाता है। इसे biomimicry, biomimetics, bio-inspiration, biognosis आदि भी कहते हैं।
परिचय
आसान शब्दों में जब हम बायोनिक्स के बारे में सोचते हैं तो साधारणतः ऐसे कृत्रिम बांह व टांग के बारे में सोचते हैं जो मानव शरीर में बाहर से लगाई जा सके या फिर ऐसे संवेदनशील उपकरणों के बारे में सोचते हैं जिनका अपंग मानव शरीर में रोपण किया गया है। “बायोनिक्स” नामक पद्धति के तहत अनिवार्य जीवन व्यवस्थाओं को मोटरों व संवेदनशील उपकरणों से शक्ति मिलती है। यह मानव के क्षतिग्रस्त अंगों से कुछ संदेश मस्तिष्क को भेजते हैं जिससे कि मनुष्य अपने कार्य कुछ हद तक स्वयं कर सके। एक ऐसी स्थिति में जब किसी मानव का दुर्भाग्य से शरीर का कोई भी हिस्सा क्षतिग्रस्त हो जाए अथवा पूरी तरह से निष्क्रय को जाए तो उसके पास क्या उपाय रह जाएगा? दुर्भाग्य से हमारे पास छिपकली या स्टार मछली जैसी क्षमताएँ नहीं हैं कि हम दुबारा से वो बाजू, टांग, आदि विकसित कर सकें तथा दुबारा से उसे पुराने रूप में ला सकें। “स्टैम सैल” के क्षेत्र में किया जा रहा परीक्षण इसका उपाय हो सकता है। पर अभी इस पद्धति का इतना विकास नहीं हुआ है। अतः इसके बारे में कुछ भी निश्चित रूप से नहीं बोला जा सकता। तब तक सिर्फ कृत्रिम अंग ही आशा की किरण हो सकती हैं और यहीं पर बायोनिक्स दृश्य में आता है। बायोनिक्स का इतिहास बायोनिक्स का इतिहास बहुत ही प्राचीन है। पौराणिक कथाओं में भी उल्लेख है कि किस तरह सिपाही अपने क्षतिग्रस्त अंगों के बदले लोहे के अंग लगा कर रण-भूमि में युद्ध करने चले जाया करते थे। परन्तु आज के परिपेक्ष में बहुत सारी विद्याओं और तकनीकों का संयोजन हो गया है जैसे कि रोबोटिक्स, बायो-इंजीनियरिंग तथा मेग्स जिससे के कृत्रिम अंगों की रचना में पूरी तरह से छोटी-छोटी बातों (पहलुओं) को ध्यान में रखा जा सके तथा वह मानव कोशिकारओं के साथ अपना कार्य कर सके। चिकित्सा और इलैक्ट्रॉनिकी, दोनो ही क्षेत्रों में, लघु-रूप विद्युत अंगों, परिष्कृत सूक्षम चिपों और विकसित कम्प्यूटर योजनाओं के रूप में जो सभी निर्बल मानव शरीर को सबल बनाने में प्रयोग में आ रही हैं। यह विशिष्ट मानव-मशीन संबंध जिस के लिए “बायोनिक शरीर” का नाम उचित है, ने शारीरिक अक्षमताओं वाले इन्सानों को कृत्रिम अंगों, कृत्रिम माँस-पेशियों, कानों में लगाई जाने वाली मशीनों और दूसरे अंगों द्वारा एक बेहतर जिन्दगी जीने की राह दिखाई है। कृत्रिम माँस-पेशियाँ मनुष्य का शरीर माँस-पेशियों के अभाव में हड्डियों का झूलता हुआ ढ़ाँचा ही प्रतीत होगा। यह विचार ही खौफनाक है। तो क्या माँस-पेशियों के अभाव में नई माँस-पेशियों का विकास होना संभव है? एक राह है - इ.ए.पी या “इलैक्ट्रोऐक्टिव पौलिमर” के प्रयोग से। यह प्रायः कृत्रिम माँस-पेशियों के नाम से जानी जाती है और शोधकर्ताओं द्वारा मानव विकृत्तताओं को वश में करने के लिए प्रयोग में लाई जा रही है। “नासा” प्रयोगशाला के योसफ बार कोहन इस शोध में सबसे आगे हैं। उन्होंने बहुतेरे प्रयोग किए हैं तथा इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि यह पौलिमर विद्युत के प्रभाव में आम माँस-पेशियों की तरह ही प्रतिक्रिया देते हैं। अतः मानव शरीर में इनके प्रयोग पर शोध चल रहा है और भविष्य में इनके प्रयोग की ओर ज्यादा संभावना है। कृत्रिम दिल हमारा दिल हमारे शरीरके लिए इंजन की तरह है जो हमारे विभिन्न अंगों को रक्त पंप कर रहा है और उन्हें जीवन प्रदान कर रहा है। अगर यह दिल ही रुक जाए तो? दिल पर कृत्रिम विकास 1950 के आस-पास आरम्भ हुआ जब “पैस मैकर” का परिचय हुआ जिसने दिल की बिमारी से ग्रस्त लोगों को थोड़ी राहत दी। आज के “पैस-मैकर” बहुत छोटे हो गए हैं। तकनीकी परिभाषा के अनुसार “पैस-मैकर” छोटी-छोटी विद्युत किरणें दिल को भेजता है तथा दिल के धड़कनों की गति को सुगठित करता है जबकि एक चिकित्सक “पैस-मैकर” के सॉफ्टवेयर को नियंत्रित करता है। कोई परेशानी होने पर उसको संदेश मिल जाता है और वह उसको ठीक कर देता है। परंतु अब पूरा ही कृत्रिम दिल संभव है। एबीओमेड द्वारा विकसित “एबीकोर” दिल का बहुत सारे मरीजों में रोपण किया जा चुका है और यह प्रयास काफी हद तक सफल भी रहा है। कुछ मरीजों में यह जीवन अवधि छः माह तक बढ़ाने में सफल रहा है। यह प्रयास उन्हीं मरीजों पर किया गया है जिनके बचने की कोई उम्मीद नहीं होती। अतः उनको छः माह की अवधि तक भी जीवित रख पाना एक उपलब्धि है। राबर्ट टूल नामक अटावन साल के टेलिकॉम कर्मचारी जिनको दो बार दिल का दौरा आ चुका था व जो कि मधुमेह से भी पीड़ित थे, वह रिकार्ड 151 दिनों तक “एबीकोर” दिल के सहारे जीवित रह पाए। बोयोनिक नेत्र और कान हमारे नेत्र लाखों छड़ों और कोनों से बने हुए हैं जिससे हमे दृष्टि प्राप्त होती है। इनमें वह क्षमता है जिससे वह रोशनी को विद्युत आवेगों में परिवर्तित कर ऑपटिक नर्व से मस्तिष्क तक पहुँचाते हैं जहाँ पर उस वस्तु का चित्र बनता है। परंतु रेटिनिस पिग्मेन्टोसा और ज्यादा उम्र में होने वाली ए.एम.डी, आदि बिमारियों से स्वस्थ कोशिकाओं का अपकर्ष हो सकता है और एक समय के उपरांत इन्सान नेत्रहीन भी हो सकता है। परंतु जब तक ऑपटिक नर्व स्वस्थ है तब तक फिर भी निराश होने की आवश्यकता नहीं क्योंकि दुनिया भर में शोधकर्ता चिकित्सक नेत्र की बिमारियों से जूझ रहे पीड़ितों की दृष्टि वापस लाने के लिए प्रयत्नशील हैं। नेपरविले के ऑपटोवायोनिक्स ने कृत्रिम सिलिकॉन रेटीना का विकास किया है। इस कृत्रिम रेटीना में 2 मि.मि. के व्यास और 25 माइक्रान की मोटाई के माइक्रोचिप प्रयोग में लाए गए हैं। इलिनोइस नामक यह माइक्रोचिप आँख के अंदर फिट हो जाता है और 5000 ऐसे सूक्ष्मदर्शी उपकरणों से निर्मित है जो सौर्य विद्युत पैदा कर सकते हैं। यह उपकरण आँखों में प्रवेश कर रही रोशनी को विद्युत आभासों में परिवर्तित करते हैं। यह विद्युत आभास रेटीना की बाकी कोशिकाओं को उत्तेजित करते हैं जिससे कि इन्सान को सीमित दृष्टि प्राप्त हो सकती है।
इस दिशा में प्रयासरत् एक और हस्ती हैं - डॉ॰ विलियम डोबेल (1941-2004), जिन्होंने अपनी समर्पित टीम की मदद से बहुत सारे नेत्रहीन व्यक्तियों को दृष्टि प्रदान की। उनकी टीम ने सफलतापूर्वक एक ऐसा मस्तिष्क-कैमरा गठजोड़ बनाया है जिससे कि आँखों के सामने की तस्तवीर एक कम्प्यूटर पर डाल दी जाती है। यह तस्वीरें नेत्रहीन मनुष्य के मस्तिष्क में आप्रेशन द्वारा रोपित इलैक्ट्रोड पर भेज दी जाती हैं। इससो जो दृष्टि प्राप्त होती है उससे सामने प्रस्तुत व्यक्ति या वस्तु का डॉट मैट्रिक्स चित्र ही दिखाई देता है। पर इस उपकरण के लगातार प्रयोग से उस व्यक्ति को ज्यादा विस्तृत चित्र दिखाई देने लगते हैं। श्रवण के क्षेत्र में बायोनिक्स की भूमिका मानव कान में असंख्य रोम कोशिकाएँ होती हैं जो श्रवण करने में अर्थात् अनेकानेक आवाजों को सुनने में सहायक होती हैं। परंतु अगर यह क्षतिग्रस्त हो जाएँ तो ध्वनि श्रवण तंत्रिकाओं से मस्तिष्क तक नहीं पहुँच पाएगी और इस कमी को केवल कोकहलियर रोपण से ही पूरा किया जा सकता है। इस रोपण में असंख्य इलैक्ट्रोड होते हैं जो रोम कोशिकाओं के कार्य को दोहराते हैं जिससे श्रवण के लिए जरूरी जानकारी मस्तिष्क तक पहुँच जाती है और सुनने में सहायक होती है। मेलबोर्न के एक संस्था द्वाता किए जा रहे अनुसंधान के अंतर्गत एक बोयोनिक कान बनाया गया है जो कि स्मार्ट प्लास्टिक नामक तत्व में लपेटा गया है। यह तत्व भीतरी कान में तंत्रिकाओं और कोशिकाओं के विकास को बढ़ावा देता है। मानव को सहयोग देता बायोनिक्स ज्यादातर मनुष्यों के लिए हिलना-डुलना आसान है। परंतु क्वाडीरपलेगिया नामक बिमारी से पीड़ित इन्सान को एक इंच भी हिलने-डुलने के लिए बहुत प्रयत्न करने पड़ते हैं। हमने अब तक कृत्रिम बाजू और टाँग देखे हैं जो कि मनुष्य के शरीर पर ऊपर से लगाए जा सकते हैं परंतु इनका प्रयोग भी तभी संभव है अर्थात् यह हाथ-पाँव भी तभी हिल-डुल सकते हैं अगर तंत्रिकाएँ क्षतिग्रस्त माँस-पेशियों को ऐसा करने के लिए प्रेरित करें। जापान की सुकूबा विश्वविद्यालय के योशियुकी सांकाई के प्रयत्नों की वजह सा ऐसे शोध हुए हैं जो मरुरज्जू अर्थात् स्पाइनल कार्ड और अन्य दुर्घटनाओं से पीड़ित व्यक्तियों के लिए वरदान साबित हो सकती हैं। शोधकर्ता वैज्ञानिक ने दस साल अपना आदिप्रारूप (प्रोटोटाइप) बनाने में लगाए। एच.ए.एल (हाइब्रिड असिस्टिव लिम्ब) नामक यह प्रारूप एक बायोनिक श्रृखंला है। इस में एक कम्प्यूटर और बैटरी है जो कि मोटर से चलने वाले धातु एक्सो स्केलेटन को शक्ति प्रदान करता हैं तथा टाँगों के साथ बाँधने पर टाँगों के संचालन में सहयोग देते हैं। इसी तरह की बायोनिक श्रृंखला मनुष्य के ऊपरी हिस्से के लिए भी विकसित की गई है जो मनुष्य की बाहों के संचालन में सहयोग प्रदान कर सकती है। बायोनिक न्यूरोन “सुपर मैन” के नाम से जाने जानेवाले क्रिस्टोफर रीव और “व्हील चेयर” से बद्ध प्रोफैसर स्टीफन हॉकिंग की वजह से तंत्रिका विज्ञान के क्षेत्र में शोध रोशनी में आया है। एक अश्वचालन दुर्घटना में गर्दन से नीचे पूरा लकवा हो जाने के बाद भी रीव इतने वर्षों तक जीवित रहे यह एक चमत्कार ही है। डॉ॰ जेराल्ड लीएब, जो कि दक्षिणी केलिफोर्निया की एक विश्वविद्यालय में प्राध्यपक हैं, अपनी टीम के साथ बायोन नामक एक ऐसी तकनीक पर कार्य कर रहे हैं जिसका उद्देश्य लकवाग्रस्त माँस-पेशियों में जान फूंकना है। यह बायोन ऐसे विद्युत उपकरण हैं (2 मि.मि. चौडे और 15 मि.मि. लम्बे) जो कि मानव शरीर में उसी जगह एक सुई की मदद से अंतःक्षेप (अर्थात् इंजेक्ट) करे जा सकते हैं जहाँ पर इसकी जरूरत हो। इसकी शक्ति का स्रोत रेडियो लहर है जिसे कि मरीज द्वारा पहने गए बाहरी नियंत्रक से समर्थ बनाया जा सकता है। एक इसी तरह का उपकरण हाल ही में (मई 2005) साउथ एम्प्टन विश्वविद्यालय में चल रहे शोध के तहत एक छयालीस वर्षीय महिला का लगाया गया जो दो बार स्ट्रोक सहन कर चुकी थी तथा जिसका असर उसके शरीर के बाएँ हिस्से पर हुआ था। यह उपकरण उसकी बाँह में लगाया गया था जो कि उसे जरूरी विद्युत उत्तेजना प्रदान कर सके और उसकी लकवाग्रस्त माँस-पेशियों को पुरानी गतिशीलता प्राप्त हो सके। मस्तिष्क-मशीन सहयोग (इंटरफेस) मानव मस्तिष्क एक बहुत ही जटिल यंत्र है जिसे समझने के लिए बहुत शोध चल रहे हैं। हमारे सारे विचार और गतिविधियाँ इसी से नियंत्रित होते हैं। अगर किसी अपंग व्यक्ति के कुछ अंग कार्य करना बन्द कर दें, परंतु दिमाग कार्यशील रहे तो, यह तथ्य वैज्ञानिकों को उस मनुष्य को तांत्रिक संकेतों द्वारा एक उपजाउ जिन्दगी जीने की राह दिखा सकता है। ब्रेनगेट एक ऐसी तकनीक है जिसके द्वारा एक लघु चिप दिमाग में लगा दी जाती है जो कि मनुष्य के विचार एक कम्प्यूटर पर भेज देती है और उन्हीं वैचारिक संकेतों द्वारा कम्प्यूटर पर ई-मेल भेजी जा सकती है, कम्प्यूटर पर गेम खेले जा सकते हैं, सिर्फ सोचने मात्र से ही। बायोनिक्स के साकारात्मक पहलुओं को अगर हम भविष्य में आगे बढ़ाए तो मानव समाज को आगे बढ़ाने में और मानव जिन्दगी को बेहतर बनाने के लिए इसे प्रयोग में लाया जा सकता है।
बाहरी कड़ियाँ
- BioParadigm ACCESS – Consolidates information on available biomimetic IP for product designers, engineers and material scientists worldwide
- Biomimetic Architecture - Bionics applied to building and construction
- Biologize your business using biomimetics to develop strategic thinking and process
- Bionic Eyes In Development
- Festo Bionic Learning Network
- Technology And The Quality Of Life: Part One—A Vision Of The Future
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- Center for Integration of Medicine and Innovative Technology developing nano-hair bionics
- Bionics2Space: Bionics & Space System Design
- Biomimicry Institute
- Biomimicry Guild
- LiveScience on Biomimetic armour
- An overview of biomimetics/biomimicry at the Science Creative Quarterly
- Rehabilitation Institute of Chicago's Neuro-Controlled Bionic Arm.
- Neural Interface bionic Arm
- Biomimetics Network for Industrial Sustainability (BIONIS)
- FurTech outdoor clothing using feather and fur technology.
- Article on Bionics for the Disabled
- Bionics Research Group, Institute of Biomedical Engineering, Imperial College London
- Competence Network Biomimetics
- Biomimetic Autonomous Underwater Vehicles, AUVAC.org