बाटिक

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बाटिक कला अपाई एक कपड़े पर

बाटिक भारत की प्रमुख लोककलाओं में से एक है। यह वस्त्रों की छपाई की अत्यंत प्राचीन कला है और आज भी यह सिर्फ भारत ही नहीं बल्कि श्रीलंका, बांग्लादेश, चीन, ईरान, द फिलीपींस, मलेशिया एवं थाइलैंड सहित पूरी दुनिया में बेहद लोकप्रिय है।इसी से संबंधित सौराष्ट्र की हीर तकनीकि प्रसिद्ध है।

प्रक्रिया

दरअसल इंडोनेशियाई भाषा में बाटिक शब्द का सही उच्चारण बतीक है, जिसका अर्थ है-मोम से लिखना या चित्र बनाना। बाटिक कला में मोम से चित्र बनाने के लिए सबसे पहले ट्रेसिंग पेपर से कपडे के ऊपर मनचाही आकृति उकेरी जाती है। उसके बाद बी-वैक्स और पैराफिन वैक्स को मिलाकर गरम किया जाता है और एक पोर्सीलिन डिश में आधा कप उबला हुआ पानी रखकर, उसमें टर्की ऑयल की दो-तीन बूंदें और 10 ग्राम नेप्थॉल, एस.एस.जी., 5 ग्राम कॉस्टिक सोडा मिला कर घोल तैयार किया जाता है। उसके बाद कपडे के जिस हिस्से को सफेद रखना होता है, उसे ब्रश की सहायता से वैक्स से ढक दिया जाता है। जब वैक्स सूख जाता है तो कपडे को रंगने से पहले उसे पानी की बाल्टी में डुबोकर निकाला जाता है, इसके बाद इसे बिना सुखाए रंग भरी बाल्टी में डुबो कर बीस मिनट तक रखा जाता है और इस बात का पूरा ध्यान रखा जाता है कि कपडे के जिस हिस्से को सफेद रखना है उसे वैक्स से अच्छी तरह ढक दिया जाए। कपडे को सुखाने के बाद उसे सादे पानी से धोया जाता है। जब यह सूख जाता है तो इसे खौलते हुए पानी से धोया जाता है, इससे कपडे पर लगा फालतू वैक्स निकल आता है, अगर थोडा-बहुत वैक्स रह जाता है तो उसके ऊपर पुराना सफेद कपडा रख कर उस कपडे पर प्रेस चलाया जाता है, इस तरह कपडे का पूरा वैक्स बाहर निकल जाता है और आकृति के चारों और बारीक धागे जैसी रेखाएं उभर आती हैं, यही इस कला की खूबसूरती है। कपडे पर जितनी ज्यादा बारीक रेखाएं होती हैं, यह कलाकृति उतनी ही सुंदर मानी जाती है। यह छपाई सूती और सिल्क दोनों ही तरह के कपडों पर की जाती है। इसके लिए पहले वेजटेबल कलर्स का इस्तेमाल किया जाता था लेकिन आजकल केमिकलयुक्त रंगों का इस्तेमाल किया जाता है।

उत्पत्ति का इतिहास

बाटिक कला की उत्पत्ति के इतिहास के संबंध में काफी मतभेद है। इंडोनेशिया के जावा द्वीप में इसके सबसे प्राचीन नमूने पाए गए हैं, जो कि बारहवीं शताब्दी के हैं। मध्य पूर्व के देशों, मिस्त्र, टर्की, चीन, जापान और पश्चिमी अफ्रीका में भी प्राचीन बाटिक कला के नमूने मिले हैं, किंतु ये भारतीय और इंडोनेशियाई वस्त्रों जैसे कलात्मक नहीं हैं। भारत अत्यंत प्राचीन काल से वस्त्रों पर कलात्मक छपाई के लिए प्रसिद्ध रहा है। यहां बाटिक कला उस समय पराकाष्ठा पर थी जब यूरोप और अन्य देशों में इसका प्रारंभ भी नहीं हुआ था। मुगलों और अंग्रेजों के शासनकाल में उचित संरक्षण के अभाव में यह कला धीरे-धीरे लुप्त होने लगी, लेकिन स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद सरकार द्वारा उचित संरक्षण और प्रोत्साहन मिलने के बाद यह कला दोबारा फलने-फूलने लगी। दक्षिण भारत में चेन्नई के निकट शिल्प ग्राम चोलमंडल में बाटिक को कलात्मक रूप में ढालने का काम किया गया है और पश्चिम बंगाल के शांति निकेतन में इसे एक विषय के रूप में पढाया जाने लगा है। पश्चिम बंगाल और तमिलनाडु दोनों ही प्रांत इस कला की दृष्टि से संपन्न हैं लेकिन इन दोनों की शैलियों में प्रमुख अंतर यह है कि बंगाल की बाटिक कला में अल्पना जैसी आकृतियों का बाहुल्य है लेकिन दक्षिण भारत में देवी-देवताओं की आकृतियों और नृत्य की मुद्राओं को ज्यादा तरजीह दी जाती है।

आधुनिक परिप्रेक्ष्य

अपने मूल रूप में बाटिक कला कपडों की छपाई की कला है। पहले सिर्फ पहनने वाले कपडों पर जैसे, साडी, दुपट्टे चादर और ड्रेस मटीरियल के कपडों पर बाटिक शैली में छपाई की जाती थी, लेकिन अब बदलते वक्त के साथ इस अद्भुत कला में काफी बदलाव आ गया है। अब कलाकार इस मोहक कला को सिर्फ परिधानों तक सीमित न रखकर बल्कि इससे सुंदर चित्र उकेर कर घरों को सजाने के लिए वॉल हैंगिंग बनाते हैं और बाटिक शैली में बनाए गए इन चित्रों को दीवारों पर सजाने के लिए इनकी फ्रेमिंग भी की जाती है। इस शैली में बने चित्र आजकल कला प्रेमियों की पहली पसंद बनते जा रहे हैं। इस वजह से इस पारंपरिक कला के चित्रकारों की आर्थिक स्थिति में भी काफी सुधार आ गया है।

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