राजा बलवंत सिंह
श्री बलवंत सिंह सन १७४० से १७७० तक काशी राज्य के नरेश रहे। ये मनसा राम के बेटे थे और यह भूमिहार ब्राह्मण परिवार से थे। मनसाराम ने भवनों के क्षीण होते साम्राज्य के अन्तिम काल में जान-माल लूट लेने वाले क्रूर दस्युओं से अपनी राजनीतिक सूझबूझ एवं रण-कौशल द्वारा प्रजा की सुरक्षा की और इन अराजक तत्वों की गतिविधियों पर पूर्ण अंकुश लगाकर छिन्न-भिन्न शासन को सुदृढ़ करते हुए नवी राजवंश की स्थापना का श्रेय प्राप्त किया। मनसाराम की नन्दकुमारी नायक पत्नी से बलवन्त मिंह (बरिबन्ड सिंह) का जन्म हुआ, जिन्होंने अपनी शूरवीरता से जीते हुए भूखण्डों का पिता से भी अधिक विस्तार करते हुए गंगापुर से हटकर रामनगर को अपनी राजधानी बनाया और मन् १७४० ई. के आस-पास एक विशआल दुर्ग का निर्माण कराया। दुर्ग में पश्चिम ओर शिव मंदिर का निर्माण करा कर उसमें शिव लिंग की स्थापना की और सुयोग्य सन्तान होने की प्रतिष्ठा प्राप्त की। इस मंदिर के द्वार पर अंकित श्लोकों से महाराज की वंश परम्परा तथआ शासन क्षेत्र का संकेत मिलता है। काशी नरेश पुस्तकालय में उपलब्ध उर्दू ग्रन्थ, 'बलवन्त नामा' से राजा बलवन्त सिंह का जीवन-परिचय एवं शासनकाल का विस्तृत विवरण प्राप्त होता है। आपके दरबार के फलित ज्योतिष के प्रकाण्ड विद्वान पं॰ परमानन्द पाठक ने रामनगर दुर्ग के मुहूर्त-शोधन का कार्य सम्पन्न कराया था। फलित ज्योतिष के उत्कृष्ट ग्रन्थ 'प्रथ्नमाणिक्य-माला' के रचयिता पं॰ परमानन्द पाठक ही थे। महाराजा बलवन्त सिंह शौर्य सम्पन्न शासक के साथ-साथ धर्मनिष्ठ, संस्कृत्यनुरागी राजपुरुष थे। आपकी गुण-ग्राहकता से राज दरबार में सरस्वती, पुत्रों के पूर्ण आदर एवं सम्मान प्राप्त था, जिससे पं॰ परमानन्द पाठक एवं अनेक कवि तथा विद्वानों में सुप्रसिद्ध कवि रघुनाथ इत्यादि आपके दरबार में सुप्रसिद्ध कवि रघुनाथ इत्यादि आपके दरबार की शोभा बढ़ाते थे, जिनके द्वारा रचित 'काव्यकलाधर', 'रसिक मोहन', 'इश्क महोत्सव' आदि कृतियों की ठा. शिव सिंह 'सरेज' ने मुक्त कंठ से प्रशंसा की है। काशी-राज, परिवार प्रत्येक क्षेत्र के विद्वानों को आदर एवं आश्रय देने में अग्रणी रहा।
महाराजा बलवन्त सिंह की प्रथम 'प्रतिप्राण' नामक पत्नी से दो पुत्र चेतसिंह और सुजान सिंह एवं द्वितीय पत्नी 'महारानी गुलाब कुंवर' से एकमात्र कन्या का जन्म हुआ, जो दरभंगा के नरहन स्टेट के नरेश 'दुर्ग विजय सिंह' को ब्याही गई थी।
महाराजा बलवन्त सिंह ने अपने आश्रित कवि रघुनाथ को गंगा किनारे स्थित चौरा नामक ग्राम दान में दिया था। आपके समय में फारस के प्रसिद्ध फकीर शेख अली हजी नादिरशाह की क्रूरता से भयभीत एवं खिन्न होकर दिल्ली आये, किन्तु जल्द ही दिल्ली के अशान्तिमय वातावरण से ऊब कर काशी आए। महाराज बलवन्त सिंह ने उन्हें आश्रम एवं आदर सहित उचित स्थान प्रदान किया। काशी का शान्तिमय वातावरण शेखसाहेब को अत्यन्त रास आया और यहीं रहते हुए उन्होंने काशी नगरी की प्रशंसा में फारसी में शेर लिखा है। महाराज उन्हें भरपूर आदर देते थे। शेख साहब की मजार आज भी काशी में विद्यमान है। सनातनधर्मी होकर भी सभी धर्मों के प्रति पूर्ण आदर रखने वाले महाराज बलवन्त सिंह जी विलक्षण शासक थे। महाराज बलवन्त सिंह के राज दरबार में चतुरविहारी मिश्र, जगराज सुकुल, खुशहाल खाँ जैसे संगीत कलावन्त दरबार की शोभा बढ़ाते थे।[१]