फ्रीड्रिक फ्रोबेल

मुक्त ज्ञानकोश विकिपीडिया से
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ
The printable version is no longer supported and may have rendering errors. Please update your browser bookmarks and please use the default browser print function instead.
फ्रीड्रिक फ्रोबेल
Frederick-Froebel-Bardeen.jpeg
फ़्रीड्रिक विलियम अगस्त फ्रोबेल
जन्म फ़्रीड्रिक विलियम अगस्त फ्रोबेल
साँचा:birth date
Oberweißbach, Schwarzburg-Rudolstadt, Germany
मृत्यु साँचा:death date and age
Schweina, Germany

फ़्रीड्रिक विलियम अगस्त फ्रोबेल (Friedrich Wilhelm August Fröbel ; जर्मन उच्चारण : [ˈfʁiːdʁɪç ˈvɪlhɛlm ˈaʊɡʊst ˈfʁøːbəl] ; 21 अप्रैल, 1782 – 21 जून, 1852) जर्मनी के प्रसिद्ध शिक्षाशास्त्री थे। वे पेस्तालोजी के शिष्य थे। उन्होने किंडरगार्टन (बालवाड़ी) की संकल्पना दी। उन्होने शैक्षणिक खिलौनों का विकास किया जिन्हें 'फ्रोबेल उपहार' के नाम से जाना जाता है।

शिक्षा जगत में फ्रोबेल का महत्वपूर्ण स्थान है। बालक को पौधे से तुलना करके, फ्रोबेल ने बालक के स्वविकास की बात कही। वह पहला व्यक्ति था जिसने प्राथमिक स्कूलों के अमानवीय व्यवहार के विरूद्ध आवाज उठाई और एक नई शिक्षण विधि का प्रतिपादन किया। उसने आत्मक्रिया स्वतन्त्रता, सामाजिकता तथा खेल के माध्यम से स्कूलों की नीरसता को समाप्त किया। संसार में फ्रोबेल ही पहला व्यक्ति था जिसने अल्पायु बालकों की शिक्षा के लिए एक व्यवहारिक योजना प्रस्तुत किया। उसने शिक्षकों के लिए कहा कि वे बालक की आन्तरिक शक्तियों के विकास में किसी प्रकार का हस्तक्षेप न करें, बल्कि प्रेम एवं सहानुभूति पूर्वक व्यवहार करते हुए बालकों को पूरी स्वतन्त्रता दें। शिक्षा के क्षेत्र में इस प्रकार का परिवर्तन लाने के लिए फ्रोबेल को हमेशा याद किया जायेगा।

जीवन परिचय

फ्रोबेल का जन्म जर्मनी के ओबेरवेस बाक नामक एक छोटे से गाँव में हुआ था। बचपन में ही उसकी माँ का देहान्त हो गया तथा उसके पिता ने दूसरा विवाह कर लियारी और फ्रोबेल के पालन-पोषण में कोई रूचि नहीं ली। जब फ्रोबेल को अपने पिता तथा विमाता से कोई प्यार न मिला तो वह दुखी होकर जंगलों में घूमने लगा। इससे उसके हृदय में प्रकृति के प्रति अनुराग उत्पन्न हो गया। जब फ्रोबेल 10 वर्ष का हुआ तो उसके मामा ने उसकी दयनीय स्थिति देखकर उसे विद्यालय में भेजा, परन्तु उसका पढ़ाई में मन नहीं लगा। १५ वर्ष की आयु में उसके मामा ने उसे जीविकोपार्जन हेतु एक बन रक्षक के यहाँ भेज दिया, वहाँ भी उसका मन नहीं लगा। लेकिन यहाँ पर फ्रोबेल ने प्रकृति का अच्छा अध्ययन किया और इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि प्रकृति के नियमों में एकता है।

१८ वर्ष की आयु में फ्रोबेल को जैना विश्वविद्यालय भेजा गया, किन्तु धनाभाव के कारण उसे वह विश्वविद्यालय भी छोड़ना पड़ा। इसके बाद उसने फ्रैंकफोर्ट में ग्रूनर द्वारा संचालित एक स्कूल में शिक्षण कार्य किया। अपने अनुभवों से फ्रोबेल इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि बालकों को रचनात्मक एवं कियात्मक अभिव्यक्ति का अवसर दिया जाना चाहिए। सन्1808 में वह पेस्टालाजी द्वारा स्थापित स्कूल ‘वरडन’ गया, जहाँ उसने अध्ययन-अध्यापन का कार्य किया। सन् १८१६ में फ्रोबेल ने कीलहाउ में एक स्कूल खोला, लेकिन आर्थिक कठिनाइयों केकारण उसे बन्द कर देना पड़ा। सन् १८२६ में फ्रोबेल ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘मनुष्य की शिक्षा’ (Die Menschenerziehung) प्रकाशित की, तथा अपने विचारों को क्रियान्वित करने के लिए ‘किण्डर गार्टन’ नाम से ब्लैकेन वर्ग में एक स्कूल खोला जिसको उसने बालक उद्यान बनाया और खिलौनों उपकरणों आदि के द्वारा बालकों को शिक्षा प्रदान करना आरम्भ किया। इस स्कूल को आश्चर्य जनक सफलता मिली, फलस्वरूप विभिन्न स्थानों पर किण्डर गार्टन स्कूल खुल गये। सन् १८५१ में सरकार ने फ्रोबेल को क्रान्तिकारी मानकर सभी किण्डर गार्टन स्कूलों को बन्द कर दिया। इससे फ्रोबेल को इतना कष्ट हुआ कि सन् १८५३ में उसका स्वर्गवास हो गया।

फ्रोबेल के शैक्षिक विचार

छोटे बालकों को शिक्षा देने के लिए नई शिक्षण विधि का प्रतिपादन सर्वप्रथम फ्रोबेल ने किया। फ्रोबेल का मानना था कि बालकों के अन्दर विभिन्न सदगुण होते हैं। हमें उन सद्गुणों का विकास करना चाहिए ताकि वह चरित्रवान बनकर राष्ट्र के कार्यों में सफलतापूर्वक भाग ले सके।

फ्रोबेल का विश्वास था कि जैसे एक बीज में सम्पूर्ण वृक्ष छिपा रहता है, उसी प्रकार प्रत्येक बालक में एक पूर्ण व्यक्ति छिपा रहता है अर्थात बालक में अपने पूर्व विकास की सम्भावनायें निहित होती हैं। इसलिए शिक्षा का यह दायित्व है कि बालक को ऐसा स्वाभाविक वातावरण प्रदान करे, जिससे बालक अपनी आन्तरिक शक्तियों का पूर्ण विकास स्वयं कर सके। फ्रोबेल का कहना है कि जिस प्रकार उपयुक्त वातावरण मिलने पर एक बीज बढ़कर पेड़ बन जाता है, उसी प्रकार उपयुक्त वातावरण मिलने पर बालक भी पूर्ण व्यक्ति बन जाता है।

फ्रोबेल ने बालक को पौधा, स्कूल को बाग तथा शिक्षक को माली की संज्ञा देते हुए कहा है कि विद्यालय एक बाग है, जिसमें बालक रूपी पौधा शिक्षक ह्वपी माली की देखरेख में अपने आन्तरिक नियमों के अनुसार स्वाभाविक रूप से विकसित होता रहता है। माली की भााँति शिक्षक का कार्य अनुकूल वातावरण प्रस्तुत करना है, जिससे बालक का स्वाभाविक विकास हो सके।

शिक्षा का उद्देश्य

फ्रोबेल का विचार है कि संसार की समस्त वस्तुओं में विभिन्नता होते हुए भी एकता निहित है। ये सभी वस्तुएं अपने आन्तरिक नियमों के अनुसार विकसित होती हुई उस एकता (ईश्वर) की ओर जा रही है। अत: शिक्षा द्वारा व्यक्ति को इस योग्य बनाया जाय कि वह इस विभिन्नता में एकता का दर्शन कर सके। फ्रोबेल का यह भी विचार है कि बालक की शिक्षा में किसी प्रकार का हस्तक्षेप न करके उसके स्वाभाविक विकास हेतु पूर्ण अवसर देना चाहिए, ताकि अपने आपको, प्रकृति को तथा ईश्वरीय शक्ति को पहचान सके।

संक्षेप में फ्रोबेल के अनुसार शिक्षा के निम्नलिखित उद्देश्य होने चाहिये-

  • बालक के व्यक्तित्व का पूर्ण विकास करना।
  • बालक का वातावरण एवं प्रकृति से एकीकरण स्थापित करना।
  • बालक के उत्तम चरित्र का निर्माण करना।
  • बालक का आध्यात्मिक विकास करना।
  • बालकों को उनमें निहित दैवीय शक्ति का आभास कराना।

पाठ्यक्रम

फ्रोबेल ने पाठ्यक्रम निर्माण के कुछ सिद्धान्त बताये हैं, जैसे-

  • पाठ्यक्रम बालक की आवश्यकताओं के अनुसार होनी चाहिए,
  • पाठ्यक्रम के विषयों में परस्पर एकता स्थापित होनी चाहिए,
  • पाठ्यक्रम क्रिया पर आधारित होनी चाहिए,
  • पाठ्यक्रम में प्रकृति को महत्वपूर्ण स्थान मिलना चाहिए,
  • पाठ्यक्रम में धार्मिक विचारों को भी स्थान मिलना चाहिए।

उपयुर्युक्त सिद्धान्तों को ध्यान में रखकर फ्रोबेल ने पाठ्यक्रम में प्रकृति अध्ययन, धार्मिक निर्देशन, हस्त व्यवसाय, गणित, भाषा, एवं कला आदि विषयों को प्रमुख रूप से रखा। उसने इस बात पर बल दिया कि पाठ्यक्रम के सभी विषयों में एकता का सम्बन्ध अवश्य होना चाहिए। क्योंकि यदि पाठ्यक्रम के विषयों में एकता का सम्बन्ध नहीं होगा, तो शिक्षा के उद्देश्य को प्राप्त नहीं किया जा सकता।

शिक्षण विधि

फ्रोबेल ने अपनी शिक्षण-विधि को निम्नलिखित सिद्धान्तों पर आधारित किया है-

आत्मक्रिया का सिद्धान्त

फ्रोबेल बालक को व्यक्तित्व का विकास करना चाहते थे, इसलिए उन्होंने आत्म क्रिया के सिद्धान्त पर बल दिया। आत्म क्रिया से फ्रोबेल का तात्पर्य उस क्रिया से था, जिसे बालक अपने आप तथा अपनी रुचि के अनकूल स्वतन्त्र वातावरण में करके सीखता है।

खेल द्वारा शिक्षा का सिद्धान्त

स्क्रिप्ट त्रुटि: "main" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है। फ्रोबेल पहला शिक्षाशास्त्री था, जिसने खेल द्वारा शिक्षा देने की बात कही। इसका कारण उसने यह बताया कि बालक खेल में अधिक रुचि लेता है। फ्रोबेल के अनुसार बालक की आत्म क्रिया खेल द्वारा विकसित होती है। इसलिए बालक को खेल द्वारा सिखाया जाना चाहिए, ताकि बालक के व्यक्तित्व का विकास स्वाभाविक रूप से हो सके।

स्वतन्त्रता का सिद्धान्त

फ्रोबेल के अनुसार स्वतन्त्र रूप से कार्य करने से बालक का विकास होता है और हस्तक्षेप करने या बाधा डालने से उसका विकास अवरूद्ध हो जाता है। इसलिए उसने इस बात पर बल दिया कि शिक्षक को बालक के सीखने में किसी प्रकार का हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए, बल्कि वह केवल एक सक्रिय निरीक्षक के रूप में कार्य करे।

सामाजिकता का सिद्धान्त

व्यक्ति एक सामाजिक प्राणी है। समाज से अलग व्यक्ति का कोई अस्तित्व नहीं है। इसलिए उसे इसलिए फ्रोबेल ने सामूहिक खेलों एवं सामूहिक कार्यों पर बल दिया, जिससे बालकों में खेलते–खेलते परस्पर प्रेम, सहानुभूति, सामूहिक सहयोग आदि सामाजिक गुणों का विकास सरलता पूर्वक हो सके।

अनुशासन

फ्रोबेल ने दमनात्मक अनुशासन का विरोध किया और कहा कि आत्मानुशासन या स्वानुशासन ही सबसे अच्छा अनुशासन होता है। इसलिए बालकों को आत्म क्रिया करने की पूर्ण स्वतन्त्रता मिलनी चाहिए, जिससे बालक में स्वयं ही अनुशासन में रहने की आदत पड़ जाय। फ्रोबेल के अनुसार बालक के साथ प्रेम एवं सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार करना चाहिए तथा उसे आत्मक्रिया करने का पूर्ण अवसर प्रदान करना चाहिए।

शिक्षक

फ्रोबेल के अनुसार शिक्षक को एक निर्देशक, मित्र एवं पथ प्रदर्शक होना चाहिए। उसने शिक्षक की तुलना उस माली से की है, जो उद्यान के पौधों के विकास में मदद करता है। जिस तरह शिक्षक के निर्देशन में बालक का विकास होता है। फ्रोबेल का विचार है कि शिक्षक को बालक के कार्यों में किसी प्रकार का हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए, बल्कि उसका कार्य सिर्फ बालक के कार्यों का निरीक्षण करना है और उसके विकास हेतु उपयुक्त वातावरण प्रदान करना है।

कृतियाँ

  • An unser deutsches Volk (हमारे जर्मन भाइयों से). Erfurt 1820.
  • Durchgreifende, dem deutschen Charakter erschöpfend genügende Erziehung ist das Grund- und Quellbedürfnis des deutschen Volkes. Erfurt 1821.
  • Die Grundsätze, der Zweck und das innere Leben der allgemeinen deutschen Erziehungsanstalt in Keilhau bei Rudolstadt. Rudolstadt 1821.
  • Die allgemeine deutsche Erziehungsanstalt in Keilhau betreffend (कीलहाउ में स्थित सामान्य जर्मन शैक्षिक संस्थान के सम्बन्ध में). Rudolstadt 1822.
  • Über deutsche Erziehung überhaupt und über das allgemeine Deutsche der Erziehungsanstalt in Keilhau insbesondere. Rudolstadt 1822.
  • Fortgesetzte Nachricht von der allgemeinen deutschen Erziehungsanstalt in Keilhau. Rudolstadt 1823.
  • Die Menschenerziehung, die Erziehungs-, Unterrichts- und Lehrkunst, angestrebt in der allgemeinen deutschen Erziehungsanstalt zu Keilhau. Erster Band. Keilhau-Leipzig 1826.
  • Die erziehenden Familien. Wochenblatt für Selbstbildung und die Bildung Anderer. Keilhau-Leipzig 1826.

इन्हें भी देखें

सन्दर्भ