प्रोटेस्टेंट संप्रदाय

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साँचा:multiple image प्रोटेस्टैंट ईसाई धर्म की एक शाखा है। इसका उदय सोलहवीं शताब्दी में प्रोटेस्टैंट सुधारवादी आन्दोलन के फलस्वरूप हुआ। यह धर्म रोमन कैथोलिक धर्म का घोर विरोधी है। इसकी प्रमुख मान्यता यह है कि धर्मशास्त्र (बाइबल) ही उद्घाटित सत्य का असली स्रोत है न कि परम्पराएं आदि। प्रोटेस्टैंट के विषय में यह प्राय: सुनने में आता है कि वह असंख्य संप्रदायों में विभक्त है किंतु वास्तव में समस्त प्रोटेस्टैंट के 94 प्रतिशत पाँच ही संप्रदायों में सम्मिलित हैं, अर्थात: लूथरन, कैलविनिस्ट, एंग्लिकन, बैप्टिस्ट और मेथोडिस्ट

प्रोटेस्टेंट धर्म का उदय

1526 ई. में पवित्र रोमन साम्राज्य की सभा की बैठक स्पीयर में हुई, इसमें जर्मनी के शासक कैथोलिक और लूथरवादी दो दलों में विभक्त हो गये थे। 1529 ई. में स्पीयर में ही दूसरी सभा हुई। इसमें सम्राट चार्ल्स पंचम ने कैथोलिक धर्म का प्रबल समर्थन किया और नये धर्मसुधार आंदोलन के विरूद्ध कई कठोर निर्देश पारित किए। इस सभा के इस एकपक्षीय निर्णयों का सुधारवादी शासकों और समर्थकों ने विरोध किया। इस विरोध और प्रतिवाद के कारण इस धर्म सुधार आंदोलन का नाम प्रोटेस्टेंट पड़ा। 1530 ई. में प्रोटेस्टेंट धर्म के सिद्धांतों को निर्दिष्ट एकी कृत रूप दिया गया। इसमें लूथर के सिद्धांत सम्मिलित कर लिए गए। यूरोप में यह प्रोटेस्टेंट धर्म का उदय था।

आग्सवर्ग की संधि (1555 ई.)

सम्राट चार्ल्स पंचम ने जर्मनी में आग्सवर्ग (Augsburg) में एक सभा आयोजित की और उसमें प्रोटेस्टेंटों को अपने सिद्धांतों को प्रस्तुत करने की आज्ञा दी। फलतः प्रोटेस्टेंटों ने अपने एकीकृत सिद्धांतों को एक दस्तावेज के रूप प्रस्तुत किया। इस दस्तावेज को "आम्सवर्ग की स्वीकृति" कहते हैं, परंतु चार्ल्स पंचम ने इसे अमान्य कर दिया और नवीन सुधारवादी धर्म के दमन का निश्चय किया। इसका सामना करने के लिए लूथरवादी जर्मन राजाओं से 1531 ई. में स्मालकाल्डिक लीग (Schmalkaldic League) नामक सुरक्षात्मक संघ बनाया। अब सम्राट चार्ल्स पंचम ने प्रोटेस्टंटों का सामूहिक नाश करने का निर्णय लिया। फलतः जर्मनी में गृह युद्ध प्रारंभ हो गया। इसे स्मालकाडेन का युद्ध (1546 ई.-1555 ई.) कहते हैं। पर कुछ समय बाद इस गृह युद्ध से त्रस्त होकर सम्राट चार्ल्स के उत्तराधिकारी फर्डिनेण्ड ने 1555 ई. में आग्सवर्ग की संधि (Peace of Augsburg) कर ली। इसकी धाराएँ अधोलिखित थीं -

  • 1. जर्मनी ने प्रत्येक राजा को (प्रजा को नहीं) अपना और अपनी प्रजा का धर्म चुनने की स्वतंत्रता दी गयी।
  • 2. 1552 ई. के पूर्व कैथोलिक चर्च की जो धन सम्पित्त प्रोटेस्टेंटों के हाथों में चली गयी, वह उनकी मान ली गयी।
  • 3. लूथरवाद के अतिरिक्त अन्य किसी धार्मिक सम्प्रदाय को मान्यता नहीं दी गयी।
  • 4. कैथोलिक धर्म के क्षेत्रों में रहने वाले लूथरवादियों को उनका धर्म परिवर्तन करने के लिए विवश नहीं किया जायेगा।
  • 5. “धार्मिक रक्षण“ की व्यवस्था की गयी। इसके अनुसार यदि कोई कैथोलिक पादरी प्रोटेस्टेंट हो जाए तो उसे अपने कैथोलिक पद और उससे संबंधित सभी अधिकारों को त्यागना होगा।

संधि की समीक्षा

  • 1. इस संधि से 1530 ई. में लूथरवादी संप्रदाय का जो सैद्धांतिक स्वरूप निर्दिष्ट किया गया था उसे 1555 ई. की इस संधि द्वारा सरकारी मान्यता प्राप्त हो गयी।
  • 2. जिंवग्लीवादी ओर कैल्विनवादी जैसे अन्य प्रोटेस्टंट संप्रदायों को मान्यता नहीं मिलने से पुनः धार्मिक युद्ध (तीसवर्षीय युद्ध) प्रारंभ हो गया जो वेस्ट फेलिया की संधि से समाप्त हुआ।
  • 3. 1552 ई. के बाद प्रोटेस्टेंटों ने धर्म परिवर्तन के साथ सम्पित्त हस्तांतरण के सिद्धांत पर बल दिया। इससे कैथालिकों और प्रोटेस्टंटों में झगड़े बढ़े। इन दोषों के बावजूद भी आग्सवर्ग की संधि ने 1619 ई. तक जर्मनी में धार्मिक व्यवस्था बनाए रखी ये धर्म सुधार आंदोलन के दूसरे तारा थे

प्रोटेस्टैंट आंदोलन के अंदर विभिन्न संप्रदाय

प्रोटेस्टैंट के अन्दर विभिन्न सम्प्रदाय एवं आन्दोलन

लुथरन

स्क्रिप्ट त्रुटि: "main" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है।

16वीं शताब्दी के प्रारंभ में लूथर के विद्रोह के फलस्वरूप प्रोटेस्टैंट शाखा का प्रादुर्भाव हुआ था। लूथर के अनुयायी लूथरन कहलाते हैं; प्रोटेस्टैंट धर्मावलंबियों में उनकी संख्या सर्वाधिक है।

कैलविनिस्ट

जॉन कैलविन (1509-1564 ई.) फ्रांस के निवासी थे। सन 1532 ई. में प्रोटेस्टैंट बनकर वह स्विट्जरलैंड में बस गए जहाँ उन्होंने लूथर के सिद्धांतों के विकास तथा प्रोटेस्टैंट धर्म के संगठन के कार्य में असाधारण प्रतिभा प्रदर्शित की। बाइबिल के पूर्वार्ध को अपेक्षाकृत अधिक महत्व देने के अतिरिक्त उनकी शिक्षा की सबसे बड़ी विशेषता है, उनका पूर्वविधान (प्रीडेस्टिनेशन) नामक सिद्धांत। इस सिद्धांत के अनुसार ईश्वर ने अनादि काल से मनुष्यों को दो वर्गों में विभक्त किया है, एक वर्ग मुक्ति पाता है और दूसरा नरक जाता है। कैलविन के अनुयायी कैलविनिस्ट कहलाते हैं, वे विशेष रूप से स्विट्जरलैंड, हंगरी, चेकोस्लोवाकिया, स्कॉटलैंड, फ्रांस तथा अमेरिका में पाए जाते हैं, उनकी संख्या लगभग पाँच करोड़ है। ये सब समुदाय एक वर्ल्ड प्रेसविटरीय एलाइंस (World Presbyterian Alliance) के सदस्य हैं, जिसका केंद्र जेनोवा में है।

एंग्लिकन

स्क्रिप्ट त्रुटि: "main" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है। हेनरी सप्तम के राज्यकाल में इंग्लैंड का ईसाई चर्च रोम से अलग होकर चर्च ऑव इंग्लैंड और बाद में एंग्लिकन चर्च कहलाने लगा। एंग्लिकन राजधर्म के विरोध में 16वीं शताब्दी में प्यूरिटनवाद तथा कांग्रगैशनैलिज़्म का प्रादुर्भाव हुआ।

सोसाइटी ऑफ़ फ्रेंड्स

स्क्रिप्ट त्रुटि: "main" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है। १७वीं शती के मध्य में जार्ज फॉक्स ने "सोसाइटी ऑव फ्रेंड्स" की स्थापना की थी, जो क्वेकर्स (Quakers) के नाम से विख्यात है। वे लोग पौरोहित्य तथा पूजा का कोई अनुष्ठान नहीं मानते और अपनी प्रार्थनासभाओं में मौन रहकर आभ्यंतर ज्योति के प्रादुर्भाव की प्रतीक्षा करते हैं। इंग्लैंड में अत्याचार सहकर वे अमरीका में बस गए। आजकल उनकी संख्या दो लाख से कुछ कम है।

चर्च ऑव जीसस क्राइस्ट ऑफ़ दि लैट्टर डेस

सन् 1830 ई. में यूसुफ स्मिथ ने अमरीका में "चर्च ऑव जीसस क्राइस्ट ऑव दि लैट्टर डेस" की स्थापना की। उस संप्रदाय में स्मिथ द्वारा रचित "बुक ऑव मोरमन" बाइबिल के बराबर माना जाता है, इससे इसके अनुयायी मोरमंस (Mormons) कहलाते हैं। वे मदिरा, तंबाकू, काफी तथा चाय से परहेज करते हैं। प्रारंभ में वे बहुविवाह भी मानते थे किंतु बाद में उन्होंने उस प्रथा को बंद कर दिया। यंग के नेतृत्व में उन्होंने यूटा का बसाया जिसकी राजधानी साल्ट लेक सिटी इस संप्रदाय का मुख्य केंद्र है। मोरमंस की कुल संख्या लगभग अठारह लाख है।

क्रिस्टियन साइंस

मैरी बेकर एडी ने (सन् 1821-1911 ई.) ईसा को एक आध्यात्मिक चिकित्सक के रूप में देखा। उनका मुख्य सिद्धांत यह है कि पाप तथा बीमारी हमारी इंद्रियों की माया ही है, जिसे मानसिक चिकित्सा (Mind Cure) द्वारा दूर किया जा सकता है। उन्होंने क्रिस्टियन साइंस नामक संप्रदाय की स्थापना की जिसका अमरीका में आजकल भी काफी प्रभाव है।

पेंतकोस्तल

पेंतकोस्तल नामक अनेक संप्रदाय 20वीं शताब्दी में प्रारंभ हुए हैं। कुल मिलाकर उनकी सदस्यता लगभग एक करोड़ बताई जाती है। पेंतकोस्त पर्व के नाम पर उन संप्रदायों का नाम रखा गया है। भावुकता तथा पवित्र आत्मा के वरदानों का महत्व उन संप्रदायों की प्रधान विशेषता है।

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