प्रीतम भरतवाण
प्रीतम भरतवाण उत्तराखण्ड के विख्यात लोक गायक हैं। भारत सरकार ने उन्हें 2019 में पद्मश्री परुस्कार से समानित किया।[१] [२]वे वे उत्तराखण्ड में बजने वाले ढोल के ज्ञाता हैं। उन्होंने राज्य की विलुप्त हो रही संस्कृति को बचाने में अमूल्य योगदान दिया है। वे एक अच्छे जागर गायक और ढोल वादक के साथ ही अच्छे लेखक भी हैं। साथ ही उन्हें दमाऊ, हुड़का और डौंर थकुली बजाने में भी महारत हासिल है। जागरों के साथ ही उन्होंने लोकगीत, घुयांल और पारंपरिक पवाणों को भी नया जीवन देने का काम किया है।
प्रीतम का जन उत्तराखंण्ड राज्य के देहरादून जिले के रायपुर ब्लॉक के सिला गांव में एक औजी ( ढोल बजाने वाले) परिवार में हुआ। लोक संगीत उन्हें विरासत में मिली है। उनके घर पर ढोल, डौर, थाली जैसे कई उत्तराखंडी वाद्य यंत्र हुआ करते थे।उनके पिता और दादा घर पर ही गाया करते थे। पहाड़ में होने वाले खास त्यौहारों में प्रीतम का परिवार जागर लगाया करता था। वहीं से उन्होने संगीत की शिक्षा भी ली।
प्रीतम भरतवाण की कला को पहचान सबसे पहले स्कूल में रामी बारौणी के नाटक में बाल आवाज़ देने से हुई। मात्र 12 वर्ष की अवस्था में ही उन्होंने लोगों के सामने जागर गाना शुरू कर दिया था। इस जागर को गाने के लिए उनके परिवार के जीजाजी और चाचा ने उन्हे कहा था। 1988 में प्रीतम भरतवाण ने सबसे पहले आकाशवाणी के माध्यम से अपनी प्रतिभा दिखाई। 1995 में प्रीतम भरतवाण की कैसेट रामा कैसेट से तौंसा बौं निकली। इस कैसेट को जनता ने हाथों-हाथ लिया। उन्हे सबसे अधिक लोकप्रियता उनके गीत 'सरूली मेरू जिया लगीगे' गीत से मिली। यह गीत आज भी सबसे लोकप्रिय गढ़वाली गीतों में शामिल है जिसके अब न जाने कितने रिमिक्स बन चुके हैं।
प्रीतम भरतवाण ने उत्तराखण्ड की संस्कृति का विदेशों में भी खूब प्रचार-प्रसार किया है। अमेरिका, इंग्लैंड जैसे कई देशों में उत्तराखंड की लोक संस्कृति का प्रदर्शन किया है। प्रीतम भरतवाण का जन्मदिन अब उत्तराखंड में 'जागर संरक्षण दिवस' के रूप में मनाया जाता है।