प्रायिकता सिद्धांत

मुक्त ज्ञानकोश विकिपीडिया से
(प्रायिकता सिद्धान्त से अनुप्रेषित)
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ
The printable version is no longer supported and may have rendering errors. Please update your browser bookmarks and please use the default browser print function instead.

प्रायिकता सिद्धांत (Probability theory) गणित की शाखा है जो यादृच्छ (रैंडम) परिघटनाओं के विश्लेषण से संबन्धित है।

इतिहास

गणितीय संभाव्यता के यथार्थ अर्थ के विषय में विशेषज्ञों, दार्शनिकों, गणितज्ञों तथा सांख्यिकीविदों में मतभेद है। संभाव्यता में रुचि के प्रारंभिक कारण वाणिज्यबीमा तथा वैध क्रियाविधि में साक्ष्यभार थे। कला एवं साहित्य के पुनर्जागरण काल के प्रारंभ में इटली के नगरों में वाणिज्यबीमा का श्रीगणेश हो गया था। जीवन बीमा की सैद्धांतिक नींव 17वीं शताब्दी में पड़ी। संभाव्यता-गणित में न्यायिक साक्ष्य के सिद्धांत का 19वीं सदी के मध्य तक महत्वपूर्ण स्थान रहा। संयोगप्रधान खेलों से संबंधित गणितीय निर्मेय पर लूका दी पेसिलों, जेगेम कारदान तथा कला एवं साहित्य के पुनर्जागरण काल के अन्य गणितज्ञों ने विचार किया, परंतु अधिक सफलता नहीं प्राप्त हुई। 17वीं सदी में पास्काल तथा अन्य गणितज्ञों ने इस विषय का 'पाशक ज्यामिति' के रूप में विकास किया। गणित की शाखा के रूप में संभाव्यता सिद्धांत का जन्मदाता बेर्नूली को माना जा सकता है। लाप्लास के कारण संभाव्यता प्रकृति विज्ञान में केवल त्रुटि सिद्धांत के रूप में आई शीघ्र ही गणितीय संभाव्यता-कलन की सहायता के रूप में आई। शीघ्र ही गणितीय संभाव्यता-कलन की सहायता से लोक-वित्त, स्वास्थ्यप्रशासन, चुनाव के संचालन तथा, बीमा के अतिरिक्त, अन्य सामाजिक मामलों से संबंधित सांख्यिकीय सामग्री का वरण होने लगा। 19वीं सदी के मध्य से संभाव्यता का विकास भौतिक सिद्धांत के एक भाग की भाँति हुआ। इसका सर्वप्रथम आभास ऊष्मा के सिद्धांत में हुआ। तत्पश्चात्‌ संभाव्यता की संकल्पना विज्ञान तथा प्रकृति दर्शन का मूल अभिप्राय हो गई। इस कारण इस विचार के अर्थ तथा संरचना के स्पष्टीकरण की आवश्यकता का अनुभव हुआ।

अमूर्त संभाव्यता-कलन

संभाव्यता की अनेक परिभाषाओं के कारण इसके गणित को इन-परिभाषाओं पर आधारित करने के लिए, अनेक वैकल्पिक विधियों का प्रयोग किया गया। इन वैकल्पिक कलनों में उनके मूल विचार के अर्थ के भिन्न भिन्न अभिप्राय लिए गए हैं, परंतु यथेष्ट सीमा तक उनकी तार्किक संकल्पना समान है। इनके अवलोकन से अमूर्त संभाव्यता-कलन संबंधी खोज के प्रयत्नों के लिए प्रवर्तक प्राप्त होता है।

एक प्रकार के अमूर्त कलन का, जिसको वृद्धिघाती (logistic) कह सकते है, आविष्कार जे.एम.केंस (1921), हैंस राकेनबेक (1932) तथा अन्य लेखकों ने किया। इन तंत्रों में संभाव्यता साध्य, अथवा गुण के मध्य अपरिभाषित, संबंधों के रूप में प्रकट होती है।

कल्पना करें कि किसी निर्दिष्ट a/h h की संभाव्यता को संकेत से सूचित किया गया है। यह कहना प्राय: सुविधाजनक रहता है कि a एक 'घटना' और h कोई 'अवस्था' अथवा 'प्रमाण' है। यह कल्पना करना आवश्यक नहीं है कि कोई युगल साध्य (अथवा गुण) फलन के एक संख्यात्मक मान को निर्धारित करता है; परंतु यदि कोई संख्यात्मक संभाव्यता है, तो उसको निम्नलिखित चार अभिधारण को संतुष्ट करना चाहिए :

(i) a/h ³ 0;

(ii) h/h = 1

(iii) a/h + (नहीं - a)/h = 1 पूरकता का मूलधन; और

(iv) (a और b)/h=a/h ´ b/(h और a), व्यापक गुणन मूलधन।

प्रथम, द्वितीय और तृतीय अभिधारण से प्रमाणिक होता है कि समस्त संभाव्यता नाम 0 से 1 तक के अंतराल में स्थित है, जब यह मान लिया जाए कि 0 और 1 दोनों अंतराल में सम्मिलित हैं।

चतुर्थ की सहायता द्वारा तृतीय से व्यापक योग सिद्धांत

(a अथवा b) /h = a/h + b/h - (a और b) /h

को सिद्ध कर सकते हैं।

यदि a और b परस्पर निवारक विकल्प हों, तो उनकी संयुक्त घटना की संभाव्यता शून्य है। इस भाँति परस्पर निवारक a और b के लिए

(a अथवा b) /h=a/h+b/h.

इसको विशेष योग सिद्धांत कहते हैं।

यदि a/h=n/(h और b), तो हम कहते हैं कि (संभाव्यता के लिए) a स्वतंत्र है b से (h में)। कलन के आगे के विकास के लिए स्वतंत्रता की कल्पना अति महत्वपूर्ण है। चतुर्थ अभिधारण तथा स्वतंत्रता की परिभाषा से प्रमाणित होता है कि स्वतंत्र a और b के लिए समता

(a और b) /h=a/h´b/h

सत्य है। इसको विशेष गुणन सिद्धांत कहते हैं।

संभाव्यता का बारंबारता सिद्धांत

लौकिक भाषा में किसी निर्दिष्ट h की संभाव्यता का अर्थ वह सापेक्ष बारंबरता है जिससे घटना a घटित होती है, जबकि प्रतिबंध h परिपूर्ण हो जाते हैं। दूसरे शब्दों में किसी निर्दिष्ट h की संभाव्यता उन h की साध्य है, जो a की हैं।

संभाव्यता का परास सिद्धांत

इस सिद्धांत की व्याख्या सरलतम रूप में निम्न प्रकार से की जा सकती है :

हम h का वैकल्पिक प्रतिबंध की संख्या n में विश्लेषण करते हैं। h परिपूर्ण हो जाता है, का अर्थ है कि या तो h1 अथवा.... अथवा hn परिपूर्ण हो जाता है। इसमें से कुछ विकल्प, माना m, a की घटना का अनुक्रम बंधन करते हैं। शेष -a ऋण (minus) नहीं की घटना का अनुक्रम बंध करते हैं। एक पारस्परिक शब्दावली के आधार पर हम विकल्प के प्रथम वर्ग को a का अनुकूल और द्वितीय को a का प्रतिकूल कहते हैं। किसी निर्दिष्ट h को संभाव्यता अनुपात, m : n, है, अर्थात्‌ अनुकूल विकल्प की संख्या तथा समस्त विकल्प की संख्या का अनुपात है।

किसी साध्य (अथवा गुण) के लिए सत्य (परस्पर निवारक) विकल्प को परास कहना स्वाभाविक ही है। पूर्वोक्त चिरप्रतिष्ठित परिभाषा को अब निम्न प्रकार से व्यापक बनाया जा सकता है।

किसी निर्दिष्ट h की संभाव्यता h- और -a के पराग्स की माप और केवल h के पराग्स का माप का अनुपात है; अर्थात्‌

a/h = mr (a OR h) / mr (h)

अनधिमान का सिद्धांत

संभाव्यता के परास सिद्धांत में मुख्य कठिनाई परास को माप के कारण है। यह कठिनाई इस प्रश्न के साथ संश्रित है कि किस प्रकार से साध्य (अथवा गुण) का विकल्प में विश्लेषण किया जाए। सामान्यत: माप के चुनाव और आँकड़ों के विकल्पों में विश्लेषण की अनेक संभावनाएँ हैं। अनधिमान के सिद्धांत की चिरप्रतिष्ठित परास परिभाषा के, जिसका आवश्यक पूरक यह परंपरा से समझा जाता रहा है, संबंध में व्याख्या की गई है।

संभाव्यता व्यक्तिनिष्ठ अथवा वस्तुनिष्ठ

वेर्नूली और लाप्लास दोनों इस विचार के थे कि प्रत्येक घटना का एक पर्याप्त कारण होता है, जिसके विषय में हम अज्ञानी हो सकते हैं। प्रकृति की अनिर्धारित नहीं अपितु मनुष्य की अज्ञानता संभाव्यता को मुख्य कमानी है। इसी कारण बेर्नूली ने संभाव्यता को विश्वास की मात्रा कहा है। इसका मनोवैज्ञानिक अथवा व्यक्तिनिष्ठ आशय है, जिसके कारण विषय में संभ्रांति अधिक मात्रा में आई। इससे सुझाव मिलता है कि संभाव्यता के सिद्धांत मनोवैज्ञानिक तथ्यों से संबंधित गणितीव्य नियम हैं, अर्थात्‌ वह प्रकार जिसमें मनुष्य अपने विश्वास की अनुमान योग्य घटना में 'वितरित' करता है।

सापेक्ष बारंबारता के रूप में संभाव्यता की परिभाषा स्पष्ट रूप से वस्तुनिष्ठ है। इसी भाँति सापेक्ष माप के रूप में संभाव्यता की परिभाषा वस्तुनिष्ठ है, यदि वह अनधिमान के चिरप्रतिष्ठित सिद्धांत की भाँति, माप विधि ज्ञान (अथवा अज्ञान) की दशा की ओर निर्देश नहीं करती।

वेर्नूली का प्रमेय

कल्पना करें कि h के किसी अवसर पर घटित घटना a की संभाव्यता h के पूर्व अवसर पर घटित होने वा न होने से अप्रभावित रहती है, अर्थात्‌ a की घटना एक दूसरे की संभाव्यता से स्वतंत्र है। कल्पना करें कि यह संभाव्यता p है। विशेष गुणन तथा योगफल के सिद्धांत का प्रयोग h के n अवसर पर घटना a के अंतराल p ± e में, किसी सापेक्ष बारंबारता के साथ अनुभव होने के संभाव्यतागणन मे, कर सकते हैं। इस द्वितीय संभाव्यतांश के प्रतिफल से सिद्ध कर सकते हैं कि :

(1) n अवसरों पर घटनाक की सापेक्ष बारबारता का अधिकतम संभाव्य मान वह मान है, जो उसकी संभाव्यता p के निकटतम है।

(2) n अवसरों पर घटना की सापेक्ष बारंबारता का उसकी संभाव्यता p से किसी संख्या Î की, हो कितनी भी लघु क्यों न हो, मात्रा से कम के विचल की संभाव्यता की सीमा 1 होती है, जब n में अनियतरूपेण वृद्धि की जाती है। इस भाँति, लौकिक भाषा में, अंत में घटना उसकी संभाव्यता की सापेक्ष बारंबरता के साथ लगभग निश्चित रूप से अनुभव होगी।

वर्धमान संभाव्यता के अनंतस्पर्शी गुण की, निम्नलिखित उदाहरण द्वारा, व्याख्या की जा सकती है :

किसी सिक्के को ऊपर फेंकने पर चित्त (अथवा मूर्तभाग) और पट (अथवा अक्षर भाग) की संभाव्यता 1/2 है। परिणाम संभाव्यता के लिए स्वतंत्र है : किसी पूर्व फेंकने में प्राप्त चित्त और पट का कोई संचय अगली बार ऊपर को फेंकने में चित्त अथवा पट आने की संभाव्यता को प्रभावित न कर सकेगा।

इस महत्वपूर्ण प्रमेय को वेर्नूली का प्रमेय कहते हैं। तथ्य के रूप में यह उस वर्ग के साध्य का प्रथम सदस्य है जिसको बृहत्‌ संख्या का नियम कहते हैं। इस नाम का सर्वप्रथम प्रयोग प्वासॉन्‌ ने 1830 ई. में किया।

प्रतिलोम संभाव्यता

1763 ई. में टॉमस वेज़ ने यह सिद्ध किया कि यदि n स्वतंत्र अवसर पर किसी घटना की सापेक्ष बारंबारता m : n हो, तो घटना की संभाव्यता का अधिकतम संभाव्यमान भी m : n होगा, यदि इस संभाव्यता का आदिगृहीत कोई मान उतना संभाव्य है जितना कोई अन्य मान। 1774 ई. में लाप्लस ने भी इस प्रमेय को स्वतंत्र रूप से सिद्ध किया था। लाप्लास ने यह भी सिद्ध किया कि यदि वर्णित कल्पना सत्य हो, तो अंत में यह लगभग निश्चित हो जाएगा कि संभाव्यता का अपनी सापेक्ष बारंबारता से संपात होता है।

बेज़-लाप्लास प्रमेय बेर्नूली के प्रमेय का प्रतिलोम है और बारंबारता के आधार पर संभाव्यता-प्राक्कलन की प्रतिलोम संभाव्यता के चिरप्रतिष्ठित सिद्धांत का मध्य प्रस्तर है। लाप्लास और उसके अनुयायियों ने इस सिद्धांत का विकास किया और इसकी अनेक प्रयोगों में प्रयुक्त किया।

प्रतिलोम संभाव्यता की एकिलिज़ एड़ी पूर्वगृहीत संभाव्यता पर उसकी निर्भरता है। प्रतिलोम संभाव्यता अब भी विवादास्पद विषय है। आर.ए. फिशर आदि शोधकर्ताओं ने इसको पूर्णतया अस्वीकृत कर दिया है।

अनंतस्पर्शी संभाव्यता ओर नैतिक दृढ़ निश्चय का सिद्धांत

भूतकाल में प्राय: यह अनुमान लगाया जाता रहा कि बेर्नूली के प्रमेय के नाते, अंत में घटना संभाव्यता अनुपाती संख्या में घटित होगी (ए.डे मॉरगन, सन्‌ 1838), परंतु यह गंभीर त्रुटि है। प्रमेय केवल यह कहता है कि बारंबारता की संभाव्यता से संपात की संभावना अधिकाधिक हो जाती है और यह, अपने आपसे, अंत में भी वास्तविक बारंबारता के विषय में किसी निष्कर्ष का समाश्वासन नहीं देता।

इस कल्पना में छिपी त्रुटि की बेर्नूली नैश्चित्यांश संभावना की व्यक्तिनिष्ठ संकल्पना की बेर्नूली का प्रमेय बारंबारता के पदों में वस्तुनिष्ठ संकल्पना से संयुक्त करता है। इसे सर्वप्रथम आर. लेज़ली एलिस ने 1843 ई. में समझा तथा निर्णायक रूप से इसकी समालोचना की। तो भी, बेर्नूली के प्रमेय और संभाव्यता के अन्य अनंतस्पर्शी सिद्धांत्‌ (बृहत संख्या के नियम) को बिना तार्किक त्रुटि के संभाव्यता से सांख्यिक बारंबारता को संयुक्त करने में प्रयोग के लिए एक अन्य विधि है। इसको निम्नलिखित रूप में अभिव्यक्त कर सकते हैं :

कल्पना करें कि बारंबारता के अवलोकन से, अथवा परास के प्रतिफल से, अथवा किसी अन्य स्रोत से, हम किसी h की संभाव्यता की परिकल्पना करते हैं। इस परिकल्पना से हम परिकलन करते हैं कि यह लगभग, अथवा बेर्नूली के शब्दों में नैतिक रूप से, निश्चित है (माना कि 0.95° तक संभाव्य) कि n परीक्षण की श्रेणी में घटना की सापेक्ष बारंबारता अपनी संभाव्यता से एक भिन्न (माना 0.01) से कम से विचलित होगी है। अब हम एक स्वयं तथ्य ग्रहण कर सकते हैं कि अति असंभाव्य घटनाएँ लगभग अपवर्जित हैं अथवा नैतिक नैश्चित्य का पूर्ण नैश्चित्य की भाँति उपचार करना चाहिए। इस स्वयं तथ्य का वास्तव में बेर्नूली ने सुझाव दिया था और इस कारण इसको बेनूंली के दृढ़ निश्चय का नैतिक सिद्धांत कह सकते हैं। इसका ग्रहण करना वैज्ञानिक और अनुप्रयुक्त प्रयोजन में संभाव्यतागणन के वास्तविक प्रयोग से भलीभाँति संवेधन करता प्रतीत होता है। यदि प्रेक्षित बारंबारता नैतिक दृढ़ निश्चय के सिद्धांत के विरोध में हो, तो परिकल्पना में संशोधन कर देते हैं, अथवा उसकी अस्वीकृत कर देते हैं। वास्तव में नैतिक दृढ़ निश्चय की सीमा मूल्यसापेक्ष है और उसका किसी एक, अथवा अन्य मान, पर अनंतिम रूप से नियत करना प्रत्येक स्थिति के लिए विशिष्ट परिस्थिति के समूह पर निर्भर रहेगा। इन परिस्थितियों का विश्लेषण एवं मूल्यांकन सांख्यिकीय सिद्धांत का वृहत्‌ कार्य है।

क्या संभाव्यता के एक अथवा अनेक अर्थ हैं? संभाव्यता के निम्नलिखित प्रयोग की तुलना करें :

(1) एक सामान्य छह पक्षवाले ठप्पे के 'छठे' पक्ष के ऊपर आने की संभाव्यता 1/6 है।

(2) इस बात की संभाव्यता कि शेक्सपियर ने वह नाटक स्वयं लिखे थे, जो उसके लिखे बताए जाते हैं, बहुत अधिक है।

(3) फ्रेनेल के प्रयोगों ने प्रकाश के उर्मिल सिद्धांत की संभाव्यता में बृद्धि कर दी।

क्या तीनों कथन में संभाव्यता का अर्थ समान है?

बारंबारता सिद्धांत का वर्तमान काल का मुख्य प्रस्ताव करनेवाले, हैंस राकेनबेक, के अनुसार संभाव्यता का केवल वैज्ञानिक अर्थ है। पूर्वोक्त द्वितीय उदाहरण के रूप का कथन, जिसका एक व्यक्तिगत घटना से संबंध है, अक्षरश: अर्थहीन है, परंतु समान परिस्थिति में सामान्यत: स्थिति के कथन के रूप में उसकी पुन: व्याख्या की जा सकती है। तृतीय प्रकार के कथन को, जो संभाव्यता का सामान्य साध्य (प्रकृति के नियम, सिद्धांत, परिकल्पना) से संबंध लगाता है, या तो सफल भविष्यकथन के अनुपात को, अथवा एक वर्ग में सत्य सिद्धांत के अनुपात को, निर्देश करनेवाली बारंबारता की व्याख्या दी जा सकती है।

जे.एम. केंज ने भी संभाव्यता का एकार्थक रूप लिया, यद्यपि नितांत भिन्न आधार पर। केंज के अनुसार, पूर्वोक्त द्वितीय और तृतीय उदाहरण के रूप के कथन के द्वारा प्रस्तुत कठिनाई निदर्शित करती है कि संभाव्यता की कल्पना बारंबारता सिद्धांत की, अथवा किसी अन्य सिद्धांत जिसके अनुसार संभाव्यता की माप राशि होना आवश्यक है, संकल्पना से अधिक न्यापक है। व्यापक रूप में संभाव्यता परिमेय विश्वास (जिसका मापक होना आवश्यक नहीं) का एक अंश है।

जिन्होंने संभाव्यता के दोहरे अर्थ की वकालत की है, उन्होंने ऐसा साधारणत: तृतीय प्रकार की स्थिति, अथवा प्रकृति के नियम की संभाव्यता तथा अन्य प्रकार की संभाव्यता, में विषमता दिखाने की इच्छा से किया है। जेकब फ्रीडिश फ्रीस ने 'गणितीय संभाव्यता' से भेद करने के लिए 'नियम की संभाव्यता' को दार्शनिक संभाव्यता कहा। यह भेद 19वीं सदी के अनेक तार्किकों एवं दार्शनिकों ने अपनाया। 'दार्शनिक संभाव्यता' सैद्धांतिक रूप में असंख्यात्मक समझी जाती थी।

रूडॉल्फ कारनाप ने कुछ भिन्न प्रकार की संभाव्यता के दोहरे अर्थ का विकास किया। संभाव्यता की दो कल्पनाओं में से प्रथम (जिसको उसने पुष्टि की डिग्री भी कहा) परास सिद्धांत की भावना की संभाव्यता है। दोनों संकल्पना गणतीय हैं और अमूर्त कलन की वैकल्पिक व्याख्या समझी जा सकती हैं। कारनाप ने दोनों सिद्धांतों के विरोधी दावों के समाधान के लिए संभाव्यता की दोनों संकल्पनाओं के प्रयोग के उचित क्षेत्र नियत किए। तो भी कठिनाई की दृष्टि से, जो दोनों सिद्धांतों को संभाव्यता के प्रस्तावित विश्लेषण में उठानी पड़ती है, यह सत्य नहीं समझा जा सकता कि समाधान पूर्णतया संतोषजनक है।

इन्हें भी देखें