प्राकृतिक न्याय का सिद्धान्त

मुक्त ज्ञानकोश विकिपीडिया से
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ
The printable version is no longer supported and may have rendering errors. Please update your browser bookmarks and please use the default browser print function instead.

प्राकृतिक न्याय का सिद्धान्त

प्रकृति पृथ्वी पर उपस्थित जीवधारियों, जो जल, थल, और नभ में निवास कर रहे है, या कर चुके है, या आगे आकर करेंगे, के प्रति अपना नियम न्याय के रूप में उनके द्वारा किये गये मानसिक, वाचिक, और शरीर से किये गये प्रयासों के प्रति अपनी न्याय प्रक्रिया को लगातार आदिकाल से जारी रखे हुये हैं, यह बुद्धि को धारण करने वाले प्राणियों को बुद्धि के द्वारा, और शारीरिक बल रखने वाले प्राणियों को शारीरिक बल के द्वारा न्याय देती है, देश समाज का कानून एक बार भ्रम में भी रह जाये लेकिन प्रकृति का कानून कभी भ्रम में नहीं रहता, वह अपना अटल न्याय सिद्धान्त जारी रखे हुये हैं, और जब तक सृष्टि का विकास क्रम चल रहा है, तब तक जारी रहेगा.

प्रकृति जैसे को तैसा वाला सिद्धान्त प्रतिपादित करती है

जीव सृष्टि-क्रम के विकास के लिये पृथ्वी पर आता है, और अपने द्वारा सृष्टि का विकास करने के बाद चला जाता है, जीव के अन्दर आत्मा का विकास जितना नजदीक होता है, उतनी जल्दी ही वह अपना विकास करता है, और उतनी ही जल्दी चला जाता है, और आत्मा की दूरी जीव को कालान्तर तक जीवित रखती है, और वह कल्प कल्प कर अपना विकास करता है, लेकिन जल्दी किया गया विकास जल्दी समाप्त हो जाता है, और देर से होने वाला विकास अधिक समय तक टिका रहता है। तीन क्रियायें ही जीव की मुख्य मानी जाती है, उदर-पोषण, सृष्टि-विकास के कार्य, और विश्राम.

भोजन के लिये असंख्य जीवों का नाश और असंख्य का जन्म प्रकृति की ही देन है।

मनुष्य भोजन के लिये अनाज को पैदा करता है, अनाज भी प्रकृति का जिन्दा स्वरूप है, जो पृथ्वी में जाने के बाद और मिट्टी, जल, ताप से अपने को अपने आप पनपाने लगे, उसमें जीव का होना सास्वत रूप से माना जाता है, गेंहूं को मिट्टी में किसान बोता है, पानी देता है, एक दाना अपने विकास क्रम के लिये पृथ्वी से तत्वों को ग्रहण करने के बाद कितने ही दानो का विकास करता है, और उन दानो को प्राप्त करने के लिये, पृथ्वी के अन्दर और बाहर जो हत्यायें वह अनाज का दाना करता है, वह जानकर भी अन्जान बनकर नकार दी जाती हैं, खाली मिट्टी में जिसमे किसी प्रकार के ह्यूमस की उपस्थिति नहीं हो, अनाज का दाना अपना विकास नहीं कर पाता है, और वह जमीन बंजर ही मानी जाती है, मिट्टी के अन्दर की परिस्थतियां और उसके अन्दर होने वाले परिवर्तन के प्रति एक भू-वैज्ञानिक अधिक जानकारी रखता है, जैविक खादें बनाने वाले और कृत्रिम खादे बनाने वाले इस बात को बखूबी जानते हैं। जीव का जीव ही आहार बनता है, प्रकृति जीव को ही जीव के लिये प्रस्तुत करती है, यह धरती वहीं पर अधिक उपजाऊ मानी जाती है, जहां पर अधिक जीव हत्या हुई होती है, चाहे वह पानी वाले जीवों के मरने के बाद धान की फ़सल पैदा करने वाली जमीन हो, या फ़िर पृथ्वी पर पैदा होने वाले प्राणियों की हत्या के बाद गेंहू की पैदावार का क्षेत्र हो, अथवा पृथ्वी और जल भाग के संयुक्त मरे प्राणियों वाली जमीन गन्ने के फ़सल के लिये अधिक उपयुक्त मानी जाती हो। आत्मा का निवास हर जिन्दा तत्व में मौजूद होता है, वह आत्मा अनाज के अन्दर अन्कुर के रूप में होती है, गेंहू या चने के अन्कुर को हटा देने के बाद वह केवल कोशिकाओं का जाल ही रह जाता है। और जम नहीं सकता, साथ ही उस अन्कुर को अगर किसी अन्य अनाज की कोशिकाओं के साथ संयुक्त कर दिया जावे तो वह ही संकरित-बीज की श्रेणी में आजाता है, जिसे आज के अनाज विज्ञानी अपनाकर अधिक से अधिक अनाज पैदा करने की क्रिया कर रहे हैं। कोशिकायें कभी मरती नही, वे केवल सूखती है, या अणुओं में परिवर्तित हो जाती है, जलाने के बाद उनका रूप करोडों हिस्सों में बंट जाता है, लेकिन वे खत्म नहीं होती है, पानी में गलने के बाद उनका रूप अणुओं में परिवर्तित हो जाता है, हवा में उडने के बाद वे अपना स्थान बदल सकतीं है, लेकिन खत्म नहीं हो सकती है, अगर जलने के बाद खत्म हो जातीं तो पृथ्वी का भार कम हो जाता, और कालान्तर से विभिन्न अग्नियों के अन्दर जलने वाली पृथ्वी अभी तक समाप्त हो चुकी होती.आग के द्वारा कोशिका जल कर असंख्य भागों में बंट जाती है, हवा के द्वारा राख के रूप में उड कर विभिन्न दिशाओं में चली जाती है, और पानी के द्वारा फ़िर से पनप कर और अन्य कोशिकाओं का भोजन करने के बाद फ़िर से अपने रूप में आजाती है।

प्रकृति का नियम ही भोजन करना है

संसार में जो भी पैदा हो रहा है, वह एक दूसरे को खा रहा है, पौधा जमीन के अन्दर की कोशिकाओं को खाकर बढ रहा है, पौधे को जानवर खा रहा है, और जानवर को मनुष्य या जानवर ही खा रहा है, कुछ को अपने को खिलाकर ही मजा आता है, और किसी को अपने को खिलाने पर दुख होता है, दुख तब होता है, जब कि उसको क्रिया से नहीं खाया जाता है, अनाज को भी दुख होता है, वह अपने अन्कुर रूपी आत्मा को सहेज कर रखने के लिये प्राथमिक पनपाने वाली कोशिकाओं का जाल बुनता है, और उसके अन्दर अन्कुर को सहेज कर रखता है, फ़िर उन कोशिकाओं की सुरक्षा के लिये अपने ऊपर के कवच को तैयार करता है, और सुरक्षा के साथ अन्यत्र बिखेरने के लिये गेंहूं में तीकुर जो हवा के साथ उड सके, चना में वायु युक्त कवच जो पानी साथ बह सके, गन्ने में पोई और गांठ के अन्दर अन्कुर आलू में भोजन के साथ आंख की बनावट का अन्कुर विद्यमान करता है, फ़लों के अन्दर आम को ही ले लीजिये, आप अपने फ़ल को पकाता है, बीज के ऊपर कवच को जाल से युक्त करता है, जिससे पानी अन्दर जा नहीं सके, और जानवर उसे कडक होने के कारण चबा नहीं सके, बीज के ऊपर रस से युक्त गूदा रखता है, क्यों कि आम भारी होता है, हवा में उड नहीं सकता है, पानी में बह नहीं सकता है, इसलिये उसे ढोने के लिये जीवधारी की जरूरत पडती है, मीठे स्वाद और गूदे के लोभ में जीवधारी उसे अपने मुंह में लेकर चूंसता है, और कोशिकाओं के अन्दर फ़ंसे गूदे को पूरी तरह से चूंसने के चक्कर में काफ़ी देर तक अपने मुंह में रखता है, दूर लेजाकर उस कडे बीज को थूंक देता है, जब इस क्रिया का सम्पादन होता है, तब बरसात की ऋतु का आगमन होने को होता है, तपती धूल में उसे चूंसे हुये गीले बीज को जीवधारी के द्वारा फ़ेंकने के बाद वह लार से सना बीज धूल के अन्दर लिपट कर मिट्टी के अन्दर समा जाता है, कुछ दिनों में बारिस होती है, और वह बीज कोशिकाओं के द्वारा मिट्टी और पानी के अन्दर पृथ्वी की गर्मी से पनपना चालू कर देता है, नीचे से कोशिकाऒ का प्रयास ऊपर उठने वाले पौधे के लिये लगातार दिन रात अथक मेहनत करने के बाद भी अगर कोई भूंखा जानवर उस उगते हुये पौधे को खा जाता है, तो कोशिकायें फ़िर से उसका पुन: निर्माण करने की क्रियायें करती है, और फ़िर एक साथ एक पौधे में से कितने ही पौधे निकलते हैं, जानवर एक को खाकर आगे चला जायेगा, तो एक तो बचेगा, और वही एक बचा हुआ अपना आस्तित्व जमीन के नीचे अपनी जडें फ़ैलाकर इतना सबल कर लेगा कि आगे से जानवर उसे हानि नहीं पहुंचा पायेंगे.