प्रलाक्ष

मुक्त ज्ञानकोश विकिपीडिया से
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ
The printable version is no longer supported and may have rendering errors. Please update your browser bookmarks and please use the default browser print function instead.
प्रलाक्ष संचिका (मिंग वंश, १६वीं शताब्दी)

सामान्य अर्थों में प्रलाक्ष (lacquer) वह पदार्थ है जिसका व्यवहार धातु या काठ के तलों पर लेप चढ़ाने में होता है। लेप चढ़ाने का उद्देश्य तल का संरक्षण, या उसे आकर्षक बनाना, होता है। अंग्रेजी शब्द 'लैकर' (lacquer) संस्कृत के 'लक्ष' शब्द से व्युत्पन्न हुआ है जिसका अर्थ 'लाख' होता है जो एक कीड़ा व उसके द्वारा स्रावित तरल पदार्थ को कहते हैं। ('लक्ष' का अर्थ १००००० भी होता है।) प्राचीन भारत में लाख का प्रयोग लकड़ी की सतह को चमकाने के लिए किया जाता था।

संरचना

प्रलाक्ष में निम्नलिखित चीजें रहतीं हैं -

  • (१) लेप उत्पन्न करनेवाले पदार्थ,
  • (२) विलायक (solvent),
  • (३) सुघट्यकारी (Plasticizer),
  • (४) रंजक और वर्णक, तथा
  • (५) तनू कारक (diluent)

प्रलाक्ष और वार्निश में अंतर यह है कि प्रलाक्षारस तत्काल सूख जाता है और वार्निश देर से सूखती है। विलायक के शीघ्र उद्वाष्पन ने प्रलाक्ष सूख जाता है, पर वार्निश के सूखने में उद्वाष्पन के साथ साथ ऑक्सीकरण और बहुलकीकरण की भी क्रियाएँ होती हैं, जिससे सूखने में देर लगती है।

लेप उत्पन्न करनेवाले पदार्थ

सेलुलोस नाइट्रेट, सेलुलोस ऐसीटेट, सेलुलोस एसीटो ब्यूटिरेट और रेजिन लेप उत्पन्न करनेवाले पदार्थ हैं। इनमें सेलुलोस नाइट्रेट और सेलुलोस ऐसीटो ब्युटिरेट और रेजिन हैं। इनमें सेलुलोस नाइट्रेट और सेलुलोस ऐसीटेट अधिक प्रयुक्त होते हैं। विभिन्न परिस्थितियों में प्रस्तुत सेलुलोस कुछ विभिन्न गुणवाले होते हैं। उनका वर्गीकरण विलयन की श्यानता और विलेयता पर निर्भर करता है। विलेयता की दृष्टि से नाइट्रोसेलुलोस आर. एस. (R.S. शीघ्र विलेय), ए. एस. आर. एस. के सदृश ही होता है, पर तनुकारक के रूप में हाइड्रोकार्बन विलायक प्रयुक्त नहीं हो सकते। एस. एस. में एस्टर और हाइड्रोकार्बन दोनों प्रकार के विलायक सह्य हैं।

सेलुलोस ऐसीटेट की विशेषता उसकी अदाह्यता में है। इस कारण इसका प्रयोग वायुयान के डोप (dope) बनाने में अधिक पसंद किया जाता है। इसके लिये कीटोन विलायक की आवश्यकता पड़ती है।

सेलुलोस ऐसीटोब्युटिरेट भी अदाह्य होता है तथा सेलुलोस नाइट्रेट की अपेक्षा अधिक ऋतुप्रतिरोधक होता है। धातुतलों पर इसके बड़े स्वच्छ लेप चढ़ते हैं।

अधिक मोटे लेप के लिये रेजिन का व्यवहार होता है। कुछ रेजिनों से लेप के चिपकने की क्षमता अधिक बझ जाती है। चपड़ा, डामर, एलिमि (elemi), एल्कीड और एस्टर गोंद इसके लिये उपयुक्त होते हैं।

विलायक

दो प्रकार के विलायक, एक वास्तविक विलायक और दूसरा तनुकारक उपयुक्त होते हैं। कुछ लोगों ने एक तीसरे प्रकार के विलायक का भी उपयोग बतलाया है। इसे सहविलायक (co-solvent), या गुप्त विलायक (latent solvent) की संज्ञा दी है वास्तविक विलायकों में नार्मल ब्युटिल ऐसीटेट सबसे अधिक महत्त्व का है। इसके अतिरिक्त एथिल एसीटेट, एमिल ऐसीटोन, मेथिल ऐसीटेट ऐथिल कीटोन, साइक्लोहेक्सेनोल ऐसीटेट, सेलोसोलम (ग्लाइकोल मोनो एथिल ईथर) इत्यादि भी प्रयुक्त होते हैं। सहविलायकों में एथिल, ब्युटिल और अन्य ऐल्कोहल हैं, जो स्वयं तो सेलुलोस यौगिकों को घुलाते नहीं पर वास्तविक विलायकों के साथ मिलाकर घुलने में सहायक होते हैं। इसी से ये सहविलायक या गुप्त विलायक कहे जाते हैं। इनके प्रयोग से विलायकों के खर्च में कमी हो जाती है।

सुघट्यकारी

विलायकों के उड़ जाने पर नाइट्रोसेलुलोस के पटल सिकुड़ कर तल को छोड़ देते हैं। इसे रोकने के लिये और प्रलाक्षारस को कोमल बनाने के लिये सुघट्यकारी का उपयोग होता है। ये प्रलाक्षारस को तन्य और सभ्य बनाते हैं तथा धीरे धीरे उद्वाष्पित होनेवाले द्रव या ठोस होते हैं। ये प्राकृतिक हो सकते हैं या कृत्रिम। प्राकृतिक सुघट्यकारियों में कपूर और रेंड़ी, अलसी, सोयाबीन आदि के उपचारित तेल हैं। कृत्रिम सुघट्यकारियों में ट्रॉइक्रेसील फॉस्फेट, ट्राइब्युटिल फॉस्फेट, डाइब्युटिल थैलेट, डाइएमिल थैलेट, ब्युटिल स्टीयरेट और सेबेसिक अम्ल के एस्टर महत्त्व के हैं।

रंजक और वर्णक

प्रलाक्षारस को रंगीन बनाने के लिये रंजक और वर्णक डाले जाते हैं। सस्ते होने के कारण कृत्रिम रंजक ही आजकल प्रयुक्त होते हैं। आवश्यकतानुसार इनका चुनाव होता है। वर्णकों में उनकी सूक्ष्मता बड़े महत्त्व की है। प्रलाक्षारस की उत्कृष्टता बहुत कुछ वर्णकों की सूक्ष्मता पर निर्भर करती है।

तनूकारक

तनूकारक के रूप में टोलुइन, जाइलिन और विलायक नैफ्था का उपयोग होता है। इनमें सेलुलोस यौगिक घुलते नहीं हैं, केवल रेजिन और ऐथिल सेलुलोस घुलते हैं, पर अन्य सेलुलोस विलायक पर्याप्त मात्रा में इन्हें सहन कर सकते हैं। इनके उपयोग से प्रलाक्षारस के मूल्य में पर्याप्त कमी हो जाती है।

प्रकार

  • उरुशिओल आधारित प्रलाक्ष (Urushiol-based lacquers)
  • नाइट्रोसेलुलोज आधारित प्रलाक्ष (Nitrocellulose lacquers)
  • एक्रिलिक आधारित प्रलाक्ष (Acrylic lacquers)
  • जल आधारित प्रलाक्ष (Water-based lacquers)

उपयोग की रीति

जिन तल पर प्रलाक्षारस चढ़ाना होता है उसे स्वच्छ कर लेना आवश्यक है। काठ का तल चिकना और सूखा रहना चाहिए। यदि तल पर गड्ढे हों तो उन्हें पूरकों से भरकर समतल कर लेना चाहिए। कीलों और छेदों को पुट्टी से ढँक देना चाहिए लेप चढ़ाने के पहले काष्ठतल को यदि रेत के कागज (रेगमाल) को रगड़ लें तो अच्छा होता है। धातुतल भी स्वच्छ करना चाहिए मुरचा, मैला, ग्रीज आदि हटा लेना चाहिए। तल को स्वच्छ करने के बाद जल्द ही लेप चढ़ाना चाहिए।

तीन रीतियों से लेप चढ़ाया जाता है :

  • (१) फुहारे से,
  • (२) निमज्ज द्वारा तथा
  • (३) बुरुश से।

लेप चढ़ाने के बुरुश कई प्रकार के मिलते हैं कुछ बुरुश वानस्पतिक रेशे के, कुछ जांतब रेशे के बनते हैं और अब कृत्रिम रेशे के भी बनने लगे हैं। फुहारे से लेप चढ़ाने की रीति अधिक व्यापक है। इससे लेप जल्द चढ़ जाता है, पर प्रलाक्षारस का कुछ अंश नष्ट भी हो जाता है। गरम या ठंढा दोनों दशाओं का लेप फुहारे से चढ़ाया जा सकता है। फुहारे से कोनों और किनारों पर भी लेप सरलता से चढ़ जाता है। निमज्जन रीति में प्रलाक्षार रखने के लिये टंकियाँ आवश्यक होती हैं। इन टंकियों में पात्र डुबाए जाते हैं। तारों पर इसी विधि से इनैमल लेप चढ़ाने के बाद लेप को ६५० सें. से २०० सें. ताप पर पकाते हैं, जिससे संसत्ति कठोरता और जल तथा रसायनकों के प्रति प्रतिरोध आदि गुण आ जाते, या बढ़ जाते हैं। पकाने में अवरक्त लैंप का भी प्रयोग हुआ है इससे समय की बचत होती है।

मोटर गाड़ियों पर लेप चढ़ाकर उन्हें सजाने में प्रलाक्षारस व्यापक रूप से आज प्रयुक्त होता है। वार्निश लेप से यह अधिक टिकाऊ और घर्षण प्रतिरोधक होता है। यह जल्द और सरलता से चढ़ता और जल्द सूखता भी है। कृत्रिम चमड़े के तैयार करने और रुई के वस्त्रों पर उभरते दाने बनाने में इसका विशेष उपयोग होता है। घरेलू फर्नीचर पर आजकल इसी का लेप चढ़ाया जाना पसंद किया जाता है।

इन्हें भी देखें