प्रतिमा
'प्रतिमा' शब्द देवविशेष, व्यक्तिविशेष अथवा पदार्थविशेष की प्रतिकृति, बिंब, मूर्ति अथवा आकृति सभी का बोधक है; परंतु यहाँ पर प्रतिमा से तात्पर्य भक्तिभावना से भावित देवविशेष की मूर्ति अथवा देवभावना से अनुप्राणित पदार्थविशेष की प्रतिकृति से है।
किसी ऐतिहासिक व्यक्ति या वस्तु की तथैव अथवा काल्पनिक प्रतिकृति जो मिट्टी या पत्थर में बनाई जाए प्रतिमा कहलाती है। प्रतिमा बनाने वाले को मूर्ति शिल्पी कहते हैं और प्रतिमा बनाने के काम को मूर्ति शिल्प कहा जाता है। [मंदिर|मंदिरों]में पूजा के लिए इनकी स्थापना होती है तथा घर नगर और संस्थानों में सुंदरता के लिए इन्हें स्थापित किया जाता है। देवी देवताओं और प्रसिद्ध व्यक्तियों की प्रतिमाएँ बनाई जाती हैं।
आविर्भाव
इस परिभाषा से प्रतिमापूजा पर अनायास ध्यान जाता है। पहले लोग प्रकृतिपूजक थे१ उसमें वृक्षपूजा, पर्वतपूजा, नदीपूजा, आदि आती हैं। हमारे देश में पूजापरंपरा में दो महान प्रसार हुए : एक वैदिक दृष्टि तथा दूसरा पौराणिक पूर्त। इसी को इष्ट पूर्त कहते हैं जिसके द्वारा भारतीय जनता का योगक्षेम वहन होता आया है। प्राचीन वैदिक कर्मकांड : यज्ञवेदी, यजमान, पुरोहित, बलि, हव्य, हवन एवं देवता तथा त्याग आदि के बृहत् उपबृंहण के अनुरूप ही देवार्चा में अर्चा, अर्च्य एवं अर्चक के नाना संभार, प्रकार एवं कोटियाँ पल्लवित हुईं। अर्चा के सामान्य षोडशोपचार एवं विशिष्ट चतुष्षष्ठि उपचार, आर्च्य देवों के विभिन्न वर्ग-महादेव, विष्णु, देवी, सूर्य, नवग्रह आदि-तथा अर्चकों की विभिन्न श्रेणियाँ इन सभी की समीक्षा हमारे प्रतिमाविज्ञान की पूर्वपीठिका की दशाध्यायी में द्रष्टव्य है।
किसी भी वस्तु, व्यक्ति, पशु, या पक्षी की प्रतिमा प्रतिमा कही जा सकती है परंतु भारत में प्रतिमाविज्ञान एवं प्रतिमा कला या मूर्तिकला का जन्म तथा विकास एवं प्रोल्लास देवार्चा से पनपा। सभी ध्यानी, योगी, ज्ञानी नहीं हो सकते थे, अत: 'भावना' के लिये प्रतिमा की कल्पना हुई। कालांतर पाकर पौराणिक पूर्तधर्म (देवतायननिर्माण, देवप्रतिष्ठा एवं देवार्चन) ने प्रतिमानिर्माण की परंपरा में महान योगदान दिया। देवमंदिरों के निर्माण में न केवल गर्भगृह के प्रधान देवता के निर्माण की आवश्यकता हुई वरन् देवगृह के सभी अंगों, भित्तियों, शिखरों आदि पर भी प्रतिमाओं के चित्रणों का एक अनिवार्य अंग प्रस्फुटित हुआ। इस प्रकार प्रधान देवों के साथ साथ परिवार देवों तथा भित्तिदेवताओं की भी प्रतिमाएँ बनने लगीं। मंदिर की भित्तियाँ पौराणिक आख्यानों के चित्रणों से भी विभूषित होने लगीं। अत: हिंदू प्रासाद या विमान पुरुषाकार (विराट् पुरुष के उपलक्षण पर विनिर्मित या प्रतिपादित) हैं अत: नाना उपलक्षणों, प्रतीकों, की पूर्ति के लिये यक्ष, गंधर्व, किन्नर, कूष्मांड, ऋषिगण, वसुगण, शार्दूल, मिथुन, सुर, सुंदरी, वाहन, आयुध आदि भी चित्रित होने लगे जिनकी प्रतिमाएँ भारतीय मूर्तिकला के समुज्वल निदर्शन हैं।
उपासना परंपरा में नाना संप्रदायों, शैव, वैष्णव, शाक्त, गाणपत्य, सोर, बौद्ध, (विशेषकर वज्रयान) एवं जैन आदि धार्मिक संप्रदायों में अपनी अपनी धारणाओं के अनुसार प्रतिमा में देवों एवं देवियों के अगणित रूप परिकल्पित किए गए। पुराणों, आगमों, तंत्रों की आधारशिला पर यह वृंहण बहुत आगे बढ़ गया।
सिद्धांत
प्रतिमा विज्ञान के सिद्धांतों का प्रतिपादन करनेवाले विभिन्न ग्रंथों में पुराण (विशेषकर मत्स्य, अग्नि, स्कंद, लिंग, भविष्य, विष्णु एवं विष्णु धर्मोतर); आगम (विशेषकर कामिक, कर्ण, सुप्रभेद, वैखानस आदि) ; शिल्पग्रंथ जैसे मानसार, मयमत, अगस्त्य-सकला-विकार, काश्यपीय अंशुभद्रादागम, शिल्पराज आदि दक्षिणी ग्रंथ तथा विश्वकर्मा वाजिशास्त्र, समरांगत्रणसूत्रधार, अपराजित पृच्छा, रूपमंडल आदि उत्तरी ग्रंथ, सातवाँ प्रतिष्ठाग्रंथ जैसे हरिभक्तिविलास, अभिलाषितार्थ चिंतामणि, (मानसोल्लास), रघुनंदन, मठप्रतिष्ठा, हेमाद्रिचतुर्वर्गं चिंतामणि कृष्णानंद तंत्रसार आदि विशेष उल्लेख्य हैं। इन सब ग्रंथों के आलोडन से निम्नलिखित सिद्धांत विशेष निश्चय करने योग्य हैं।
प्रतिमा वर्गीकरण
शास्त्रीय दृष्टि से चित्र (सांगोपांग) व्यक्ति, चित्रार्ध (अर्धव्यक्ति प्रतिमा) चित्राभास विशेष मौलिक हैं; परंतु विकास की दृष्टि से चला, अचला, इन दो वर्गो का महान प्रसार सपन्न हुआ। चला प्रतिमाओं में द्रव्यानुषंगत धातुजा (स्वर्ण, रजत, ताम्र, कांस्य, लौह आदि से विनिर्मिता), रत्नजा (मुक्ता, प्रवाल, विद्रुम, स्फटिक, पुष्प, पद्मराव, वैदूर्य आदि रत्नों से निर्मित) शैलजा, (पाषाणी); काष्ठजा, मृणमयी; गंधजा; कोसुमी आदि नाना उपवर्ग हैं। दक्षिण भारत में इन चला प्रतिमाओं के चार विशेष वर्ग उल्लेखनीय हैं, कौतिक बेर, उत्सव बेर, बलिबेर, तथा स्नपन बेर (बेर का अर्थ प्रतिमा है)। अचला प्रतिमाओं को आगमों में ध्रुवबेर के नाम से उपश्लोकित किया गया है। उनमें तीन वर्ग प्रमुख हैं : अस्थानक, आसन तथा शयन। पुन: उनके चार उपवर्ग हैं: योग, भोग, वीर तथा आभिचारिक। इन सबको मिलाकर द्वादश ध्रुवबेर परिगणित होते हैं जैसे योगस्थानक, भोगस्थानक, आदि। इसी प्रकार योगासन, भोगासन आदि, योगशयन, भोगशयन आदि।
संप्रदायानुरूप ब्राह्मण, बौद्ध, जैन में प्रतिमा के महावर्ग हैं। केंद्रानुरूप गांधार, मथुरा, उड़ीसा, बंगाल, मध्य भारत, दक्षिण भारत आदि से हम परिचित हैं। पुन: भावानुरूप शांत, अशांत, सौम्य, एवं असौम्य भी परिगणनीय हैं। देवानुरूप तो अगणित प्रतिमाएँ परिकल्पित हुई। वैष्णव प्रतिमाओं में दशावतार, अंशावतार, आयुध पुरुष, असाधारण, जैसे शेषशायी, तथा वासुदेव, साधारण, चर्तुभुज, अष्टभुज आदि। इसी प्रकार, शैव प्रतिमावृंद भी विशाल हैं: गंगाधर, अर्धनारीश्वर, संहार, दक्षिण, नृत्य आदि। अन्य संप्रदायों जैसे, सौर, गाणपत्य (गणेश एवं कार्तिकेय), शाक्त (देवी, सरस्वती, श्री पार्वती, दुर्गा, चामुंडा, कात्यायनी आदि नाना देवियाँ), बौद्ध (विशेषकर वज्रयान देवबृंद तथा देवीवृंद उसमें भी नाना मिथुन) एवं जैन जैसे तीर्थकर तथा शासन देवियाँ और शासक देव, इन सब का पृथुल प्रोल्लास पनपा।
प्रतिमामान
भारतीय प्रतिमाविज्ञान की सबसे बड़ी कसौटी मानयोजना है : 'प्रमाणे स्थापिता: देवा: पूजादृष्टि भवन्ति ते' : मान ही प्रतिमा सौंदर्य का मूलाधार है। अत: प्रतिमाविधान बिना प्रतिमा मान के पंगु है। संयम, नियम, जप, होम आदि की निष्ठा से ही प्रतिमाविधान प्रारंभ होता है। मान के नाना वर्ग हैं। प्रथम पुरुषप्रतिमा के मानाधार पंच पुरुष: हंस, शश, खेचर, भद्र तथा मालव्य माने गए हैं जिनके मान, आयाम तथा परिमाण के अनुसार क्रमश: ९६,९९,१०२,१०५ तथा १०८ अंगुल का मान माना गया है। इसी तरह प्रतिमा के भी बलाका, पौरुषी, पौ आदि पाँच मान हैं।
प्रतिमाविधान में आवश्यक मानप्रक्रिया के नाना मान हैं जैसे मान, प्रमाण, उपमान, उन्मान, लंबमान आदि षड्वर्ग, परंतु यहाँ पर दो विशेष उल्लेख्य हैं अंगुलमान तथा तालमान। अंगुलमान की उत्पत्ति परमाणु, रज, रोम, लिक्षा, यूका तथा यव के मान पर निष्पन्न होती है। अंगुल के अतिरिक्त दंडादि भी मानाधार हैं, तालमान का आधार सशीर्ष मुखमान है। एक तालादि दशशालांत तालमान परिगणित हैं। इनमें दश तथा नव के उत्तम मध्यम, अधम प्रभेद भी हैं। पुन: किस तालमान से किस देव या देवी की प्रतिमा निर्मित करनी चाहिए यह भी पूर्ण रूप से शास्त्र में प्रतिपादित किया गया है। विष्णु, ब्रह्मा महादेव की मूर्तियाँ उत्तमदशताल में इसी प्रकार, उमा, सरस्वती, दुर्गा, आदि देवियाँ अधम दशताल में; इसी तरह इंद्रादि लोकपाल, चंद्र, सूर्य, द्वादशादित्य, एकादश रुद्र मध्यम दशताल में निर्मेय हैं। अन्य देवों एवं देवियों के प्रतिमाविधान में भी तालमान पृथक् पृथक् संख्या में निर्धारित हैं।
रूपसंयोग से तात्पर्य प्रतिमा के आसन, वाहन, आयुध, आभूषण, वस्त्र आदि से है। आसन में पद्मासन, कूर्मासन आदि आसन सामान्य हैं। वाहन में हंस, (हंसवाहन ब्रह्मा) वृषभ आदि से हम परिचित हैं। इसी प्रकार गजवाहन रुद्र, मयूरासन कार्तिकेय, को भी लोग जानते हैं।
आयुधों में चक्र, गदा, त्रिशुल आदि नाना आयुध तो सभी ग्रंथों में वर्णित हैं परंतु 'अपराजितपृच्छा' में त्रिंशदायुध लक्षण एतद्विषय की विशेष सामग्री है। आभूषणों में हार, केयूर, मुकुठ, कौस्तुभ, वनमाला, कुंडल, किरीट, आदि विशेष प्रसिद्ध हैं। आयुधों एवं आभूषणों के साथ वाद्ययंत्र जैसे वीणा, डमरू, मृदंग, पानपात्र जैसे कपाल आदि भी विशेष परिगणनीय है। पहल के विद्वान् बौद्ध प्रतिमाओं को ही मुद्राओं के निदर्शन मानते थे।
प्रतिमामुद्रा
हस्तमुद्रा, पादमुद्रा तथा शरीरमुद्रा के ये तीन प्रमुख विभाजन हैं। पताकादि ६४ मुद्राएँ, जो भरत के नाट्य शास्त्र में प्रतिपादित हैं, नटराज की प्रतिमाओं में विभाज्य हैं। वैष्णवादि छह पादमुद्राएँ वैष्णव प्रतिमाओं की विशेषता हैं। ऋत्ज्वागतादि नौ शरीरमुद्राएँ सामान्य हैं जो विशेषकर (चित्रजा प्रतिमाओं में हैं)। इसी प्रकार समभंग, आदि शरीरमुद्राएँ भी बड़ी दुष्कर हैं।
भारतीय प्रतिमाकला, काव्य, संगीत एवं नाट्य तथा नृत्य के समान मनोरम कला है अत: रसाभिव्यक्ति अनिवार्य है। अत: समरांगण सूत्रधार तथा विष्णुधर्मोतर इन दो अधिकृत ग्रंथों में रसाभिनिवेश पर भी प्रतिपादन है। जिस प्रकार से मुद्राओं के द्वारा प्रतिमाविशेष में नाना भावों की अभिव्यक्ति तो हो ही जाती है, रसाभिनिवेश से वह क्रीडा करने लगती है, सजीव हो उठती है। पत्थर में भी जान आ जाती है। चित्र में भी दृश्यभाव का आभास आने लगता है।