पौरोहित्य और संस्कार (हिंदू)
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हिंदुओं के प्राचीनतम उपलब्ध ग्रंथ ऋग्वेद में पुरोहित का वर्णन है। उससे प्रतीत होता है कि उस काल में पौरोहित्य एक वर्गविशेष के हाथों में था जो देवताओं की कृपा प्राप्त कराने में माध्यम का कार्य करता था।
पुरोहित अधिकतर ब्राह्मण होते थे। इनमें से बहुत से राजाओं तथा धनीमानी व्यक्तियों के यहाँ धार्मिक कृत्य करो के लिये नियुक्त रहते थे। इन्हें काफी दानदक्षिणा मिलती थी और उसी पर इनका तथा इनके परिवारों का निर्वाह होता था। युद्धादि प्रसंगों में ये अपने राजाओं की सहायता भी करते थे तथा इन्हें प्राय: वैद्यक का भी ज्ञान होता था। ऋग्वेद के दसवें खंड में औषधोपचार के संबंध में मंत्र मिलते हैं। यक्ष्मा, आसन्नमृत्यु, संतानप्राप्ति, शत्रुनाश इत्यादि के उपचारों का इनमें वर्णन है। विवाह, मृतक संस्कार आदि संस्कार कराना भी पोरोहित्य के अंतर्गत आता था। इससे स्पष्ट है कि उस काल में पुरोहित का कार्यक्षेत्र मनुष्य के दैनंदिन जीवन को स्पर्श करने लग गया था।
बाद में यज्ञ, यागादि कार्य भी पोरोहित्य में संमिलित हुए। ऋग्वेद में सोमयाग का वर्णन है। इसमें काफी संख्या में पुरोहितों की आवश्यकता होती थी। होतृ, पोतृ, प्रशास्तु, अध्वर्यु इत्यादि का कार्य पुरोहित ही किया करते थे। इनके अलावा कुलपुरोहित का भी वर्णन मिलता है। इसका कार्य राजा के कुलाचार संपन्न कराना होता था। विशेष यज्ञ यागादि के समय यह कार्य भी करता था। इस प्रकार हम यह देखते हैं कि वैदिक काल में पुरोहित को काफी महत्व प्राप्त था। वह देवताओं का पूजक होता था और स्तुति तथा बलि द्वारा यजमान के लिये देवताओं की कृपा प्राप्त कराने का प्रयत्न करता था।
ब्राह्मणों में पौरोहित्य के संबंध में अधिक विशद वर्णन मिलता है। ब्रह्मण साहित्य का काल ईसा पूर्व छठी शताब्दी का है। इस समय पुरोहित के कार्यक्षेत्र की रूपरेखा काफी स्पष्ट तथा विशद हो चुकी थी। भिन्न भिन्न भागों में भिन्न भिन्न संख्या में पुरोहितों की आवश्यकता होती थी। दैनिक अग्निहोत्र के लिये केवल एक अध्वर्यु की आवश्यकता होती थी। अग्न्याधेय तथा अग्निध के लिये अध्वर्यु के अलावा होतृ, मैत्रावरुण आदि 16 पुरोहितों की आवश्यकता होती थी। इनमें ब्रह्मा का महत्व सबसे अधिक होता था। यज्ञकार्य में कही त्रुटि न हो तथा संपूर्ण यज्ञ विधिपूर्वक निर्विध्न संपन्न हो इसका उत्तरदायित्व उसी पर होता था।
ब्राह्मणकाल में पुरोहित का महत्व काफी बढ़ा। अब वह राजा को उसके राजकार्य, न्यायाधिकरण इत्यादि में भी परामर्श देने लगा। शत्रुओं का दमन तथा राज्य का समृद्ध बनाने के कार्य भी उसने सँभाले। ऐतरेय ब्राह्मण के विवरण से स्पष्ट है कि उस काल में राजा अपने पुरोहित पर पूर्ण रूप से निर्भर रहता था। देवासुर संग्राम में जब देवताओं की पराजय होने लगी थी तो देव-पुरोहित बृहस्पति ने ही उसे सँभाला था तथा देवताओं को विजयश्री प्राप्त कराई थीं।
इस समय तक पौरोहित्य आनुवंशिक हो चला था। पुरोहित को राजा से भी ऊँचा स्थान प्राप्त था। वहाँ भी जाता था वहाँ उसका बहुत आदर के साथ स्वागत होता था।
उसे मिलनेवाली दानदक्षिणा की कोई सीमा नहीं थी। लोग याज्ञिकों को अपनी संपूर्ण संपत्ति तक का दान कर देते थे। यह दान सर्वश्रेष्ठ माना जाता था। ब्राह्मण की संपत्ति पर राजा का भी अधिकार नहीं होता था। ब्रह्महत्या सबसे बड़ा पातक माना जाता था। उसका प्रायश्चित केवल वाजपेय यज्ञ से ही होता था। लेकिन धोखेबाज ब्राह्मण के लोग बर्दाश्त नहीं करते थे। पंचविंश ब्राह्मण में उल्लेख है कि धोखेबाद ब्राह्मण को मृत्युदंड दिया जाता था। समाज में ब्राह्मण को जो विशेष स्थान प्राप्त था उसके बदले में उससे सदाचार, कर्तव्यपालन तथा कर्मकांड के ज्ञान की अपेक्षा की जाती थी।
ईसा पूर्व छठी शताब्दी से उपनिषदकाल प्रारंभ होता है। इस समय तक पुरोहित का कार्यक्षेत्र स्पष्ट रूप से निर्धारित हो चुका था। उसका कार्य याज्ञिक कार्य से भिन्न हो चुका था। वेदाध्ययन, यज्ञ तथा तपस्या का स्थान ज्ञानार्जन तथा अध्यापन ने ले लिया था और इसी प्रकार इस काल में गुरु-शिष्य-परंपरा अधिक सुदृढ़ होने लग गई थी। इसके फलस्वरूप तत्वज्ञान तथा दर्शन की भिन्न भिन्न परंपराएँ एक दूसरे से अलग होने लगीं और मत मतांतरों का उदय होने लगा। बौद्ध तथा जैन धर्मो की स्थापना हुई। इन धर्मो की पार्श्वपीठिका में नास्तिकता होने के कारण प्रारंभ में इनमें पौरोहित्य को कोई स्थान नहीं था। लेकिन धीरे धीरे इन धर्मो के अवलंबन करनेवालों के लिये आचार और व्यवहारों के नियम बनने लगे और भिन्न प्रकार के ही सही किंतु एक विशेष प्रकार के वर्ग की इन्हें भी आवश्यकता हुई जो लोगों को उनके कर्तव्याकर्तव्य का निर्देश दे सके। इस प्रकार इनमें भी पौरोहित्य ने जड़ पकड़ना प्रारंभ कर दिया।
इसके बाद रामायण, महाभारतादि काव्यों की रचना का काल आता है। इस समय तक राजा पुरोहित पर संपूर्ण रूप से आश्रित हो चुका था और उसके परामर्श के बिना कोई कार्य नहीं करता था।
पुराणों तथा संस्कृत साहित्य में वर्णित पुरोहित आधुनिक काल के पुरोहित के समान था। उसका कार्यक्षेत्र सीमित हो चुका था। इस काल में पौरोहित्य में उपनयन, विवाहादि संस्कार कराना, ग्राम पौरोहित्य अर्थात् ग्रामवासियों की कुंडलियाँ बनाना, जुताई बोवाई आदि कृषिमुहूर्त निकालना, मंदिरों में पुजारी बनकर रहना आदि कार्य भी सम्मिलित हुए। आधुनिक काल में भी हम अनेक मंदिरों में पुरोहितों को पुजारी के रूप में प्रतिष्ठित देखते हैं। सिखों के गुरुद्वारों में हम ग्रंथी को देखते हैं। ये भी एक प्रकार से पुरोहित ही हैं।
आधुनिक काल में यज्ञ यागादि का महत्व बहुत ही कम हो चुका है। याज्ञिकों का वर्ग समाप्तप्राय है। अतएव पौरोहित्य में अब वैदिक यज्ञादि के स्थान पर मूर्तिपूजा, मकरसंक्रांति, वसंतपंचमी, होली, दीपावली जैसे धार्मिक उत्सवों को संपन्न कराना इत्यादि कार्यो ने प्रवेश प्राप्त कर लिया है। इस प्रकार वर्तमान हिंदू धर्म में पौरोहित्य विविध धार्मिक संस्कार, देवताओं का पूजन, कुलाचार तथा धार्मिक उत्सवों को संपन्न कराना, इन्हीं में सीमित होकर रह गया है।
विविध धार्मिक संस्कार
सृष्टि के प्रारंभिक समय से ही मनुष्य के हित के लिये तीन मार्ग प्रशस्त हैं। उन्हें ज्ञानमार्ग, कर्ममार्ग और भक्तिमार्ग कहते हैं। कर्ममार्ग के विधान का मूल स्रोत वेद है। प्रत्येक कर्म के लिये अलग अलग विधियाँ कही हैं। वेद के छह अंगों में से कल्प के द्वारा ये विधियाँ कही हैं। वेद के छह अंगो में से कल्प के द्वारा ये विधियाँ नियमित हैं। इनकी जानकारी श्रोतसूत्र, गृह्यसूत्र और शुल्बसूत्र प्रभृति ग्रंथों के द्वारा की जा सकती है। श्रोतसूत्र के द्वारा किए जानेवाले कर्म श्रोत एवं गृह्यसूत्र के द्वारा होनेवाले कर्म स्मार्त हैं। संस्कारों का विधान भी गृह्य सूत्रों का अनुसरण करता है।
इन विधानों में पुरोहित की अपेक्षा होती है। विधि के अनुकूल किए हुए अनुष्ठानों से ही ऐहिक एवं आमुष्मिक फल की प्राप्ति कही गई है। सम् पूर्वक कृं्ा धातु से घं्ा प्रत्यय करने का संस्कार शब्द व्युत्पन्न होता है। यहाँ संस्कार से शुद्धि की धार्मिक क्रिया एवं व्यक्ति के दैहिक और बौधिक आध्यात्मिक परिष्कार के निमित्त विधेय अनुष्ठानों से है।
प्रमुख संस्कारों के नाम इस प्रकार हैं : गर्भाधान, पुसवन, सीमन्तोन्नयन, जातकर्म, नामकरण, निष्क्रमण, अन्नप्राशन, चूडाकर्म, कर्णवेध, उपनयन, वेदारंभ, केशांत, समावर्तन, विवाह और अंत्येष्टि। इन संस्कारों का कराना पुरोहित का ही काम है। संस्कारों का संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है :
गर्भाधान
क्षेत्र या गर्भ के निमित्त यह संस्कार विहित है। प्रथम गर्भ के समय इसके करने का विधान है। स्त्री के प्रथम वार ऋतुस्नाता होने पर षष्ठ या अष्टम दिन यह संस्कार करना चाहिए।
पुंसवन
गर्भ के चिह्न जब प्रकट हों तब तीसरे मास में यह संस्कार गर्भ के निमित्त है। इसमें गर्भिणी स्त्री के दक्षिण नासारध्रं में लक्षमणा, सोम, वटशुंग और सहदेवी का रस छोड़ा जाता है।
सीमंतोन्नयन
षष्ठ के अष्टम मास पर्यंत यह संस्कार प्रशस्त है। गर्भ को सुसंस्कृत होने के लिये यह संस्कार किया जाता है। इससे पूतना और राक्षसी की बाधा नहीं होती। पति गर्भवती पत्नी को औदुंबर की माला पहनाता है। साही के कांटे से केशों का उन्नयन करता है।
जातकर्म
शिशु के जन्म होने पर यह संस्कार करना चाहिए। पिता नवजात शिशु का सुवर्णशलाका से मधु और धृत चटाता है। संतान को दीर्घजीवी होने के लिये उसके कान में मंत्र पाठ भी किया जाता है।
नामकरण
जनानाशौच की निवृत्ति होने पर ग्यारहवें दिन यह संस्कार करना चाहिए। इसमें नक्षत्र, मास, कुलदेव और लौकिक इस प्रकार शिशु के चार तरह के नाम निर्धारित किए जाते हैं।
निष्क्रमण
जन्म के बारहवें दिन से चतुर्थ मास पर्यंत यह संस्कार विहित है। पिता शिशु को गोद में लेकर घर से बाहर आता है और सूर्यदर्शन कराता है।
अन्नप्राशन
षष्ठ मास में यह संस्कार होता है। इस संस्कार के द्वारा बालक प्रथम बार अन्न खाता है। इसमें माता और शिशु दोनों का हित है।
चूड़ाकरण
जन्म से प्रथम, तृतीय या पंचम वर्ष इस संस्कार का समय है। इससे आयुष्य और कल्याण की प्राप्ति होती है। पिता बालक के केश काटने का संस्कार करता है। उसी अभिमंत्रित छुरे से नापित द्वारा बाल काटे जाते हैं। इसी संस्कार के द्वारा शिखा रखने का श्रीगणेश होता है। कटे हुए केश प्राय: नदी या तालाब के किनारे भूमि में गाड़ दिए जाते हैं।
उपनयन
इसी संस्कार के द्वारा बालक वेदाध्ययन का अधिकारी होता है। अब से वह द्विज कहलाता है। ब्राह्मण आठवें, क्षत्रिय ग्यारहवें और वैश्य तेरहवें वर्ष उपनीत होना चाहिए। इनका क्रमश: शाण, क्षौम और ऊर्णावस्त्र होना चाहिए। यदि कार्पास वस्त्र हो तो उसका वर्ण क्रमश: पालाश, औडुंबर और वैणुक हों। उपनीत होने पर इन्हें ब्रह्मचारी के नियमों का पालन करना चाहिए।
वेदारंभ
शुभ मुहूर्त में इसका प्रारंभ हो। प्रथम अपनी समस्त शाख का अध्ययन करना चाहिए। अनंतर अन्य शाखाऍ भी पढी जा सकती हैं।
केशांत
यह संस्कार ब्राह्मण को सत्रहवें, क्षत्रिय को तेईसवें और वैश्य को पचीसवें वर्ष विहित है। केशों को तीन भागों में विभक्त कर उन्हें क्रमश: छुरे से काटते हैं। अनंतर शिखा को छोड़कर नापित क्षौर करता है। छिन्न केशों को नदी तट पर गाढ़ देना चाहिए।
समावर्तन
इस संस्कार के द्वारा छात्र गुरुकुल की पढ़ाई समाप्त कर अपने घर आता है। चौबीसवें वर्ष यह संस्कार करना चाहिए। इसी संस्कार में छात्र गुरु को दक्षिण देता है। ब्रह्मचारी स्नान करके दंड और मेखला प्रभृति जल में विसर्जित करता है। नवीन वस्त्र पहनता है और अपने घर वापस लौटता है।
विवाह
अपत्नीक व्यक्ति अयज्ञीय और सामाजिक एवं धार्मिक कृत्यों में हीन है। इसके ब्राह्म, दैव, आर्ष, प्राजापत्य, आसुर, गांधर्व, राक्षस और पैशाच आठ भेद हैं। इसका समय वर के लिये चौबीसवाँ वर्ष और कन्या के लिये रजादर्शन से पूर्व का है। इसका प्रारंभ वाग्दान से होता है। शुभ समय और सुसज्जित मंडप में वर का मधुपर्कार्चन होता है। गोत्रोच्चार के अनंतर पिता कन्यादान करता है। यहाँ धर्म, अर्थ और काम का तुम्हारे बिना आचरण नहीं करूंगा, यह वर की वधू से प्रतिज्ञा, सप्तपदी और अश्मारोहण महत्व के हैं।
समार्ताधान
विवाह के अनंतर क्रमप्राप्त स्मार्ताधान है। इसे सपत्नीक व्यक्ति कर सकता है। पंचांग विधान के अनंतर स्मार्ताधान का संकल्प होता है। इसमें पति, पत्नी मंथन करके अरणी से अग्नि प्रकट करे हें। यह अग्नि को वृत्ताकार तथा परिधि युक्त खर (कुंड) में स्थापित करते हैं। शास्त्रों में योग की इक्की नाम (1) औपासन होम, (2) वैश्वदेव, (3) पार्वण, (4) अष्टाश्राद्ध, (5) मासिकश्राद्ध, (6) श्रमणाकर्म और (7) शूलगव हैं।
औपासन होम
सायंकाल और प्रात:काल स्मार्ताग्नि पर किया जानेवाला हवन औपासन होम है। इसमें सायंकाल और प्रात:काल के देवता क्रमश: अग्नि और सूर्य हैं। दोनों ही समय के द्वितीय देवता प्रजापति हैं। इसके लिये हविर्द्रव्य आज्य प्रशस्त है।
वैश्वदेव
प्रात:कालीन कृतय के अनंतर वैश्वदेव करना चाहिए। यह दैनिक कृति है। इसमें स्मार्ताग्नि पर आहुति की जाती है। समस्त देवताओं और पितरों को बलिप्रदान भी होता है।
अष्टकाश्राद्ध
मार्गशीर्ष, पौष एवं वर्षा की अष्टमी को यहा श्राद्ध विहित है। इनका नाम क्रमश: ऐंद्री, वैश्वदेवी, प्राजापत्या और पित्र्या है। इनमें उपर्युक्त देवताओं के निमित्त अनुष्ठान किया जाता है।
मासिश्राद्ध
पितरों के उद्देश्य से यह प्रति मास किया जाता है। इसमें पितरों के लिये पिंडदान होता है। यह कृत्य अपसव्य से होता है।
श्रमणाकर्म
इस अनुष्ठान में सायंकाल के समय सर्प को बलि दी जाती है। इस कृत्य को श्रावण की पौर्णमासी को करने का विधान है।
शूलगव
इसमें रुद्र देवता के प्रीत्यर्थ मीमांस का हवन विहित है। कलियुग में गोमांस का उपयोग निषिद्ध है। जिस शाखा में गोमांस का प्रतिनिधि अन्य द्रव्य कहा है वे लोग अभी भी इसका अनुष्ठान करते हैं।
श्रौताधान
स्मार्ताग्नि के परिग्रह के अनंत यह श्रौताधान किया जाता है। श्रोताग्नि के परिग्राह को अग्निहोत्री कहते हैं। 'अग्निहोत्रं जुहुयात् स्वर्गकाम:' इस श्रुति के अनुसार द्विज के लिये यह नित्य कर्म है। श्रौतयागों को करने के लिये श्रौताधान अनिवार्य है। इस आधान का समय अमावस्या या पूर्णिमा कहा है। श्रौताधान से पूर्व अग्निहोत्रशाला निर्मित हो जानी चाहिए। इस यज्ञशाला में गार्हपत्य, दक्षिणाग्नि और आह्वनीय ये तीन त्रेताग्नि और सभ्य ये चार श्रौताग्नि और आवसध्य नामक स्मार्ताग्नि इस प्रकार पाँच अग्नि होते हैं। अग्निहोत्री को एक बार अग्नि के परिग्रह के अनंतर यावज्जीवन उसकी उपासना करनी होती है।
सप्तहविः संस्था
परिगृहीत अग्नि पर ही सप्तहविझः संस्थाओं का अनुष्ठान किया जा सकता है। एतदर्थ उस परिगृहीत अग्नि के संरक्षणार्थ सर्वदा सावधान रहना आवश्यक है। अग्नि के शांत होने पर पुन: मंथन द्वारा अग्नि को प्रकट करना होता है। उन सात हवि: संस्थाओं के नाम इस प्रकार हैं। (1) अग्निहोत्र हवन, (2) दर्शपौर्णमास याग, (3) आग्रयण याग, (4) चातुर्मास्य याग, (5) निरूढपशुबंध, (6) सौत्रामणी और (7) पिंडपितृ यज्ञ।
अग्निहोत्र हवन
इसका अनुष्ठान सायंकाल और प्रात:काल क्रमश: सूर्यास्त और सूर्योदय के समय होना चाहिए। इसका प्रारंभ सायंकाल से विहित है। दोनों समय का हविर्द्रव्य और हवनकर्त्ता एक ही होना चाहिए। इसमें गार्हपत्य, दक्षिणाग्नि और आह्वनीय संज्ञक अग्नि पर आज्य की आहुति होती है। हवनकाल में अग्निहोत्री अग्गीषोम और अग्नीषोम हैं। दर्शयाग के देवता अग्नि, विष्णु और इंद्राग्नी कहे गए हैं।
दशंपौर्णमास याग
प्रतिपक्ष यह अनुष्ठान होता है। इसका प्रारंभ पौर्णमास याग से है। इसमें अग्निहोत्री, उसकी पत्नी तथा ब्रह्मा, होता, अध्वर्यु और अग्न्ध्रीा ये चार ऋत्विज होते हैं। हवनीय द्रव्य पुरोडाश और आज्य है। पौर्णमासयाग के देवता अग्नि अग्गीषोम और अग्नीषोम हैं। दर्शयाग के देवता अग्नि, विष्णु और इंद्राग्नी कहे गए हैं।
आग्रयणोष्टि
इसका अनुष्ठान शरद्, वसंत, वर्षा और ग्रीष्म ऋतु में कहा गया है। वर्ष से चार बार इसका अनुष्ठान कहा है। इसके देवता इंद्राग्नी, विश्वेदेवा और द्यावापृथिवी हैं। हवननीय द्रव्य पुरोडाश एवं चरु है। इसके ऋत्विज पौर्णमास याग के समान चार होते हैं।
चातुर्मास्ययाग
वैश्वदेव, वरुणप्रघास, साकमेघ और शुनासीरीय ये चार इसके पर्व हैं। चार चार मास के अनंतर इसका अनुष्ठान होता है। इसमें ऋत्विजों की संख्या पाँच कही गई है।
निरूढपशुबंध
प्रति वर्ष वर्षा ऋतु में इसका अनुष्ठान करना चाहिए। इसके प्रधान देवता इंद्राग्नी, सूर्य या प्रजापति हैं। इस याग में ऋत्विजों की संख्या छह होनी चाहिए।
सोत्रामणी याग
इंद्र देवता के निमित्त इस याग को करने का विधान है। इस याग में तीन पशुओं का आलभन होता है। यहाँ छह ऋत्विजों की आवश्यकता होती है। यहाँ हवि: संस्थाएँ समाप्त होती हैं।
सप्तसोम संस्था
इनके नाम इस प्रकार कहे गए हैं: (1) अग्निष्टोम, (2) अत्यग्निष्टोम, (3) उक्थ्य, (4) षोडशी, (5) वाजपेय, (6) अतिरात्र और (7) अप्तोर्याम।
अग्निष्टोम
इन सात संस्थाओं में सोमलता का उपयोग होता है। इनमें प्रत्येक में प्रधान ऋत्विज सोलह होते हैं। अग्निष्टोम याग में यजमान और पत्नी की दीक्षा होती है। ये पाशुक याग हैं। यहाँ से ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद का उपयोग होता है। इन्हीं यागों में शास्त्रपाठ और स्तोत्र पाठ सुने जा सकते हैं। अग्निचयन याग भी महत्वपूर्ण है जिसमें कि इष्टकाओं द्वारा विशेष प्रकार की चिति का निर्माण होता है। श्रौतायागों में अश्वमेघयाग, राजसूययाग इत्यादि अनेक याग हैं जो प्राचीन समय में राजाओं द्वारा संपादित किए जाते थे।
अंतेयेष्टि
समस्त आहिताग्नि की अंत्येष्टि का विधान महत्वपूर्ण है। पति या पत्नी इन दोनों में जिसकी प्रथम मृत्यु होती है। उसक साथ यह विधान किया जाता है। उसका दाह उसी अग्नि से होता है जिस अग्नि का वह उपासक था। याग के समस्त पात्र उसके साथ चिता में रख देने चाहिए। इस विधान के अनंतर यहीं पर उसकी उपासना समाप्त होती है।
इन कर्मकांडों के अतिरिक्त तांत्रिक कर्मकांड भी कहे गए हैं। इन अनुष्ठानों का विधान तांत्रिक ग्रंथों ने विस्तारपूर्वक किया है। परंपरा से संबद्ध कर्मकांडों का वर्णन परंपरा के ग्रंथों में पाया जाता है।