पृथ्वीराज रासो

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पृथ्वीराज रासो के प्रथम खंड का तिवारीजी प्रचारिणी सभा

द्वारा प्रकाशित)]]

पृथ्वीराज रासो हिन्दी भाषा में लिखा एक महाकाव्य है जिसमें पृथ्वीराज चौहान के जीवन और चरित्र का वर्णन किया गया है। इसके रचयिता चंदबरदाई पृथ्वीराज के बचपन के मित्र और उनके राजकवि थे और उनकी युद्ध यात्राओं के समय वीर रस की कविताओं से सेना को प्रोत्साहित भी करते थे। ११६५ से ११९२ के बीच पृथ्वीराज चौहान का राज्य अजमेर से दिल्ली तक फैला हुआ था। पृथ्वीराज रासो और पृथ्वीराज काव्य के अनुसार पृथ्वीराज का जन्म क्षत्रिय राजपूत कुल में हुआ था[१][२] । कई कोणों से रासो ने स्पष्ट रूप से कहा है कि पृथ्वीराज एक राजपूत थे, एक क्षत्रिय थे[२][१]। २०२० में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और राष्ट्रपति राम नाथ कोविंद के नेतृत्व में दिल्ली में एक समिति बिठाई गई जिसमे १५ से अधिक भारतीय विश्वाध्यालयों के प्रोफेसर को शामिल किया गया[१] , इन १५ + विश्वविद्यालय के प्रोफेसर ने रासो और तमाम इतिहासिक सक्सों का अध्ययन करके पृथ्वीराज चौहान को एक क्षत्रिय राजपूत बताया है[१][२] तथा उनके दादा अनंगपाल के भी राजपूत होने के तमाम सक्श सबके सामने रखे[१] ,इसकी तमाम जानकारी भारतीय सरकार के वेबसाइट पे है[१]

"पृथ्वीराजरासो ढाई हजार पृष्ठों का बहुत बड़ा ग्रंथ है तिवारीजी लिखित जिसमें ६९ समय (सर्ग या अध्याय) हैं। प्राचीन समय में प्रचलित प्रायः सभी छन्दों का इसमें व्यवहार हुआ है। मुख्य छन्द हैं - कवित्त (छप्पय), दूहा (दोहा), तोमर गोत्र (राजपूत)[१],त्रोटक, गाहा और आर्या। जैसे कादम्बरी के सम्बन्ध में प्रसिद्ध है कि उसका पिछला भाग बाण भट्ट के पुत्र ने पूरा किया है, वैसे ही पृथ्वीराजरासो के पिछले भाग का भी चंद के पुत्र जल्हण द्वारा पूर्ण किया गया है। रासो के अनुसार जब शहाबुद्दीन गोरी पृथ्वीराज को कैद करके ग़ज़नी ले गया, तब कुछ दिनों पीछे चंद भी वहीं गए। जाते समय कवि ने अपने पुत्र जल्हण के हाथ में रासो की पुस्तक देकर उसे पूर्ण करने का संकेत किया। जल्हण के हाथ में रासो को सौंपे जाने और उसके पूरे किए जाने का उल्लेख रासो में है -

पुस्तक जल्हण हत्थ दै चलि गज्जन नृपकाज।
रघुनाथनचरित हनुमंतकृत भूप भोज उद्धरिय जिमि।
पृथिराजसुजस कवि चंद कृत चंदनंद उद्धरिय तिमि॥ "[३]

पृथ्वीराजरासो में दिए हुए संवतों का अनेक स्थानों पर ऐतिहासिक तथ्यों के साथ मेल न खाने के कारण अनेक विद्वान पृथ्वीराज के समसामयिक किसी कवि की रचना होने में संदेह करते है और उसे १६वीं शताब्दी में लिखा हुआ ग्रंथ ठहराते हैं।[४] इस रचना की सबसे पुरानी प्रति बीकानेर के राजकीय पुस्तकालय मे मिली है, कुल ३ प्रतियाँ है। रचना के अन्त मे पृथ्वीराज द्वारा शब्द-भेदी बाण चला कर गौरी को मारने की बात भी की गयी है।

परिचय

पृथ्वीराजरासो रासक परम्परा का एक काव्य है। जैसा इसके नाम से ही प्रकट है, दिल्ली के अंतिम हिंदू सम्राट् पृथ्वीराज के जीवन की घटनाओं को लेकर लिखा गया हिंदी का एक ग्रंथ जो चंदवरदाई राव का लिखा माना जाता रहा है। पहले इस काव्य के एक ही रूप से हिंदी जगत्‌ परिचित था, जो संयोग से रचना का सबसे अधिक विशाल रूप था, इसमें लगभग ग्यारह हजार रूपक आते थे। उसके बाद रचना का एक उससे छोटा रूप कुछ प्रतियों में मिला, जिसमें लगभग साढ़े तीन हजार रूपक थे। उसके भी बाद एक रूप कुछ प्रतियों में प्राप्त हुआ जिसमें कुल रूपकसंख्या बारह सौ से अधिक नहीं थी। तदनन्तर दो प्रतियाँ उसकी ऐसी भी प्राप्त हुई जिनमें क्रमशः चार सौ और साढ़े पाँच सौ रूपक ही थे। ये सभी प्रतियाँ रचना के विभिन्न पूर्ण रूप प्रस्तुत करती थीं। रचना के कुछ खंडों की प्रतियाँ भी प्राप्त हुई हैं, जिनका संबंध उपर्युक्त प्रथम दो रूपों से रहा है। अत: स्वभावतः यह विवाद उठा कि उपर्युक्त विभिन्न पूर्ण रूपों का विकास किस प्रकार हुआ।

कुछ विद्वानों ने इससे सर्वथा भिन्न मत प्रकट किया। उन्होंने कहा कि सबसे बड़ा रूप ही रचना का मूल रूप रहा होगा और उसी से उत्तरोत्तर अधिकाधिक छोटे रूप संक्षेपों के रूप में बनाकर प्रस्तुत किए गए होंगे। इन्होंने इसका प्रमाण यह दिया कि रचना का कोई रूप, यहाँ तक कि सबसे छोटा रूप भी, अनैतिहासिकता से मुक्त नहीं है। किंतु इस विवाद को फिर यहीं पर छोड़ दिया गया और इसको हल करने का कोई प्रयास बहुत दिनों तक नहीं किया गया। इसका प्रथम उल्लेखनीय प्रयास 1955 में हुआ जब एक विद्वान ने पृथ्वीराज रासो के तीन पाठों का आकार संबंध (हिंदी अनुशीलन, जनवरी-मार्च 1955) शीर्षक लेख लिकर यह दिखाया कि पृथ्वीराज और उसके विपक्ष के बलाबल को सूचित करनेवाली जो संख्याएँ रचना के तीन विभिन्न पाठों : सबसे बड़े (बृहत्‌), उससे छोटे (मध्यम) और उससे भी छोटे (लघु) में मिलती हैं उनमें समानता नहीं है और यदि समग्र रूप से देखा जाय तो इन संख्याओं के संबंध में अत्युक्ति की मात्रा भी उपर्युक्त क्रम में ही उत्तरोत्तर कम मिलती है। यदि ये पाठ बृहत्‌मध्यमलघुलघुतम क्रम में विकसित हुए होते, तो संक्षेप क्रिया के कारण बलाबल सूचक संख्याओं में कोई अंतर न मिलता। इसलिये यह प्रकट है कि प्राप्त रूपों के विकास का क्रम लघुतमलघुमध्यमबृहत्‌ है। प्रबंध की दृष्टि से यदि हम रचना की उक्ति-शृंखलाओं और छंद-शृंखलाओं तथा प्रसंग-शृंखलाओं पर ध्यान दें तो वहाँ भी देखेंगे कि ये शृंखलाएँ लघुतम-लघु-मध्यम-बृहत्‌ क्रम में ही उत्तरोत्तर अधिकाधिक टूटी हैं और बीच-बीच में इसी क्रम से अधिकाधिक छंद और प्रसंग प्रक्षेपकर्ताताओं के द्वारा रखे गए हैं।

कथा

'पृथ्वीराजरासो' की कथा संक्षेप में इस प्रकार है : पृथ्वीराज जिस समय दिल्ली के सिंहासन पर था, कन्नौज के राजा जयचन्द ने राजसूय यज्ञ करने का निश्चय किया और इसी अवसर पर उसने अपनी कन्या संयोगिता का स्वयंवर भी करने का संकल्प किया। राजसूय का निमंत्रण उसने दूर दूर तक के राजाओं को भेजा और पृथ्वीराज को भी उसमें सम्मिलित होने के लिये आमंत्रित किया। पृथ्वीराज और उसके सामन्तों को यह बात खली कि बहुराजाओं के होते हुए भी कोई अन्य राजसूय यज्ञ करे और पृथ्वीराज ने जयचंद का निमंत्रण अस्वीकार कर दिया। जयचन्द ने फिर भी राजसूय यज्ञ करना ठानकर यज्ञमण्डप के द्वार पर द्वारपाल के रूप में पृथ्वीराज की एक प्रतिमा स्थापित कर दी। पृथ्वीराज स्वभावत: इस घटना से अपमान समझकर क्षुब्ध हुआ। इसी बीच उसे यह भी समाचार मिला कि जयचंद की कन्या संयोगिता ने पिता के वचनों की उपेक्षा कर पृथ्वीराज को ही पति रूप में वरण करने का संकल्प किया है और जयचंद ने इसपर क्रुद्ध होकर उसे अलग गंगातटवर्ती एक आवास में भिजवा दिया है।

इन समाचारों से संतप्त होकर वह राजधानी के बाहर आखेट में अपना समय किसी प्रकार बिता रहा था कि उसकी अनुपस्थिति से लाभ उठाकर उसके मंत्री कैवास ने उसकी एक करनाटी दासी से अनुचित संबंध कर लिया और एक दिन रात को उसके कक्ष में प्रविष्ट हो गया। पट्टराज्ञी को जब यह बात ज्ञात हुई, उसने पृथ्वीराज को तत्काल बुलवा भेजा और पृथ्वीराज रात को ही दो घड़ियों में राजभवन में आ गया। जब उसे उक्त दासी के कक्ष में कैंवास को दिखाया गया, उसने रात्रि के अंधकार में ही उन्हें लक्ष्य करके बाण छोड़े। पहला बाण तो चूक गया किंतु दूसरे बाण के लगते ही कैंवास धराशायी हो गया। रातों-रात दोनों को एक गड्ढे में गड़वाकर पृथ्वीराज आखेट पर चला गया, फिर दूसरे दिन राजधानी को लौटा। कैंवास की स्त्री ने चंद से अपने मृत पति का शव दिलाने की प्रार्थना की तो चंद ने पृथ्वीराज से यह निवेदन किया। पृथ्वीराज ने चंद का यह अनुरोध इस शर्त पर स्वीकार किया कि वह उसे अपने साथ ले जाकर कन्नौज दिखाएगा। दोनों मित्र कसकर गले मिले ओर रोए। पृथ्वीराज ने कहा कि इस अपमानपूर्ण जीवन से मरण अच्छा था और उसके कविमित्र ने उसकी इस भावना का अनुमोदन किया। कैंवास का शव लेकर उसकी विधवा सती हो गई।

चंद के साथ थवाइत्त (तांबूलपात्रवाहक) के शेष में पृथ्वीराज ने कन्नौज के लिए प्रयाण किया। साथ में सौ वीर राजपूत सामंतों सैनिकों को भी उसने ले लिया। कन्नौज पहुँचकर जयचंद के दरबार में गया। जयचंद ने उसका बहुत सत्कार किया और उससे पृथ्वीराज के वय, रूप आदि के संबंध में पूछा। चंद ने उसका जैसा कुछ विवरण दिया, वह उसके अनुचर थवाइत्त में देखकर जयचंद कुछ सशंकित हुआ। शंकानिवारणार्थ उसने कवि को पान अर्पित कराने के बहाने अन्य दासियों के साथ एक दासी को बुलाया जो पहले पृथ्वीराज की सेवा में रह चुकी थी। उसने पृथ्वीराज को थवाइत्त के वेष में देखकर सिर ढँक लिया। किंतु किसी ने कहा कि चंद पृथ्वीराज का अभिन्न सखा था, इसलिये दासी ने उसे देख सिर ढँक लिया और बात वहीं पर समाप्त हो गई। किंतु दूसरे दिन प्रात: काल जब जयचंद चंद के डेरे पर उससे मिलने गया, थवाइत्त को सिंहासन पर बैठा देखकर उसे पुन: शंका हुई। चंद ने बहाने करके उसकी शंका का निवारण करना चाहा और थवाइत्त से उसे पान अर्पित करने का कहा। पान देते हुए थवाइत्त वेशी पृथ्वीराज ने जो वक्र दृष्टि फेंकी, उससे जयचंद को भली भाँति निश्चय हो गया कि यह स्वयं पृथ्वीराज है और उसने पृथ्वीराज का सामना डटकर करने का आदेश निकाला।

इधर पृथ्वीराज नगर की परिक्रमा के लिये निकला। जब वह गंगा में मछलियों को मोती चुगा रहा था, संयोगिता ने एक दासी को उसको ठीक-ठीक पहचानने तथा उसके पृथ्वीराज होने पर अपना (संयोगिता का) प्रेम-निवेदन करने के लिये भेजा। दासी ने जब यह निश्चय कर लिया कि वह पृथ्वीराज ही है, उसने संयोगिता का प्रणय-निवेदन किया। पृथ्वीराज तदनंतर संयोगिता से मिला और दोनों का उस गंगातटवर्ती आवास में पाणिग्रहण हुआ। उस समय वह वहाँ से चला आया, किंतु अपने सामंतों के कहने पर वह पुन: जानकर संयोगिता का साथ लिवा लाया। जब उसने इस प्रकार संयोगिता का अपहरण किया, चंद ने ललकार कर जयचंद से कहा कि उसका शत्रु पृथ्वीराज उसकी कन्या का वरण कर अब उससे दायज के रूप में युद्ध माँग रहा था। परिणामत: दोनों पक्षों में संघर्ष प्रारंभ हो गया।

दो दिनों के युद्ध में जब पृथ्वीराज के अनेक योद्धा मारे गए, सामंतों ने उसे युद्ध की विधा बदलने की सलाह दी। उन्होंने सुझाया कि वह संयोगिता को लेकर दिल्ली की ओर बढ़े और वे जयचंद की सेना को दिल्ली के मार्ग में आगे बढ़ने से रोकते रहें जब तक वह संयोगिता को लेकर दिल्ली न पहुँच जाए। पृथ्वीराज ने इस स्वीकार कर लिया और अनेक सामंतों तथा शूर वीरों योद्धाओं की बलि के अनंतर संयोगिता को लेकर दिल्ली गया। जयचंद अपनी सेना के साथ कन्नौज लौट गया।

दिल्ली पहुँचकर पृथ्वीराज संयोगिता के साथ, विलासमग्न हो गया। छह महीने तक आवास से बाहर निकला ही नहीं, जिसके परिणामस्वरूप उसके गुरु, बांधव, भृत्यों तथा लोक में उसके प्रति असंतोष उत्पन्न हो गया। प्रजा ने राजगुरु से कष्ट का निवेदन किया तो राजगुरु चंद को लेकर संयोगिता के आवास पर गया। दोनों ने मिलकर पृथ्वीराज को गोरी के आक्रमण की सूचिका पत्रिका भेजी और संदेशवाहिका दासी से कहला भेजा : 'गोरी रत्त तुअ धरा तू गोरी अनुरत्त।' राजा की विलासनिद्रा भंग हुई और वह संयोगिता से विदा होकर युद्ध के लिये निकल पड़ा।

शहाबुद्दीन इस बार बड़ी भारी सेना लेकर आया हुआ था। पृथ्वीराज के अनेक शूर योद्धा और सामंत कन्नोज युद्ध में ही मारे जा चुके थे। परिणामत: पृथ्वीराज की सेना रणक्षेत्र से लौट पड़ी और शाहबुद्दीन विजयी हुआ। पृथ्वीराज बंदी किया गया और गजनी ले जाया गया। वहाँ पर कुछ दिनों बाद शहाबुद्दीन ने उसकी आँखें निकलवा लीं।

जब चंद पृथ्वीराज के कष्टों का समाचार मिला, वह गजनी अपने मित्र तथा स्वामी के उद्धार के लिये अवधूत के वेष में चल पड़ा। वह शहाबुद्दीन से मिला। वहाँ जाने का कारण पूछने पर उसने बताया कि अब वह बदरिकाश्रम जाकर तप करना चाहता था किंतु एक साध उसके जी में शेष थी, इसलिये वह अभी वहाँ नहीं गया था। उसने पृथ्वीराज के साथ जन्म ग्रहण किया था और वे बचपन में साथ साथ ही खेले कूदे थे। उसी समय पृथ्वीराज ने उससे कहा था कि वह सिंगिनी के द्वारा बिना फल के बाध से ही सात घड़ियालों को एक साथ बेध सकता था। उसका यह कौशल वह नहीं देख सका था और अब देखकर अपनी वह साध पूरी करना चाहता था। गोरी ने कहा कि वह तो अंधा किया जा चुका है। चंद ने कहा कि वह फिर भी वैसा संधानकौशल दिखा सकता है, उसे यह विश्वास था। शहाबुद्दीन ने उसकी यह माँग स्वीकार कर ली और तत्संबंधी सारा आयोजन कराया। चंद के प्रोत्साहित करने पर जीवन से निराश पृथ्वीराज ने भी अपना संघान कौशल दिखाने के बहाने शत्रु के वध करने का उसका आग्रह स्वीकार कर लिया। पृथ्वीराज से स्वीकृति लेकर चंद शहाबुद्दीन के पास गया और कहा कि वह लक्ष्यवेध तभी करने को तैयार हुआ है जब वह (शहाबुद्दीन) स्वयं अपने मुख से उसे तीन बार लक्षवेध करने का आह्वाहन करे। शहाबुद्दीन ने इसे भी स्वीकार कर लिया। शाह ने दो फर्मान दिए, फिर तीसरा उसने ज्यों ही दिया पृथ्वीराज के बाण से विद्ध होकर वह धराशायी हुआ। पृथ्वीराज का भी अंत हुआ। देवताओं ने उस पर पुष्पवृष्टि की और पृथ्वी ने म्लेच्छा गोरी से त्राण पाकर हर्ष प्रकट किया।

यहाँ पर 'पृथ्वीराजरासो' की कथा समाप्त होती है।

रचनाकाल

जयचंद से हुए कहे गए पृथ्वीराज के युद्ध के संबंध में कोई निश्चित ऐतिहासिका समर्थन अभी तक नहीं प्राप्त हो सका है। पृथ्वीराज अजमेर का शासक था; दिल्ली का शासक कोई गोविंदराय या खांडेराय था जो पृथ्वीराज की ओर से दोनों युद्धों से लड़ा था ओर दूसरे युद्ध में मारा गया था। मुसलमान इतिहासकारों के अनुसार गोरी से पृथ्वीराज के केवल दो युद्ध हुए थे, 'रासो' के अनुसार कम से कम चार युत्र हुए थे¾ जिनमें से तीन में शहाबुद्दीन पराजित हुआ था और बंदी किया गया था। मुसलमान इतिहासकारों के अनुसार पृथ्वीराज पराजित होने के अनंतर सरस्वती के निकट पकड़ा गया और मारा गया था, जबकि 'रासो' के अनुसार वह श्हाबुद्दीन को गजनी में उपर्युक्त प्रकार से मारकर मरा था। ये अनैतिहासिक उल्लेख और विवरण 'पृथ्वीराजरासो' के समस्त रूपों में पाए जाते हैं और इनमें से अधिकरतर उसके ताने बाने के हैं, इसलिये उसके किसी भी पुनर्निमित रूप में भी पाए जाण्‌एँगे। इसलिये यह मानना ही पड़ेगा कि उसका कोई भी रूप पृथ्वीराज की समकालीन रचना नहीं हो सकता है।

प्रश्न यह है कि 'रासो' किस समय की रचना मानी जा सकता है। कुछ समय हुआ, प्रसिद्ध अन्वेषी विद्वान्‌ मुनि जिनविजय को जैन भांडरों में दो 'जैन प्रबंध' संग्रहों की एक एक प्रति मिली, जिनमें 'पृथ्वीराज प्रबंध' और 'जयचंद प्रबंध' सकलित थे। इन प्रबंधों में जो छंद उद्धृत थे उनमें से कुछ 'पृथ्वीराज रासो' में भी मिले, यद्यपि इन उद्धरणों की भाषा में 'रासो' की भाषा की अपेक्षा प्राचीनता अधिक सुरक्षित थी। दोनों प्रतियों में 'पृथ्वीराज प्रबंध' प्राय: अभिन्न था और एक प्रबंधसंग्रह की प्रति सं. 1528 की थी। इनसे मुनि जी ने यह परिणाम निकाला कि चंद अवश्य ही पृथ्वीराज का समकालीन और उसका राजकवि था। किंतु इतने से ही यह परिणाम निकालना तर्कसंगत न होगा। इन तथ्यों के आधार पर हम इतना ही कह सकते हैं कि चंद को रचना का कोई न कोई रूप संवत् 1528 के पहले प्राप्त था, जिससे लेकर वे छंद उक्त 'पृथ्वीराजप्रबंध' में उद्धृत किए गए। वह रूप सं. 1528 के कितने पूर्व निर्मित हुआ होगा इसके संबंध में कुछ अनुमान से ही कहा जा सकता है, जिसके लिये निम्नलिखित आधार लिए जा सकते हैं :

  • (1) दोनों संग्रहों की प्रतियाँ उनके संग्रहकारों के हस्तलेखों में नहीं हैं, इसलिए संग्रहकारों की कृतियों उनकी प्रतियों के पूर्व की होगीं।
  • (2) दोनों संग्रहों में 'पृथ्वीराजप्रबंध' प्राय: समान पाठ के साथ मिलता है, इसलिये दोनों प्रबंधसंग्रहों में उसे किसी पूर्ववर्ती सामान्य आधारभूत प्रबंधसंग्रह से लिया गया होगा।
  • (3) जिस काव्य से उपर्युक्त छंद लिए गए होंगे, वह इस सामान्य आधारभूत प्रबंधसंग्रह के पूर्व कभी रचा गया होगा।

उद्धृत छंदों में से एक 'रासो' के लघुतम पाठ की प्रतियों में नहीं मिलता है उसमें कैंवास को 'व्यास' (बुद्धिमान) और वशिष्ठ (श्रेष्ठ) कहा गया है, जबकि 'रासो' के समस्त रूपों में उसके कर्नाटी दासी के साथ अनुचित प्रेम की कथा दी गई है, जिससे प्रकट है कि यह छंद मूल रचयिता उपर्युक्त आधारभूत प्रबंधलेखक को प्राप्त थी, वह प्रक्षिप्त था; रचना का मूल रूप उसके भी पूर्व का होना चाहिए।

यदि मान लिया जाय कि रचना का उक्त प्रक्षिप्त रूप उसके मूल रूप के लगभग 50 वर्ष बाद का होगा, आधारभूत पूर्वज संग्रह उसके भी लगभग 25 वर्ष बाद तैयार किए गए होंगे और प्राप्त प्रतियाँ उक्त दोनों प्रबंधसंग्रहों के तैयार होने के भी लगभग पचीस वर्ष बाद की होंगी, तो मूल काव्यरचना सं. 1400 के लगभग की मानी जा सकती है। समय के इस अनुमान में कहीं पर उदारता नहीं बरती गई है, इसलिये मूल रचना की तिथि इसके बहुत बाद नहीं टल सकती है। रचना की भाषा का जो रूप प्रबंधसंग्रहों के उदाहरणों में तथा रचना के लघुतम रूपों की प्रतियों में मिलता है, वह भी सं. 1400 के आस पास का ज्ञात होता है, इसलिये भाषा का साक्ष्य भी उपर्युक्त परिणाम की पुष्टि करता है।

काव्यगत विशेषताएँ

“पृथ्वीराज रासो” हिन्दी का प्रथम महाकाव्य माना जाता है। यह वीर रस का हिंदी का सर्वश्रेष्ठ काव्य है। हिंदी साहित्य में वीर चरित्रों की जैसी विशद कल्पना इस काव्य में मिली वैसी बाद में कभी नहीं दिखाई पड़ी। पाठक रचना भर में उत्साह की एक उमड़ती हुई सरिता में बहता चलता है। कन्नौज युद्ध के पूर्व संयोगिता के अनुराग और विरह तथा उक्त युद्ध के अनन्तर पृथ्वीराज संयोगिता के मिलन और केलि विलास के जो चित्र रचना में मिलते हैं, वे अत्यन्त आकर्षक हैं। अन्य रसों का भी इस महाकाव्य में अभाव नहीं है। रचना का वर्णनवैभव असाधारण है; नायक-नायिका के संभोग समय का षड्ऋतु वर्णन कहीं-कहीं पर संश्लिष्ट प्रकृतिचित्रण के सुंदर उदाहरण प्रस्तुत करता है। भाषाशैली सर्वत्र प्रभावपूर्ण है और वर्ण्य विषय के अनुरूप बदलती रहती है।

महाकाव्य होते हुए भी पृथ्वीराजरासो में प्रबन्ध-निर्वाह का अभाव है। यह भारतीय जीवन की झाँकी नहीं प्रस्तुत कर पाता। इसकी कथा कहीं-कहीं चंद और उसकी पत्नी के बाद-विवाद के रूप में तथा कहीं शुक-शुकी के संवाद के रूप में चलती है। इस ग्रन्थ में शृंगार तथा वीर रस की प्रधानता है। शृंगार के हाव-भाव को प्रकृति के उद्दीपन के माध्यम से प्रस्तुत किया गया है। युद्ध क्षेत्र का वर्णन बड़े ही कौशल के साथ किया गया है। उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा आदि अलंकारों का प्रयोग भी अधिक हुआ है।

नाना प्रकार की भाषाएँ इस ग्रन्थ में मिलती हैं। बहुत से शब्द तो ऐसे मिलते है जो उस समय के लिखे ही नहीं जान पड़ते। कुछ विद्वान इसके शुक-शुकी-संवाद को ही ग्रन्थ का मूल समझते हैं, शेष को अप्रमाणिक। हजारी प्रसाद द्विवेदी इसे अर्धप्रमाणिक रचना माना है। उनका कहना है-

इस रासो का काव्य रूप दसवीं शताब्दी के साहित्य के काव्य रूप से समानता रखता है। इसकी संवाद परवृति और रासो प्रवृति कीर्तिलता से साम्य रखती है। पृथ्वीराज और जयचन्द के परस्पर शत्रुता का कारण चाहे संयोगिता-अपहरण हो या न हो ,किन्तु कवि ने रसराज की अभिव्यक्ति के लिए सुन्दर प्रसंग ढ़ूंढ़ निकाला है। युद्धों का कारण किसी नारी को कल्पित करके जहाँ एक ओर प्रेम प्रसंगों को खड़ा किया है वहीं विशुद्ध द्वेष की अभिव्यक्ति को क्षीण नहीं होने दिया है। पृथ्वीराज का गोरी को बार-बार क्षमा कर देना भले ही ऐतिहासिक न हो, किन्तु इससे नायक के चरित्र की उदारता का अभीष्ट परभाव पाठकों के हृदयपटल पर अंकित हो जाता है।

चन्दवरदाई के काव्य की भाषा पिंगल थी जो कालान्तर में बृज भाषा के रूप में विकसित हुई। इस काव्य में चरित्र चित्रण के साथ वीर रस और शृंगार रस का मोहक समन्वय है। पृथ्वीराज रासो के कुछ अंश यहाँ प्रस्तुत हैं–

पद्मसेन कूँवर सुघर ताघर नारि सुजान।
ता उर इक पुत्री प्रकट, मनहुँ कला ससभान॥
मनहुँ कला ससभान कला सोलह सो बन्निय।
बाल वैस, ससि ता समीप अम्रित रस पिन्निय॥
बिगसि कमल-स्रिग, भ्रमर, बेनु, खंजन, म्रिग लुट्टिय।
हीर, कीर, अरु बिंब मोति, नष सिष अहि घुट्टिय॥
छप्पति गयंद हरि हंस गति, बिह बनाय संचै सँचिय।
पदमिनिय रूप पद्मावतिय, मनहुँ काम-कामिनि रचिय॥
मनहुँ काम-कामिनि रचिय, रचिय रूप की रास।
पसु पंछी मृग मोहिनी, सुर नर, मुनियर पास॥
सामुद्रिक लच्छिन सकल, चौंसठि कला सुजान।
जानि चतुर्दस अंग खट, रति बसंत परमान॥
सषियन संग खेलत फिरत, महलनि बग्ग निवास।
कीर इक्क दिष्षिय नयन, तब मन भयो हुलास॥
मन अति भयौ हुलास, बिगसि जनु कोक किरन-रबि।
अरुन अधर तिय सुघर, बिंबफल जानि कीर छबि॥
यह चाहत चष चकित, उह जु तक्किय झरंप्पि झर।
चंचु चहुट्टिय लोभ, लियो तब गहित अप्प कर॥
हरषत अनंद मन मँह हुलस, लै जु महल भीतर गइय।
पंजर अनूप नग मनि जटित, सो तिहि मँह रष्षत भइय॥
तिहि महल रष्षत भइय, गइय खेल सब भुल्ल।
चित्त चहुँट्टयो कीर सों, राम पढ़ावत फुल्ल॥
कीर कुंवरि तन निरषि दिषि, नष सिष लौं यह रूप।
करता करी बनाय कै, यह पद्मिनी सरूप॥
कुट्टिल केस सुदेस पोहप रचयित पिक्क सद।
कमल-गंध, वय-संध, हंसगति चलत मंद मंद॥
सेत वस्त्र सोहे सरीर, नष स्वाति बूँद जस।
भमर-भमहिं भुल्लहिं सुभाव मकरंद वास रस॥
नैनन निरषि सुष पाय सुक, यह सुदिन्न मूरति रचिय।
उमा प्रसाद हर हेरियत, मिलहि राज प्रथिराज जिय॥

विभिन्न संस्करण

  • पृथ्वीराज रासो : कुछ खंड, बंगाल एशियाटिक सोसाइटी, कलकत्ता;
  • पृथ्वीराजरासो : सं. मोहनलाल विष्णुलाल पंड्या, नागरीप्रचारिणी सभा, काशी;
  • संक्षिप्त पृथ्वीराजरासो: संपादक हजारीप्रसाद द्विवेदी तथा नामवर सिंह, साहित्य भवन लि., प्रयाग;
  • पृथ्वीराजरासो : संपादक कविराय मोहन, साहित्य संस्थान, संस्थान, राजस्थान विश्व विद्यापीठ, उदयपुर;
  • विपिनबिहारी त्रिवेदी : चंद बरदायी और उनका काव्य, हिंदुस्तानी एकेडेमी एकेडेमी प्रयाग;
  • रासो समीक्षा : सदाशिव दीक्षित, मोतीलाल बनारसीदास, नैपाली खपड़ा, वाराणसी;
  • पृथ्वीराज-विजय : संपादक गौरीशंकर हीराचंद ओझा, अजमेर ;
  • पुरातन प्रबध संग्रह : संपादक मुनि जिनविजय, भारतीय विद्याभवन, बंबई ;
  • हम्मीर महाकाव्य (जयचंद्र सूरिकृत) : संपादक नीलकठ जनार्दन कीर्तने : एजुकेशन सोसाइटी प्रेस, बंबई;
  • सुर्जन चरित महाकाव्य (चंद्रशेखर कृत) : संपादक डॉ॰ चंद्रधर शर्मा, हिंदू विश्वविद्यालय, वाराणसी;
  • पृथ्वीराज रासउ : संपादक माता प्रसाद गुप्त, साहित्य सदन, चिरगाँव, झाँसी।

नागरी प्रचारिणी सभा संस्करण

मोहनलाल विष्णुलाल पंड्या और श्यामसुन्दर दास के संपादन में नागरी प्रचारिणी सभा ने दो खंडों में पृथ्वीराज रासो का प्रकाशन किया। 1993 में मानव संसाधन और विकास मंत्रालय के सहयोग से इसका पुनर्मुद्रण किया गया।

सन्दर्भ

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इन्हें भी देखें

बाहरी कड़ियाँ