पित्ताशय का कर्कट रोग

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पित्ताशय का कर्कट रोग
वर्गीकरण व बाहरी संसाधन
आईसीडी-१० C23.-C24.
आईसीडी- 156
एमईएसएच D005706

पित्ताशय का कर्कट रोग एक प्रकार का कम घटित होने वाला कर्कट रोग है। भौगोलिक रूप से इसकी व्याप्ति विचित्र है - उत्तरी भारत, जापान, केंद्रीय व पूर्वी यूरोप, केंद्रीय व दक्षिण अमरीका में अधिक देखा गया है; कुछ खास जातीय समूहों में यह अधिक पाया जाता है - उ. उत्तर अमरीकी मूल निवासियों में और हिस्पैनिकों में।[१] जल्दी निदान होने पर पित्ताशय, यकृत का कुछ अंश और लसीकापर्व निकाल के इसका इलाज किया जा सकता है। अधिकतर इसका पता उदरीय पीड़ा, पीलिया और उल्टी आने, जैसे लक्षणों से पता चलता है और तब तक यह यकृत जैसे अन्य अंगों तक फैल चुका होता है।

यह काफ़ी विरला होने वाला कर्कट रोग है और इसका अध्ययन अभी भी हो रहा है। पित्ताशय में पथरी होने से इसका संबंध माना जा रहा है, इससे पित्ताशय का कैल्सीकरण भी हो सकता है ऐसी स्थिति को चीनीमिट्टी पित्ताशय कहते हैं। चीनीमिट्टी पित्ताशय भी काफ़ी विरला होने वाला रोग है। अध्ययनों से यह पता चल रहा है कि चिनीमिट्टी पित्ताशय से ग्रस्त लोगों में पित्ताशय का कर्कट रोग होने की अधिक संभावना है, लेकिन अन्य अध्ययन इसी निष्कर्ष पर सवालिया निशान भी लगाते हैं। अगर कर्कट रोग के बारे में लक्षण प्रकट होने के बाद पता चलता है तो स्वास्थ्य लाभ की संभावना कम है।

जोखिम कारक

चिह्न व लक्षण

प्रारंभिक लक्षण पित्ताशय की पथरी में होने वाले पित्ताशय के सूजन जैसे ही होते हैं। बाद के लक्षण पेट में अटकाव संबंधी व पित्त नली से संबंधित हो सकते हैं।

रोग का चक्र

अधिकतर अर्बुद अडेनोकार्सिनोमा होते हैं और कुछ फ़ीसदी स्क्वैमस कोशिका के कर्कट होते हैं। यह कर्कट प्रायः यकृत, पित्त नली, आमाशयलघ्वांत्राग्र में फैल जाता है।

निदान

कोलीसिस्टेक्टोमी के बाद संयोगवश मिला पित्ताशय का कर्कट (एडेनोकार्सिनोमा)। एच व ई स्टेन

प्रारंभिक अवस्था में निदान आमतौर पर संभव नहीं होता है। अधिक जोखिम वाले लोग, जैसे पित्ताशय की पथरी वाली महिलाएं या मूल अमरीकियों का अधिक बारीकी से आकलन किया जाता है। अंतर-औदरीय अल्ट्रासाउंड, सीटी स्कैन, गुहांतर्दर्शी अल्ट्रासाउंड, एमआरआई और एमआर कोलेंजियो-पेंक्रियेटोग्राफ़ी (एमआरसीपी) के जरिए निदान किया जा सकता है।

उपचार

सबसे आम और प्रभावी उपचार पित्ताशय को शल्य क्रिया द्वारा निकालना (कोलेसिस्टेक्टोमी) है, इसमें यकृत के एक अंश और लसीकापर्व का विच्छेदन होता है। लेकिन पित्ताशय के कर्कट रोग का पूर्वानुमान अत्यंत कमज़ोर होने की वजह से अधिकतर मरीज़ शल्यक्रिया के एक साल के अंदर मर जाते हैं। यदि शल्यक्रिया संभव न हो तो पित्तीय वृक्ष में गुहांतर्दर्शी विधि से नली लगाने से पांडुरोग घट सकता है और आमाशय में नली लगाने से उल्टी आना कम हो सकता है। शल्यक्रिया के साथ कीमोथेरेपीविकिरण का भी इस्तेमाल हो सकता है। यदि पथरी के लिए पित्ताशय निकालने के बाद पित्ताशय के कर्कट रोग का पता चलता है (प्रासंगिक कर्कट रोग) तो अधिकतर समय यकृत का हिस्सा और लसीकापर्व को निकालने के लिए फिर से शल्यक्रिया की ज़रूरत पड़ती है - यह जल्द से जल्द कर देना चाहिए क्योंकि ऐसे मरीज़ो में लंबे समय तक बचाव की सबसे अच्छी संभावना होते है, यहाँ तक कि उपचार की भी।[२]

अतिरिक्त छवियाँ

सन्दर्भ

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बाहरी कड़ियाँ

  1. वीके कपूर, एजे. मॅकमाइकल पित्ताशय का कर्कट रोग - एक भारतीय रोग। भारतीय राष्ट्रीय चिकित्सा पत्रिका २००३; १६: २०९-२१३।
  2. वीके कपूर। प्रासंगिक पित्ताशय का कर्कट रोग। गैस्ट्रोएंटरोलॉजी की अमरीकी पत्रिका २००१; ९६: ६२७-६२९।