नुक्कड़ नाटक

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पुणे के एक पार्क में नुक्कड़-नाटक का दृश्य

नुक्‍कड़ नाटक एक ऐसी नाट्य विधा है, जो परंपरागत रंगमंचीय नाटकों से भिन्‍न है। यह रंगमंच पर नहीं खेला जाता तथा आमतौर पर इसकी रचना किसी एक लेखक द्वारा नहीं की जाती, बल्कि सामाजिक परिस्थितियों और संदर्भों से उपजे विषयों को इनके द्वारा उठा लिया जाता है। जैसा कि नाम से जाहिर है इसे किसी सड़क, गली, चौराहे या किसी संस्‍थान के गेट अथवा किसी भी सार्वजनिक स्‍थल पर खेला जाता है। इसकी तुलना सड़क के किनारे मजमा लगा कर तमाशा दिखाने वाले मदारी के खेल से भी की जा सकती है। अंतर यह है कि यह मजमा बुद्धिजीवियों द्वारा किसी उद्देश्‍य को सामने रख कर लगाया जाता है।[१] भारत में आधुनिक नुक्कड़ नाटक को लोकप्रिय बनाने का श्रेय सफ़दर हाशमी को जाता है। उनके जन्म दिवस १२ अप्रैल को देशभर में राष्ट्रीय नुक्कड़ नाटक दिवस के रूप में मनाया जाता है।[२]

नुक्कड़-नाटक का इतिहास

साँचा:main यों तो नाटक और रंगमंच की शुरुआत ही खुले में हुई अर्थात नुक्कड़ ही वह पहला स्थान था जो नाटकों के खेलने में इस्तेमाल हुआ। आदिम युग में सब लोग दिन भर काम से थक जाने के बाद मनोरंजन के लिए कही खुले में एक घेरा बनाकर बैठ जाते थे और उस घेरे के बीचों-बीच ही उनका भोजन पकता रहता, खान-पान होता और वही बाद में नाचना-गाना होता। इस प्रकार शुरू से ही नुक्कड़ नाटकों से जुड़े तीन ज़रूरी तत्वों की उपस्थिति इस प्रक्रिया में भी शामिल थी - प्रदर्शन स्थल के रूप में एक घेरा, दर्शकों और अभिनेताओं का अंतरंग सम्बंध और सीधे-सीधे दर्शकों की रोज़मर्रा की जिंद़गी से जुड़े कथानकों, घटनाओं और नाटकों का मंचन।[३] मध्यकाल में सही रूप में नुक्कड़ नाटकों से मिलती-जुलती नाट्य-शैली का जन्म और विकास भारत के विभिन्न प्रांतों, क्षेत्रों और बोलियों-भाषाओं में लोक नाटकों के रूप में हुआ। उसी के समांतर पश्चिम में भी चर्च अथवा धार्मिक नाटकों के रूप में इंग्लैंड, फ्रांस, जर्मनी और स्पेन आदि देशों में ऐसे नाटकों का प्रचलन शुरू हुआ जो बाइबिल की घटनाओं पर आधारित होते थे। आधुनिक युग में जिस रूप में हम नुक्कड़ नाटकों को जानते है, उनका इतिहास भारत के स्वाधीनता संग्राम के दौरान कौमी तरानों, प्रभात फेरियों और विरोध के जुलूसों के रूप में देखा जा सकता है।[४] इसी का एक विधिवत रूप इप्टा जैसी संस्था के जन्म के रूप में सामने आया, जब पूरे भारत में अलग-अलग कला माध्यमों के लोग एक साथ आकर मिले और क्रांतिकारी गीतों, नाटकों व नृत्यों के मंचनों और प्रदर्शनों से विदेशी शासन एवं सत्ता का विरोध आरंभ हुआ।

नुक्कड़ नाटकों के लोकप्रिय विषय

जन सामान्य से जुड़ी समस्याएँ और उनका निराकरण नुक्कड़ नाटकों के लोकप्रिय विषय हैं। ये राजनीतिक, सामाजिक या सास्कृतिक हो सकते हैं। गलत व्यवस्था का विरोध और उसके समांतर एक आदर्श व्यवस्था क्या हो सकती है - यही वह संरचना है, जिस पर नुक्कड़ नाटक की धुरी टिकी हुई है। कभी वह किस्से-कहानियों का प्रचार था, कभी धर्म और कभी राजनैतिक विचारधारा। किसी भी युग और काल में इस तथ्य को रेखांकित कर सकते हैं। आज बड़ी-बड़ी व्यावसायिक-व्यापरिक कंपनियां अपने उत्पादनों के प्रचार के लिए नुक्कड़ नाटकों का प्रयोग कर रही हैं, सरकारी तंत्र अपनी नीतियों-निर्देशों के प्रचार के लिए नुक्कड़ नाटक जैसे माध्यम का सहारा लेता है और राजनीतिक दल चुनाव के दिनों में अपने दल के प्रचार-प्रसार के लिए इस विधा की ओर आकर्षित होते हैं। ऐसे में नुक्कड़ नाटकों के बहुविध रूप और रंग दिखाई पड़ते है।

शास्त्रीय व सांस्कृतिक स्थिति

नाटक के क्षेत्र में नुक्‍कड़ नाटक को एक सांस्कृतिक विधा के रूप में स्थापित होनें में समय लगा। आरंभ में साहित्‍य और नाटकों के विद्वानों ने नुक्‍कड़ नाटक को शास्त्रीय नाट्य-विधा के रूप में स्‍वीकार करने संकोच प्रकट किया। इसे लोक-नाट्य की श्रेणी में रखा गया लेकिन पिछले तीन दशकों के दौरान नुक्‍कड़ नाटक काफी लोकप्रिय होते चले गए और कई नामचीन नाटककार और रंगकर्मी इससे जुड़ गए। सच तो यह है कि नुक्‍कड़ नाटकों ने पारंपरिक रंगमंचीय नाटकों को भी काफी प्रभावित कर दिया है। नाट्य प्रस्‍तुति का यह रूप जनता से सीधा संवाद स्‍थापित करने में सहायता करता है। इसमें दृश्‍य परिवर्तन नहीं होता और कलाकार विभिन्‍न संकेतों के माध्‍यम से इसकी सूचना देते हैं, जिसे दर्शक आसानी से समझ जाते हैं। नुक्‍कड़ नाटक आमतौर पर बेहद सटीक और संक्षिप्‍त होते हैं क्‍योंकि सड़क के किनारे स्‍वयं रुक कर नाटक देखने वाले दर्शकों को ज्‍यादा देर तक बांधकर रखना संभव नहीं होता। स्‍वर्गीय सफदर हाशमी एक विख्‍यात रंगकर्मी थे, जिन्‍होंने नुक्‍कड़ नाटकों को एक देशव्‍यापी पहचान दिलाने में सबसे महत्‍वपूर्ण भूमिका निभाई। कुछ वर्ष पूर्व उनकी हत्‍या कर दी गई थी। उन्‍होंने नुक्‍कड़ नाटकों के माध्‍यम से अनेक ज्‍वलंत मुद्दों को प्रभावी तरीके से आम जनता के सामने लाने का काम बखूबी किया। नुक्‍कड़ नाटकों की लोकप्रियता और उनके विकास का पता इस बात से चलता है कि अब से कोई तीन दशक पूर्व 'जन नाट्य मंच' की नाटक मंडली द्वारा खेले गए नुक्‍कड़ नाटक ‘औरत’ को हिंदी भाषी क्षेत्र में काफी ख्‍याति मिल चुकी थी। १९८० ई० के पहले ही इस नाटक के सैकड़ों प्रदर्शन हो चुके थे। कालांतर में इसके हजारों प्रदर्शन हुए और पड़ोसी देश rajsthan, बांग्लादेश और पाकिस्तान में भी इसकी अनेक प्रस्‍तुतियां हुईं।

आज नुक्कड़ नाटक लोकप्रियता की उस पराकाष्ठा पर है जहाँ फ़िल्में भी अपने प्रचार के लिए नुक्कड़ नाटक का सहयोग ले रही हैं। राजकुमार संतोषी की फिल्म हल्ला बोल के प्रचार-प्रसार के लिए विशेष रणनीति बनाई गए है। इस फिल्‍म को आम लोगों तक पहुंचाने के लिए नुक्‍कड़ नाटकों का सहारा लिया जाएगा। यह फ़िल्म प्रसिद्ध नुक्कड़ रंगकर्मी सफ़दर हाशमी के जीवन से प्रेरित है।[५]

बाहरी कड़ियाँ

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सन्दर्भ